मजदूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ

     

मजदूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ

द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख

शेख अंसार
जनरल सेक्रेटरी, प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ, छत्तीसगढ़
उपाध्‍यक्ष, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा

इतिहास इस बात का गवाह है कि मजदूर आन्दोलन दुनिया में कहीं भी, ठहराव को तोड़कर लम्बी छलाँग ले पाने में और नयी ऊँचाइयों को छू पाने में तभी सफल हुआ है, जब उसने अपने अन्दर की विजातीय प्रवृत्तियों से, तमाम गैरसर्वहारा लाइनों से निर्मम, समझौताहीन संघर्ष किया है। जब ठहराव का दौर होता है और भटकावों का बोलबाला होता है तो मजदूर आन्दोलन के भीतर हावी कठमुल्लावाद, बौध्दिक अवसरवाद, अर्थवाद-संसदवाद, स्वयंस्फूर्ततावाद तथा ”वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी भटकावों की रंग-बिरंगी अभिव्यक्तियों के खिलाफ केवल वही लोग मोर्चा ले पाते हैं, जिनमें तोहमतों-गालियों-छींटाकशियों की परवाह किये बिना धारा के विरुध्द तैरने का सच्चा लेनिनवादी साहस हो।

हम इस पर खुलकर और लम्बी बहस के लिए तैयार हैं, लेकिन हमें यह बात निर्विवाद लगती है कि पूरी दुनिया की और भारत की बदली हुई आर्थिक-राजनीतिक परिस्थितियों में क्रान्तिकारी मजदूर आन्दोलन का नयी जमीन पर, नये नक्शे के हिसाब से पुनर्निर्माण करना होगा। कहने की जरूरत नहीं कि उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी के सभी मजदूर आन्दोलनों और सर्वहारा क्रान्तियों की विरासत हमारी धरोहर है, उनके बिना हम यहाँ नहीं होते और वर्तमान तथा भविष्य के बारे में विचार-विश्लेषण भी नहीं कर पाते। लेकिन अतीत के इन संघर्षों के दोहराव मात्र से नया भविष्य नहीं रचा जा सकता। परम्परा के पक्ष पर आज परिवर्तन के पक्ष की प्रधानता कायम हो चुकी है। परम्परा से काफी कुछ लेना और सीखना है, लेकिन विश्व पूँजीवाद की संरचना तथा पूँजीवादी उत्पादन एवं विनिमय की प्रक्रिया में आये बदलावों को वैज्ञानिक भौतिकवादी पद्धति से समझकर मजदूर आन्दोलन की नयी रणनीति और नयी राह विकसित करनी ही होगी। नयी परिस्थितियों को समझकर नयी राह विकसित करने में, मजदूर आन्दोलन के अन्दर मौजूद भटकाव सबसे अधिक बाधा पैदा करते हैं। कठमुल्लावादी अड़ जाते हैं कि यदि हम साम्राज्यवादी दुनिया में जी रहे हैं तो यह हूबहू वैसी ही है, जैसी लेनिन ने बतायी थी या 1963 में चीन की पार्टी ने बतायी थी। दूसरी ओर बौध्दिक अवसरवादी हैं जो साम्राज्यवाद के वर्तमान दौर का अथवा अतीत के समाजवादी प्रयोगों का बुध्दिविलासी विश्लेषण करते-करते ”मुक्त चिन्तक” बन जाते हैं और सिध्दान्त के विकास के दावे करते हुए अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की गन्दगी में मुँह के बल जा गिरते हैं।

इन्हीं कारणों से हमने तय किया कि आज की दुनिया की नयी परिस्थितियों में भारतीय मजदूर आन्दोलन की दिशा और सम्भावनाओं की चर्चा से पहले हम उन विजातीय प्रवृत्तियों की चर्चा करेंगे, जो बदलाव की दिशा को समझने और कार्यदिशा तय करने में बाधा पैदा करती रही हैं।

मजदूर आन्दोलन में संशोधनवाद, अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद के घुटे-घुटाये प्रतिनिधि भाकपा, माकपा, भाकपा-मा.ले. (लिबरेशन) जैसे संसदीय वामपन्थी दल और उनसे सम्बध्द ट्रेड यूनियनें तो हैं ही, लेकिन क्रान्तिकारी वाम धारा के जो संगठन जनदिशा को अमल में लाने का दावा करते हैं और देश के मुख्तलिफ इलाकों में ट्रेड यूनियनें चलाते हैं, उनके आचरण में भी बस इतना ही फर्क है कि सीटू, एटक आदि के अर्थवाद के बरक्स वे मुकाबलतन ज्यादा जुझारू चेहरे वाले अर्थवाद की और ट्रेड यूनियनवाद के बरक्स जुझारू ट्रेड यूनियनवाद की बानगी पेश करते हैं। उनकी सारी कवायद आर्थिक और अति सीमित तात्कालिक, स्थानीय राजनीतिक अधिकारों की लड़ाई तक ही सीमित होती है। न तो (राजनीतिक अखबार या अन्य किसी माध्‍यम से) मजदूर वर्ग की क्रान्तिकारी राजनीतिक शिक्षा का और उसे उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराने का काम वे अपने हाथ में लेते हैं, न ही उसके राजनीतिक संघर्ष को आगे ले जाने की कोई सोच उनमें दिखती है। लेनिनवादी भाषा में कहें तो मजदूर वर्ग में उनका जनकार्य आर्थिक संघर्षों तक सीमित होता है और पार्टी कार्य तो कुछ व्यक्तिगत सम्पर्क बनाने और सेल-फ्रैक्शन आदि की कुछ रुटीनी मीटिंगों से आगे जाता ही नहीं। कुछ ऐसे भी क्रान्तिकारी वाम संगठन हैं जो सर्वहारा का वर्गीय आन्दोलन खड़ा करने के बजाय कुछ पॉपुलर माँगों पर एकाध जुझारू जनान्दोलन खड़ा कर लेते हैं और फिर उसी साख को लम्बे समय तक भुनाते रहते हैं। कुछ ऐसे हैं, जिनकी ताकत इतनी भी नहीं है। वे लोग कुछ रुटीनी कामों में दशकों से लगन के साथ लगे हुए हैं। क्लर्कों जैसी यह लगन भी क्रान्तिकारियों की सेहत के लिए ठीक नहीं होती।

