जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के विचारार्थ कुछ बातें

     

जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के विचारार्थ कुछ बातें

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आधार आलेख


—कात्यायनी

गिनती के नज़रिये से अगर देखें तो कोई पर्यवेक्षक इस बात पर सन्तोष ज़ाहिर कर सकता है कि इस समय पूरे देश में नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाने वाले छोटे-बड़े संगठनों की संख्या दो दर्जन से भी कुछ अधिक ही है। यह भी सही है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली पुलिस दमन और राजनीतिक बंदियों के उत्पीड़न की घटनाओं, साम्प्रदायिक दंगों एवं नरसंहारों में हिन्दुत्ववादी ताकतों और शासन-प्रशासन की भूमिका, जाति एवं जेण्डर आधारित उत्पीड़न, बँधुआ मज़दूरी, बाल श्रम, मज़दूरों को उनके विधिसम्मत अधिकार नहीं मिलने जैसी घटनाओं, तथा कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत की जनता पर आधी सदी से भी अधिक समय से जारी अर्द्धफासिस्ट किस्म के परोक्ष सैनिक शासन पर आये दिन प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों और लेखों तथा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में प्रस्तुत याचिकाओं की संख्या आज अच्छी-खासी दीखती है। लेकिन इन गिनतियों से अलग हटकर जब हम इस बैलेन्स शीट की जाँच करते हैं कि पिछले करीब 30–35 वर्षों के दौरान जनवादी अधिकार आन्दोलन ने हमारे देश में सत्ता, समाज और संस्कृति के ताने-बाने को किस हद तक प्रभावित किया है, व्यापक जनसमुदाय की जनवादी चेतना को उन्नत बनाकर उसने किस हद तक उन्हें अपने जनवादी अधिकारों की हिफाजत के लिए जागरूक एवं सक्रिय बनाया है तथा किस हद तक अपना व्यापक सामाजिक आधार तैयार करके उसने एक जनान्दोलन की शक्ल अख़्तियार की है; तो हमें थोड़ी मायूसी का सामना करना पड़ता है।

आधार आलेख प्रस्‍तुत करती हुईं कात्‍यायनी

आधार आलेख प्रस्‍तुत करती हुईं कात्‍यायनी

किसी इलाका विशेष या पेशा विशेष के आम जनसमुदाय को जनवादी अधिकार आन्दोलन के अस्तित्व का अहसास तब होता है जब जनवादी अधिकार कर्मियों की कोई टीम जाँच-पड़ताल के लिए उनके पास पहुँचती है। वे लोग इन बुद्धिजीवियों को राजधानियों या महानगरों से आये ऐसे भलेमानुसों के रूप में देखते हैं जो उनके अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाते हैं या काले क़ानूनों का और सरकारी दमन-उत्पीड़न का विरोध करते हैं। पढ़े-लिखे, एक हद तक जागरूक मध्यवर्गीय लोग जनवादी अधिकार आन्दोलन को रिपोर्टें छापने, याचिकाएँ दाखिल करने, जाँच टीमें भेजने, हस्ताक्षर अभियान चलाने और ज्ञापन देने वाले प्रबुद्ध जनों के आन्दोलन के रूप में देखते हैं। सत्तापोषित अन्धराष्ट्रवाद और हिदुत्ववादी विचारधारा से प्रभावित मध्यवर्गीय लोग जनवादी अधिकार आन्दोलन को कथित “वामपन्थी” आतंकवाद, इस्लामिक कट्टरपन्थी आतंकवाद या जम्मू-कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत के कथित “राष्ट्रद्रोही” अलगाववादियों के बचाव दस्ते के रूप में देखते हैं।
कुछ ऐसे भी जनवादी अधिकार संगठन हैं, जो संकीर्णतावादी तरीके से किसी वाम संगठन के ‘फ्रण्टल आर्गनाइज़ेशन’ जैसी भूमिका निभाने लगते हैं। उनके लिए जनवादी अधिकार का मुद्दा महज कुछ एक राजनीतिक संगठनों के विरुद्ध राज्यसत्ता की दमनात्मक कार्रवाइयों का विरोध करने तक सीमित होकर रह जाता है। यह एक संकीर्णतावादी रुझान ही है कि प्रायः जनवादी अधिकार आन्दोलन को राजनीतिक आन्दोलनों के दमन के विरुद्ध मुहिम, बन्दी-मुक्ति अभियान और राजनीतिक लोगों पर विविध काले क़ानूनों के तहत फ़र्ज़ी मुकदमों का विरोध करने तक सीमित कर दिया जाता है। निश्चय ही यह एक बेहद ज़रूरी काम है, लेकिन जनवादी अधिकार आन्दोलन का काम मात्र इतना ही नहीं हो सकता। प्रश्न केवल आन्दोलन और प्रतिरोध के राजनीतिक अधिकार का ही नहीं है। प्रश्न व्यापक आम जनता के जनवादी और नागरिक अधिकारों का है। जब तक आम लोगों के सभी नागरिक और जनवादी अधिकारों के मुद्दों को प्रचार और उद्वेलन (प्रोपेगैण्डा ऐण्ड एजिटेशन) का मुद्दा नहीं बनाया जायेगा और इन मुद्दों पर उन्हें जागृत और लामबन्द नहीं किया जायेगा, तब तक जनवादी अधिकार आन्दोलन की छवि और संरचना राजनीतिक रूप से सचेत ऐसे शहरी बुद्धिजीवियों के आन्दोलन की बनी रहेगी, जो मात्र दौरा करने, रिपोर्टें जारी करने, ज्ञापन देने, हस्ताक्षर अभियान चलाने और याचिकाएँ दाख़िल करने का काम किया करते हैं।
आख़िर दिक़्क़त कहाँ पर है? शायद जनवादी अधिकार के प्रश्न को एक व्यापक सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक संरचनागत फ्रेमवर्क में अवस्थित करके नहीं देखा जाता, या यूँ कहें कि उसे प्रायः सही ढंग से ‘कंसेप्चुअलाइज़’ नहीं किया जाता या फिर प्रायः इस प्रश्न पर तात्कालिक और संकीर्ण उपयोगितावादी और ‘प्रैग्मेटिक’ नज़रिया अपनाया जाता है।
संयुक्त राज्य अमेरिका, फ्रांस और पश्चिमी यूरोप के कुछ दूसरे देशों में 1960 के दशक में नागरिक अधिकार आन्दोलन अश्वेतों के रंगभेद-विरोधी आन्दोलन, मध्यवर्गीय स्त्रियों के पुरुष वर्चस्ववाद-विरोधी नारीवादी आन्दोलन, छात्र आन्दोलन, युद्ध-विरोधी आन्दोलन, ट्रेड यूनियन आन्दोलन, और विद्रोही संगीत आन्दोलन की मिली-जुली लहर के साथ परवान चढ़ा था। वह पश्चिम में आर्थिक संकट के राजनीतिक संकट में ढलने और बुर्जुआ जनवाद की सीमाओं के संकुचन के कारण व्यापक मोहभंग का समय था। साथ ही, वह एशिया-अफ्रीका-लातिन अमेरिका के देशों में प्रचण्ड राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों के ज्वार का दौर था, जो पश्चिमी देशों की जनता को भी गहराई से प्रभावित कर रहा था। बाद में पश्चिमी सत्ता-तंत्रों ने इन विद्रोहों को किस प्रकार अनुकूलित करके पचा लिया, या वे किस तरह अपना संवेग खो बैठे, यह एक अलग कहानी है। लेकिन यह इतिहास की एक सच्चाई है कि पश्चिम का, उस दौर का नागरिक अधिकार आन्दोलन सच्चे अर्थों में एक आवेगमय जनान्दोलन था। चीन में क्रान्ति के दौरान मदाम सुड• चिड•-लिड• (सुन यात-सेन की पत्नी) के नेतृत्व में ‘नागरिक अधिकार लीग’ ने शहरी आबादी के बीच अच्छा-ख़ासा आधार विकसित कर लिया था। वहाँ परिस्थितियाँ तब ऐसी थीं कि कुओमिन्ताड•-शासन का निरंकुश स्वेच्छाचारी चरित्र नंगा हो चुका था और लोगों के सामने यह सच्चाई स्पष्ट करने का कार्यभार था कि एक लोक जनवादी शासन-व्यवस्था के अन्तर्गत ही जनता को जनवादी अधिकार हासिल हो सकते हैं। बुर्जुआ जनवाद का कोई विभ्रम वहाँ सामने मौजूद ही नहीं था।
भारत में नागरिक एवं जनवादी अधिकार आन्दोलन की पृष्ठभूमि सर्वथा भिन्न थी। 1970 के दशक में, विशेषकर आपातकाल के दिनों के अनुभव ने एक व्यावहारिक एवं अपरिहार्य आवश्यकता के रूप में जनवादी अधिकार आन्दोलन को शक्ति एवं संवेग प्रदान किया। और फिर आगे के दशकों के दौरान राजकीय दमन तंत्र के विरुद्ध, विशेषकर राजनीतिक विरोध के दमन के विरुद्ध जाँच-पड़ताल रिपोर्ट, ज्ञापन, याचिका, धरना-प्रदर्शन आदि के माध्यम से अनुष्ठानिक ढंग से गतिविधियों की निरन्तरता जनवादी अधिकार आन्दोलन की दिनचर्या बनी रही। जो चीज़ ‘प्रैग्मेटिज़्म’ के साथ जन्मी थी, वह ‘रुटीनिज़्म’, ‘टोकेनिज़्म’ और ‘रिचुअलिज़्म’ के भँवर में जा फँसी। इसलिये हमारी यह स्पष्ट एवं दृढ़ मान्यता है कि भारतीय राज्यतंत्र की संरचना, सामाजिक ताने-बाने और नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के विश्लेषण के आधार पर, आज जनवादी अधिकार आन्दोलन को नये सिरे से ‘कंसेप्चुअलाइज़’ करना होगा। इस बारे में संक्षेप में यहाँ हम अपने कुछ विचार रखना चाहेंगे।

