संगोष्‍ठी के तीसरे दिन नेपाली क्रान्ति, महान बहस और माओवाद पर आलेख प्रस्‍तुत

पाँचवी अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी का तीसरा दिन
पहले सत्र में नेपाली क्रान्ति और वहाँ के हालिया घटनाक्रम पर चर्चा
दूसरे सत्र में “महान बहस” के पचास वर्ष और माओवाद पर आलेख प्रस्‍तुत 

इलाहाबाद, 12 मार्च। “समाजवादी संक्रमण की समस्‍याएं विषयक” पाँचवी अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी के तीसरे दिन का पहला सत्र नेपाली क्रान्ति की समस्‍याओं और वहाँ हाल के घटनाक्रम पर केंद्रित था। इस सत्र में नेपाल के क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में आये गतिरोध, विपर्यय और विघटन के पीछे के कारणों पर गहन विचार-विमर्श और बहस मुबाहसा हुआ। आज संगोष्‍ठी में चार आलेख प्रस्‍तुत किये गये। पहले सत्र में नेपाल पर केंद्रित दो आलेख और दूसरे सत्र में महान बहस और माओवाद के प्रश्न पर दो आलेख प्रस्‍तुत हुए। दूसरे सत्र के अन्‍त में का. अरविन्‍द के पचासवें जन्‍म दिवस के अवसर पर उनकी याद में एक सांस्‍कृतिक कार्यक्रम प्रस्‍तुत किया गया।

नेपाल से आये कवि संगीत श्रोता अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

नेपाल से आये कवि संगीत श्रोता अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

आज का पहला आलेख नेपाल से संगोष्‍ठी में हिस्‍सा लेने के लिए आये कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता संगीत श्रोता का था जिसका शीर्षक था समाजवादी संक्रमण और नेपाली क्रान्ति का सवाल’। इस आलेख में नेपाल में 1996 और 2006 के बीच चले जनयुद्ध की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए कहा गया कि नेपाल में 240 वर्षों से चली आ रही राजशाही की संस्‍था का पतन मुख्‍यत: जनयुद्ध की शक्ति की वजह से हुआ। 2006 का अप्रैल जनान्‍दोलन भी जनयुद्ध के ही आधार पर सफल हो सका। परन्‍तु आज नेपाल का माओवादी आन्‍दोलन संशोधनवाद की ओर कदम बढ़ा चुका है और उसमें दक्षिणपंथी प्रवृतियां भी हावी हो रही हैं। शान्ति प्रक्रिया में प्रवेश तथा संविधान सभा और सरकार में सहभागी होने के साथ ही माओवादी आन्‍दोलन जनता से कट गया और शहरी मध्‍यवर्ग, बुर्जुआ वर्ग, राज्‍य के ऊपरी स्‍तर के नौकरशाह, दलाल पूँजीपति, शहरी कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवियों और विदेशी शक्तियों के जाल में उलझता गया। पार्टी नेतृत्‍व पूरी तरह सरकारमुखी, सिंहदरबारमुखी और सुविधाभोगी होता चला गया। पार्टी में गुटबाजी और अनुशासनहीनता बढ़ती गयी। केन्‍द्रीय कमेटी का आकार बढ़ता गया परन्‍तु काडर के वैचारिक सांस्‍कृतिक शिक्षण-‍‍प्रशिक्षण पर कोई ध्‍यान नहीं दिया गया। नवगठित नेकपा (मा.) की भी स्थिति कमोबेश यही है।

अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास से जुड़े आनन्‍द सिंह अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास से जुड़े आनन्‍द सिंह अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

