पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

‘इक्कीसवीं सदी में सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करणों और नये समाजवादी प्रयोगों की तैयारी के लिए बीसवीं सदी में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर अध्ययन-चिन्तन और बहस के ज़रिये सही नतीजों तक पहुँचना ज़रूरी है’

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी पिछले 10-14 मार्च तक इलाहाबाद में सम्पन्न हुई। इस बार संगोष्ठी का विषय था: ‘समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ’। संगोष्ठी में इस विषय के अलग-अलग पहलुओं को समेटते हुए कुल दस आलेख प्रस्तुत किये गये और देश के विभिन्न हिस्सों से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच उन पर पाँचों दिन सुबह से रात तक गम्भीर बहसें और सवाल-जवाब का सिलसिला चलता रहा। संगोष्ठी में भागीदारी के लिए नेपाल से आठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों व पत्रकारों के दल ने अपने देश के अनुभवों के साथ चर्चा को और जीवन्त बनाया।

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए अरविन्द‍ स्मृति न्यास से जुड़ी प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता का. कात्यायनी

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए अरविन्द‍ स्मृति न्यास से जुड़ी प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता का. कात्यायनी

संगोष्ठी का औपचारिक उद्घाटन करते हुए आयोजक अरविन्द स्मृति न्यास की मुख्य न्यासी मीनाक्षी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि कॉमरेड अरविन्द जैसे योग्य, प्रतिभावान, ज़िम्मेदार और ऊर्जस्वी क्रान्तिकारी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि सर्वहारा वर्ग की मुक्ति और भारतीय क्रान्ति के जिस लक्ष्य के प्रति वे अपनी आखि़री साँस तक समर्पित रहे, उससे जुड़े सैद्धान्तिक-व्यावहारिक प्रयोगों का सिलसिला आगे बढ़ाया जाये और युवा क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी तैयार करने की वैचारिक ज़मीन तैयार की जाये। अरविन्द स्मृति न्यास इसी लक्ष्य के प्रति समर्पित है।

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने कहा कि सोवियत संघ में 1956 से जारी छद्म समाजवाद का 1990 के दशक के शुरुआत तक आते-आते जब औपचारिक पतन हुआ तो बुर्जुआ कलमघसीट मार्क्सवाद की “शवपेटिका अन्तिम तौर पर क़ब्र में उतार दिये जाने” और “इतिहास के अन्त” का जो उन्माद भरा शोर मचा रहे थे, वह अब हालाँकि शान्त हो चुका है, परन्तु अब “मुक्त चिन्तन”, स्वयंस्फूर्ततावाद, ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नानाविध भटकाव क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर से ही पैदा हो रहे हैं। ऐसे में समाजवादी संक्रमण से जुड़ी तमाम समस्याओं – उस दौरान सर्वहारा वर्ग, उसकी हिरावल पार्टी और सर्वहारा राज्यसत्ता के बीच अन्तर्सम्बन्ध, समाजवादी समाज में उत्पादन-सम्बन्ध और उत्पादक शक्तियों के अन्तरविरोध, वर्ग संघर्ष के स्वरूप और क्रमशः उन्नततर अवस्थाओं में संक्रमण से जुड़े सभी प्रश्नों पर अतीत के अनुभवों के सन्दर्भ में हमें बहस में उतरना होगा।

“सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं” आलेख प्रस्‍तुत करते हुए अभिनव सिन्‍हा

“सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं” आलेख प्रस्‍तुत करते हुए अभिनव सिन्‍हा

इसके बाद संगोष्ठी में पहला आलेख ‘मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान’ पत्रिका के सम्पादक अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था – “सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ: इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएँ”। इस आलेख में सोवियत संघ में 1917-1930 के दशक के दौरान किये गये समाजवादी प्रयोगों का विस्तृत आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। आलेख के अनुसार सोवियत संघ में समाजवादी क्रान्ति अपवादस्वरूप जटिल परिस्थितियों में सम्पन्न हुई और बोल्शेविक पार्टी ने निहायत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में सर्वहारा सत्ता को क़ायम करने की ज़िम्मेदारी अपने हाथों में ली। सर्वहारा सत्ता के सुदृढ़ीकरण के बाद समाजवादी निर्माण के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने की चुनौती विश्व इतिहास में पहली बार उभरकर आयी। सोवियत संघ में समाजवादी निर्माण के प्रयोगों का चरणबद्ध ब्योरा प्रस्तुत करते हुए आलेख प्रत्येक दौर में बोल्शेविक पार्टी के समक्ष उपस्थित बाह्य और आन्तरिक चुनौतियों-समस्याओं का विश्लेषण करता है। इसके अतिरिक्त इस दौर में पार्टी द्वारा की गयी कुछ विचारधारात्मक, रणनीतिक और रणकौशलात्मक ग़लतियों का भी विश्लेषण किया गया। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया कि आम तौर पर जिन बिन्दुओं पर सोवियत समाज की आलोचना की जाती है, उन बिन्दुओं पर वस्तुतः उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की मौजूदा व्याख्याओं-आलोचनाओं की आलोचना प्रस्तुत करते हुए प्रदर्शित किया गया कि इन आलोचनाओं में कुछ भी नया नहीं है और अधिकांश तर्कों का जवाब लेनिन और स्तालिन के ही दौर में दिया जा चुका था।

