अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के चौथे दिन ”उत्‍तर मार्क्‍सवाद” और बोलिवारियन विकल्‍प पर चर्चा

अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के चौथे दिन ”उत्‍तर मार्क्‍सवाद” और बोलिवारियन विकल्‍प पर चर्चा

शिवानी अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

शिवानी अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

इलाहाबाद,13 मार्च। अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के चौथे दिन आज दो महत्वपूर्ण पेपर प्रस्तुत किये गये और उन पर गहन विचार-विमर्श हुआ।
आज के दिन का पहला पेपर दिल्ली की शिवानी और बेबी ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था ‘‘उत्तर-मार्क्‍सवाद के कम्युनिज्मः उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी।’’ इस पेपर में कहा गया कि उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद जैसी तमाम ‘’उत्तर’’ विचारसरणियों के बुरी तरह पिट जाने के बाद अब मार्क्‍सवाद पर हमला करने के लिए उत्तर-मार्क्‍सवाद के रंगबिरंगे संस्‍करण सामने आये हैं। पूंजीवाद का विरोध करने के नाम पर छद्म मार्क्‍सवादी शब्‍दाडंबर रचते हुए इन तमाम विचारों का निशाना मार्क्‍सवाद के बुनियादी उसूलों पर हमला करना ही है। आज इन हमलों को ताकत देने के लिए बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरणों की पूरी ताकत झोंक दी गई है ताकि पूंजीवाद के गहराते विश्‍वव्‍यापी संकट के दौर में बढ़ते आंदोलनों और विकल्‍प तलाश रही जनता को दिग्‍भ्रमित किया जा सके। यह अनायास नहीं है कि पूँजीवाद, अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज्म के जरिये सहज गति से किस्म-किस्‍म के ‘‘रैडिकल’’ बुद्धिजीवियों को पैदा कर रहा है जो मार्क्‍सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे है। इन विचारधाराओं की आलोचना ज़रूरी है क्‍योंकि ये कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक हिस्‍से से लेकर छात्रों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे है।

AMS audienceपेपर में ऐलन बेज्यू के ‘‘कम्युनिज्म’’ के विचार को परिवर्तन की परियोजना से क्रान्तिकारी अभिकरण छीनने की निर्लज्ज और हताश कवायद करार दिया गया है। इसके अलावा स्लावोय जिजेक के ‘‘कम्युनिज्म एब्सकांडिटस’ के विचार को निठल्ला, निष्क्रिय और नुकसानदेह सैद्धान्तिकीकरण बताया गया है। जिजेक अलग-अलग दार्शनिक व्यवस्थाओं में समानांतर रेखायें खींचते है और फिर इन समानान्तर रेखाओं का इस्तेमाल समकालीन परिदृश्य की व्याख्या करने के लिए करते हैं। यह एक किस्म की सट्टेबाज दार्शनिक पद्धति ( स्पेक्युलेटिव फिलोसाफिकल मेथड ) है। लेकिन यह विश्लेषण वास्‍तव में कहीं नहीं ले जाता और दुनिया को बदलना तो दूर, दुनिया की आंशिक तौर पर व्याख्या भी नहीं कर पाता। कुल मिलकर लकाँ के मनोविश्लेषण, लेवी स्‍ट्रॉस के उत्तरसंरचनावाद, उत्तरआधुनिकतावाद और तमाम अन्य मार्क्‍सवाद विरोधी विचार-सरणियों से मिलने वाली जूठन का इस्तेमाल करते हुए इनका दर्शन अपनेआपके मार्क्‍स से ज्यादा रैडिकल दिखलाने का प्रयास करता है और लगातार यह दिखलाने का प्रयास करता है कि मार्क्‍स क्या-क्या नहीं समझ पाये और वे कहाँ-कहाँ गलत थे। उत्तर-मार्क्‍सवादियों के नये सैद्धान्तिकीकरण की मूल बात है कि सर्वहारा वर्ग इनके लिए अनुपस्थित हो चुका है और टटपुँजियां वर्ग परिवर्तन का नया अगुवा है। पेपर के अनुसार एण्टोनियो नेग्री  और माइकल हार्ट की अमूर्त अभौतिक, आकारविहीन सैद्धान्तिकी में पूँजीवाद एक अवैयक्तिक (इम्पर्सनल) शक्ति बन जाता है, प्रतिरोध अमूर्त चीज बन जाती है और प्रतिरोध करने वाले भी आकृतिविहीन वस्तु बन जाते है। यह पूरी अवधारणा बुनियादी मार्क्‍सवादी सिद्धान्तों पर हमला करने के लिए ही गढ़ी गई है। अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टल माउफ की ‘‘उग्र परिवर्तनववादी जनवाद’’ की अवधारणा की भी आलोचना रखी गई । कुल मिलाकर जैसा कि ज्यां पाल सात्र ने एक अलग सन्दर्भ में कहा था कि मार्क्‍सवाद-विरोधी ये विचारधाराएं जो कुछ सही कह रही हैं, वह मार्क्‍सवाद पहले ही कह चुका है और वे जो नया कह रहे है वह ग़लत है। दरअसल पुराने बुर्जुआ सिद्धान्तों की ‘‘शराब’’ को ही फ्रांसीसी दर्शन की नयी फैशनेबुल बोतल में परोस दिया गया है।