आज प्रस्‍तुत दूसरा आलेख अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास से जुड़े आनन्‍द सिंह ने प्रस्‍तुत किया जिसका शीर्षक था ‘नेपाली क्रान्ति : विपर्यय का दौर और भविष्‍य का रास्‍ता’। इस पेपर में कहा गया कि नेपाल में दूसरी संविधान सभा के चुनाव में एकीकृत नेपाली कम्‍युनिस्‍ट पार्टी (मा.) की हार के बाद यह स्‍पष्‍ट हो चुका है कि नेपाली क्रान्ति विच्‍युति, विचलन और भटकाव से आगे बढ़ विपर्यय के दौर में प्रविष्‍ट हो चुकी है। ऐसे में नेपाली क्रान्ति को सही रास्‍ते पर लाने के लिए विपर्यय के कारणों का निर्ममता से विश्‍लेषण करना होगा। पेपर में प्रस्‍तुत अवस्थिति के अनुसार नेपाल के क्रान्तिकारी आन्‍दोलन में मौज़ूदा विपर्यय एक दशक पहले से पार्टी में पनपने वाली संशोधनवादी दिशा की तार्किक परिणति है। इस विचाराधारात्‍मक भटकाव का प्रस्‍थान बिन्‍दु प्रचण्‍ड द्वारा समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा अधिनायकत्‍व के बरक्‍स बहुदलीय संसदीय प्रणाली की वकालत करनी शुरू की। जब प्रचण्‍ड यह संशोधनवादी लाइन दे रहे थे तो पार्टी के भीतर इसके खिलाफ कोई संघर्ष नहीं हुआ। हालांकि जब 2008 में प्रचण्‍ड  इस लाइन को विस्‍तार देते हुए प्रतिस्‍पर्द्धात्‍मक संघीय गणराज्‍य की बात की तो पार्टी के भीतर किरण धड़े ने इसका विरोध किया जिसकी वजह से इस लाइन को प्रत्‍यक्ष रूप से पीछे हटना पड़ा परन्‍तु यह सब कुछ राजनीति  को कमान में रखने की बजाय संगठन को कमान पर रखकर समझौता फार्मूले के रूप में हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि बुर्जुआ जनवाद के प्रति विभ्रम पार्टी में मौजूद रहा। पार्टी ने लाल सेना को सेना में विलय के नाम पर विघटित होने दिया, ग्रामीण क्षेत्रों में वैकल्पिक लोकसता के जो केन्‍द्र जनयुध्‍द के दौरान उभरे थे उन्‍हें विकसित करने के बजाय भंग कर दिया गया। पार्टी के मुखपत्रों में दक्षिणपंथी भटकाव की स्‍पष्‍ट अभिव्‍यक्‍तियों को भी पेपर में चिन्हित किया गया। 2012 में पार्टी से अलग होकर नई पार्टी का गठन करने वाले किरण-गजुरेल-बादल धड़े  के अतीत के आचरण और हाल की अभिव्‍यक्‍त‍ियों को इंगित करते हुए पेपर में कहा गया कि इस नयी पार्टी से भी यह उम्‍मीद बांधने का कोई आधार नहीं नजर आता कि यह नेपाली क्रान्‍त‍ि को सही रास्‍ते पर ला सकती है। लेकिन चूँकि नेपाली जनता में मुक्ति की आकांक्षाएँ अभी भी जीवित हैँ और विभिन्न संगठनों में क्रांति को समर्पित युवाओं की कमी नहीं है, इसलिए नई पीढ़ी से निश्चय ही ऐसे युवा निकलेंगे जो नेपाली क्रांति के इतिहास का सार-संग्रह करके उसे सही दिशा में ले जाएँगे।

‘दिशा संधान’ के संपादक सत्यम

‘दिशा संधान’ के संपादक सत्यम

नेपाली क्रांति से सम्बन्धित दोनों आलेखों पर चर्चा में ‘दिशा संधान’ के संपादक सत्यम ने कहा कि नेपाल क्रांति की मुख्‍य समस्‍या विचारधारात्‍मक है। पार्टी राज्‍य और क्रांति विषयक लेनिन की शिक्षाओं को और पेरिस कम्‍यून से लेकर चिली और इंडोनेशिया तक अंतरराष्‍ट्रीय कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के अनुभवों को भुलाकर संसदवाद के विभ्रमों का बुरी तरह शिकार हो गई। संसदीय चुनाव, सरकार में भागीदारी और संविधान सभा के मंच के इस्‍तेमाल करने को रणकौशल (टैक्टिक्‍स) के बजाय रणनीति (स्‍ट्रेटेजी) का सवाल बना देना उनकी गलतियों का मुख्‍य स्रोत था। सत्‍ता में आने के बाद एनेकपा (मा) के नेतृत्‍व का पूरा व्‍यवहार येनकेन प्रकारेण सत्‍ता में बने रहने के प्रयासों में दिखता था। बीच-बीच में जनयुद्ध में लौट जाने की धमकियां बस दोहराई जाती थीं। पार्टी की तमाम कार्रवाइयों से कार्यकर्ताओं और जनता के जुझारूपन और क्रांतिकारी चौकसी ढीली पड़ती गई और पार्टी जनता से दूर होती गई। दूसरी संविधान सभा के चुनाव में पार्टी की हार को केवल प्रतिक्रियावादियों की साजिश का नतीजा बताना असली कारण से मुंह चुराना है। बेशक, प्रतिक्रियावादियों की तरफ से घपले भी कराये ही गये होंगे मगर नेकपा (मा) ने ऐसी उम्‍मीद ही क्‍यों पाली थी कि बुर्जुआ ताकतें चुनाव निष्‍पक्षता से होने देंगी। चर्चा में औरंगाबाद के दत्तु, लखनऊ के अमेंद्र, दिल्ली के नवीन व अजय, गाजियाबाद के मनदीप और पंजाब के सुखविन्दर ने हिस्सा लिया।

