जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के विचारार्थ कुछ बातें
गिनती के नज़रिये से अगर देखें तो कोई पर्यवेक्षक इस बात पर सन्तोष ज़ाहिर कर सकता है कि इस समय पूरे देश में नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाने वाले छोटे-बड़े संगठनों की संख्या दो दर्जन से भी कुछ अधिक ही है। यह भी सही है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली पुलिस दमन और राजनीतिक बंदियों के उत्पीड़न की घटनाओं, साम्प्रदायिक दंगों एवं नरसंहारों में हिन्दुत्ववादी ताकतों और शासन-प्रशासन की भूमिका, जाति एवं जेण्डर आधारित उत्पीड़न, बँधुआ मज़दूरी, बाल श्रम, मज़दूरों को उनके विधिसम्मत अधिकार नहीं मिलने जैसी घटनाओं, तथा कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत की जनता पर आधी सदी से भी अधिक समय से जारी अर्द्धफासिस्ट किस्म के परोक्ष सैनिक शासन पर आये दिन प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों और लेखों तथा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में प्रस्तुत याचिकाओं की संख्या आज अच्छी-खासी दीखती है। लेकिन इन गिनतियों से अलग हटकर जब हम इस बैलेन्स शीट की जाँच करते हैं कि पिछले करीब 30–35 वर्षों के दौरान जनवादी अधिकार आन्दोलन ने हमारे देश में सत्ता, समाज और संस्कृति के ताने-बाने को किस हद तक प्रभावित किया है, व्यापक जनसमुदाय की जनवादी चेतना को उन्नत बनाकर उसने किस हद तक उन्हें अपने जनवादी अधिकारों की हिफाजत के लिए जागरूक एवं सक्रिय बनाया है तथा किस हद तक अपना व्यापक सामाजिक आधार तैयार करके उसने एक जनान्दोलन की शक्ल अख़्तियार की है; तो हमें थोड़ी मायूसी का सामना करना पड़ता है।