निष्कर्ष के तौर पर शिवानी व बेबी के पेपर में कहा गया है कि उत्तर-आधुनिकतावाद का प्रतिक्रियावादी चरित्र बेनकाब होने के बाद अब इन नये दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद विरोध की नयी भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की ‘‘अपने किस्म की आलोचना’’ कर रहे हैं। इन तमाम उत्तर-मार्क्‍सवादियों की दार्शनिक आवारागर्दी की कठोर आलोचना की जरूरत है और इनके विचारों के वास्तविक मार्क्‍सवाद विरोधी चरित्र को साफ करने की जरूरत है।

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सनी

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सनी

दूसरा पेपर दिल्ली विश्‍वविद्यालय के सनी सिंह और अरविन्द ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक  था ‘‘बोलिवारियन विकल्पः विभ्रम और यथार्थ’’। ह्यूगो शावेज़ के वेनेजुएला और बोलिविया जैसे लैटिन अमेरिका के अन्य देशों में 21वीं सदी का समाजवाद के नाम से जो बोलिवारियन विकल्प प्रस्तुत किया जा रहा है, इस पेपर में उसकी दार्शनिक अवस्थिति का मार्क्‍सवादी नजरिये से आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसमें इस्‍तवान मेस्जारोस के संक्रमण सिद्धान्त और क्रान्ति रहित संक्रमण की बात की आलोचना रखते हुए कहा गया है  उन्‍होंने मार्क्‍सवाद की धुरी छोड दी है। इसके अतिरिक्त पेपर में लेबोवित्ज के राजनीतिक मॉडल और मार्ता आनेकर के सांगठनिक संशोधनवाद की आलोचना भी प्रस्तुत की गई। लैटिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोध के इतिहास का संक्षिप्‍त विवरण प्रस्तुत करते हुए पेपर में बोलेवारियन क्रान्ति को साम्राज्यवाद विरोध की जनभावना पर खड़ा हुआ कल्याणवाद और ‘’प्रगतिशील बोनापार्टवाद’’ बताया गया है। इसमें चार तत्वों का मिश्रण है लातिन अमेरिका में जनता के बीच साम्राज्यवाद के विरुद्ध जबर्दस्त भावना की मौजूदगी, दूसरा रैडिकल प्रगतिवादी बोनापार्टवाद, तीसरा पेट्रो डालर की अर्थव्यवस्था से वित्त पोषित राजकीय कल्याणवाद और चौथा एक प्रकार का संघाधिपत्यवादी तृणमूल जनवाद। हालाँकि दुनिया भर में राष्ट्रीय प्रश्नों के हल होने और नवस्वाधीन देशों में पूँजीवादी विकास मुकम्मिल मंजिल तक पहुँचने के कारण वहां राष्ट्रीय बुर्जुआजी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए अप्रांसगिक हो चुकी है और उसका कोई भी हिस्सा ‘‘राष्ट्रीय’’ नहीं रह गया है, लेकिन लातिन अमेरिका की विशिष्ट स्थितियों में राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग कालदोषात्मक तौर पर एक मायने में प्रांसगिक बना हुआ है और शावेज, इवो मोरालेस आदि की सत्ता अलग-अलग अर्थों में इसी प्रकार के साम्राज्यवाद-विरोधी, रैडिकल राष्‍ट्रीय बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन ये विकल्प किसी भी रूप में पूँजीवादी व्‍यवस्‍था का विकल्‍प पेश नहीं करते, वे बस साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी है और वे स्वयं एक इजारेदारी रहित, कल्याणवादी, अल्पउपभोगवादी पूँजीवाद के ही पैरोकार है, जिसे कुछ निराश ‘‘वाम‘‘ बुद्धिजीवी अपनी निराश के कारण समाजवाद का नया मॉडल समझ बैठे है।

दोनों आलेखों को प्रस्तुत करने के बाद चली बहस में आजमगढ़ से आये ए.एन. द्विवेदी, जयपुर के पी.एल. शकुन, दिल्ली के अविनाश भारती, जेएनयू के अक्षय, गोरखपुर से प्रमोद, दिल्‍ली से अभिनव, सनी आदि ने हिस्सा लिया। अध्यक्ष मण्डल में सिरसा के वरिष्‍ठ सामाजिक कार्यकर्ता कश्मीर सिंह, शहीद भगतसिंह क्लिनिक, लुधियाना के  डा.अमृत और नोएडा से आये तपीश मैंदोला शामिल थे। संचालन आनन्द ने किया।

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