(1) जनवादी एवं नागरिक अधिकारों के आन्दोलन को शहरी बुद्धिजीवियों के सीमित दायरे और ‘ज्ञापन-प्रतिवेदन-याचिका’ की रुटीनी क़वायद से बाहर निकालकर व्यापक आम आबादी (ज़ाहिरा तौर पर जिसका मुख्य हिस्सा शहरों-गाँवों की मेहनतक़श आबादी होती है) तक ले जाना होगा और उसे एक व्यापक जनान्दोलन की शक़्ल देनी होगी। वैसे भी जनवादी अधिकारों के हनन एवं अपहरण की समस्या पढ़े-लिखे और खाते-पीते लोगों की अपेक्षा आम मेहनतक़शों को ज़्यादा झेलनी पड़ती है। ‘कांस्टीट्यूशनल रेमेडी’ तक हमारे देश में एक हद तक की पहुँच प्रबुद्ध अभिजनों की ही होती है (किसी एन.जी.ओ. या व्यक्ति की जनहित याचिका के द्वारा कभी-कभार थोड़ा छूटन-छाड़न आम लोगों को भी मिल जाता है)। एक आम आदमी को संविधान जिस हद तक भी नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकार देता है वह क़ानून व्यवस्था के अदालती चक्करपेंचों में उलझकर रह जाता है और वहाँ से यदि कुछ छिन-रिसकर बाहर भी निकलता है तो सरकारी दफ़्तरों के अफ़सरों-बाबुओं और थानों के दारोगाओं-दीवानों की जेबों और फ़ाइलों में गुम हो जाता है। अतः जनवादी अधिकार आन्दोलन का सर्वोपरि कार्यभार यह बनता है कि वह व्यापक जनसमुदाय को नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों के प्रश्न पर हर संभव माध्यम से शिक्षित करे, लामबन्द करे और संगठित करे। इन मुद्दों पर प्रचार एवं उद्वेलन का एक लम्बा सिलसिला चलाना होगा।

(2) आम जनता को राज्यसत्ता की कार्यविधि एवं संरचना के बारे में शिक्षित करके ही यह बताया जा सकता है कि संविधान द्वारा ऊँचे स्वर से घोषित नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकार व्यवहारतः उसके लिए बेमानी क्यों हो जाते हैं! पढ़ी-लिखी आबादी का भी एक छोटा सा हिस्सा ही आज इस ऐतिहासिक सच्चाई से वाक़िफ है कि जो संविधान भारतीय लोकतंत्र का दिग्दर्शक आधार-ग्रंथ है, 1946 में उस संविधान को पारित करने वाली संविधान सभा का चुनाव ही सार्विक मताधिकार के आधार पर नहीं हुआ था। यानी बुनियाद में ही जनवाद नहीं था। तुलनात्मक अध्ययन करके कोई भी देख सकता है यह संविधान काफी हद तक औपनिवेशिक शासन कालीन ‘गवर्नमेण्ट ऑफ इण्डिया ऐक्ट 1935’ का ही एक संशोधित एवं परिवर्द्धित संस्करण मात्र है। नवम्बर, 1946 में नेहरू ने यह भरोसा भी दिलाया था कि आज़ादी मिलने के बाद हम सार्विक वयस्क मताधिकार के आधार पर एक दूसरी संविधान सभा का चुनाव करेंगे। क्या यह पूछा नहीं जाना चाहिए कि उस वायदे का क्या हुआ? ग़ौरतलब यह भी है कि संविधान जो नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकार प्रदान करता है, ज़रूरत पड़ने पर उनके अपहरण को (संविधान संशोधन द्वारा) संवैधानिक बना देने के प्रावधान भी खुद संविधान के भीतर ही मौज़ूद हैं। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि संविधानप्रदत्त अधिकारों को ज़्यादातर मामलों में वह क़ानून व्यवस्था निष्प्रभावी बना देती है, जिसका मूल स्वरूप वही है जो औपनिवेशिक शासन के दिनों में था। और क़ानून व्यवस्था से यदि कुछ हासिल हो भी जाये तो भ्रष्ट एवं निकम्मा नौकरशाही तंत्र और निरंकुश स्वेच्छाचारी पुलिस तंत्र उसे खा-पचा जाते हैं और डकार भी नहीं लेते। बुनियादी सेवाओं तक के लिए कदम-कदम पर भारत के ग़रीब लोग अफसरों और बाबुओं को घूस खिलाते हैं, पुलिस ठगों-बटमारों की तरह उन्हें सड़क पर लूटती है और गुण्डों की तरह पीटती है। जेलों में क़ैदी पशुवत रहते हैं। थानों में हिरासत में मौतें और सड़कों पर फ़र्ज़ी मुठभेड़ें आम बात है। विचाराधीन क़ैदी जेलों में उम्र काट देते हैं। अदालतों में 3 करोड़ मुकदमे लंबित पड़े हैं। निचले स्तर की न्यायपालिका तो पुलिस जितनी ही भ्रष्ट हो चुकी है और अब भ्रष्टाचार का दीमक शीर्ष स्तरों तक पैठ चुका है। चुनावी पार्टियों के नेता ज्यादातर या तो ख़ुद दलाल, गुण्डे और व्यभिचारी हैं, या उन्हें पालकर वोट बैंक का खेल खेलते हैं और काली कमाई से अपना घर भरते हैं। ये सारे सवाल जनता के जनवादी अधिकारों से जुड़े हुए हैं। ये सारे मुद्दे व्यवस्थागत हैं। इनका ताल्लुक एक विराट, अत्याचारी राज्य-मशीनरी की संरचना से है, जो जनता के बुनियादी नागरिक एवं जनवादी अधिकारों के संविधान-प्रदत्त वायदों को लगभग खोखले शब्दों के झुनझुने में तब्दील कर देती है। ऐसी स्थिति में जनवादी अधिकार आन्दोलन का क्या यह एक आधारभूत अपरिहार्य कार्यभार नहीं बन जाता कि वह राज्य-मशीनरी के निरंकुश स्वेच्छाचारी चरित्र, उसकी संरचना और कार्यप्रणाली के बारे में व्यापक जनता को शिक्षित करे और उसे अपने जनवादी अधिकारों के प्रश्न पर संगठित होने का ठोस कार्यक्रम दे? हमारी समझ में एक व्यापक जनाधार वाले जनवादी अधिकार आन्दोलन का ही यह कार्यभार है कि वह सार्विक मताधिकार के आधार पर नयी संविधान सभा के चुनाव की तथा एक वास्तविक जनवादी संविधान के निर्माण की माँग उठाये, औपनिवेशिक क़ानून-व्यवस्था, पुलिस प्रशासन, जेल मैनुअल और नौकरशाही के पुनर्गठन की माँग उठाये तथा अत्यन्त खर्चीले और भ्रष्ट संसदीय एवं सरकारी तंत्र का पुनर्गठन करके नेताओं और नौकरशाहों के लिए सादगी, मितव्ययिता, पारदर्शिता और जवाबदेही का जीवन सुनिश्चित करे। और बात केवल क़ानून व्यवस्था के औपनिवेशिक ढाँचे को ही बदलने की ही नहीं है। स्वतंत्र भारत में केन्द्र और राज्य स्तर पर, एक के बाद एक बनने वाले निरंकुश क़ाले क़ानूनों का लम्बा इतिहास है। ऐसे कई क़ानून आज भी मौजूद हैं, जिनमें फ़िलहाल छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून सबसे अधिक कुख्यात है। ऐसे सभी काले क़ानूनों को रद्द करने की माँग पर व्यापक जनसमुदाय को लामबन्द करना होगा। ये व्यापक जनता के जनवादी अधिकारों से जुड़े बुनियादी मुद्दे हैं जिन्हें आधार बनाकर जनवादी अधिकार आन्दोलन को व्यापक जनान्दोलन की शक़्ल दी जा सकती है।