नेपाल से आए दल की ओर से प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव मित्रलाल पंज्ञानी, राजेंद्र पौडेल तथा संगीत श्रोता ने बहस में शिरकत करते हुए इन बातों से सहमति व्‍यक्‍त की गई कि नेपाली क्रांति की मुख्‍य समस्‍या विचारधारात्‍मक ही है। संगीत श्रोता द्वारा प्रस्तुत पेपर पर टिप्पणी करते हुए कई वक्ताओं ने कहा कि हालांकि उसमें नेपाली क्रांति के मौजूदा संकट के लक्षणों को चिन्हित किया गया, परन्तु उसके मूल कारणों की पड़ताल नहीँ की गई है। इसके जवाब में संगीत श्रोता का कहना था कि उनका पेपर एक शोध पेपर नहीं बल्कि एक विचार-विमर्श आलेख है। आनन्द द्वारा प्रस्तुत पेपर पर नेपाली के साथी राजेन्द्र ने टिप्पणी की उसमें एक ओर जनयुद्ध को दुस्साहसवादी बताया गया है दूसरी ओर शांति प्रक्रिया के दौर को संशोधनवादी बताया गया है। आनन्द ने स्पष्ट करते हुए कहा कि पेपर में समूचे जनयुद्ध को दुस्साहसवादी नहीं कहा गया है बल्कि जनयुद्ध के शुरुआती दौर में सैन्यवादी भटकाव की बात कही गई है। इसके अलावा उसमें मौजूदा संकट की मुख्य वजह 2004 से ही पार्टी के दक्षिणपंथी विचारधारात्मक भटकाव रही है।

आज के दूसरे सत्र में दो पेपर प्रस्तुत हुए। पहला पेपर नौजवान भारत सभा गुड़गाँव के राजकुमार ने प्रस्तुत किया। यह पेपर 1960 के दशक की शुरुआत में चीनी पार्टी द्वारा ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के खिलाफ चलाई गई महान बहस के पचास वर्ष पूरे होने के बाद उसके विश्व ऐतिहासिक महत्व को रेखांकित करता था। दूसरा पेपर मुंबई के हर्ष ठाकोर ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था – माओ विचारधारा या माओवाद

विहान सांस्कृतिक मंच दिल्ली की टोली

विहान सांस्कृतिक मंच दिल्ली की टोली

आज के सत्र का समापन कामरेड अरविन्द के पचासवें जन्मदिवस पर उनको श्रद्धांजलि देते हुए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम प्रस्तुत हुआ। इस कार्यक्रम की शुरुआत में कामरेड अरविन्द को याद करते हुए सत्यम, आनन्द, अभिनव, योगेश और राजविन्दर ने उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को बड़ी आत्‍मीयता से याद किया। उन्होंने कहा कि का. अरविंद को महज़ 44 वर्ष का जीवन मिला जिसमें से 24 वर्ष उन्‍होंने सर्वहारा की मुक्ति के लिए होम कर दिये। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भर में कम्युनिज्म के खिलाफ़ दुष्प्रचार अपने चरम पर था, कामरेड अरविन्द एक सच्चे योद्धा की भांति वर्ग संघर्ष के मोर्चे पर अंतिम सांस तक डटे रहे। वह एक सरल, सहृदय किन्तु कम्‍युनिस्‍ट उसूलों पर दृढ़ आस्‍था रखने वाले व्‍यक्ति थे। वे हम सबकी स्‍मृतियों में हमेशा जीवित रहेंगे और हमने उनके साथ मिलकर जो सपने देखे थे उन्‍हें पूरा करने की राह पर हमें प्रेरित करते रहेंगे।

इसके बाद पंजाब से आये दस्‍तक सांस्‍कृतिक मंच की टोली और विहान सांस्‍कृतिक मंच दिल्‍ली की टोली ने अनेक हिन्‍दी, पंजाबी और स्‍पेनिश क्रान्तिकारी गीतों और कविताओं की प्रस्‍तुति की। इसके अलावा नेपाल से आये संगीत श्रोता ने अरविन्‍द को समर्पित अपना एक गीत प्रस्‍तुत किया।

 

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