इस आलेख पर बहस में वेस्टर्न सिडनी विश्वविद्यालय के शोधकर्ता मिथिलेश कुमार, विस्थापन विरोधी जनविकास आन्दोलन, महाराष्ट्र के शिरीष मेढ़ी, इण्डियन एयरपोर्ट इम्पलाइज़ एसोसिएशन मुम्बई की दीप्ति गोपीनाथ, सिरसा से आये कश्मीर सिंह, जयपुर से आये पी.एल. शकुन, अहमदाबाद से आये डी.एस- राठौड़ ने हस्तक्षेप किया। संगोष्ठी के पहले दिन के सत्रों की अध्यक्षता नेपाल से आये प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव मित्रलाल पंज्ञानी, सिरसा से आये डॉ. सुखदेव और अरविन्द स्मृति न्यास की मुख्य न्यासी मीनाक्षी ने की। संचालन सत्यम ने किया।

चीनी क्रान्ति पर अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए 'प्रतिबद्ध' पत्रिका के सम्‍पादक सुखविन्‍दर

चीनी क्रान्ति पर अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए ‘प्रतिबद्ध’ पत्रिका के सम्‍पादक सुखविन्‍दर

दूसरे दिन के पहले सत्र में पंजाबी पत्रिका ‘प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर का पेपर प्रस्तुत हुआ जिसका शीर्षक था “चीन में समाजवादी निर्माण, महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति और माओवाद”। माओकालीन चीन में समाजवादी निर्माण के प्रयोगों का ब्योरा देने और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के विश्व-ऐतिहासिक अवदान को रेखांकित करने के साथ ही पेपर में 1949 में चीन की नव-जनवादी क्रान्ति से लेकर 1976 में माओ-त्से-तुङ की मृत्यु तक विभिन्न दौरों में चीनी पार्टी में चले दो लाइनों के बीच के संघर्ष का विस्तृत लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया। चीन में 1949 की नव-जनवादी क्रान्ति के बाद सामन्ती शोषण की जड़ों को उखाड़ फेंकने के बाद 1950 के मध्य में ‘महान अग्रवर्ती छलांग’ लगाकर समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया शुरू हुई, सहकारी खेती से सामूहिक खेती की ओर संक्रमण शुरू हुआ तथा उद्योग और व्यापार में भी समाजवादी उत्पादन सम्बन्धों की ओर संक्रमण शुरू हुआ। पेपर में इस पूरी प्रक्रिया के दौरान चीनी पार्टी के समक्ष उत्पन्न चुनौतियों और उसके द्वारा उठाये गये क़दमों एवं इस समूची प्रक्रिया में समाज व पार्टी के भीतर जारी संघर्ष की विस्तारपूर्वक पड़ताल की गयी। इसके अतिरिक्त पेपर में सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों की माओ द्वारा प्रस्तुत आलोचनात्मक विश्लेषण की भी चर्चा की गयी। साथ ही पेपर में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के दौर में चली ‘महान बहस’ के ऐतिहासिक महत्त्व की भी चर्चा की गयी। 1960 और 1970 के दशक में माओ के नेतृत्व में चलायी गयी महान सर्वहारा सांस्कृातिक क्रान्ति के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक पहलुओं को पेपर में विशेष महत्त्व दिया गया। मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी विचारधारा के प्रवर्तन के बाद लेनिन ने साम्राज्यवाद के दौर में इस विचारधारा में गुणात्मक इज़ाफ़ा किया जिसकी वजह से इसे मार्क्सवाद-लेनिनवाद कहा गया। पेपर में कहा गया कि माओ ने समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि के दौरान पूँजीवाद की पुनर्स्थापना रोकने के लिए अधिरचना के क्षेत्र में सतत क्रान्ति का जो सिद्धान्त दिया, उसके सार्वभौमिक महत्त्व को देखते हुए आज के दौर में मार्क्सवादी विज्ञान को मार्क्सवाद- लेनिनवाद-माओ-त्से-तुङ विचारधारा की बजाय  मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद कहना ज़्यादा सटीक होगा।

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली से आयीं लता द्वारा प्रस्तुत दूसरा पेपर अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम दिशा विषयक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के ऐतिहासिक दस्तावेज़ के आधी सदी बाद एक विचारधारात्मक पुनर्मूल्यांकन पर केन्द्रित था। इस पेपर में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के खि़लाफ चीनी पार्टी द्वारा चलायी गयी “महान बहस” के विचारधारात्मक महत्त्व को रेखांकित किया गया। साथ ही भारत जैसे तीसरी दुनिया के देशों में पिछले कुछ दशकों के दौरान उत्पादन सम्बन्धों में आये बदलाव के मद्देनज़र 1963 की ‘जनरल लाइन’ के कार्यक्रम सम्बन्धी सूत्रीकरण की अप्रासंगिकता की चर्चा करते हुए कहा गया कि अभी भी भारत सहित दुनिया के बहुतेरे देशों के क्रान्तिकारी संगठन कठमुल्लावादी ढंग से इस कार्यक्रम से चिपके हुए हैं और कार्यक्रम के सवाल को विचारधारा के सवाल में गड्डमड्ड कर रहे हैं।