(3) कोई सवाल उठा सकता है कि ऐसी स्थिति में तो जनवादी अधिकार आन्दोलन का कार्यक्रम आमूलगामी क्रान्ति का कार्यक्रम बन जायेगा तथा उसका दायरा काफ़ी विस्तारित और अतिशय राजनीतिक हो जायेगा। तब हमारा उत्तर यह होगा कि जनवादी अधिकारों का प्रश्न ख़ुद में एक व्यापक राजनीतिक प्रश्न है, जिसे प्राय संकुचित कर दिया जाता है। दूसरी बात, यह कुछ लोगों का मानना हो सकता है कि चूँकि भारत की (या कोई भी) बुर्जुआ व्यवस्था न तो पूरी तरह से अपना संरचनागत पुनर्गठन कर सकती है और न ही जनता को उसके वास्तविक जनवादी अधिकार दे सकती है, अतः यह माँग उठाना जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यक्रम को आमूलगामी सामाजिक क्रान्ति का कार्यक्रम बना देना होगा। लेकिन आम जनता से लेकर बुद्धिजीवियों तक, आबादी का बहुसंख्यक भाग अभी इतना ‘रैडिकलाइज़’ और ‘रेवोल्यूशनाइज़’ नहीं हुआ है। वह उपरोक्त सभी माँगों पर लामबन्द होने को तो तैयार होगा, लेकिन यह नहीं मानेगा कि पूरी सामाजिक-आर्थिक संरचना को क्रान्तिकारी ढंग से बदले बिना जनता को वास्तविक जनवादी अधिकार मिल ही नहीं सकते। आबादी का यह हिस्सा मौजूदा व्यवस्था से जनवाद और नागरिक आज़ादी पाने की उम्मीद रखते हुए जनवादी अधिकार आन्दोलन का भागीदार बनेगा और उसे इसका पूरा-पूरा अधिकार है। यदि मौजूदा व्यवस्था उसे वास्तविक जनवादी अधिकार नहीं दे सकेगी तो उसका वास्तविक चरित्र आबादी के इस हिस्से के सामने भी स्पष्ट हो जायेगा और जनवाद और आज़ादी के लिए उसकी लड़ाई स्वतः एक आमूलगामी क्रान्ति के कार्यक्रम का हिस्सा बन जायेगी। लुब्बेलुबाब यह कि जनवादी अधिकार आन्दोलन का घोषणापत्र किसी आमूलगामी सामाजिक क्रान्ति का उद्घोष नहीं होता। यह भागीदार जनसमुदाय पर ऊपर से क्रान्ति का लक्ष्य नहीं थोपता। इसका दायरा उन जनवादी माँगों और नागरिक आज़ादी की माँगों के लिए संघर्ष तक सीमित होता है जिनका वायदा ‘स्वतंत्रता-समानता-भ्रातृत्व’ के नारे के साथ प्रबोधनकाल के दार्शनिकों और जनवाद के क्लासिकी सिद्धान्तकारों ने किया था और दुनिया के अधिकांश बुर्जुआ जनवादी देशों के संविधान कम से कम काग़ज़ी तौर पर जिन्हें स्वीकार करते हैं (या कम से कम, जिनसे वे इन्कार नहीं करते)। इन अधिकारों के लिए लड़ते हुए संगठित जनशक्ति राज्यसत्ता पर दबाव बनाकर कुछ जनवादी ‘स्पेस’ और नागरिक आज़ादी हासिल भी कर लेती है और इस तरह अपनी संगठित शक्ति की ताक़त पहचानती है। अपने संगठित संघर्षों के द्वारा जनता जो जनवादी ‘स्पेस’ और जो उन्नत जनवादी चेतना हासिल करती है उसके आधार पर वह अपने बुनियादी अधिकारों का संघर्ष और उन्नत धरातल पर संगठित करती है। साथ ही यदि इस प्रक्रिया में वह इस व्यवस्था के सीमान्तों को अपने अनुभव से देखने-समझने लगती है और वास्तविक जनवाद और आज़ादी हासिल करने के लिए इस व्यवस्था की सीमाओं का अतिक्रमण करने लगती है तो यह जनता की सर्वोपरि सम्प्रभु सत्ता का अपना अनुभवप्रसूत निर्णय होगा। पर पहले से ही यदि कोई जनवादी अधिकार संगठन यह घोषित कर दे कि चूँकि बुर्जुआ जनवाद जनता को वास्तविक जनवाद दे ही नहीं सकता, अतः जनवादी अधिकार के लिए संघर्ष का एकमात्र मतलब है क्रान्तिकारी व्यवस्था परिवर्तन के लिए संघर्ष, तो यह जनता की चेतना से काफ़ी आगे की बात उसपर थोपने वाला तथा बुर्जुआ क़ानूनी दायरे के भीतर संघर्ष के द्वारा सीखने की सम्भावनाओं की उपेक्षा करने वाला संकीर्णतावाद और हरावलपन्थ होगा। ऐसी संकीर्णतावादी हरावलपन्थी प्रवृत्तियाँ जनवादी अधिकार आन्दोलन के संयुक्त मोर्चे के दायरे को संकुचित कर देंगी और उसे गम्भीर नुकसान पहुँचायेंगी।