पेपर प्रस्‍तुत करते हुए शेख अंसार

पेपर प्रस्‍तुत करते हुए शेख अंसार

”वामपन्थी” दुस्साहसवाद का विरोध करने वाले और जनदिशा लागू करने की बात करने वाले अधिकांश क्रान्तिकारी वाम संगठन आज भी भारत को जनवादी क्रान्ति की मंजिल में मानते हैं। चूँकि जमीन के मालिकाने का सवाल तो कहीं मौजूद नहीं दीखता और भूमिहीनों को जमीन बाँटने का मसला भी आज देश के देहाती इलाकों में व्यापक संघर्ष का मसला बनता नहीं दीखता, इसलिए वे मालिक किसानों के लिए खेती का लागत मूल्य घटाने और कृषि-उत्पादों का लाभकारी मूल्य माँगने के आन्दोलन में मशग़ूल होकर नरोदवादियों जैसा आचरण करने लगते हैं। जाहिर है कि कृषि-उत्पादों के लाभकारी मूल्य का बोझ भी बाजार से खरीदकर खाने वाले उन उपभोक्ताओं पर ही पड़ेगा जिसका आधे से भी अधिक भाग गाँव और शहर की सर्वहारा और अर्ध्दसर्वहारा आबादी है। यदि सरकार मालिक किसानों को लाभकारी मूल्य देने के लिए सरकारी खजाने से सब्सिडी भी दे, तो वह बोझ भी घुमाकर आम मेहनतकश आबादी पर ही पड़ेगा क्योंकि उसी से वसूले गये परोक्ष करों से सरकारी खजाने का बड़ा हिस्सा आता है। अब यदि बीज, खाद, बिजली, कीटनाशक आदि का मूल्य घटाकर खेती की लागत घटायी जाये तो भी यह बोझ मजदूर पर ही जायेगा क्योंकि किसी भी चीज का मूल्य केवल तभी घटाया जा सकता है जब उसके उत्पादन में लगी श्रमशक्ति का मूल्य घटा दिया जाये (क्योंकि कच्चे माल का मूल्य तो सीधे उत्पाद के मूल्य में संक्रमित हो जाता है)। मार्क्‍सवादियों का काम है छोटे-मँझोले मालिक किसानों को पूँजीवादी खेती में उनकी तबाही-बर्बादी की अनिवार्यता से परिचित कराकर सबको रोजगार, आवास, स्वास्थ्य आदि के अधिकार के नारों पर मजदूर वर्ग के साथ खड़ा करना तथा उन्हें समाजवाद के लक्ष्य के निकट लाना। लेकिन हमारे देश के वामपन्थी छोटे मालिकों को बड़े मालिकों का पुछल्ला बना देते हैं और मूल्य की लड़ाई लड़ते हुए गाँव और शहर की उस सर्वहारा आबादी के हितों के ही खिलाफ खड़े हो जाते हैं, जिसका वे हरावल होने का दम भरते हैं और जिसकी आबादी आज देश की कुल आबादी के आधे से भी अधिक हो चुकी है। यह उन क्रान्तिकारी वामपन्थी संगठनों का नरोदवादी आचरण है जो मजदूरों में अर्थवादी कवायदें कर रहे हैं और मालिक किसानों की उन माँगों पर पॉपुलिस्ट किस्म के आन्दोलन कर रहे हैं जो सीधे सर्वहारा-विरोधी माँगें हैं। सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों की गलत समझ पर आधारित कार्यक्रम को कोई क्रान्तिकारी संगठन यदि लगातार लागू करता रहे तो वस्तुगत तौर पर मजदूर हितों का विरोध करते-करते कालान्तर में, मनोगत तौर पर भी वह भटकाव का शिकार हो जायेगा और फिर वह समय भी आयेगा कि उसका वर्गचरित्र ही बदल जायेगा। जाहिर है कि जो क्रान्तिकारी वाम संगठन ऐसे नरोदवादी भटकाव के शिकार हैं वे मजदूर आन्दोलन को क्रान्तिकारी दिशा कतई नहीं दे सकते। कर्त्तव्‍य-निर्वाह के नाम पर, ‘कम्युनिस्ट’ कहलाने की लाज बचाने के लिए वे बस कुछ अर्थवादी अनुष्ठान मात्र करते रह सकते हैं।