दूसरे दिन प्रस्तुत तीसरे पेपर का शीर्षक था – “स्‍तालिन और सोवियत समाजवाद”, जिसे लुधियाना से आये डॉ. अमृत ने प्रस्तुत किया। इस पेपर में साम्राज्यवादियों, त्रात्सकीपन्थियों और “मुक्त चिन्तक मार्क्सवादियों” द्वारा स्तालिन के ऊपर लगाये जानेवाले मिथ्या आरोपों का तथ्यों और तर्कों सहित खण्डन किया गया। पेपर में ब्रेस्त-लितोव्स्क सन्धि और गृहयुद्ध के दौरान स्तालिन की भूमिका को लेकर फैलाये जाने वाले झूठ, “लेनिन की वसीयत” के मिथ्या प्रचार, एक देश में समाजवाद स्थापित करने सम्बन्धी विवाद, कृषि में सामूहिकीकरण और कुलक वर्ग के सफ़ाये के दौरान स्तालिन के नेतृत्व में पार्टी द्वारा उठाये गये क़दमों के बारे में दुष्प्रचार, 1936-38 के मुक़द्दमों और पार्टी के शुद्धीकरण की मुहिम के बारे में प्रचारित झूठों, दूसरे विश्व युद्ध के पहले सोवियत-जर्मन अनाक्रमण सन्धि के बारे में इतिहास के विकृतीकरण और वैज्ञानिकों पर दमन सम्बन्धित झूठों का पर्दाफ़ाश किया गया। इसके अतिरिक्त स्तालिन द्वारा पार्टी के भीतर नौकरशाही के खि़लाफ़ और जनवाद के लिए किये गये संघर्ष का सप्रमाण ब्योरा प्रस्तुत किया गया। साथ ही स्तालिन के दौर की कुछ गम्भीर विचारधारात्मक ग़लतियों को भी रेखांकित किया गया।

तीनों आलेखों की प्रस्तुति के बाद उन पर हुई बहस में हस्तक्षेप करने वालों में मुख्य थे: बिहार के रामाशीष गुप्ता और रघुनाथ प्रसाद, औरंगाबाद से बब्बन ठोके, जयपुर से पी.एल. शकुन, लुधियाना से नवकरण, लालजीत व दलजीत, औरंगाबाद से दत्तू, संगरूर से सन्दीप, दिल्ली के सनी, मुम्बई की दीप्ति गोपीनाथ और दिल्ली के तपीश मेन्दोला और अभिनव सिन्हा। भोजपुर से आये रामाशीष गुप्ता ने कहा कि महान नेताओं से अतीत में हुई ग़लतियों की बात करना साहस की बात है, लेकिन हमें इन ग़लतियों से सीखकर आगे का रास्ता निकालना है। उन्होंने कहा कि अगर कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल को भंग न किया गया होता तो मार्क्सवाद पर हो रहे हमलों का अच्छा जवाब दिया जा सकता था। इसका जवाब देते हुए सुखविन्दर ने कहा कि कॉमिण्टर्न को किसी नेता के व्यक्तिवाद के कारण नहीं बल्कि उस समय रूसी और चीनी पार्टियों सहित सभी कम्युनिस्ट पार्टियों की सहमति से भंग किया गया था। कॉमिण्टर्न का तत्कालीन विश्व पार्टी का स्वरूप नयी परिस्थितियों के अनुरूप नहीं था, लेकिन अगर एक नये स्वरूप में कॉमिण्टर्न बना रहता तो निश्चय ही आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष और मार्क्सवाद के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत अच्छा होता। ऐसे किसी मंच की आज बहुत ज़रूरत है। दीप्ति गोपीनाथ ने कहा कि स्तालिन पर साम्राज्यवादी सबसे अधिक हमले करते हैं, क्योंकि वह संशोधनवाद और क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की विभाजक रेखा बन चुके हैं। हमें उनकी डटकर हिफ़ाज़त करनी चाहिए। उन्होंने इस सन्दर्भ में बेल्जियम कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव लूडो मार्टेन्स की किताब ‘अनदर व्यू ऑफ़ स्तालिन’ का विशेष रूप से उल्लेख किया।

अभिनव ने रिवोल्यूशनरी कम्युनिस्ट पार्टी (आर.सी.पी., यू.एस-ए.) द्वारा प्रस्तुत ‘न्यू सिन्थेसिस’ के सिद्धान्त की आलोचना करते हुए कहा कि इस पार्टी के नेता बॉब अवाकियन मार्क्स के समय से ही मार्क्सवाद में ‘रिडक्शनिज़्म’ की बात करते हैं और इस यान्त्रिक भटकाव का कारण वे निषेध का निषेध के सूत्र को बताते हुए उसे ख़ारिज़ करते हैं। वे साम्राज्यवाद के दौर में कमज़ोर कड़ियों के टूटे बिना साम्राज्यवादी देशों में क्रान्ति की बात करते हैं, हालाँकि यह वर्तमान परिस्थितियों के मूल्यांकन से मेल नहीं खाता। रूस और चीन की क्रान्तियों में राष्ट्रवादी भटकाव और बुद्धिजीवियों के साथ व्यवहार सम्बन्धी उनकी बात को भी माना नहीं जा सकता। उनकी बातों में प्रथम दृष्टया जो सही है वह नया नहीं है और जो कुछ नया है वह सही नहीं है। निरपेक्ष सत्य की उनकी अवधारणा भी ग़ैरद्वन्द्वात्मक है। दूसरे दिन के सत्रों की अध्यक्षता मुम्बई के हर्ष ठाकोर, पटना के देवाशीष बराट और कवयित्री व सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने की।