(4) राजनीतिक आन्दोलनों पर दमन का प्रतिकार संगठित करना और बन्दी मुक्ति आन्दोलन जैसे काम बेहद ज़रूरी काम हैं और इनकी महत्ता से भला कौन इन्कार कर सकता है? जो लोग इस व्यवस्था को नहीं मानते और क्रान्तिकारी सत्ता-परिवर्तन में विश्वास के साथ राज्य के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष छेड़ते हैं (चाहे यह व्यापक जन भागीदारी के साथ हो या “वामपन्थी” आतंकवादी भटकाव के रूप में) उन्हें क़ातिल या अपराधी या असामाजिक नहीं माना जा सकता है। ‘कांस्टीट्यूशनल रेमेडी’ और ‘लीगल रेमेडी’ पाने का उन्हें भी अधिकार है। उन्हें फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में नहीं मारा जा सकता, फ़र्ज़ी अभियोग लगाकर उनपर मुकदमे नहीं चलाये जा सकते और ‘टॉर्चर चैम्बर’ में उन्हें यंत्रणा नहीं दी जा सकती। उच्चतम न्यायालय भी पिछले दिनों स्पष्ट शब्दों में कह चुका है कि सशस्त्र क्रान्ति में सिद्धान्ततः विश्वास रखने, इसकी बात करने, किसी प्रतिबन्धित संगठन का साहित्य रखने, उसका समर्थक होने या यहाँ तक कि उसका सदस्य होने पर भी किसी के विरुद्ध आतंकवाद या राजद्रोह का मामला नहीं बनता। यदि कोई प्रत्यक्षतः आतंकवादी गतिविधि या राज्य के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष में संलग्न हो तभी ऐसा मामला बनता है। लेकिन यहाँ भी, यह याद रखना ज़रूरी है कि जो लोग अपने राजनीतिक विचारों और प्रतिबद्धताओं के चलते राज्य के विरुद्ध प्रत्यक्षतः हथियारबन्द संघर्ष चलाते हैं, वे अपराधी नहीं हैं। हम उनके राजनीतिक विचारों और तौर-तरीकों से असहमत हों, तो भी हमें यह तो मानना ही पड़ेगा। ऐसी स्थिति में उन्हें किसी आपराधिक धारा के तहत अभियुक्त बनाने के बजाय युद्धबन्दी का दर्जा मिलना चाहिए और उनके सन्दर्भ में तत्सम्बन्धी अन्तरराष्ट्रीय कन्वेशंस के प्रावधानों का अनुपालन होना चाहिए। जहाँ तक राजद्रोह के औपनिवेशिक क़ानून (आई.पी.सी. की धारा 124ए) का सवाल है, उसका घोर जनवाद-विरोधी चरित्र हाल के दिनों में काफ़ी चर्चा का विषय रहा है। उसे तो पूरी तरह से रद्द करने से कम किसी बात पर समझौता किया ही नहीं जा सकता। राज्यसत्ता का सशस्त्र प्रतिरोध करने वालों के जनवादी अधिकारों की बात करते समय यह अवस्थिति भी स्पष्ट कर देना हम ज़रूरी समझते हैं कि आतंक की किसी भी कार्रवाई का शिकार यदि निर्दोष आम लोग बनते हैं और यदि कब्ज़े में आये या अपहृत किसी सरकारी मुलाज़िम की हत्या को प्रतिरोध की रणनीति के रूप में, सरकार के विरुद्ध संघर्षरत कोई पक्ष इस्तेमाल करता है (युद्ध जैसी स्थिति में किसी का मारा जाना अलग बात है) तो कोई भी जनवादी अधिकार आन्दोलन निश्चय ही इसका भी मुखर विरोध करेगा। लेकिन जनवादी अधिकार आन्दोलन के नज़रिये से, मूल और मुख्य बात यह है कि आतंक के विरुद्ध सरकारी युद्ध वस्तुतः जनता के विरुद्ध सरकार का आतंकवादी युद्ध है।
इस सच्चाई को उजागर करने वाले काफ़ी तथ्य प्रकाशित हो चुके हैं कि छत्तीसगढ़ में असली मुद्दा माओवादियों के प्रतिरोध को कुचलने का नहीं है बल्कि राष्ट्रपारीय दैत्यों और देशी पूँजी के शार्कों को बहुमूल्य और अकूत खनिज सम्पदा की लूट की छूट देने के उद्देश्य से स्थानीय आदिवासी आबादी को बलपूर्वक उजाड़ने और उनके प्रतिरोध को कुचलने का है। माओवादी प्रतिरोध की ज़मीन भी यहीं से तैयार हुई है। सलवा जुडुम और एस.पी.ओ. तथा कोया कमाण्डो के रूप में सरकार द्वारा स्थानीय आबादी के एक छोटे से हिस्से को व्यापक आम आबादी के ख़िलाफ़ हथियारबन्द करने के प्रश्न पर उच्चतम न्यायालय के विचार ने भी जनता के विरुद्ध सरकार के युद्ध के तथ्य की पुष्टि की है। सलवा जुडुम को कुछ अग्रणी पूँजीपति घरानों द्वारा वित्तपोषण के तथ्य पहले ही प्रकाश में आ चुके हैं। अब सरकार अगले रक्तरंजित संघर्ष की तैयारी कर रही है। माड क्षेत्र में नारायणपुर जिला हेडक्वार्टर के निकट रमन सिंह सरकार ने 750 वर्ग किलो मीटर क्षेत्र हाल ही में सेना को आवंटित किया है जहाँ असम और बिहार रेजिमेण्ट की एक-एक बटालियन ‘काउण्टर इंसर्जेन्सी’ (जंगल वारफेयर) का प्रशिक्षण लेगी। जाहिर है कि कश्मीर और उत्तर-पूर्व के बाद सेना अब देश के सर्वाधिक विपन्न इलाके की शोषित-उत्पीड़ित आबादी के खिलाफ एक नृशंस युद्ध छेड़ने की तैयारी में है। आश्चर्य नहीं कि भविष्य में बस्तर में भी ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) क़ानून’ लागू कर दिया जाये। वैसे, इसके बिना भी सेना अघोषित युद्ध चला सकती है जो सिर्फ़ माओवादियों के विरुद्ध नहीं बल्कि समूची स्थानीय आदिवासी जनता के विरुद्ध होगा। छत्तीसगढ़ हो या लालगढ़, आतंकवाद की आड़ में जनता के विरुद्ध सरकार का युद्ध और राजकीय दमन पहले से ही एक ज्वलन्त सवाल रहा है। आने वाले दिनों में इसकी व्यापकता और सघनता और अधिक बढ़ने वाली है। यहाँ हमारा मूल उद्देश्य इस बात को रेखांकित करना है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को यदि सघन एवं संगठित, सतत एवं सुदीर्घ, प्रचार और उद्वेलन की कार्रवाई के द्वारा एक व्यापक जनान्दोलन का स्वरूप नहीं दिया जायेगा, यदि प्रबुद्ध बुद्धिजीवियों के सीमित दायरे से बाहर लाकर उसके सामाजिक आधार के विस्तार की कोशिश नहीं की जायेगी, तो देश के इस या उस कोने की जनता पर होने वाले राजकीय दमन और राजकीय आतंक की घटनाओं को व्यापक जनसमुदाय की निगाहों में नहीं लाया जा सकेगा और उन्हें व्यापक जन-प्रतिरोध का मुद्दा नहीं बनाया जा सकेगा। जनवादी अधिकार संगठनों की कुछ रिपोर्टों के अंश यहाँ-वहाँ छप तो जायेंगे लेकिन बहुसंख्यक आबादी मुद्दे को वैसे ही देखती-समझती रहेगी जैसे सरकार और मुख्य धारा की मीडिया उसे प्रस्तुत करती है। इसी से जुड़ी हुई दूसरी बात हम यह कहना चाहते हैं कि राजनीतिक आन्दोलनों के दमन का विरोध करना, सत्ता के राजनीतिक विरोधियों और राजनीतिक बंदियों के जनवादी अधिकारों का सवाल उठाना तथा फ़र्ज़ी मुकदमों, फ़र्ज़ी मुठभेड़ों, हिरासत में यंत्रणा और काले क़ानूनों का विरोध करना निश्चय ही जनवादी अधिकार संगठनों का बुनियादी और अनिवार्य दायित्व है, पर महज यहीं तक उनके कार्यभारों की चौहद्दी नहीं बाँधी जा सकती। इस व्यवस्था की चौहद्दी के भीतर और बाहर, लोक अधिकारों को लेकर लड़ने वाले लोगों, समूहों, संगठनों के ऊपर होने वाले हर प्रकार के दमन-उत्पीड़न के प्रतिकार के साथ ही जनवादी अधिकार आन्दोलन को समूची आम जनता की नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों की लड़ाई को अपने एजेण्डे पर केन्द्रीय स्थान देना होगा। केवल तभी वह एक व्यापक जनान्दोलन की शक्ल अख़्तियार कर पायेगा। अभी तक हमारे देश का जनवादी अधिकार आन्दोलन ऐसा कर पाने में विफल रहा है और इसी के नाते यह ‘राजनीतिक रूप से सचेत शहरी बुद्धिजीवियों’ का एक ऐसा ‘पैस्सिव’ किस्म का आन्दोलन बन कर रह गया है जिसका काम जाँच टीमें भेजने, रिपोर्ट बनाने, याचिकाएँ दाखिल करने, वक्तव्य जारी करने, ज्ञापन देने और रस्मी धरना-प्रदर्शनों से अधिक कुछ भी नहीं रह गया है।

(5) इसी से जुड़ा एक और विचारणीय पहलू है। यह एक कड़वी सच्चाई हो सकती है, जिसे सिरे से ख़ारिज नहीं किया जा सकता। पिछले दिनों एक मज़दूर संगठनकर्ता से बात हो रही थी। उसका कहना था कि राजनीतिक आन्दोलनों में सक्रिय मध्यवर्गीय बौद्धिक पृष्ठभूमि के लोगों और थोड़ी अच्छी सामाजिक हैसियत वाले बुद्धिजीवी समर्थकों एवं हमदर्दों की गिरफ़्तारी और दमन-उत्पीड़न के मुद्दों को जिस जोर-शोर के साथ उठाया जाता है, उतनी ही शिद्दत के साथ निम्नतर वर्ग-पृष्ठभूमि से आने वाले कार्यकर्ताओं और समर्थकों की गिरफ़्तारी और दमन-उत्पीड़न को, या आन्दोलनों में भागीदारी करने वाली व्यापक आम आबादी के दमन-उत्पीड़न को मुद्दा नहीं बनाया जाता। ठीक इसी तरह जब विस्थापन और बेदख़ली के सन्दर्भ में जनवादी अधिकारों की बात होती है तो मालिक किसानों के बेहतर मुआवजे़ की बात अधिक प्रमुखता के साथ होती है, पर जो बटाईदार, खेत मज़दूर और अन्य ग्रामीण सर्वहारा रोज़गार से वंचित होते हैं, उनकी आवाज़ हाशिये पर धकेल दी जाती है। निश्चय ही इसमें मुख्य धारा के मीडिया और चुनावी राजनीति के सौदागरों की मुख्य भूमिका होती है, लेकिन हम लोगों को वस्तुपरक होकर इस बात की भी पड़ताल करनी होगी कि लगातार मध्यवर्गीय ‘पैस्सिव रैडिकलिज़्म’ की चौहद्दी में सिमटे रहने के कारण जनवादी अधिकार आन्दोलन में भी कहीं किसी किस्म का वर्ग-पूर्वाग्रह (क्लास बायस) तो नहीं पैदा हो गया है?

