विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली में बदलाव तथा भारत का मजदूर आन्दोलन : क्रान्तिकारी पुनरुत्थान की चुनौतियाँ
द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्तुत आलेख
तपीश मेन्दौला
बिगुल मजदूर दस्ता
आज जिसे पूँजी का भूमण्डलीकरण कहा जा रहा है, वह मूलत: साम्राज्यवाद का ही एक नया दौर है। पूँजी की बुनियादी गति के नियम वही हैं, लेकिन उसकी कार्य-प्रणाली में कई अहम और बुनियादी बदलाव आये हैं। कार्य-प्रणाली का यही बदलाव हमें बाध्य कर रहा है कि हम मजदूर आन्दोलन की नयी रणनीति और नये रणकौशलों के बारे में गम्भीरता से सोचें-विचारें।
स्वतन्त्र प्रतियोगिता वाले पूँजीवाद के युग में ही मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट घोषणापत्र‘ में नये-नये बाजारों की तलाश के लिए पूँजी के वैश्विक विस्तार की स्वाभाविक अन्तर्निहित प्रकृति की चर्चा की थी : ”अपने माल के लिए बराबर फैलते हुए बाजार की जरूरत के कारण बुर्जुआ वर्ग दुनिया के कोने-कोने की खाक छानता है। वह हर जगह घुसने को, हर जगह पैर जमाने को, हर जगह सम्पर्क कायम करने को बाध्य होता है।” घोषणापत्र में ही मार्क्स ने स्पष्ट कर दिया था कि कच्चे माल और सस्ती श्रमशक्ति की तलाश और अपने उत्पादित माल के लिए लगातार नये बाजार की तलाश के लिए राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघकर विश्व बाजार का निर्माण पूँजी की अन्तर्निहित प्रवृति होती है। पूँजी के अन्तरराष्ट्रीय प्रवाह की लगातार तेज होती गति ने ही पूँजीवाद को साम्राज्यवाद की अवस्था तक पहुँचाया जो विश्व बाजार के निर्माण और उस पर वित्तीय पूँजी की प्रभुत्व का युग था। लेनिन ने इस युग की अभिलाक्षणिक विशिष्टताओं को इस प्रकार सूत्रबद्ध किया : 1. माल के निर्यात के साथ-साथ पूँजी का निर्यात होना और इस प्रवृत्ति का अधिक महत्वपूर्ण बन जाना, 2. उत्पादन और वितरण का विशाल ट्रस्टों और कार्टेलों में केन्द्रीकृत हो जाना, 3. बैंकिंग और औद्योगिक पूँजी का आपस में घुल-मिल जाना, 4. पूँजीवादी शक्तियों द्वारा पूरी दुनिया को अपने-अपने प्रभाव-क्षेत्रों में बाँट लेना, 5. इस विभाजन के पूरा हो जाने के बाद, दुनिया के बाजार के फिर से बँटवारे के लिए अन्तर-साम्राज्यवादी संघर्ष।
आज जिसे भूमण्डलीकरण कहा जा रहा है, वह साम्राज्यवाद के आगे की कोई नयी पूँजीवादी अवस्था नहीं बल्कि साम्राज्यवाद का ही एक नया दौर है। साम्राज्यवाद की बुनियादी अभिलाक्षणिक विशिष्टताएँ आज भी यथावत् मौजूद हैं। इतिहास को अनुभववादी नजरिये से देखने वालों को वर्तमान और भविष्य चाहे जितना भी अन्धकारमय नजर आये, वैज्ञानिक नजरिया यही बताता है कि यह युग साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों का ही युग है। विश्व पूँजीवाद का दीर्घकालिक और असाध्य ढाँचागत संकट इस सच्चाई का सबसे बड़ा प्रमाण है कि पूँजीवाद अमर नहीं है, न ही यह मानव इतिहास की आखिरी मंजिल है। बीसवीं शताब्दी की मजदूर क्रान्तियों की हार भी कोई अन्तिम चीज नहीं है। यह मजदूर क्रान्तियों के पहले चक्र का अन्त है, जिसके सार-संकलन के आधार पर इक्कीसवीं शताब्दी की नयी मजदूर क्रान्तियों के सूत्रपात से लेकर विजय तक ऐतिहासिक महाभियान आगे डग भरेगा।