नेपाली क्रान्ति की समस्याओं पर केन्द्रित सत्र

संगोष्ठी के तीसरे दिन का पहला सत्र नेपाली क्रान्ति की समस्याओं और नेपाल के हाल के घटनाक्रम पर केन्द्रित था। इस सत्र में नेपाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन में आये गतिरोध, विपर्यय और विघटन के पीछे के कारणों पर गहन विचार-विमर्श और बहस-मुबाहसा हुआ। पहले सत्र में नेपाल पर केन्द्रित दो आलेख और दूसरे सत्र में महान बहस और माओवाद के प्रश्न पर दो आलेख प्रस्तुत हुए।

नेपाल से आये कवि संगीत श्रोता अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

नेपाल से आये कवि संगीत श्रोता अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

पहला आलेख नेपाल से संगोष्ठी में हिस्सा लेने के लिए आये कवि एवं सामाजिक कार्यकर्ता संगीत श्रोता का था, जिसका शीर्षक था – ‘समाजवादी संक्रमण और नेपाली क्रान्ति का सवाल’। इस आलेख में नेपाल में 1996 और 2006 के बीच चले जनयुद्ध की उपलब्धियों को रेखांकित करते हुए कहा गया कि नेपाल में 240 वर्षों से चली आ रही राजशाही की संस्था का पतन मुख्यतः जनयुद्ध की शक्ति की वजह से हुआ। 2006 का अप्रैल जनान्दोलन भी जनयुद्ध के ही आधार पर सफल हो सका। परन्तु आज नेपाल का माओवादी आन्दोलन संशोधनवाद की ओर क़दम बढ़ा चुका है और उसमें दक्षिणपन्थी प्रवृतियाँ भी हावी हो रही हैं। शान्ति प्रक्रिया में प्रवेश तथा संविधान सभा और सरकार में सहभागी होने के साथ ही माओवादी आन्दोलन जनता से कट गया और शहरी मध्यवर्ग, बुर्जुआ वर्ग, राज्य के ऊपरी स्तर के नौकरशाह, दलाल पूँजीपति, शहरी कुर्सीतोड़ बुद्धिजीवियों और विदेशी शक्तियों के जाल में उलझता गया। पार्टी नेतृत्व पूरी तरह सरकारमुखी, सिंहदरबारमुखी और सुविधाभोगी होता चला गया। पार्टी में गुटबाज़ी और अनुशासनहीनता बढ़ती गयी। केन्द्रीय कमेटी का आकार बढ़ता गया परन्तु काडर के वैचारिक सांस्कृतिक शिक्षण-प्रशिक्षण पर कोई ध्यान नहीं दिया गया। किरण वैद्य के नेतृत्व में नवगठित नेकपा (माओवादी) की भी स्थिति कमोबेश यही है।

अरविन्द स्मृति न्यास से जुड़े आनन्द सिंह द्वारा प्रस्तुत दूसरे आलेख – ‘नेपाली क्रान्ति: विपर्यय का दौर और भविष्य का रास्ता’ में कहा गया कि नेपाल में दूसरी संविधान सभा के चुनाव में एकीकृत नेपाली कम्युनिस्ट पार्टी (मा.) की हार के बाद यह स्पष्ट हो चुका है कि नेपाली क्रान्ति विच्युति, विचलन और भटकाव से आगे बढ़ विपर्यय के दौर में प्रविष्ट हो चुकी है। ऐसे में नेपाली क्रान्ति को सही रास्ते पर लाने के लिए विपर्यय के कारणों का निर्ममता से विश्लेषण करना होगा। पेपर में प्रस्तुत अवस्थिति के अनुसार नेपाल के क्रान्तिकारी आन्दोलन में मौजूदा विपर्यय एक दशक पहले से पार्टी में पनपने वाली संशोधनवादी दिशा की तार्किक परिणति है। इस विचारधारात्मक भटकाव का प्रस्थान बिन्दु तब था जब प्रचण्ड ने समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा अधिनायकत्व के बरक्स बहुदलीय संसदीय प्रणाली की वकालत करनी शुरू की। जब प्रचण्ड यह संशोधनवादी लाइन दे रहे थे तो पार्टी के भीतर इसके खि़लाफ़ कोई संघर्ष नहीं हुआ। हालाँकि जब 2008 में प्रचण्ड ने इस लाइन को विस्तार देते हुए प्रतिस्पर्द्धात्मक संघीय गणराज्य की बात की तो पार्टी के भीतर किरण धड़े ने इसका विरोध किया, जिसकी वजह से इस लाइन को प्रत्यक्ष रूप से पीछे हटना पड़ा परन्तु यह सब कुछ राजनीति को कमान में रखने की बजाय संगठन को कमान पर रखकर समझौता फ़ार्मूले के रूप में हुआ। इसका नतीजा यह हुआ कि बुर्जुआ जनवाद के प्रति विभ्रम पार्टी में मौजूद रहा। पार्टी ने लाल सेना को सेना में विलय के नाम पर विघटित होने दिया, ग्रामीण क्षेत्रों में वैकल्पिक लोकसत्ता के जो केन्द्र जनयुद्ध के दौरान उभरे थे, उन्हें विकसित करने के बजाय भंग कर दिया गया। पार्टी के मुखपत्रों में दक्षिणपन्थी भटकाव की स्पष्ट अभिव्यक्तियों को भी पेपर में चिह्नित किया गया। 2012 में पार्टी से अलग होकर नयी पार्टी का गठन करने वाले किरण-गजुरेल-बादल धड़े के अतीत के आचरण और हाल की अभिव्यक्तियों को इंगित करते हुए पेपर में कहा गया कि इस नयी पार्टी से भी यह उम्मीद बाँधने का कोई आधार नहीं नज़र आता कि यह नेपाली क्रान्ति को सही रास्ते पर ला सकती है। लेकिन चूँकि नेपाली जनता में मुक्ति की आकांक्षाएँ अभी जीवित हैं और विभिन्न संगठनों में क्रान्ति को समर्पित युवाओं की कमी नहीं है, इसलिए नयी पीढ़ी से निश्चय ही ऐसे युवा निकलेंगे जो नेपाली क्रान्ति के इतिहास का सार-संकलन करके उसे सही दिशा में ले जायेंगे।