(6) विगत लगभग दो दशकों के दौरान, जनवादी अधिकार आन्दोलन की रही-सही ताकत और प्रभाविता का भी लगातार क्षरण-विघटन हुआ है। इसके कारण “भारतीय खुशहाल मध्यवर्ग के ऐतिहासिक विश्वासघात” में ढूँढ़े जा सकते हैं। जनवादी अधिकार आन्दोलन का मुख्य आधार शहरी मध्यवर्ग के रैडिकल जनवादी हिस्से में सिमटा रहा है (इनमें विश्वविद्यालयों के प्राध्यापक, वकील, मीडियाकर्मी व अन्य स्वतंत्र ‘प्रोफेशनल्स’ शामिल हैं)। इस शहरी मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा विगत कुछ दशकों के दौरान पूँजीवादी विकास की तेज गति के साथ अर्जित उपलब्धियों का भागीदार बना है, उसकी हैसियत बढ़ी है और जीवन-स्तर ऊपर उठा है, प्रति व्यक्ति 20 रुपये रोज़ाना की आमदनी पर जीने वाली 77.5 प्रतिशत आम आबादी के जीवन से उसकी दूरी बहुत अधिक बढ़ी है और वह एक विशेषाधिकार प्राप्त अल्पसंख्यक उपभोक्ता समुदाय बन चुका है। मौजूदा सामाजिक-राजनीतिक ढाँचे में उसके अपने जनवादी अधिकार काफ़ी हद तक सुरक्षित हैं और मँहगाई के विरोध में, या रोज़गार के लिए या शिक्षा-स्वास्थ्य आदि के लिए, या काम के घण्टों आदि जैसे सवालों पर होने वाले आन्दोलनों से उसकी कोई ख़ास सहानुभूति नहीं रह गई है। ऊँची हैसियत वाले ये बुद्धिजीवी भारतीय मध्य वर्ग का वह हिस्सा हैं जो जनता के साथ मिलकर आज़ादी और अधिकारों के लिए लड़ने की पुरानी ऐतिहासिक निरन्तरता से नाता तोड़कर पक्षत्यागी बन चुका है। ज़्यादा से ज़्यादा एन.जी.ओ. मार्का सुधारवादी सरगर्मियों में इनकी एक हद तक भागीदारी या दिलचस्पी होती है और नागरिक आज़ादी एवं जनवादी अधिकारों के प्रश्न पर भी इसका रुख ‘पैस्सिव रैडिकल’ और अनुष्ठानधर्मी ही हुआ करता है। बहुतेरों के लिए जनवादी अधिकार आन्दोलन या तो एक धन्धा है या फिर नैतिक दबावों से प्रेरित एक बेजान रुटीनी काम। खुशहाल मध्यवर्गीय जीवन जीने वाले बुद्धिजीवियों का एक छोटा-सा हिस्सा ही बचा है जो जेनुइन सरोकार एवं प्रतिबद्धता के साथ जनवादी अधिकार आन्दोलन में सक्रिय बना हुआ है। ऐसी स्थिति में, जाहिर है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को एक व्यापक और जुझारू जनान्दोलन की शक़्ल देने के लिए मुख्य तौर पर निम्नमध्यवर्ग से आने वाले उन रैडिकल बुद्धिजीवियों की नयी पीढ़ी पर भरोसा करना होगा जो नवउदारवाद के वर्तमान दौर में आम मेहनतक़शों की ही तरह असुरक्षा और अनिश्चितता के भँवर में धकेल दिये गये हैं और काफ़ी हद तक उन जैसा ही जीवन जीने को मजबूर हैं। नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों का सवाल उनके लिए उतना ही ज्वलन्त-जीवन्त प्रश्न है, जितना कि गाँवों-शहरों के आम मेहनतकशों के लिए। एक व्यापक जनाधार पर जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठित होने की प्रक्रिया जब गति पकड़ लेगी तो आम मेहनतक़श जमातों के बीच से भी उनके ‘ऑर्गेनिक’ बौद्धिक तत्व आगे आयेंगे और नेतृत्वकारी भूमिका निभायेंगे।

(7) औद्योगिक पूँजीवाद के उद्भव और विकास के साथ-साथ पूँजीवादी जनवाद सिद्धान्त और व्यवहार में विकसित हुआ। वित्तीय पूँजी के बढ़ते वर्चस्व के साथ-साथ (साम्राज्यवाद की शताब्दी—20वीं शताब्दी के दौरान) विश्व-ऐतिहासिक स्तर पर बुर्जुआ जनवाद की सीमाएँ संकुचित हुईं और सर्वसत्तावादी निरंकुश तन्त्र विविध रूपों में सामने आये। फासीवाद वित्तीय पूँजी की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक प्रतिनिधि प्रवृत्ति के रूप में सामने आया और आज विविध रूपों में पूरी दुनिया में फासीवादी ताकतें और प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं। इससे भी अहम बात यह है कि भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में (जिसे ‘वित्तीय पूँजी की निर्णायक विजय’ का दौर भी कहा जा रहा है) पूँजीवादी जनवाद और फासिस्ट-अर्द्धफासिस्ट निरंकुशतन्त्र के बीच की विभाजक रेखा बहुधा एकदम धूमिल प्रतीत होने लगती है। भारत के पूर्व राष्ट्रपति वेंकट रमण ने भी एक बार स्वीकार किया था कि नवउदारवादी आर्थिक नीतियों को निर्बाध लागू करने के लिए एक निरंकुश सत्ता-तन्त्र की मौजूदगी ज़रूरी होगी। बात एकदम साफ़ है। नवउदारवाद के विगत दो दशकों से जारी दौर में हमारे देश में जनवाद का रहा-सहा स्पेस भी तेजी से सिकुड़ता गया है, सरकार अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियों से हाथ खींचती चली गयी है और सामाजिक जीवन पर बाज़ार की शक्तियों की सर्वव्यापी जकड़ ने आम लोगों को जीवन की बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित कर दिया है। बड़े पैमाने पर मज़दूरों को सड़कों पर धकेल देने, बेरोज़गारी बढ़ाने, श्रम क़ानूनों को बेमानी बना देने, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं आदि का निजीकरण करके उन्हें आम लोगों की पहुँच से एकदम दूर कर देने, जीने का कोई विकल्प दिये बिना लोगों को उनकी जगह-ज़मीन से विस्थापित कर देने आदि-आदि के रूप में नवउदारवाद के जो नतीजे़ सामने आ रहे हैं, वे देर-सबेर लाज़िमी तौर पर प्रचण्ड सामाजिक विस्फोटों को जन्म देंगे। इनसे निपटने के लिए राज्य मशीनरी का ज़्यादा से ज़्यादा नग्न-निरंकुश दमनकारी स्वरूप अपनाते जाना अनिवार्य है। इस प्रक्रिया की प्रतिकारी प्रक्रिया के रूप में एक व्यापक जन-प्लेटफॉर्म पर जनवादी अधिकार आन्दोलन को संगठित करना ही होगा, इसे तबाह-परेशान जनता के सभी हिस्सों को एक साझा, व्यापक जनान्दोलन के रूप में संगठित करना होगा।