अब हम ”वामपन्थी” दुस्साहसवादी धारा की बात करें। यहाँ हम याद दिला दें कि चारु मजूमदार के नेतृत्व वाली भाकपा (मा-ले) ने किसी भी प्रकार के जनसंगठन व ट्रेड यूनियन के काम को संशोधनवादी घोषित करने के बाद शंकर गुहा नियोगी को निहायत गैरजनवादी तरीके से पार्टी से निष्कासित कर दिया था। उसके बाद ही छत्तीसगढ़ के मजदूरों का जनदिशा-आधारित आन्दोलन खड़ा करने का काम कुछ मजदूर साथियों के साथ मिलकर नियोगीजी ने किया। हम उसी धारा के लोग हैं। नियोगीजी ने जीवनपर्यन्त हम मजदूरों को एक ओर अर्थवाद-संशोधनवाद और दूसरी ओर ”वामपन्थी” दुस्साहसवादी भटकाव से लड़ने की शिक्षा दी। उनका जोर लगातार इस बात पर रहता था कि मार्क्‍स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ का सच्चा शिष्य वही है जो कठमुल्लावाद से मुक्त होकर ठोस परिस्थितियों का अध्‍ययन करे, जनता से सीखे, जनदिशा को लागू करे और जनवादी केन्द्रीयता पर सांगठनिक ढाँचा बनाकर आचरण करे। नियोगीजी ने इस आधार पर एक ऐसा सशक्त मजदूर आन्दोलन खड़ा किया और मजदूर वर्ग की पहलकदमी पर जन संस्थाएँ एवं जनमंच खड़ा करने के ऐसे प्रयोग किये जो भारतीय मजदूर आन्दोलन के इतिहास के मील के पत्थर थे। लेकिन लीक से हटकर मजदूर आन्दोलन खड़ा करने का प्रयोग करने की परेशानियों-व्यस्तताओं से जूझते हुए वे अपनी ही कुछ मान्यताओं को लागू नहीं कर सके तथा अपने ही कुछ प्रयोगों के विश्लेषण-समाहार का उन्हें अवसर नहीं मिला। आज इनकी चर्चा बेहद जरूरी है। नियोगीजी की दृढ़ मान्यता थी कि केवल ट्रेड यूनियन संघर्ष या आर्थिक संघर्षों से ही मजदूर मुक्ति या समाजवाद की राह नहीं फूटती। मजदूर वर्ग का राजनीतिक संघर्ष जरूरी है और उसका नेतृत्व देने वाली एक हरावल क्रान्तिकारी पार्टी जरूरी है। इसकी चर्चा उनके कई साक्षात्कारों में है और अपनी हत्या की सम्भावना के मद्देनजर उन्होंने अपना जो आखिरी सन्देश रिकॉर्ड कराया था उसमें भी बल देकर कहा था कि जब भी ऐसी कोई क्रान्तिकारी पार्टी बनने की प्रक्रिया चले, छत्तीसगढ़ के मजदूरों को बेहिचक उसके पीछे खड़ा हो जाना चाहिए। अपने उसी सन्देश में उन्होंने एक बार फिर संशोधनवादी-अर्थवादी और ”वाम” आतंकवादी भटकावों से सावधान किया था और दो ऐसे क्रान्तिकारी संगठनों की चर्चा की थी जो यदि अपने इन भटकावों से मुक्त हो जाते तो अहम भूमिका निभा सकते थे। समय ने उनकी उम्मीदों को सही नहीं साबित किया। उनमें से एक संगठन आज पूर्णत: संसदवाद के कीचड़कुण्ड में धंसा हुआ है तो दूसरा ”जंगल और बन्दूक” की ”वामपन्थी” दुस्साहसवादी राजनीति को उसकी तार्किक परिणतियों तक पहुँचाने पर आमादा है। मजदूर आन्दोलन की व्यस्तताओं ने नियोगी को बहुतेरे सैध्दान्तिक प्रश्नों पर गहराई से सोचने और लिखने का अवसर नहीं दिया। बहुत सारे प्रश्नों पर उनके विचार साक्षात्कारों और टिप्पणियों के रूप में ही मौजूद हैं। निश्चय ही आज उनके विचारों में हमें कई जगह अन्तरविरोध और कमियाँ भी दिख सकती हैं। यह भी सही है कि वे मार्क्‍सवादी विचारों से लैस मजदूर संगठनकर्ता थे और अपनी इसी भूमिका पर केन्द्रित रहे। अपने अनुभवों का समाहार करके सीखते हुए आगे बढ़ते जाना उनकी आदत थी और एक सच्चे मार्क्‍सवादी की तरह वे अपने को त्रुटिहीन नहीं मानते थे। आज से उन्नीस साल पहले यदि उनकी हत्या नहीं हो गयी होती, तो उदारीकरण-निजीकरण के गत दो दशकों की मूल गतिकी को समझकर मजदूर आन्दोलन की दिशा तय करने में उन्होंने निश्चय ही महत्वपूर्ण भूमिका निभायी होती तथा भारतीय मजदूर वर्ग की एक अखिल भारतीय क्रान्तिकारी पार्टी की जिस जरूरत पर अपने अन्तिम सन्देश में उन्होंने बल दिया था, शायद उस दिशा में जारी प्रयासों में भी उनकी भूमिका होती। आज हमारे सामने उनकी जो सकारात्मक विरासत है, वह यह कि (1) वे एक ओर अर्थवाद-संशोधनवाद-ट्रेड यूनियनवाद और दूसरी ओर ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद – दोनों के विरोधी थे, (2) वे ट्रेड यूनियन के अतिरिक्त मजदूर मुक्ति के लिए मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी विचारधारा से लैस, जनदिशा को लागू करने वाली और जनवादी केन्द्रीयता पर आधारित एक क्रान्तिकारी सर्वहारा पार्टी के निर्माण एवं गठन को आवश्यक मानते थे, (3) मजदूर वर्ग को भावी समाज-निर्माण की शिक्षा देने के लिए उसकी सामूहिक पहलकदमी जागृत करने के लिए तथा उसके बीच क्रान्तिकारी राजनीति का मजबूत आधार तैयार करने के लिए वे तरह-तरह की संस्थाओं के निर्माण पर बल देते थे और इसे ‘संघर्ष और निर्माण’ की राजनीति का नाम देते थे (शहीद अस्पताल, मजदूर बस्तियाँ बसाना, मजदूरों के बच्चों के लिए वैकल्पिक स्कूलिंग, मजदूरों के तकनीकी प्रशिक्षण के लिए गैराज, उनके बीच पर्यावरण जागरूकता के लिए वन लगाना आदि ऐसे ही प्रयोग हैं)। नाम चाहे जो हो, अन्तर्वस्तु पर ध्‍यान दिया जाना चाहिए और नियोगी की इस विरासत को भारतीय मजदूर आन्दोलन की क्रान्तिकारी पुनर्निर्माण की धारा से जोड़ा जाना चाहिए। अन्यथा एन.जी.ओ. वाले और भाँति-भाँति के सुधारवादी नियोगी की विरासत को तोड़-मरोड़कर, विकृत करके अपनाने की कोशिश करते रहेंगे।