नेपाली क्रान्ति से सम्बन्धित दोनों आलेखों पर चर्चा में ‘दिशा संधान’ के सह-सम्पादक सत्यम ने कहा कि नेपाल क्रान्ति की मुख्य समस्या विचारधारात्मक है। पार्टी राज्य और क्रान्ति विषयक लेनिन की शिक्षाओं को और पेरिस कम्यून से लेकर चिली और इण्डोनेशिया तक अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन के अनुभवों को भुलाकर संसदवाद के विभ्रमों का बुरी तरह शिकार हो गयी। संसदीय चुनाव, सरकार में भागीदारी और संविधान सभा के मंच के इस्तेमाल करने को रणकौशल (टैक्टिक्स) के बजाय रणनीति (स्ट्रेटेजी) का सवाल बना देना उनकी ग़लतियों का मुख्य स्रोत था। सत्ता में आने के बाद एनेकपा (मा.) के नेतृत्व का पूरा व्यवहार येनकेन प्रकारेण सत्ता में बने रहने के प्रयासों में दिखता था। पार्टी की तमाम कार्रवाइयों से कार्यकर्ताओं और जनता के जुझारूपन और क्रान्तिकारी चौकसी ढीली पड़ती गयी और पार्टी जनता से दूर होती गयी। दूसरी संविधान सभा के चुनाव में पार्टी की हार को केवल प्रतिक्रियावादियों की साज़िश का नतीजा बताना असली कारण से मुँह चुराना है। बेशक, प्रतिक्रियावादियों की तरफ़ से घपले भी कराये ही गये होंगे, मगर एनेकपा (मा) ने ऐसी उम्मीद ही क्यों पाली थी कि बुर्जुआ ताक़तें चुनाव निष्पक्षता से होने देंगी। चर्चा में औरंगाबाद के दत्तू, लखनऊ के अमेन्द्र, दिल्ली के नवीन व अजय, गाजियाबाद के मनदीप और पंजाब के सुखविन्दर ने भी हिस्सा लिया।

नेपाल से आये दल की ओर से प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव मित्रलाल पंज्ञानी, राजेन्द्र पौडेल तथा संगीत श्रोता ने बहस में शिरकत करते हुए इन बातों से सहमति व्यक्त की कि नेपाली क्रान्ति की मुख्य समस्या विचारधारात्मक ही है। संगीत श्रोता द्वारा प्रस्तुत पेपर पर टिप्पणी करते हुए कई वक्ताओं ने कहा कि हालाँकि उसमें नेपाली क्रान्ति के मौजूदा संकट के लक्षणों को चिह्नित किया गया, परन्तु उसके मूल कारणों की समुचित पड़ताल नहीं की गयी है। इसके जवाब में संगीत श्रोता का कहना था कि उनका पेपर एक शोध पेपर नहीं, बल्कि विचार-विमर्श के लिए प्रस्तुत आलेख है। आनन्द के पेपर पर नेपाल के साथी राजेन्द्र ने टिप्पणी की उसमें एक ओर जनयुद्ध को दुस्साहसवादी बताया गया है, दूसरी ओर शान्ति प्रक्रिया के दौर को संशोधनवादी बताया गया है। आनन्द ने स्पष्ट करते हुए कहा कि पेपर में समूचे जनयुद्ध को दुस्साहसवादी नहीं कहा गया है, बल्कि जनयुद्ध के शुरुआती दौर में सैन्यवादी भटकाव की बात कही गयी है। इसके अलावा उसमें मौजूदा संकट की मुख्य वजह 2004 से ही पार्टी के दक्षिणपन्थी विचारधारात्मक भटकाव को बताया गया है।

तीसरे दिन के दूसरे सत्र में दो पेपर प्रस्तुत हुए। नौजवान भारत सभा, गुड़गाँव के राजकुमार द्वारा प्रस्तुत पेपर 1960 के दशक की शुरुआत में चीनी पार्टी द्वारा ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के खि़लाफ़ चलायी गयी महान बहस के पचास वर्ष पूरे होने के बाद उसके विश्व ऐतिहासिक महत्त्व को रेखांकित करता था। दूसरा पेपर मुम्बई के हर्ष ठाकोर ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था – माओ विचारधारा या माओवाद।

संगोष्ठी के चौथे दिन दो महत्त्वपूर्ण पेपर प्रस्तुत किये गये और उन पर गहन विचार-विमर्श हुआ। पहला पेपर दिल्ली की शिवानी और बेबी ने प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था – “उत्तर-मार्क्सवाद के कम्युनिज़्म: उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी।” इस पेपर में कहा गया कि उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद जैसी तमाम “उत्तर” विचारसरणियों के बुरी तरह पिट जाने के बाद अब मार्क्सवाद पर हमला करने के लिए उत्तर-मार्क्सवाद के रंगबिरंगे संस्करण सामने आये हैं। पूँजीवाद का विरोध करने के नाम पर छद्म मार्क्सवादी शब्दाडम्बर रचते हुए इन तमाम विचारों का निशाना मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों पर हमला करना ही है। आज इन हमलों को ताक़त देने के लिए बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरणों की पूरी ताक़त झोंक दी गयी है, ताकि पूँजीवाद के गहराते विश्वव्यापी संकट के दौर में बढ़ते आन्दोलनों और विकल्प तलाश रही जनता को दिग्भ्रमित किया जा सके। यह अनायास नहीं है कि पूँजीवाद अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म के ज़रिये सहज गति से क़िस्म-क़िस्म के “रैडिकल” बुद्धिजीवियों को पैदा कर रहा है जो मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे हैं। इन विचारधाराओं की आलोचना ज़रूरी है क्योंकि ये कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक हिस्से से लेकर छात्रों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं।