(8) जनवादी अधिकारों का सवाल केवल राज्य मशीनरी के साथ ही जुड़ा हुआ नहीं है। इसका सामाजिक ताने-बाने से भी गहरा सम्बन्ध है। इस प्रश्न को भारतीय समाज के सन्दर्भ में देखा जाये। हम एक ऐसे उत्तरऔपनिवेशिक कृषिप्रधान (पोस्टकोलोनियल एग्रेरियन) समाज में जीते हैं, जहाँ पूँजीवादी सम्बन्ध, संस्थाएँ और मूल्य ‘पुनर्जागरण-प्रबोधन-क्रान्ति’ (रिनेसां-एनलाइटेनमेण्ट-रिवोल्यूशन) की ऐतिहासिक प्रक्रिया से गुजर कर अस्तित्व में नहीं आये। दो सौ वर्षों के औपनिवेशिक अतीत और उसके बाद की आधी सदी से भी अधिक समय के दौरान पूँजीवादी विकास एक क्रमिक, मन्थर गति से हुआ है। नतीजतन, सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों-मान्यताओं-संस्थाओं-सम्बन्धों में जनवाद और तर्कणा बस नाम मात्र को ही हैं। पूँजीवादी आधुनिक “बर्बरता” के साथ प्राक्पूँजीवादी निरंकुश स्वेच्छाचारिता भी सामाजिक ताने-बाने के रेशे-रेशे में मौजूद है। केवल राज्य और नागरिक के बीच के रिश्ते में ही नहीं, नागरिक और नागरिक के रिश्ते में भी दमन, असमानता और अपमानजनक पार्थक्य विविध रूपों में मौजूद हैं। संविधान और क़ानून कुछ भी कहें, खाप, गोत्र और जाति की पंचायतें प्रेम करके सगोत्रीय, अन्तर्जातीय या अन्तर्धार्मिक विवाह करने वालों को मौत के घाट उतार देती हैं। घरेलू हिंसा से लेकर सड़क पर अपमानित करने तक स्त्री-उत्पीड़न के अनेकशः रूपों की संख्या “विकास” के साथ-साथ बढ़ती गयी है। क़ानूनी प्रतिबन्ध के बावजूद कन्याभ्रूणहत्या और बाल विवाह आम बात हैं। दलित उत्पीड़न की बर्बर घटनाओं की भी यही स्थिति है। साम्प्रदायिक फासीवाद को सामाजिक आधार प्रदान करने में गैरजनवादी सामाजिक शक्तियों के साथ ही धार्मिक-जातिगत अन्धविश्वासों-पूर्वाग्रहों की भी अहम भूमिका है। भारतीय समाज में पूँजीवादी समाज की नयी बुराइयों और प्राक्पूँजीवादी पुरानी बुराइयों का जो अद्भुत सहमेल क़ायम हुआ है, वह निरकुंश दमनकारी राज्य मशीनरी के विरुद्ध व्यापक जनएकजुटता के निर्माण के रास्ते की एक बहुत बड़ी बाधा है। बर्बर जातिवादी मूल्यों-संस्थाओं, पुरुषवर्चस्ववादी मूल्यों-संस्थाओं और धार्मिक अन्धविश्वासों-पूर्वाग्रहों के विरुद्ध व्यापक और जुझारू सामाजिक-सांस्कृतिक मुहिम चलाये बिना नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों की बात करना बेमानी है। जनवादी अधिकार आन्दोलन को सिर्फ राजकीय निरकुंशता को ही नहीं सामाजिक-सांस्कृतिक निरंकुशता को भी निशाना बनाना होगा। सत्ता के सांस्कृतिक-सामाजिक-वैचारिक वर्चस्व को तोड़ने की प्रक्रिया के बिना, राजकीय उत्पीड़न के प्रतिरोध की तर्कसंगति को आम जनता के सामने सिद्ध नहीं किया जा सकता। इस दृष्टि से कहा जा सकता है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को केवल प्रतिरक्षात्मक किस्म का अधिकार-रक्षा आन्दोलन नहीं होना चाहिए, बल्कि इसे एक व्यापक, जुझारू सामाजिक आन्दोलन के रूप में संगठित किया जाना चाहिए। संविधान, क़ानून व्यवस्था और पूरी राज्य मशीनरी के गै़र-जनवादी चरित्र के विरुद्ध सतत् मुहिम चलाने के साथ ही जनवादी अधिकार संगठनों को सामाजिक-सांस्कृतिक ढाँचे के गैरजनवादी चरित्र के विरुद्ध भी साहसिक ढंग से आवाज़ उठानी होगी। काले क़ानूनों और राजकीय दमन के अतिरिक्त उन्हें दलित उत्पीड़न, अन्य प्रकार के जातिगत उत्पीड़न एवं वैमनस्य, जाति आधारित चुनावी राजनीति, स्त्री-उत्पीड़न, पुरुषवर्चस्ववाद के विविध रूपों, धार्मिक कट्टरपन, अन्धविश्वास एवं पूर्वाग्रहों के विरुद्ध भी व्यापक प्रचार एवं शिक्षा-अभियान भी चलाने होंगे। संक्षेप में कहा जा सकता है कि जनवादी अधिकार आन्दोलन को राजनीतिक आन्दोलन के साथ ही एक व्यापक सामाजिक आन्दोलन के रूप में भी संगठित किया जाना चाहिए। तमाम गैरजनवादी सामाजिक मूल्यों-संस्थाओं के विरुद्ध जनचेतना को जब तक जागृत नहीं किया जायेगा, तब तक जनता राज्यसत्ता के विरुद्ध भी अपने जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष के लिए तैयार नहीं हो पायेगी।

(9) यदि सत्ताधारी यह स्वीकार करते हैं कि भारत एक जनवादी गणराज्य है तो जनता को जीने की बुनियादी सुविधाएँ मुहय्या करना सत्ताधारियों का सर्वोपरि दायित्व है। यह एक जलता हुआ प्रश्न है कि जिस देश में करोड़पतियों-अरबपतियों की संख्या सबसे तेजी से बढ़ रही हो और जहाँ का दस करोड़ उच्च मध्यवर्ग यूरोप-अमेरिका के उच्चमध्यवर्ग के स्तर पर जी रहा हो, वह देश मानव विकास सूचकांक के नज़रिए से दुनिया के सबसे निचले पायदान पर क्यों खड़ा है, वहाँ की आधी आबादी कुपोषण का शिकार क्यों है, 18 करोड़ से अधिक आबादी बेघर क्यों है और तीन चौथाई आबादी सामान्य स्वास्थ्य-चिकित्सा सुविधाओं से भी क्यों वंचित है? बिना विस्तृत विश्लेषण के, यदि कुछ सामान्य तथ्यों और आँकड़ों पर ही दृष्टि डालें तो स्पष्ट हो जाता है कि जिन नवउदारवादी नीतियों पर सभी संसदीय दलों की कमोबेश आम सहमति क़ायम है, वे बर्बर जनद्रोही नीतियाँ हैं। बढ़ती मँहगाई, बेरोज़गारी, विस्थापन, बेदख़ली, भुखमरी की घटनाएँ, किसानों की आत्महत्याएँ जब व्यवस्था की सीमान्तों पर दबाव बनाती हैं तो कुछ रस्मी सुधार के वायदे होते हैं, खाद्यान्न-सुरक्षा जैसे कुछ क़ानून बनने की प्रक्रिया शुरू होती है, लेकिन ये थोड़े से कथित कल्याणकारी काम निहायत नाक़ाफ़ी हैं, इन क़ानूनों में काफ़ी झोल है (सरकार की “गरीबी रेखा” भुखमरी रेखा कही जानी चाहिए) और इन सीमित सुधारों को भी नौकरशाही तन्त्र में आमूल परिवर्तन किये बिना पूरी तरह से अमल में नहीं लाया जा सकता। इस विषय पर अर्थशास्त्रियों और राजनीतिक विश्लेषकों ने काफ़ी कुछ लिखा है। यहाँ हमारे निबन्ध में इसके विस्तार में जाना सम्भव नहीं है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि नवउदारवादी नीतियाँ जनता की अपार बदहाली के सागर में ऐश्वर्य के द्वीप और विलासिता की मीनारें खड़ी करते हुए जनसमुदाय को जीने की बुनियादी सुविधाओं तक से वंचित कर रही हैं और राजनीतिक-सामाजिक जीवन में रहे-सहे जनवादी स्पेस को भी संकुचित करती जा रही हैं। देश के हर नागरिक को पौष्टिक भोजन, सुविधायुक्त आवास, स्वास्थ्य-चिकित्सा, समान शिक्षा और आजीविका का अधिकार मूलभूत संवैधानिक अधिकार के रूप में मिलना चाहिए। जाहिर है कि इन प्रश्नों पर आनन-फानन में देशव्यापी आन्दोलन नहीं खड़ा किया जा सकता। जनता को स्वयं उसके बुनियादी जनवादी अधिकारों का अहसास कराना प्रचार एवं शिक्षा का एक लम्बा काम है। उसे तथ्यों और तर्कों की रोशनी में यह बता पाना एक लम्बा काम है कि देश की उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर और उत्पादित सामाजिक सम्पदा की दृष्टि से भारत की किसी सरकार के लिए इतना कर पाना कत्तई सम्भव है। जनता को यह अहसास दिलाना एक लम्बा काम ज़रूर है कि एकजुट जनता सत्ता पर संगठित दबाव बनाकर अपने कई महत्वपूर्ण जनवादी अधिकार हासिल कर सकती है। लेकिन लम्बा काम होने का मतलब असम्भव होना नहीं होता। लम्बी यात्राओं की शुरुआत भी कुछ छोटे कदमों से ही होती है। जनवादी अधिकार आन्दोलन ही आज के समय में वह व्यापक जनान्दोलनात्मक छाता हो सकता है, जिसके तले संगठित होकर जनता के विभिन्न वर्ग अपने बुनियादी जनवादी अधिकारों की लड़ाई लड़ सकते हैं। निस्सन्देह यह केवल आम प्रचार एवं जन शिक्षा की कार्रवाइयों से ही सम्भव नहीं होगा। जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं को तृणमूल स्तर पर सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं की दुरवस्था, सार्वजनिक वितरण तन्त्र के भ्रष्टाचार, मनरेगा मज़दूरों की मज़दूरी, झुग्गी बस्तियों के उजाड़े जाने, जबरिया विस्थापन-बेदखली, सरकारी स्कूलों की दुर्दशा, पुलिस अत्याचार आदि मुद्दों को लेकर जनता को संगठित करना होगा और फिर स्थानीय संघर्षों को सतत् प्रचार द्वारा एक व्यापक परिप्रेक्ष्य देना होगा। हमारी सोच है कि जनता की रोज़मर्रा की ज़िन्दगी के इन बुनियादी मसलों पर जनवादी अधिकार आन्दोलन को तृणमूल स्तर से जनदबाव की एक नयी राजनीति का तानाबाना बुनना होगा। हमें पौष्टिक भोजन, आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा और आजीविका के बुनियादी जनवादी अधिकारों को मुद्दा बनाते हुए, इनसे जुड़े छोटे-छोटे स्थानीय सवालों को उठाते हुए तथा पुलिसिया दमन-उत्पीड़न, विस्थापन, जबरिया बेदखली आदि समय-समय पर जगह-जगह उठने वाले मुद्दों को हाथ में लेते हुए जागृत-संगठित जनशक्ति का मूल्यांकन करके जन-सत्याग्रह, ‘घेरा डालो डेरा डालो’, नागरिक असहयोग आन्दोलन, करबन्दी, चुनावी नेताओं के बहिष्कार आन्दोलन जैसे जनान्दोलनों के रूप अपनाने होंगे। इस प्रक्रिया में लोक पंचायतों, लोक परिषदों, लोक निगरानी समितियों, चौकसी दस्तों जैसे नये-नये लोक प्लेटफॉर्म और संस्थाएँ सृजित हो सकती हैं जो जनता की सामूहिक पहलकदमी और निर्णय क्षमता को प्रकट कर सकती हैं और आन्दोलन के नेतृत्व को भी निरन्तर जवाबदेही एवं निगरानी के दायरे में बनाये रख सकती हैं। इस तरह जनवादी अधिकार आन्दोलन को नीचे से जनवादी संस्थाओं के विकास का एक देशव्यापी आन्दोलन भी बनाया जा सकता है। वास्तविक जनवादी संस्थाएँ संविधान और क़ानून की किताबों से निकलकर नहीं आतीं, वे व्यापक जनसमुदाय की पहलकदमी पर आधारित होती हैं और आन्दोलनों के चढ़ावों-उतारों भरी प्रक्रिया के दौरान प्रस्फुटित और विकसित होती हैं।