”वामपन्थी” दुस्साहसवादी धारा की चर्चा से पहले शहीद शंकर गुहा नियोगी की राजनीतिक विरासत पर इतनी चर्चा जरूरी है। हम जिस क्षेत्र में मजदूरों के बीच काम करते हैं, उसी से सटा क्षेत्र आजकल भाकपा (माओवादी) की राजनीति की मुख्य प्रयोग-स्थली बना हुआ है जो ”वामपन्थी” दुस्साहसवादी राजनीति का ही नया संस्करण है। यह सही है कि आधी सदी से शासकीय उपेक्षा तथा पुलिस-नौकरशाही और ठेकेदारों के उत्पीड़न के शिकार आदिवासियों के बीच व्यापक रचनात्मक कार्य करके तथा शोषकों के प्रतिरोध के लिए उन्हें संगठित करके माओवादियों की ”जनताना सरकार” ने उनके बीच जबरदस्त आधार तैयार किया है। ”मुक्त क्षेत्र” के बारे में अरुन्धती राय और गौतम नवलखा की रिपोर्टें गलत नहीं हैं। लेकिन हमारा विनम्र निवेदन है कि दण्डकारण्य का यह इलाका पूरा भारत नहीं है। यदि यही पूरा भारत होता तो हम मान लेते कि एक पिछड़े देश में लोकयुध्द सफलता से जारी है। ऐसे सभी दुर्गम अंचल भारत के कुल क्षेत्रफल के दस प्रतिशत से भी कम हैं और आदिवासी आबादी आठ प्रतिशत के आसपास। दण्डकारण्य जैसे कई मुक्त क्षेत्र (आर्थिक, राजनीतिक, सामरिक – तीनों ही दृष्टि से) भारतीय बुर्जुआ राज्यसत्ता के लिए कोई चुनौती नहीं हो सकते, बस थोड़ा सिरदर्द पैदा कर सकते हैं, मीडिया को बुर्जुआ प्रचार का थोड़ा मसाला मुहैया कर सकते हैं और शहरी पढ़े-लिखे रूमानी मध्‍यवर्गीय शेखचिल्लियों को आनन-फानन में क्रान्ति की खुशफहमी पालने का मौका दे सकते हैं। हम मानते हैं कि ऐसे आधारक्षेत्रों को राज्यसत्ता आसानी से तबाह नहीं कर सकती और अर्ध्दसैन्य बलों का दमन आदिवासी जनता के प्रतिरोध को और अधिक हवा देगा। लेकिन यह आग इस दुर्गम क्षेत्र के बाहर उन विस्तृत मैदानी इलाकों तक कतई नहीं फैल सकती, जहाँ सुदूरवर्ती गाँवों तक पूँजी की पैठ और बाजार की पकड़ बन गयी है, संचार-यातायात-परिवहन का संजाल बिछ गया है और भूमि-सम्बन्ध बदल गये हैं। इस उत्तर-औपनिवेशिक पिछड़े पूँजीवादी देश में कुछ ”चिंगकांगशान” बन भी जायें तो भी न ”येनान” बन सकते हैं न ही गाँवों से शहरों को घेरने की क्रान्तिकारी सामरिक नीति कारगर हो सकती है। भारत की तकरीबन 1 अरब 30 करोड़ आबादी में गाँवों और शहरों के सर्वहारा-अर्ध्दसर्वहारा की संख्या आज 75 करोड़ से भी अधिक है। औद्योगिक सर्वहारा की आबादी 15 करोड़ से कम कतई नहीं है। उजरती ग़ुलामों की इस विराट शक्ति को आर्थिक संघर्षों और राजनीतिक संघर्षों के लिए संगठित करने के बजाय यदि खुद को कम्युनिस्ट कहने वाले लोग बेहद पिछड़े क्षेत्र के पिछड़े उत्पादन-सम्बन्धों में जीने वाले पिछड़ी चेतना वाले (लेकिन बेहद लड़ाकू) आदिवासियों को संगठित करके उन्हें सर्वहारा क्रान्ति का नेता बनाना चाहते हैं तो यही कहा जा सकता है कि उन्हें मार्क्‍सवाद का अध्‍ययन करना चाहिए। ऐसे लोग सर्वहारा क्रान्तिकारी नहीं बल्कि बिरसा मुण्डा जैसे आदिवासी विद्रोहियों के वारिस और नये संस्करण हैं। यह आश्चर्य नहीं कि इन माओवादियों का काम आन्‍ध्र, बिहार, झारखण्ड आदि राज्यों के मैदानी ग्रामीण इलाकों में समाप्तप्राय हो गया। यहाँ-वहाँ इन्होंने किसानों के बीच जनसंगठन बनाये भी तो वही लागत मूल्य-लाभकारी मूल्य की नरोदवादी लड़ाई में जा फँसे और कहीं नहीं पहुँचे। कहीं-कहीं औद्योगिक मजदूरों में कुछ किया भी तो कुछ सम्पर्क बनाने और कुछ जुझारू अर्थवादी लड़ाइयाँ लड़ने से आगे कुछ नहीं कर पाये। राज्यसत्ता के दमन-उत्पीड़न और जनवादी अधिकारों के सवाल पर हम बेशक इन ”वामपन्थी” दुस्साहसवादियों के पक्ष में आवाज उठाते हैं, लेकिन इनकी राजनीति एक निम्नपूँजीवादी भटकाव है जो मजदूर वर्ग के लिए बेहद हानिकारक है।