बीसवीं शताब्दी की मजदूर क्रान्तियाँ इतिहास का ट्रेण्ड सेट करने वाली क्रान्तियाँ थीं। पर ट्रेण्ड सेट करने वाले महान सामाजिक प्रयोगों में गलतियों, कमियों, अधूरेपन का होना लाजिमी होता है। अब यह इक्कीसवीं शताब्दी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों की वाहक हरावल पीढ़ियों का दायित्व है कि बीसवीं शताब्दी के क्रान्तिकारी प्रयोगों का विश्लेषण करें और सकारात्मक-नकारात्मक शिक्षाएँ लें। विडम्बना यह है कि क्रान्तिकारी वामधारा के ज्यादातर लोग अतीत की महान क्रान्तियों से सीखने के नाम पर उन्हें दुहराने की कठमुल्लावादी जिद ठाने बैठे हैं। साम्राज्यवाद के युग के जारी रहने का मतलब वे यह समझते हैं कि चीजें आज कमोबेश बीसवीं शताब्दी जैसी ही हैं और मजदूर क्रान्तियों की नीति-रणनीति में भी किसी बदलाव की आवश्यकता नहीं है। जब भी नीति, रणनीति एवं आम रणकौशल में बदलती परिस्थितियों के हिसाब से बदलाव की कोई बात की जाती है, तो कठमुल्लावाद के शिकार लोगों को लगता है कि विचारधारा से ही विचलन हो रहा है। कठमुल्लावाद की इस गाँठ को खोले बिना आगे का रास्ता तय कर पाना कठिन है।
जीवन की सच्चाइयों पर निगाह डालने पर हमें पता चलता है कि साम्राज्यवाद के जारी रहते हुए भी, विगत दो-तीन दशकों के दौरान पूँजी की कार्यप्रणाली में कुछ ऐसे बुनियादी बदलाव आये हैं तथा विश्व पूँजीवादी तंत्र के आर्थिक-राजनीतिक ढाँचे का कुछ इस प्रकार पुनर्गठन किया गया है, जिनके मद्देनजर पूरी सर्वहारा क्रान्ति की नीति-रणनीति और रास्ते पर, तथा उसके एक हिस्से के तौर पर, ट्रेड यूनियन आन्दोलन के पुनर्निर्माण के सवाल पर, सोचना टाला नहीं जा सकता।
पहले हम इन परिवर्तनों की संक्षेप में चर्चा करेंगे। पहला तथ्य यह है कि आज पूरी दुनिया की पूँजी का 85 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा अनुत्पादक वित्तीय और सट्टा पूँजी का है जो शेयर बाजार, सूदखोरी, विज्ञापन, मीडिया, सिनेमा आदि में लगा हुआ है। यह तथ्य बताता है कि लेनिन के जमाने के मुकाबले पूँजी का परजीवी, अनुत्पादक और ह्रासोन्मुख चरित्र ज्यादा बड़े पैमाने पर सामने आया है तथा वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व ज्यादा व्यापक हुआ है। इतने बड़े पैमाने पर अनुत्पादक निवेश अपने-आप में अतिउत्पादन और मंदी की चिरपरिचित बीमारी के असाध्य ढाँचागत संकट में तबदील होने का ही संकेत है। जाहिर है कि शेयर बाजारों के चढ़ाव-उतार में इससे भारी अनिश्चितता आ गयी है जिसकी भारी कीमत अन्तोगत्वा छँटनी, अर्द्धबेरोजगारी और बेहद कम कीमत पर अपनी श्रमशक्ति बेचने की विवशता के रूप में उत्पादन में लगे मजदूर वर्ग को ही चुकानी पड़ती है।
दूसरा परिवर्तन, राष्ट्रों की सीमाओं के आर-पार वित्तीय पूँजी की आवाजाही ज्यादा से ज्यादा बाधामुक्त और तेज रफ्तार हो गयी है। जिन साम्राज्यवादियों के पास अपरम्पार वित्तीय पूँजी की ताकत है, जिनका उन्नत तकनोलॉजी पर पेटेण्ट आदि के जरिए नियंत्रण है और विश्व-बाजार पर जिनकी चौधराहट है, उन्होंने औपनिवेशिक-नवऔपनिवेशिक अतीत से मुक्त होकर धीमी गति से पूँजीवादी विकास की राह पर चलने वाले पिछड़े पूँजीवादी देशों के शासक पूँजीपतियों को मजबूर किया है कि वे कस्टम डयूटी आदि तमाम बाधाओं को हटाकर, श्रम कानूनों के ढाँचे