शिवानी अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

शिवानी अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए

पेपर में ऐलन बेज्यू के “कम्युनिज़्म” के विचार को परिवर्तन की परियोजना से क्रान्तिकारी अभिकरण छीनने की निर्लज्ज और हताश कवायद करार दिया गया है। इसके अलावा स्लावोय ज़िजे़क के “कम्युनिज़्म एब्सकाण्डिटस’ के विचार को निठल्ला, निष्क्रिय और नुक़सानदेह सैद्धान्तिकीकरण बताया गया है। ज़िजे़क अलग-अलग दार्शनिक व्यवस्थाओं में समानान्तर रेखाएँ खींचते हैं और फिर इन समानान्तर रेखाओं का इस्तेमाल समकालीन परिदृश्य की व्याख्या करने के लिए करते हैं। लेकिन यह विश्लेषण वास्तव में कहीं नहीं ले जाता और दुनिया को बदलना तो दूर, दुनिया की आंशिक तौर पर व्याख्या भी नहीं कर पाता। कुल मिलकर लकाँ के मनोविश्लेषण, लेवी स्ट्रॉस के उत्तरसंरचनावाद, उत्तरआधुनिकतावाद और तमाम अन्य मार्क्सवाद विरोधी विचार-सरणियों से मिलने वाली जूठन का इस्तेमाल करते हुए इनका दर्शन अपने आपको मार्क्स से ज़्यादा रैडिकल दिखलाने का प्रयास करता है और लगातार यह दिखलाने का प्रयास करता है कि मार्क्स क्या-क्या नहीं समझ पाये और वे कहाँ-कहाँ ग़लत थे। उत्तर-मार्क्सवादियों के नये सैद्धान्तिकीकरण की मूल बात है कि सर्वहारा वर्ग इनके लिए अनुपस्थित हो चुका है और टटपुँजिया वर्ग परिवर्तन का नया अगुवा है। पेपर के अनुसार एण्टोनियो नेग्री और माइकल हार्ट की अमूर्त अभौतिक, आकारविहीन सैद्धान्तिकी में पूँजीवाद एक अवैयक्तिक (इम्पर्सनल) शक्ति बन जाता है, प्रतिरोध अमूर्त चीज़ बन जाती है और प्रतिरोध करने वाले भी आकृतिविहीन वस्तु बन जाते हैं। यह पूरी अवधारणा बुनियादी मार्क्सवादी सिद्धान्तों पर हमला करने के लिए ही गढ़ी गयी है। अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टल माउफ़ की “उग्र परिवर्तनवादी जनवाद” की अवधारणा की भी आलोचना रखी गयी। निष्कर्ष के तौर पर कहा गया है कि उत्तर-आधुनिकतावाद का प्रतिक्रियावादी चरित्र बेनकाब होने के बाद अब इन नये दार्शनिकों ने प्रत्यक्ष तौर पर पूँजीवाद विरोध की नयी भाव-भंगिमा अपनायी है और पूँजीवाद की “अपने क़िस्म की आलोचना” कर रहे हैं। इन तमाम उत्तर-मार्क्सवादियों की दार्शनिक आवारागर्दी की कठोर आलोचना की ज़रूरत है और इनके विचारों के वास्तविक मार्क्सवाद विरोधी चरित्र को साफ़ करने की ज़रूरत है।