यह एक विचित्र विडम्बना है कि नियोगीजी जीवनपर्यन्त ”वामपन्थी” भटकाव का विरोध करते रहे, लेकिन उन्हीं के योग्य शिष्य होने का दावा करने वाले हमारे ही बीच के कुछ ”भुँइफोड़” नेताओं को भी इस राजनीति ने आकृष्ट किया और निहायत षडयन्त्रकारी तरीके से हमारे आन्दोलन में तोड़फोड़ करते हुए कुछ मजदूरों को बरगलाने में वे सफल भी हुए। लेकिन मजदूर अपनी सहज वर्ग प्रवृत्ति से ”वामपन्थी” दुस्साहसवाद की निरर्थकता को समझ लेता है। दूर बैठे बुध्दिजीवियों को सशस्त्र संघर्ष की सिनेमाई कल्पना देर तक बाँधे रहती है, पर मजदूरों को जल्दी ही समझ आ गया कि ”जंगल और बन्दूक” की राजनीति में उनकी कोई भूमिका नहीं बनती। नतीजतन, उनका मोहभंग होते समय नहीं लगा।

शंकर गुहा नियोगी की मृत्यु के बाद हमारे बीच से कुछ लोगों ने छत्तीसगढ़ मजदूर आन्दोलन को रुटीनी जुझारू ट्रेड यूनियनवादी कवायदों तक सीमित करने की कोशिश की और तोड़फोड़ की। आज वे विसर्जित होकर बुर्जुआ राजनीति के शरणागत हो चुके हैं। फिर कुछ गगनविहारी मंसूबावादियों ने मजदूरों को ”वामपन्थी” आतंकवाद के रास्ते त्वरित मुक्ति के स्वप्न दिखाये। जल्दी ही मजदूरों को असलियत समझ आने लगी और आकाशचारी बुध्दिजीवी नेता हवा में विलुप्त हो गये। इसके पहले क्रान्तिकारी ”वाम” धारा से छिटके कलकत्ता के कानोड़िया मिल आन्दोलन के कतिपय ट्रेड यूनियनवादी, संघाधिपत्यवादी नेता भी इस मुगालते में छत्तीसगढ़ आये थे कि नियोगी की मृत्यु से पैदा हुई रिक्तता का लाभ उठाकर हमें वे अपनी जेब में लेकर चल देंगे। लेकिन संघर्ष के अनुभवों से लैस मजदूर अपने सहज वर्ग-बोध से सही-गलत की पहचान कर लेता है। ”बंगाली बाबू क्रान्तिकारियों” को मायूस, खाली हाथ लौटना पड़ा।

इस तरह दक्षिणपन्थी और ”वामपन्थी” दोनों ही किस्म के अवसरवादी भटकावों से जुझती हुई नियोगी जी द्वारा प्रवर्तित छत्तीसगढ़ मजदूर आन्दोलन की धारा आज इस मुकाम पर नयी चुनौतियों के रूबरू खड़ी है। हमें इस बात का गहराई से अहसास है कि नियोगीजी की मृत्यु के बाद उदारीकरण-निजीकरण के बीस वर्षों ने उत्पादन एवं विनिमय की प्रक्रिया, शोषण के तौर-तरीकों तथा पूँजी और श्रम के बीच के अन्तरविरोधों की प्रकृति में बहुत सारे बदलाव पैदा किये हैं। नियोगीजी यदि स्वयं जिन्दा होते तो मजदूर आन्दोलन की नीति-रणनीति में अब तक बहुत सारे बदलाव और प्रयोग कर चुके होते। उनकी अचानक हत्या के समय वैचारिक रूप से परिपक्व नेतृत्व की दूसरी कतार तैयार नहीं थी। यूनियनों-जनसंगठनों के ढाँचों में भी काफी अनौपचारिकतावाद था, जिसका अवसरवादियों ने काफी लाभ भी उठाया। छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा जैसे जनसंगठन का भी औपचारिक ढाँचा नहीं था और इस प्रयोग का तथा चुनाव में भागीदारी के प्रयोग का सार-संकलन भी अभी नहीं किया गया था। ऐसे ही समय में नियोगी की हत्या हुई। उसके बाद, हमने अपनी पूरी ताकत ”वाम” और दक्षिण के भटकावों से लड़ने में खर्च की। अब हम दृढ़ता से इस एजेण्डा पर काम कर रहे हैं कि जिनके साथ लम्बे विचार-विमर्श के बाद बोध और धारणा के स्तर पर हमारी एकता बनती है, उनके साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर भूमण्डलीकरण के दौर में भारत के मजदूर आन्दोलन के संघर्ष का एजेण्डा नये सिरे से तय किया जाये, मजदूर आन्दोलन के देशव्यापी क्रान्तिकारी पुनरुत्थान की एक ठोस कार्ययोजना हाथ में ली जाये, आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों के साथ ही मजदूर वर्ग के बीच क्रान्तिकारी प्रचार, शिक्षा एवं उद्वेलन की कार्रवाई विभिन्न माध्‍यमों से (राजनीतिक अखबार, अध्‍ययन मण्डल आदि-आदि) लगातार चलाते हुए उसको उसके ऐतिहासिक मिशन और क्रान्ति के विज्ञान से परिचित कराया जाये तथा नये सिरे से, मजदूर वर्ग की नेतृत्वकारी शक्ति को – एक सच्ची सर्वहारा हरावल पार्टी को खड़ी करने की कोशिश की जाये।