(10) साम्प्रदायिक फासीवाद, विशेषतौर पर हिन्दुत्ववादी धार्मिक कट्टरपन्थ के विरुद्ध जनवादी अधिकार आन्दोलन को प्रभावी बनाने के ज़रूरत पर बात करते हुए भी हमारा बल इसी बात पर होगा कि व्यापक जनपहलकदमी और जनलामबन्दी के बिना इन शक्तियों का कारगर ढंग से मुकाबला नहीं किया जा सकता। अयोध्या काण्ड या गुजरात नरसंहार के मसले पर इन ताक़तों के विरुद्ध अदालती लड़ाई बेशक एक ज़रूरी मोर्चा है लेकिन इस क़ानूनी मोर्चे की स्पष्ट सीमाएँ हैं। महानगरों में कुछ मोमबत्ती जुलूसों, निर्गुन और सूफ़ी गायकी के कुछ सांस्कृतिक कार्यक्रमों और ऐसे ही कुछ अन्य रस्मी आयोजनों के सहारे हिन्दुत्ववादियों के विरुद्ध प्रभावी ढंग से मोर्चाबन्दी नहीं की जा सकती। विश्लेषण के विस्तार में जाना तो सम्भव नहीं है, लेकिन ये निष्कर्ष बहुतेरे राजनीतिक विश्लेषकों ने बार-बार दिये हैं कि (1) धार्मिक कट्टरपन्थ की धारा भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर काफ़ी पहले से मौजूद है और चुनाव में हारने के बावजूद यह आगे भी मौजूद रहेगी, (2) जनान्दोलनों को दिशा-विचलित करने और जन-एकजुटता को तोड़ने के लिए, नियंत्रित रूप में शासक वर्ग इसे मौजूद रखना चाहेगा, ज़ंजीर में बँधे शिकारी कुत्ते की तरह; (3) एक उत्तरऔपनिवेशिक, कृषिप्रधान और गैरजनवादी शहरी मध्यवर्ग वाला भारतीय समाज धार्मिक कट्टरपंथियों के सामाजिक आधार के विस्तार के लिए पहले से ही अनुकूल था, अब नवउदारवाद के नाम पर जो आर्थिक कट्टरपन्थ लागू हो रहा है वह धार्मिक कट्टरपन्थ को स्वतःस्फूर्त गति से मजबूत बना रहा है। सिकुड़ते जनवादी स्पेस का इन ताकतों को पूरा लाभ मिल रहा है। आर्थिक मसलों पर ग़रीबों-मज़दूरों के आन्दोलन संगठित करने वाली राजनीतिक ताकतें उनके संघर्षों को व्यापक राजनीतिक ढाँचागत परिप्रेक्ष्य नहीं दे पाईं और इसलिए वे साम्प्रदायिकता के खि़लाफ़ भी उन्हें गोलबन्द नहीं कर पाईं। यहाँ उनकी आलोचना हमारा विवेच्य विषय नहीं है। भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक आन्दोलन की विफलता और बुर्जुआ जनवाद का अधूरा प्रोजेक्ट भी एक कारण रहा है जिसके चलते हिन्दुत्ववादियों को अपना सामाजिक आधार विस्तारित करने में मदद मिलती है। जनवादी अधिकार आन्दोलन के फ्रेमवर्क तक ही अपने को सीमित रखते हुए हम यह कहना चाहते हैं कि व्यापक जनता के बीच साम्प्रदायिक फासीवाद के विरुद्ध साहसपूर्वक प्रचार की सघन कार्रवाई चलानी होगी। हमारे प्रत्यक्ष अनुभव बताते हैं कि स्थानीय स्तर पर मालिकों और प्रशासन के दमनतंत्र के विरुद्ध लड़ते समय मज़दूर जब हिन्दुत्ववादी नेताओं का चाल-चेहरा-चरित्र देखते हैं, उस समय वे उनके विरुद्ध स्वतः मुखर हो जाते हैं और तब उनके बीच धार्मिक कट्टरपन्थ की राजनीति को बेनक़ाब करना सुगम हो जाता है। दूसरी बात, बुनियादी जनवादी अधिकारों को लेकर व्यापक मेहनतक़श जनता के आन्दोलन संगठित करने के साथ-साथ यदि धार्मिक पूर्वाग्रहों और साम्प्रदायिकता के विरुद्ध निरन्तर जुझारू सामाजिक अभियान चलाये जायें तो धार्मिक कट्टरपन्थ का प्रभावी मुक़ाबला किया जा सकता है। कुछ थोड़े से सेक्युलर बुद्धिजीवी सीमित बौद्धिक-सांस्कृतिक-क़ानूनी सरगर्मियों के सहारे हिन्दुत्ववाद का प्रभावी मुक़ाबला नहीं कर सकते। गाँव और शहर के छोटे मालिकों, पिछड़ी चेतना के निम्न मध्यवर्ग के लोगों, कुलीन मज़दूरों, निराश मध्यवर्गीय युवाओं और लम्पट सर्वहाराओं में साम्प्रदायिक ताकतों का अच्छा-खासा सामाजिक आधार तैयार हुआ है और उसे व्यापक आम आबादी को साथ लेने की प्रक्रिया में ही तोड़ा जा सकता है।