को ढीला और प्रभावहीन बनाकर, विभिन्न क्षेत्रों में निवेश की सीमाओं और शर्तों को हटाकर तथा सस्ती जमीनें, अन्य ढाँचागत सुविधाएँ और ‘टैक्स हॉलिडे, जैसी छूटें देकर राष्ट्रपारीय निगमों के लिए अपनी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाओं को पूरी तरह से खोल दें जिससे कि साम्राज्यवादी पूँजी उन पिछड़े देशों की प्राकृतिक सम्पदा और श्रमशक्ति को मनमाने ढंग से निचोड़ सके। पिछड़े देशों के पूँजीपति वर्गों की मजबूरी है और जरूरत भी, कि वे इन शर्तों को स्वीकार करें क्योंकि पूँजी और तकनोलॉजी के लिए तथा अपने कच्चे मालों, कृषि उत्पादों और कपड़ा जैसी चीजों को विश्व बाजार में पहुँचाने के लिए साम्राज्यवादियों के सामने झुकना उनकी मजबूरी है। पूँजी की निर्बाध विश्वव्यापी आवाजाही को नयी सूचना-तकनोलॉजी ने भी अधिक आसान बनाया है। कहाँ तुरन्त पूँजी लगाना फायदेमन्द है, कहाँ कच्चा माल सस्ता है, कहाँ किस प्रकार की श्रमशक्ति सस्ती है, कहाँ किस चीज का बाजार विकसित किया जा सकता है, कहाँ किस तरह के उद्योग के लिए ढाँचागत सुविधा है, किस देश के शेयर बाजार में तुरत लगाकर तुरत मुनाफा कूटकर निकल लेना मुमकिन है – तकनोलॉजी ने ये जानकारियाँ जुटा लेना एकदम आसान कर दिया है और इण्टरनेट बैंकिंग ने पूँजी-निर्यात की प्रक्रिया में जादुई तेजी ला दी है।
तीसरा परिवर्तन, वित्तीय पूँजी के भूमण्डलीकरण के मातहत, या यूँ कहें कि, उसी के अंग के तौर पर उत्पादन प्रक्रिया का भी भूमण्डलीकरण हुआ है। विशाल राष्ट्रपारीय निगमों का चरित्र बीसवीं शताब्दी के छठे-सातवें दशक तक की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से काफी भिन्न है। ये कई राष्ट्रों में इस तरह फैले खड़े हैं कि उनके मूल राष्ट्र का पता ही नहीं चलता हालाँकि विश्व राजनीतिक मंचों और आर्थिक मंचों पर उन निगमों के हितों की पैरोकारी और तरफदारी उनके मूल राष्ट्रों की राज्यसत्ताएँ ही किया करती हैं। इस तरह अलग-अलग साम्राज्यवादी घरानों के उपक्रमों के उनके मातृराष्ट्र से बाहर दुनिया के सुदूरवर्ती कोनों में फैल जाने के बावजूद, उनका राष्ट्र-राज्य से एक रिश्ता बचा हुआ है, जो अन्तरराष्ट्रीय प्रतिस्पर्द्धा में उनकी हितरक्षा के काम आता है। यानी भूमण्डलीकरण ने राष्ट्र-राज्यों की भूमिका को संकुचित किया है, लेकिन समाप्त नहीं किया है।
चौथा परिवर्तन, बड़े राष्ट्रपारीय निगमों के वैश्विक फैलाव के चलते अब उपनिवेशों, नवउपनिवेशों के रूप में विश्व बाजार के भौगोलिक पुनर्विभाजन के लिए विश्वयुद्ध जैसी किसी चीज की सम्भावना क्षीण हो गयी है। पूरी दुनिया के लगभग पूरी तरह से खुले बाजार में मुख्यत: उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर और पूँजी की ताकत से साम्राज्यवादी देशों के बीच श्रेष्ठता का फैसला हो रहा है। बेशक यह फैसला घर्षणमुक्त प्रक्रिया से नहीं होता है। विशेषकर एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका में, कच्चे माल और सस्ती श्रमशक्ति की लूट के लिए प्रतिस्पर्द्धा जारी है। विकसित देशों के घरेलू बाजारों में भी व्यापार युद्धों व नयी-नयी गुटबन्दियों एवं व्यापार समझौतों आदि के रूप में अन्तर-साम्राज्यवादी होड़ लगातार चलती रहती है। इराक, समूचे अरब क्षेत्र, अफगानिस्तान या