कॉ.अरविन्‍द के बारे में

comred-arvind-2का. अरविन्द सच्चे अर्थों में जनता के आदमी थे। 20 वर्ष की छोटी-सी उम्र में उन्होंने क्रान्तिकारी वामपन्थी राजनीति की शुरुआत काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी में छात्र राजनीति से की थी। इसके बाद वर्षों तक वे पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई ज़िलों के ग्रामीण क्षेत्रों में नौजवानों को संगठित करते रहे। कुछ दिनों तक उन्होंने गोरखपुर और लखनऊ में भी छात्र-मोर्चे पर काम किया। मऊ ज़िले में ग्रामीण मजदूरों को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के बाद वे लम्बे समय तक दिल्ली-नोएडा में औद्योगिक मज़दूरों के बीच काम करते रहे। जीवन के अन्तिम वर्षों में वे गोरखपुर के मज़दूरों और सफ़ाई कर्मचारियों को संगठित करते हुए क्रान्तिकारी छात्र-युवा राजनीति में सक्रिय युवाओं की नयी पीढ़ी के लिए मार्गदर्शक की भूमिका निभा रहे थे।

एक कुशल संगठनकर्ता होने के साथ ही का. अरविन्द सैद्धान्तिक क्षेत्र में भी गहरी पकड़ रखते थे। एक सिद्धहस्त राजनीतिक पत्रकार, लेखक और अनुवादक के रूप में पूरा हिन्दी जगत उनकी क्षमताओं से परिचित था। समाजवाद की समस्याओं, पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों और सांस्‍कृतिक क्रान्ति के बारे में उन्होंने गहन शोध-अध्ययन किया था। मज़दूर आन्दोलन की समस्याओं और चुनौतियों पर भी उनका अध्ययन गहरा था और समझदारी व्यापक थी। ‘’नौजवान’, ‘आह्वान’, ‘दायित्वबोध’, ‘बिगुल’, आदि कई पत्र-पत्रिकाओं में न केवल वे नियमित लिखते रहे, बल्कि इनके सम्पादन से भी जुड़े रहे। कई युवा साथियों को उन्होंने अपने हाथों गढ़कर संगठनकर्त्ता बनाया और कई को लेखनी पकड़कर लिखना सिखाया। समय-समय पर देश के विभिन्न हिस्सों में जाकर क्रान्तिकारी वाम धारा के सहयात्रियों से मिलने तथा वाम एकता के लिए विचारधारा और लाइन के सवाल पर बहस चलाने का भी काम वे करते रहे। जो उनसे एक बार भी मिला, वह उन्हें कभी नहीं भुला सका।

विगत 24 जुलाई 2008 को 44 वर्ष की अल्पायु में  महज़ कुछ दिनों की बीमारी के बाद का. अरविन्द का आकस्मिक निधन हो गया। का. अरविन्द का जीवन मेहनतकश जन समुदाय की मुक्ति के जिस व्यापक लक्ष्य के लिए समर्पित था, उसी को आगे बढ़ाने के लिए ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ (अरविन्द मेमोरियल ट्रस्ट) समर्पित है।

वे एक सच्चे कम्युनिस्ट की भाँति सहज-सरल, खुशमिज़ाज, ज़िन्दादिल और पारदर्शी व्यक्तित्व वाले व्यक्ति थे, लेकिन उसूलों के मामले में कभी भी वे कोई समझौता नहीं करते थे। एक बेरहम ठण्डे और दुनियादारी भरे समय में वे निष्कम्प अपनी राह चलते रहे और एक सच्चे सर्वहारा क्रान्तिकारी के समान जिये और मरे। हम उन्हें कभी नहीं भुला सकेंगे।