दक्षिणपन्थी, ”वामपन्थी,” ”नरोदवादी,” अराजकतावादी संघाधिपत्यवादी और बौध्दिक अवसरवादी भटकावों से ग्रस्त आज के जो बचे-खुचे कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन हैं, ये काफी हद तक सिकुड़कर वाम बुध्दिजीवियों के छोटे-छोटे गुट बनकर रह गये हैं। कुछ ऐसे हैं जो स्वयं में कई गुटों के ढीले-पोले संघ हैं। इन्हें देखने-समझने के अनुभवों से हम लोग विगत करीब डेढ़-दो दशकों से गुजर रहे हैं। मजदूर वर्ग की मुक्ति स्वयं उसका काम है। वाम बुध्दिजीवी गुटों में तब्दील हो चुके क्रान्तिकारी वामपन्थी संगठनों की एकता से सर्वहारा वर्ग की कोई अखिल भारतीय पार्टी नहीं बन सकती। व्यापक संघर्षों और उनके अनुभवों के समाहार के आधार पर मजदूर वर्ग की एकता लड़कर हासिल की जायेगी और वही किसी क्रान्तिकारी नेतृत्वकारी केन्द्र के निर्माण के लिए भी अनुकूल जमीन तैयार करेगी।

लेकिन कहने का मतलब यह भी नहीं कि मजदूर आन्दोलनों से किसी क्रान्तिकारी पार्टी का निर्माण स्वत: हो जायेगा। मजदूर आन्दोलन में क्रान्तिकारी वैज्ञानिक विचारधारा सचेतन प्रयासों से डालनी होगी। यह काम सही समझ से लैस मुट्ठी भर लोग भी शुरू कर सकते हैं। मध्‍यवर्गीय बुध्दिजीवियों के बीच से आये उन रैडिकल युवाओं की भी इसमें एक भूमिका बनेगी जो स्वयं को सर्वहारा क्रान्ति के लक्ष्य से जोड़ेंगे। फिर असली काम होगा सर्वहारा वर्ग के बीच के उन्नत, वर्ग सचेत तत्वों के बीच से क्रान्तिकारी भरती का।

क्रान्ति के कार्यक्रम के प्रश्न पर हम यही सोच रखते हैं कि देश जनवादी क्रान्ति की मंजिल से आगे आज समाजवादी क्रान्ति की मंजिल में पहुँच चुका है। जमीन के मालिकाने का सवाल आज नहीं है। कुछ पिछड़े इलाकों के अपवादों को छोड़कर शहर-देहात सभी जगह पूँजी और श्रम के बीच का अन्तरविरोध ही प्रधान अन्तरविरोध है।

अब हम नये परिवर्तनों की रोशनी में ट्रेड यूनियन आन्दोलन और मजदूरों के बीच अन्य जनकार्यों की चर्चा करेंगे। इसमें सन्देह की कोई बात ही नहीं है कि हमें इतिहास से काफी कुछ सीखना है, लेकिन उससे भी अधिक हमें नये हालात के अध्‍ययन से सीखकर रास्ता निकालना है। यानी परम्परा से जितना सीखना है, उससे भी अधिक अपने अध्‍ययन और प्रयोगों से राह निकालनी है। यानी परम्परा के पहलू पर परिवर्तन का पहलू प्रधान हो गया है।

यहाँ हम इस बात की याद दिलाना चाहेंगे कि छत्तीसगढ़ में लौह अयस्क खदान मजदूरों के जिस संघर्ष से 1977 में नियोगी के प्रयोग की शुरुआत हुई थी, वह ठेका मजदूरों का ही संघर्ष था। यहीं से ‘छत्तीसगढ़ माइन्स श्रमिक संघ’ की बुनियाद पड़ी जिसके बैनर तले संगठित संघर्षों के चलते ठेका पर काम करने वाले और अन्य श्रेणी के अनौपचारिक खदान मजदूरों ने कई ऐतिहासिक जीतें हासिल की थीं। 1990 में टाटा की जामुल (भिलाई) स्थित ए.सी.सी. फैक्ट्री में ठेका मजदूरों के नियमितीकरण के सवाल पर ही भिलाई आन्दोलन का सूत्रपात हुआ था और ‘प्रगतिशील सीमेण्ट श्रमिक संघ’ की नींव पड़ी थी। ‘प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ’ और हमारी अन्य यूनियनों की मुख्य ताकत भी ठेका मजदूर और अन्य असंगठित मजदूर ही थे। बेशक, जब यह ताकत जुझारू ढंग से संगठित हो गयी तो संगठित मजदूरों का एक हिस्सा भी हमारे साथ आया। छत्तीसगढ़ के मजदूर आन्दोलन की हमारी धारा का इतिहास जुझारू संघर्षों, कई-कई बार के गोलीकाण्डों, बर्बर दमन-उत्पीड़न और गौरवशाली शहादतों का इतिहास है। नियोगी की बर्बर हत्या और फिर 1 जुलाई 1992 को बर्बर गोलीकाण्ड में 16 मजदूरों की शहादत भी इसी सिलसिले की कड़ियाँ हैं। इस संघर्ष के दौरान सरकारों और नौकरशाही के साथ ही न्यायपालिका और मीडिया का चरित्र भी खूब नंगा हुआ। दुर्ग-भिलाई के उद्योगपतियों द्वारा एकजुट होकर 1990 में जिन 4200 लोगों को गैरकानूनी ढंग से नौकरी से निकाल दिया गया था, उस मसले पर आन्दोलन के अतिरिक्त लम्बी कानूनी लड़ाई भी चलती रही, जिसने न्यायपालिका सहित पूरी बुर्जुआ राज्यसत्ता के चरित्र को मजदूर वर्ग की निगाहों के सामने नंगा किया। यह एक लम्बी और दिलचस्प कहानी है। नियोगी की हत्या और 1992 का गोलीकाण्ड भी इस सिलसिले की कड़ी थे। आज भी 4200 लोगों का गैरकानूनी ढंग से निकाले जाने का मुकदमा हाईकोर्ट में है और हमें फैसले का इन्तजार है।