दुनिया में अन्य कहीं भी जो क्षेत्रीय युद्ध और तनाव जारी हैं, उनमें स्थानीय जनता और साम्राज्यवाद के बीच के अन्तरविरोध के साथ ही, साम्राज्यवादी देशों के बीच के अन्तरविरोध की भी सक्रिय भूमिका है, हालाँकि फिलहाल वह सतह के ऊपर दिखाई नहीं देती। यानी दुनिया के बाजार के बँटवारे के लिए अन्तर-साम्राज्यवादी संघर्ष के बारे में लेनिन का सूत्रीकरण आज भी सही है, लेकिन विश्वयुद्ध के रूप में इसके विस्फोट की सम्भावना क्षीण है। इसका कारण, दुनिया के अधिकांश देश में, अधिकांश राष्ट्रपारीय निगमों की मौजूदगी है। यानी उपनिवेशों-नवउपनिवेशों के रूप में संरक्षित बाजारों के पुनर्विभाजन की स्थिति आज है ही नहीं। अधिकांश देशों में कई-कई साम्राज्यवादी देशों की पूँजी लगी हुई है। बेशक, विश्वयुद्धों की सम्भावना की क्षीणता (असम्भवता नहीं) का एक कारण आज नाभिकीय प्रतिरोधक (न्यूक्लियर डेटेरेण्ट) की मौजूदगी भी है। लेकिन यह मुख्य पहलू नहीं है। मुख्य पहलू आर्थिक ही है।
पाँचवां परिवर्तन, पूरी दुनिया में, साम्राज्यवादी देशों से लेकर उत्तर-औपनिवेशिक पिछड़े पूँजीवादी देशों तक की बुर्जुआ राज्यसत्ताओं ने ”कल्याणकारी राज्य” का चोला उतार दिया है और कीन्सियाई नुस्खों का परित्याग कर दिया है। विकसित पूँजीवादी देशों में ये नीतियाँ अब पूँजी के स्वतंत्र प्रवाह के रास्ते की बाधा बन गयी थीं। इनसे निजात पाना पूँजी-संचय की दर को बढ़ाने के लिए जरूरी था। ऐसा किये बिना लगातार जारी मन्दी के बोझ को झेलना सम्भव नहीं था। दूसरे, साम्राज्यवादियों के सामने अब न तो साम्राज्यवादी शिविर की चुनौती थी, न ही मजदूर वर्ग के संगठित संघर्षों का दबाव। इसलिए, खुली पूँजीवादी लूट के दौर की नीतियों की ओर वापसी का रास्ता आसान था। एशिया, अफ्रीका, लातिन अमेरिका के नवस्वाधीन देशों के पूँजीपति वर्ग ने समाजवादी मुखौटे के साथ ”कल्याणकारी राज्य” की नीतियाँ इसलिए भी अपनाई थीं, क्योंकि उन्हें साम्राज्यवादी दबाव का मुकाबला करने के लिए ‘आयात प्रतिस्थापन’ (इम्पोर्ट सब्स्टीट्यूशन) की नीतियाँ अपनानी ही थीं। जनता से पैसे उगाहकर पब्लिक सेक्टर के उद्योग और वित्तीय संस्थान खड़े किये बिना देशी पूँजीवाद का आधार तैयार हो ही नहीं सकता था। तीन-चार दशकों में जब यह काम पूरा हो गया और देशी पूँजीपति वर्ग के पास भी पूँजी की पर्याप्त ताकत आ गयी तो न केवल औने-पौने दामों पर सार्वजनिक उपक्रम पूँजीपतियों को सौंपे जाने लगे, बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य आदि राज्य की बुनियादी जिम्मेदारियों को भी बाजार के हवाले कर दिया गया। सरकारें अब एकदम खुले तौर पर पूँजीपतियों की ‘मैनेजिंग कमेटी’ के रूप में व्यवहार करने लगीं। लम्बे संघर्षों से अर्जित मेहनतकशों के अधिकार छीने जाने लगे और श्रम कानून बेमानी होते चले गये। उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के शासक वर्ग ने अपने देश के मेहनतकशों की लूट में अब साम्राज्यवादियों को खुला साझीदार बना लिया (साझीदार तो वे पहले भी थे, पर उसकी सीमाएँ थीं क्योंकि अपनी सापेक्षिक आर्थिक सम्प्रभुता और राजनीतिक आजादी की सुरक्षा के लिए अधिकांश पिछड़े देशों के पूँजीपति राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के दरवाजों को विदेशी पूँजी के लिए पूरी तरह से नहीं खोल रहे थे, तथा अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और समाजवादी शिविर की मौजूदगी का लाभ भी उठा रहे थे) गत शताब्दी के नवें दशक के अन्त तक विदेशी पूँजी के लिए राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के द्वार पूरी तरह से खोलना भारत जैसे देशों के पूँजीपतियों की जरूरत भी बन गयी थी और मजबूरी भी।