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सनी

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सनी

दूसरा पेपर दिल्ली विश्वविद्यालय के सनी सिंह और अरविन्द ने प्रस्तुत किया, जिसका शीर्षक था – “बोलिवारियन विकल्प: विभ्रम और यथार्थ”। ह्यूगो शावेज़ के वेनेज़ुएला और बोलिविया जैसे लातिन अमेरिका के अन्य देशों में ‘21वीं सदी का समाजवाद’ के नाम से जो ‘बोलिवारियन विकल्प’ प्रस्तुत किया जा रहा है, इस पेपर में उसकी दार्शनिक अवस्थिति का मार्क्सवादी नज़रिये से आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसमें इस्तवान मेस्जारोस के संक्रमण सिद्धान्त और क्रान्ति रहित संक्रमण की बात की आलोचना रखते हुए कहा गया है कि उन्होंने मार्क्सवाद की धुरी छोड़ दी है। पेपर में माइकल लेबोवित्ज़ के राजनीतिक मॉडल और मार्ता आनेकर के सांगठनिक संशोधनवाद की आलोचना भी प्रस्तुत की गयी। लातिन अमेरिका में साम्राज्यवाद विरोध के इतिहास का संक्षिप्त विवरण प्रस्तुत करते हुए पेपर में बोलिवारियन क्रान्ति को साम्राज्यवाद विरोध की जनभावना पर खड़ा हुआ कल्याणवाद और “प्रगतिशील बोनापार्टवाद” बताया गया है। इसमें चार तत्वों का मिश्रण है लातिन अमेरिका में जनता के बीच साम्राज्यवाद के विरुद्ध ज़बरदस्त भावना की मौजूदगी, रैडिकल प्रगतिवादी बोनापार्टवाद, पेट्रो डॉलर की अर्थव्यवस्था से वित्तपोषित राजकीय कल्याणवाद और एक प्रकार का संघाधिपत्यवादी तृणमूल जनवाद। हालाँकि दुनियाभर में राष्ट्रीय प्रश्न के हल होने और नवस्वाधीन देशों में पूँजीवादी विकास मुकम्मिल मंज़िल तक पहुँचने के कारण वहाँ राष्ट्रीय बुर्जुआजी क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए अप्रांसगिक हो चुकी है और उसका कोई भी हिस्सा “राष्ट्रीय” नहीं रह गया है, लेकिन लातिन अमेरिका की विशिष्ट स्थितियों में राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग एक मायने में प्रासंगिक बना हुआ है और शावेज़, इवो मोरालेस आदि की सत्ता अलग-अलग अर्थों में इसी प्रकार के साम्राज्यवाद-विरोधी, रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है। लेकिन ये विकल्प किसी भी रूप में पूँजीवादी व्यवस्था का विकल्प पेश नहीं करते, वे बस साम्राज्यवाद-पूँजीवाद विरोधी हैं और वे स्वयं एक इजारेदारी रहित, कल्याणवादी, अल्पउपभोगवादी पूँजीवाद के ही पैरोकार हैं, जिसे कुछ निराश “वाम” बुद्धिजीवी अपनी निराशा के कारण समाजवाद का नया मॉडल समझ बैठे हैं।

दोनों आलेखों पर चली बहस में आजमगढ़ से आये अमरनाथ द्विवेदी, जयपुर के पी.एल. शकुन, दिल्ली के अविनाश भारती, जेएनयू के अक्षय काथे, गोरखपुर से प्रमोद, दिल्ली से अभिनव, सनी आदि ने हिस्सा लिया। अध्यक्षमण्डल में सिरसा के वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता कश्मीर सिंह, शहीद भगतसिंह क्लीनिक, लुधियाना के डॉ. अमृतपाल और नोएडा से आये तपीश मैन्दोला शामिल थे। संचालन आनन्द ने किया।

अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए मिथिलेश

अपना आलेख प्रस्‍तुत करते हुए मिथिलेश

संगोष्ठी के पाँचवें और अन्तिम दिन यूरोपीय “स्‍वायत्त” वाम के विचारों और मज़दूर आन्दोलन पर इसके प्रभावों पर केन्द्रित वेस्टर्न सिडनी युनिवर्सिटी, आस्ट्रेलिया के शोधकर्ता मिथिलेश कुमार का आलेख ‘द प्रॉमिस दैट नेवर वॉज़: ए क्रिटिक ऑफ़ पोस्ट-1968 यूरोपियन “ऑटोनॉमस” लेफ़्ट’ प्रस्तुत हुआ और पिछले चार दिनों के दौरान विभिन्न आलेखों पर चर्चा के दौरान उठे मुद्दों पर बातचीत जारी रही। आलेख में कहा गया कि आज दुनियाभर में एक उथल-पुथल का दौर है, पूँजीवाद के खि़लाफ़ आन्दोलन हो रहे हैं। लेकिन इतिहास का यह सबक हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब क्रान्तिकारी राजनीति और उसे निर्देशित करने वाली ताक़तें बदलते हालात में सही कार्रवाई करने के लिए वैचारिक और राजनीतिक रूप से तैयार न हों तो इसकी भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद और ख़ासकर स्तालिन के निधन तथा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव द्वारा फैलाये गये झूठों के प्रभाव में यूरोप में वाम राजनीति की अनेक प्रवृत्तियाँ उभरीं। यह आलेख अन्य की संक्षिप्त चर्चा के साथ इटली के ‘ऑपेराइस्त’ आन्दोलन और इससे निकली धाराओं पर केन्द्रित रहा, जिनका प्रभाव आज तेज़ी से फैल रहा है। अन्तोनियो नेग्री, मारियो ट्रोण्टी, बोलोन्या और रेनियरो पैंज़िएरी जैसे लोगों की मज़दूर आन्दोलन के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से में ‘कल्ट’ जैसी स्थिति बन गयी है। उनकी आलोचना करने वाले बहुत से लोग भी उनकी “मौलिकता” की बात करते हैं। आलेख में ‘ऑपेराइज़्म’ के उभार की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए यह दिखाया गया कि किस प्रकार से इनकी “मौलिकता” मार्क्सवाद की पद्धति और दर्शन से विचलन का नतीजा है।