इस सन्दर्भ में हम कहना चाहते हैं कि भूमण्डलीकरण के वर्तमान दौर में श्रम का ठेकाकरण, अनौपचारिकीकरण, कैजुअलाइजेशन की परिघटना आम प्रवृत्ति हैं। ठेका, दिहाड़ी और अन्य श्रेणी के असंगठित मजदूरों को संगठित करने का हमारा जो अनुभव है, उसका सार-संकलन आज और व्यापक परिप्रेक्ष्य में किये जाने की जरूरत है। आज का जो असंगठित मजदूर है, वह पहले से भिन्न ऐसा आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग है जो उत्पादन के अत्याधुनिक सेक्टरों में अत्याधुनिक उपकरणों से काम करता है। फर्क यह है कि अब एक ही चीज की उत्पादन-प्रक्रिया को दूर-दूर स्थित प्लाण्टों में व ठेकेदारों के छोटे-छोटे वर्कशॉपों में विखण्डित कर दिया गया है। इससे मजदूरों की बड़ी आबादी ज्यादातर अब एक कारखाने में इकट्ठा नहीं मिलती। लेकिन, इसका दूसरा पहलू यह है कि दूर-दूर स्थित मजदूर (यहाँ तक कि दूर देशों के मजदूर तक) एक दूसरे से अदृश्य डोर से जुड़ गये हैं। यदि सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी ताकत संगठित हो तो वह दूरस्थ प्लाण्टों के मजदूरों में एक साथ काम करके उन्हें उनकी इस व्यापक ताकत का अहसास करा सकती है। इसके लिए उनमें व्यापक और सघन क्रान्तिकारी प्रचार कार्य करना होगा। असंगठित मजदूरों को उनके पेशों के आधार पर (जैसे आटोमोबाइल, टेक्स्टाइल, इंजीनियरिंग, केमिकल, सीमेण्ट आदि) संगठित किया जा सकता है, या फिर इलाकाई आधार पर, या फिर दोनों आधारों पर संगठित किया जा सकता है। उनकी कारखाना-आधारित यूनियनें नहीं बनाई जा सकतीं, क्योंकि वे आज इस तो कल उस कारखाने में काम करते हैं। उन्हें उनकी रिहाइशी बस्तियों में ही पकड़ा जा सकता है, कारखाना गेटों पर नहीं। इस स्थिति के एक लाभ की ओर लेनिन ने भी इंगित किया था। लगातार एक से दूसरे कारखाने में जाते रहने से मजदूर वर्ग की पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था के बारे में बेहतर व तेज समझ बनती है और एक मालिक के बजाय पूरे मालिक वर्ग और उसकी हुकूमत से लड़ने की बात उसे समझाना आसान हो जाता है।

दूसरी बात जो महत्वपूर्ण है, वह यह कि ट्रेड यूनियन के अतिरिक्त मजदूरों के बीच अन्य विविध रूपों में जनकार्य करने होंगे और उन्नत चेतना वाले मजदूरों के अतिरिक्त पिछड़ी चेतना वाली व्यापक मजदूर आबादी का भी भरोसा जीतकर मजबूत जन आधार बनाने के लिए तरह-तरह की जनसंस्थाएँ खड़ी करनी होंगी। यह कोई एकदम नयी बात नहीं है। लेनिन ने भी ऐसा कहा था और बोल्शेविक पार्टी के लोग अपने वर्चस्व वाली यूनियनों तथा अन्य यूनियनों में काम करने के अतिरिक्त मजदूर बस्तियों में खेलकूद एवं मनोरंजन क्लब, पुस्तकालय, वाचनालय, प्रौढ़ पाठशाला, रात्रि पाठशाला, पारस्परिक सहायता ग्रुप, सहकारी समितियाँ, मजदूर कौशल प्रशिक्षण केन्द्र, स्वयंसेवक दस्ते आदि अनेक संस्थाएँ संगठित करते थे। यदि संगठनकर्ताओं में या पार्टी संगठन में ही सुधारवादी रुझान न हो तो सुधार के इन कामों से कोई सुधारवादी या एन.जी.ओ.पन्थी नहीं हो जायेगा। इन कामों में एन.जी.ओ. को छुट्टा छोड़ने के बजाय उन्हें कठोर परिश्रम के बूते उखाड़ फेंका जा सकता है। वेतनभोगी-भत्ताभोगी सुधारवादी जनता को लालच देकर कुछ समय के लिए समस्या पैदा कर सकते हैं, लेकिन उन नि:स्वार्थ प्रतिबध्द मजदूर संगठनकर्ताओं से वे टक्कर नहीं ले सकते, जो आम मेहनतकशों के बीच जीते हुए उन्हीं की पहल और ताकत से विविध उपक्रमों को संगठित करते हैं।

शंकर गुहा नियोगी ने भी यूनियनों के अतिरिक्त स्कूल, गैराज, शहीद अस्पताल आदि कई जनसंस्थाएँ मजदूरों की पहल और ताकत के बूते खड़ी कीं तथा कई सहकारी समितियाँ बनायी गयीं। यह मजदूरों की सामूहिक एकजुट शक्ति का प्रदर्शन करने वाला अनूठा प्रयोग था। आज अतीत के अनुभव के समाहार के आधार पर हमारा मानना है कि यदि इन प्रयोगों को आगे ले जाना है तो इन संस्थाओं के नियन्त्रण, प्रबन्धन एवं संचालन का काम यूनियनों या व्यापक मजदूर आबादी की अनौपचारिक किस्म की देखरेख के बजाय व्यापक मजदूरों की आम सभा द्वारा चुनी गयी परिषदों और फिर उन परिषदों द्वारा चुनी गयी संचालन समितियों को सौंपा जाना चाहिए। इस तरह यूनियनों से अलग कुछ ऐसी जनसंस्थाएँ विकसित हो सकती हैं जो मजदूर उभार के दौरों में, 1905-07 की क्रान्ति के दौरान रूस की सोवियतों जैसी वैकल्पिक श्रमिक सत्ता के बिखरे हुए बीजों की शक्ल अख्तियार कर सकती हैं। बहरहाल, यह तो आगे के प्रयोगों की बात है। फिलहाल हम इन प्रयोगों की दिशा और जरूरत पर ही बात कर सकते हैं।