राष्ट्रपारीय निगमों के बदलते चरित्र, तकनोलॉजी के विकास और पूँजी की निर्बन्ध विश्वव्यापी आवाजाही से ही जुड़ा हुआ छठा परिवर्तन पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया में आया बदलाव था और यह था ‘फोर्डिस्ट मास-प्रोडक्शन असेम्बली लाइन’ को तोड़कर एक प्रकार की ‘विखण्डित भूमण्डलीय असेम्बली लाइन’ का निर्माण करना। राष्ट्रपारीय निगम (जिनमें विकसित देशों के अतिरिक्त चीन, भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, अर्जेण्टीना आदि तीसरी दुनिया के अग्रिम पंक्ति के देशों के भी कई एकाधिकारी घराने और निगम शामिल हैं) आधुनिक संचार-साधनों के जरिए तत्काल पता लगा लेते हैं कि कहाँ कैसा कच्चा माल और कैसी श्रमशक्ति सबसे सस्ती दरों पर उपलब्ध है और कहाँ किस चीज की माँग है। इण्टरनेट-बैंकिंग आदि ने आनन-फानन में अन्तरराष्ट्रीय वित्तीय बाजार से पूँजी बटोरना और तयशुदा स्थान पर उसका निवेश करना आसान बना दिया है। राष्ट्रपारीय निगम अपने श्रम-संकेन्द्रित कामों को उन देशों में पूरा कराते हैं जहाँ श्रमशक्ति बेहद सस्ती है और श्रम कानून बेहद उदार हैं। इन्हीं देशों में ज्यादातर ‘फ्री ट्रेड जोन’, ‘एक्सपोर्ट प्रोसेसिंग जोन’, ‘स्पेशल इकोनॉमिक जोन’ भी बनाये गये हैं, जहाँ व्यवहारत: काम के घण्टे, रोजगार सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, न्यूनतम मजदूरी, ओवरटाइम, तथा आवास, स्वास्थ्य आदि बुनियादी अधिकारों से जुड़े कानूनों का रहा-सहा अस्तित्व भी बेमानी हो चुका है। दुनिया में कच्चे माल के स्रोत ज्यादातर इन्हीं पिछड़े देशों में हैं, जहाँ श्रमशक्ति भी सस्ती है। इन कच्चे मालों को भी राष्ट्रपारीय निगम औने-पौने दामों पर लूटते हैं और इस लूट में देशी पूँजीपति भी उनसे सहकार और होड़ करते हैं। इस स्थिति का लाभ उठाकर आज बड़े पैमाने पर, बड़ी औद्योगिक इकाइयों को तोड़कर दूर-दूर, (एक ही देश के कई सुदूरवर्ती क्षेत्रों में तथा कई बार तो कई देशों तक में) कई छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों में बिखरा दिया जाता है। जिन मालों का बाजार विकसित देशों में होता है, उन्हें भी उन देशों में बिखरी छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों में बिखरा दिया जाता है, जहाँ सस्ते कच्चा माल की उपलब्धता है और सस्ती श्रमशक्ति है। इन छोटी-छोटी इकाइयों में भी स्थायी मजदूर काफी कम होते हैं और ज्यादातर काम दिहाड़ी व कैजुअल मजदूरों से, या कॉण्ट्रैक्टिंग, सबकॉण्ट्रैक्टिंग, आउटसोर्सिंग के जरिए कराये जाते हैं, जिसकी आखिरी कड़ी घर में पीस रेट पर काम करने वाला मजदूर होता है। कुछ ‘ओवरहेड कैपिटल गुड्स इण्डस्ट्रीज’ को छोड़कर औद्योगिक उत्पादन के ज्यादातर क्षेत्रों मे यही प्रवृत्ति हावी है और निरन्तर विकासमान है। जो संगठित क्षेत्र के बड़े उद्योग हैं, वे भी बहुत