(11) एक बहुत बड़ा सवाल है परिधि की विभिन्न राष्ट्रीयताओं का केन्द्रीय राज्यसत्ता द्वारा बर्बर सैनिक दमन-उत्पीड़न। सरकार और मुख्यधारा की मीडिया के अन्धराष्ट्रवादी प्रचार के चलते भारत की आम पढ़ी-लिखी आबादी के बहुसंख्यक हिस्से के दिलो-दिमाग़ में यह बात मज़बूती और गहराई से पैठी हुई है कि जम्मू-कश्मीर और उत्तर-पूर्व के राज्यों में अलगाववादी तत्व सक्रिय हैं। लेकिन औपनिवेशिक काल के उत्तर-पूर्व के इतिहास की कहीं चर्चा नहीं होती। मैकमोहन रेखा कब और कैसे खींची गयी, नगा लोगों की स्वतंत्रता की माँग कितनी पुरानी है, उनके साथ स्वतंत्र भारत की सरकार ने किस प्रकार विश्वासघात किया, मणिपुर का छलपूर्वक कैसे भारत में विलय हुआ, अरुणाचल प्रदेश का इलाका कब भारत का राज्य बना, बिना किसी जनमत-संग्रह के सिक्किम का भारत में कैसे विलय किया गया, मिजो और उत्तर-पूर्व की अन्य नृजातीय राष्ट्रीयताओं (एथनिक नेशनैलिटीज़) के विद्रोहों और आपसी अन्तरविरोधों का इतिहास क्या है, इसकी चर्चा न तो इतिहास और राजनीति विज्ञान की पाठ्य-पुस्तकों में आती है, न ही प्रिण्ट मीडिया या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में। 1958 से ही उत्तर-पूर्व के राज्यों में सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम लागू है जो भारतीय काले क़ानूनों में शायद सर्वाधिक काला है। इस क़ानून के रहते उत्तर-पूर्व में नागरिक अधिकारों का कोई मतलब नहीं है और वस्तुतः वहाँ सैनिक शासन जैसी ही स्थिति है। पिछले एक दशक के दौरान नागरिक आन्दोलनों और इरोम शर्मिला के अनशन के बाद सेना के बर्बर अत्याचारों की कुछ ख़बरें शेष भारत के आम लोगों तक कुछ हद तक पहुँची हैं, अन्यथा पहले तो वास्तविक स्थिति की उन्हें कोई जानकारी ही नहीं होती थी। जम्मू-कश्मीर में भी 1990 से सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम लागू है। आम नागरिकों पर सेना के अत्याचारों की ख़बरें अब छिपी नहीं रह गयी हैं। कम ही लोगों को पता है कि जम्मू-कश्मीर के भारत में विलय के प्रश्न पर अन्तिम निर्णय व्यापक जनता की राय के आधार पर होने का करार हुआ था, 1947 में हुआ विलय आरजी था, विदेशी मामलों, सुरक्षा और मुद्राचलन के अतिरिक्त अन्य सभी मामलों में कश्मीर की स्वायत्तता पर सहमति हुई थी और भारतीय संविधान की धारा 370 के तहत उसे विशेष दर्ज़ा दिया गया था। जनमत संग्रह का वायदा तोड़ने और 1953 में शेख अब्दुल्ला की चुनी हुई सरकार को बर्ख़ास्त करने से लेकर 1980 के दशक तक केन्द्र सरकार की नीतियों ने कश्मीरी जनता के अलगाव को लगातार बढ़ाने का काम किया। इसी की परिणति व्यापक जनउभार और फिर सशस्त्र संघर्ष के रूप में सामने आयी। 1990 में ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) अधिनियम’ लागू होने के बाद से वहाँ वास्तव में सैनिक शासन जैसी ही स्थिति है। सशस्त्र बलों के हाथों 60,000 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं और 7000 लापता हैं। पहले कश्मीर के आत्मनिर्णय और आज़ादी की माँग करने वाले संगठनों की सेक्युलर साख थी, पर सैनिक दमन से पैदा हुए अलगाव और प्रतिक्रिया ने विगत दो दशकों के दौरान धार्मिक कट्टरपन्थी और पाकिस्तान-समर्थक अलगाववादी ग्रुपों को भी जड़ें ज़माने का अवसर दिया है। इस आलेख में उत्तर-पूर्व और कश्मीर घाटी की स्थिति की चर्चा के विस्तार में जाना न तो सम्भव है, न ही हमारा उद्देश्य है। यहाँ हम दो मुद्दे उठाना चाहते हैं। पहला मुद्दा इस फौरी माँग का है कि ए.एफ़.एस.पी.ए. जैसे बर्बर निरंकुश क़ानून को न केवल उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर से तत्काल हटाया जाना चाहिए, बल्कि इस प्रकार के हर ऐसे काले क़ानून को रद्द किया जाना चाहिए जो सेना या अर्द्धसैनिक बलों को आम नागरिकों की आज़ादी और जनवादी अधिकारों को कुचलने की छूट देता हो। इस सवाल पर जनवादी अधिकार आन्दोलन को विशेष बल देकर प्रचार करना होगा, उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर की ज़मीनी सच्चाइयों से लोगों को परिचित कराना होगा। दूसरा मुद्दा दूरगामी महत्व का है और थोड़ा जटिल और चुनौतीपूर्ण भी है। कोई भी जनवादी अधिकार आन्दोलन ऐसा नहीं हो सकता जो सत्ताधारियों और विशेषकर कट्टरपन्थी दक्षिणपंथियों के अन्धराष्ट्रवादी जुनूनी प्रचार और व्यापक जनता पर उसके प्रभाव का साहसपूर्वक सामना करते हुए विभिन्न राष्ट्रों और राष्ट्रीयताओं के आत्मनिर्णय के अधिकार की पुरज़ोर वक़ालत न करे। कोई भी राज्यसत्ता किसी क्षेत्र की जनता को बलप्रयोग के द्वारा यदि अपने मातहत रखती है तो एक जेनुइन जनवादी अधिकार आन्दोलन निश्चय ही उसका विरोध करेगा। उत्तर-पूर्व और जम्मू-कश्मीर के इतिहास और वर्तमान की सच्चाई से लोगों को परिचित कराना हमारी ज़िम्मेदारी है। यदि हम इन क्षेत्रों की जनता के जनवादी अधिकारों के सवालों को उठाते हैं तो कुछ समय तक, हो सकता है कि हमें अन्धराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों का कोप झेलना पड़े, लेकिन यदि हम लगातार व्यापक जनसमुदाय के बुनियादी अधिकारों के सवालों को उठाते हैं और लगातार उन्हें जनान्दोलनों का मुद्दा बनाते रहते हैं तो लोगों को अन्धराष्ट्रवादी पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर सच्चाई सुनने और उसके पक्ष में खड़ा होने के लिए तैयार किया जा सकता है।

(12) जनवादी अधिकार आन्दोलन के कार्यक्रम के दायरे को विस्तारित करके उसमें व्यापक जनसमुदाय के सभी अधिकारों को शामिल करना और उसे एक व्यापक, जुझारू जनान्दोलन के रूप में विकसित करना निश्चय ही एक श्रमसाध्य दीर्घकालिक प्रक्रिया होगी। इस प्रक्रिया के साथ-साथ, हमें कुछ फ़ौरी कामों को भी अंजाम देना होगा। जैसाकि हमने शुरू में ही कहा था, पूरे देश में आज दर्जनों छोटे-बड़े जनवादी अधिकार संगठन मौजूद हैं। राजकीय दमन-उत्पीड़न, काले क़ानूनों और धार्मिक कट्टरपंथियों की गतिविधियों के विरुद्ध वे लगातार आवाज़ उठाते रहते हैं। ये अलग-अलग आवाज़ें न्यूनतम सहमति के कम से कम कुछ मसले तय करके एक साथ उठें तो उनका दबाव निश्चित ही अधिक होगा। नवउदारवादी नीतियों पर अमल के वर्तमान दौर में, राज्यसत्ता का दमनकारी चरित्र ज्यादा से ज्यादा नंगा होता जा रहा है। ऐसे में, फ़ौरी तौर पर यह बेहद ज़रूरी है कि जनान्दोलनों के दमन, राजद्रोह के क़ानून, ए.एफ़.एस.पी.ए., छत्तीसगढ़ विशेष जनसुरक्षा अधिनियम आदि विविध काले क़ानून तथा बड़े पैमाने पर विस्थापन और बेदखली आदि मुद्दों पर सभी जनवादी अधिकार संगठन एक साथ आवाज़ उठायें। जनवादी अधिकार संगठनों के बीच कुछ सैद्धान्तिक मतभेद हो सकते हैं, उनकी सक्रियताओं के अलग-अलग दायरे हो सकते हैं और विशिष्ट स्थानीय मुद्दों को लेकर भी कुछ स्थानीय जनवादी अधिकार मंच हो सकते हैं, लेकिन उन सबके बीच न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर एक देशव्यापी संयुक्त मोर्चा भी अवश्य होना चाहिए। यह बेहद ज़रूरी है और सम्भव भी है।

निष्कर्ष के तौर पर….
इस आलेख में कई बिन्दुओं को समेटने की कोशिश की गयी है और इस कोशिश में शायद कुछ अनावश्यक विस्तार भी आ गया है। इसके लिए खेद है।
निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि मैंने तीन केन्द्रीय मुद्दों पर बल देने की कोशिश की है।
पहला, जनवादी अधिकार आन्दोलन को जनवादी चेतना वाले बुद्धिजीवियों के आन्दोलन के बजाय व्यापक सामाजिक आधार वाले जनान्दोलन के रूप में संगठित करना होगा । व्यापक जनता के बुनियादी जनवादी अधिकारों को इसके संघर्ष के एजेण्डा पर लाना होगा।
दूसरा, राज्यसत्ता के अतिरिक्त जनता के जनवादी अधिकारों का अपहरण करने वाली सामाजिक संस्थाओं-मूल्यों-मान्यताओं के विरुद्ध व्यापक जनजागरूकता मुहिम चलाना भी जनवादी अधिकार आन्दोलन का कार्यभार होना चाहिए। यानी जनवादी अधिकार आन्दोलन का चरित्र एक व्यापक और जुझारू सामाजिक आन्दोलन का भी होना चाहिए।
तीसरा, राज्यसत्ता के बढ़ते दमनकारी रुख के प्रभावी प्रतिकार के लिए जनवादी अधिकार आन्दोलन की बिखरी हुई ताक़त को राष्ट्रव्यापी स्तर पर एकजुट करने की प्रक्रिया शुरू करना आज की फ़ौरी ज़रूरत है। उपरोक्त पहले दो कार्यभारों की प्रक्रिया दीर्घकालिक होगी, लेकिन यह काम जल्दी से जल्दी हाथ में लिया जाना चाहिए कि आज देश में जो जनवादी अधिकार संगठन मौजूद हैं, उनका न्यूनतम साझा कार्यक्रम के आधार पर एक संयुक्त मोर्चा बनाया जाये।

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