एक और बात, हम लेनिन की शिक्षा के हवाले और अपने अतीत के अनुभवों के आधार पर कहना चहते हैं। लेनिन ने इस बात पर बल दिया था कि मजदूरों के संघर्ष की सफलता के लिए अन्य मेहनतकश आबादी और प्रगतिशील बुध्दिजीवियों के बीच भी काम करना जरूरी होता है। इस बारे में हमारा एक सकारात्मक अनुभव है और दूसरा नकारात्मक अनुभव है। सकारात्मक अनुभव यह है कि नियोगीजी के जीवनकाल में औद्योगिक मजदूरों के अतिरिक्त गाँव के गरीब किसानों और मेहनतकशों के बीच भी काम हुआ और उनकी ज्वलन्त समस्याओं को आन्दोलन का मुद्दा बनाया गया। इससे मजदूर आन्दोलन का समर्थन-आधार विस्तारित हुआ। दूसरा नकारात्मक अनुभव यह है कि हमारे प्रयोग से आकृष्ट होकर देश के अलग-अलग हिस्सों से बुध्दिजीवी आकर हमसे जुड़े, लेकिन स्थानीय स्तर पर छात्रों और बुध्दिजीवियों के बीच योजनाबध्द सांगठनिक काम करके उन्हें मजदूर आन्दोलन से जोड़ने में हम उस हद तक सफल नहीं हो सके।

आज औद्योगिक मजदूरों की बस्तियों में काम करते हुए निकटवर्ती ग्रामीण व कस्बाई क्षेत्रों के मेहनतकशों और छोटे-मोटे काम-धन्धों वालों के बीच राजनीतिक व रचनात्मक सुधारमूलक काम करके उनके बीच समर्थन-आधार तैयार करना बेहद जरूरी है। साथ ही, मजदूर आन्दोलन के पुनर्निर्माण के इस नये दौर में युवा बुध्दिजीवियों (छात्रों-युवाओं, युवा मीडियाकर्मियों) के बीच क्रान्तिकारी प्रचार करके उनके बीच से मजदूर क्रान्ति के पक्षधर तत्वों की भरती बेहद जरूरी है। पुराने कथित प्रगतिशील बुध्दिजीवी अब दुनियादार, सुविधाभोगी हो चुके हैं। उनकी आत्माएँ थक चुकी हैं। मजदूरों के पक्ष में साहसपूर्वक खड़ा होने की उम्मीद मध्‍यवर्ग के कुछ थोड़े से विद्रोही-विवेकी युवाओं से ही की जा सकती है, पर ये थोड़े से लोग मजदूर आन्दोलन में क्रान्तिकारी विचारों का बीज डालने में तथा शुरुआती संगठनकर्ताओं के रूप में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। एक और बात यह है कि तथाकथित संचार क्रान्ति ने बुर्जुआ वर्ग को वैचारिक-सांस्कृतिक वर्चस्व कायम करने का बहुत बड़ा हथियार दे दिया है। इसका मुकाबला करने के लिए हमारे पुराने सांस्कृतिक तौर-तरीके नाकाफी हैं। हमें युवा बुध्दिजीवियों की ऐसी तरोताजा टीम चाहिए जो पत्र-पत्रिकाएँ निकालने तथा नाटय और गायन टोलियाँ बनाने से आगे कम्युनिटी रेडियो चलाने, मजदूरों के लिए डॉक्युमेण्टरी फिल्में व लघु कथा फिल्में बनाने, नाटकों-गीतों के सी.डी.-डी.वी.डी. तैयार करने, फिल्म प्रदर्शनों के लिए क्लब-सोसायटी बनाने आदि में सक्षम हो और इनका प्रयोग सर्वहारा विचारधारा और संस्कृति के प्रचार के लिए कर सकती हो। मजदूर आन्दोलन आज मीडिया और सांस्कृतिक माध्‍यमों की उपेक्षा कतई नहीं कर सकता।

कुल मिलाकर, इस आलेख में हमने अपने अनुभवों से जोड़ते हुए मजदूर आन्दोलन की दिशा, सम्भावनाओं, समस्याओं, चुनौतियों के बारे में, थोड़े अनगढ़ ढंग से ही सही, अपनी बातें रखने की कोशिश की है। हमारा यह दावा नहीं है कि हम अपने इन विचारों-निष्कर्षों को अमल में उतार चुके हैं। हम स्वयं अतीत के अपने अनुभवों से और जिस हद तक भी इस देश के वामपन्थी बिरादरों के अनुभवों से परिचित हो सके हैं, उनसे सबक निकालने की, उनका सार-संकलन करने की, गतिरोध से उबरने की तथा नयी परिस्थितियों के हिसाब से अपने कामों की दिशा पुनर्निर्धारित करने की एक कठिन जद्दोजहद से गुजर रहे हैं। हम अपने अनुभव और विचार बाँटने और आपके अनुभवों और विचारों से सीखने आये हैं। हमें विश्वास है कि जो लोग कठमुल्लेपन से मुक्त होकर मजदूर आन्दोलन का क्रान्तिकारी पुनरुत्थान चाहते हैं, उन्हें एक साथ आना ही है और वह दिन अब बहुत दूर नहीं है। 

‘मजदूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ’ की पीडीएफ फाइल

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