सारे काम ठेके पर छोटी कम्पनियों को दे देते हैं, जो ज्यादातर काम ठेका, दिहाड़ी या पीस रेट पर कराती हैं। इसके अलावा बड़े उद्योग भी प्राय: अपने कामों को दूरस्थ संयंत्रों में बाँट देते हैं। वहाँ भी सीधे ठेके पर या पीस रेट पर या श्रम कानूनों को ताक पर रखकर अस्थायी आधार पर मजदूर भरती होते हैं, या फिर और छोटे ठेकेदारों को काम दे दिया जाता है। सड़क, बाँध, कारखाने जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर का निर्माण जो बड़ी कम्पनियाँ करती हैं, वे भी बहुत थोड़े से टेक्नीशियनों को स्थायी तौर पर नौकरी पर रखती हैं, शेष मजदूरों को प्रोजेक्ट के हिसाब से ठेके पर रखा जाता है और प्रोजेक्ट खतम होते ही उनकी छुट्टी कर दी जाती है। काम के दौरान कहीं उन्हें उतने अधिकार भी नहीं दिये जाते, जितना ठेका मजदूरी का कानून उन्हें कागजों पर प्रदान करता है। निचोड़ के तौर पर, आज असंगठित/अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली मजदूर आबादी के अतिरिक्त जो संगठित/औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाला मजदूर है, उसके भी बहुत बड़े हिस्से को श्रम कानूनों के अन्तर्गत मिलने वाले हक और सुविधाएँ हासिल नहीं हैं और वह भी असंगठित मजदूर ही है। यह एक विश्वव्यापी प्रवृत्ति है जो भारत में भी हावी है। भारत की कुल मजदूर आबादी का 93 प्रतिशत हिस्सा अनौपचारिक या असंगठित मजदूर है। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह है कि यह मजदूर चन्द दशकों पहले के उस अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूर जैसा नहीं है जो ‘जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था’ में जीता था और जिसका अस्तिस्व सापेक्षत: स्वायत्त होता था। आज छोटे-छोटे वर्कशापों के ठेका, दिहाड़ी व कैजुअल मजदूर और बड़े कारखानों के ठेका मजदूर आधुनिक उत्पादन के उपकरणों पर काम करने वाले आधुनिक सर्वहारा हैं, जो ‘पूँजी के मुख्य परिपथ’ के हिस्सा हैं और विश्व बाजार के लिए कार से लेकर जूते तक का उत्पादन करने वाली ‘अदृश्य, विखण्डित, भूमण्डलीय असेम्बली लाइन’ पर काम करते हैं। प्रत्यक्ष तौर पर तो वे दूर-दूर छोटे-छोटे वर्कशापों में बिखर गये हैं, लेकिन गहराई से देखें तो इस बदलाव ने दूर-दूर इलाकों और देशों तक के मजदूरों को एक-दूसरे से जोड़ दिया है।
यहाँ यह भी जोड़ देना जरूरी है कि उत्पादन-प्रक्रिया के साथ ‘वॉलमार्ट’ जैसी दैत्याकार रिटेल कम्पनियों और ‘एग्रीबिजनेस’ में लगे राष्ट्रपारीय निगमों के जरिए होने वाले व्यापार के भूमण्डलीकरण ने भी पिछड़े देशों के छोटे उत्पादों तथा कृषि और ‘एग्रोबेस्ड ऐण्ड एलायड सेक्टर’ में काम करने वाले ग्रामीण मजदूरों की भारी आबादी को अधिशेष निचोड़ने के ग्लोबल नेटवर्क से जोड़ दिया है। ये बड़ी रिटेल कम्पनियाँ कुछ माल बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से लेती हैं, और कुछ माल जैसे कुछ फल, सब्जियाँ आदि; पिछड़े देशों के छोटे उत्पादकों से सीधे लेती हैं, उनकी छँटाई-बिनाई व पैकेजिंग ठेका या पीस रेट पर कराती हैं और फिर ठप्पा लगाकर अपनी दूकानों की विश्वव्यापी श्रृंखला में भेज देती हैं। ये कम्पनियाँ कम्यूटर-इण्टरनेट आदि के जरिए बाजार की विश्वव्यापी जानकारी रखती हैं और उत्पादकों से