मिथिलेश ने कहा कि आज “राष्ट्रपारीय एक्टिविज़्म” द्वारा तीसरी दुनिया के अनेक देशों में रैडिकल और क्रान्तिकारी संघर्षों को सहयोजित कर लेने या उन्हें संस्थागत रूप देने के ज़रिये उन पर वर्चस्व क़ायम करने की एक ख़तरनाक प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसका एक रास्ता विकसित देशों की ट्रेड यूनियनों के ज़रिये भी है। भारत सहित तीसरी दुनिया के कई देशों में मज़दूर आन्दोलन में कुछ नये खिलाड़ी नज़र आ रहे हैं। इनमें यूनियनों के छद्मवेश में काम करने वाले एनजीओ, विकसित देशों की बड़ी यूनियनों के ‘एक्टिविस्ट’ से लेकर वाम के विभिन्न शेड्स से जुड़े लेबर एक्टिविस्ट तक शामिल हैं। दिलचस्प बात यह है कि ये नये खिलाड़ी यहाँ के कुछ “क्रान्तिकारी” संगठनों के साथ भी मिलकर काम कर रहे हैं। इनकी शब्दावली में भी बेहद समानता दिखायी देती है – मज़दूर आन्दोलन की ‘स्वायत्तता’, मज़दूरों की ‘कम्युनिटी’ आदि, कुछ ने तो हाल के संघर्षों को एक प्रकार के ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन के रूप में भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है। यह सोचने की बात है कि ऐसे क्रान्तिकारी संगठनों के सिद्धान्त और व्यवहार में ऐसा क्या है जिससे वे इन खिलाड़ियों के साथ जुट जाते हैं।

इस आलेख पर हुई चर्चा में दीप्ति गोपीनाथ, अमरनाथ द्विवेदी, अभिनव सिन्हा, जेएनयू के अक्षय, सुखविन्दर आदि ने भाग लिया। नेपाल से आये राजेन्द्र पौडेल ने आलेख में उठायी गयी बातों से सहमति जताते हुए तीसरी दुनिया के देशों से बड़े पैमाने पर विकसित देशों में जाकर काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों का सवाल उठाया। भारी पैमाने के इस प्रवासन ने इन मज़दूरों को संगठित करने से जुड़े कई सवालों को जन्म दिया है, जिन पर मज़दूर आन्दोलन को सोचना है। इस प्रश्न पर अभिनव और सत्यम ने भी अपने वक्तव्यों में चर्चा की। मिथिलेश ने आलेख पर उठे प्रश्नों पर अपनी बात रखते हुए आस्ट्रेलिया की एक यूनियन में अपने काम के अनुभव के आधार पर प्रवासी मज़दूरों को संगठित करने की समस्याओं की चर्चा की।

समापन सत्र में संगोष्ठी में उठे अहम सवालों पर हुई चर्चा में बिहार से आये अरुण ने सोवियत संघ और चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना और माओवाद की समझ स्पष्ट करने के लिए कुछ सवाल उठाये। जयपुर से आये पी.एल. शकुन के सवाल पर अभिनव सिन्हा ने कहा कि एसयूसीआई. को उनके आलेख में प्रच्छन्न त्रात्स्कीपन्थी इसलिए कहा गया है, क्योंकि वह भी भारत में क्रान्ति की मंज़िल तय करने में त्रात्स्की की ही तरह निगमनात्मक पद्धति अपनाते हैं। सुखविन्दर ने एसयूसीआई. की पैस्सिव-रैडिकल राजनीति की आलोचना रखी। भोजपुर से आये रामाशीष गुप्ता तथा लुधियाना से आये ताज मोहम्मद ने भी चर्चा में भाग लिया।

अन्तिम दिन के अध्यक्षमण्डल के सदस्यों – दिल्ली विश्वविद्यालय के सनी सिंह, नेपाल के संगीत श्रोता तथा सत्यम ने संगोष्ठी के पाँचों दिन की चर्चा को समेटते हुए अपनी बात रखी। सनी ने कहा कि आज क्रान्तिकारी आन्दोलन के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के लिए ज़रूरी है कि हम भावना नहीं बल्कि विज्ञान पर पकड़ बनाकर काम करें। संगीत श्रोता ने कहा कि पाँच दिनों में समाजवादी संक्रमण पर हुई चर्चा से हमने बहुत कुछ सीखा है जो संकट के दौर से गुज़र रही नेपाली क्रान्ति से जुड़े लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण है। ऐसी बहसों की निरन्तरता को हम वहाँ जारी रखेंगे। हम नेपाल लौटकर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर संगोष्ठी आयोजित करने की सोच रहे हैं। अरविन्द स्मृति न्यास की आगामी संगोष्ठियों में भी नेपाल से भागीदारी बनी रहेगी।

सत्यम ने कहा कि आज समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर सोचना कोई अकादमिक प्रश्न नहीं है। इससे विचारधारा के बेहद अहम सवाल जुड़े हुए हैं जो भारत तथा दुनियाभर में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को सीधे प्रभावित कर रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं कि पिछली अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों की ही तरह इस संगोष्ठी में शुरू हुई बहसें आगे भी विभिन्न मंचों पर जारी रहेंगी। आगामी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी भारतीय समाज की प्रकृति, उत्पादन सम्बन्धों और क्रान्ति की मंज़िल के सवाल पर करने की हम सोच रहे हैं। इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी आलेख अरविन्द स्मृति न्यास की वेबसाइट पर उपलब्ध होंगे। इन्हें हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में पुस्तकाकार प्रकाशित करने पर जल्दी ही काम शुरू कर दिया जायेगा। पंजाबी, मराठी और नेपाली भाषाओं में अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों के आलेखों के अनुवाद की योजना है।

‘का. अरविन्द को लाल सलाम’, ‘का. अरविन्द तुम ज़िन्दा हो, हम सबके संकल्पों में’ के नारों और शशि प्रकाश के गीत ‘नये संकल्प लें फिर से, नये नारे गढ़ें फिर से, उठो संग्रामियो जागो, नयी शुरुआत करने का समय फिर आ रहा है…’ की तपीश मेन्दोला द्वारा प्रभावशाली प्रस्तुति के साथ संगोष्ठी का समापन हुआ।

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