सस्ता से सस्ता माल खरीदती हैं। सबसे सस्ता बेचने के लिए आपस में होड़ करते सप्लायर्स बाध्य होते हैं और इसकी कीमत मजदूर चुकाते हैं क्योंकि उत्पाद की कीमत में हर कटौती श्रमशक्ति के मूल्य में कटौती करके ही की जा सकती है। दुनिया के कुछ हिस्सों से सस्ता कच्चा माल उठाना और सस्ती श्रमशक्ति का दोहन करना और दूसरे हिस्सों के उपभोक्ताओं तक उत्पादों को ले जाकर बेच पाना इसलिए भी आसान हो गया है क्योंकि पिछले करीब दो-ढाई दशकों के दौरान टैरिफ में कमी की वजह से व्यापार का खर्च काफी घटा है। 1980 से लेकर 1995 के आसपास तक समुद्री रास्ते से माल ढुलाई 70 फीसदी सस्ती हो गयी। हवाई माल ढुलाई सेवा का भी विस्तार हुआ है और यह सस्ती भी हुई है। इन चीजों के सस्ती होने (ईंधन की कीमतें बढ़ने के बावजूद) का कारण भी मुख्यत: श्रमशक्ति का सस्ता होना है और दूसरा कारण सरकारी करों में कटौती है (उसकी भरपाई भी बहुसंख्यक आबादी पर परोक्ष करों का बोझ बढ़ाकर की जाती है)।
अब सातवें परिवर्तन की चर्चा। एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका के जो देश कभी उपनिवेश-अर्द्धउपनिवेश या नवउपनिवेश थे, वे प्राय: कृषिप्रधान समाज थे जहाँ प्राक्-पूँजीवादी भूमि-सम्बन्धों की प्रधानता थी। इन देशों की राजनीतिक स्वाधीनता और देशी बुर्जुआ वर्ग के सत्तारूढ़ होने का सिलसिला 1950 के दशक से लेकर 1970 के दशक के अन्त तक जारी रहा। इनमें से प्राकृतिक एवं सामाजिक सम्पदा से सम्पन्न अगली और बीच की कतारों के देशों के शासक पूँजीपति वर्ग ने ज्यादातर अन्तरसाम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा का लाभ उठाकर तथा ‘आयात प्रतिस्थापन’ की नीतियाँ अपनाकर पूँजीवादी औद्योगिक विकास किया तथा गाँवों को राष्ट्रीय बाजार के दायरे में समेटने के लिए, ”ऊपर से,” ”क्रमिक प्रक्रिया से”, ”गैरक्रान्तिकारी तरीके से”, ”प्रशियाई मार्ग” से, भूमि-सम्बन्धों का पूँजीवादीकरण करने का काम किया। भूमण्डलीकरण के दौर में गाँवों के पूँजीवादी विकास की गति और तेज हुई। देशी-विदेशी पूँजी ने दूरस्थ इलाकों तक अपनी पैठ-पकड़ मजबूत बनायी। इससे पूँजी की मार से उजड़े किसानों और प्राक्-पूँजीवादी सम्बन्धों से मुक्त मजदूरों का शहरों की ओर स्थानान्तरण और औद्योगिक सर्वहारा की कतारों में बडे पैमाने पर शामिल होना तो सम्भव हुआ ही, गाँवों में भी खेती तथा खेती-आधारित व सहायक उद्यमों में लगी सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की भारी आबादी अस्तित्व में आयी। कुछ समय शहर और कुछ समय गाँव में काम करने वाले सीजनल मजदूरों तथा कुछ समय तक किसानी और कुछ समय मजदूरी करने वाले अर्द्धसर्वहाराओं की आबादी भी लगातार बढ़ती चली गयी। ये प्रवृत्तियाँ लगातार विकासमान हैं। गाँवों में जमीन के मालिकाने और जमीन के बँटवारे के नारे आज गुजरे जमाने की चीजें बन चुकी हैं। मालिक किसानों की वर्गीय, रणनीतिक माँग खेती की लागत घटाने और कृषि-उत्पादों के लाभकारी मूल्य पाने की बनती है। गाँव के सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा की वर्गीय रणनीतिक माँग अपनी श्रमशक्ति का बेहतर से बेहतर मूल्य पाने की बनती है। उनकी माँग सामाजिक सुरक्षा के विविध प्रावधानों की बनती है, गाँव के मजदूरों को श्रम कानूनों के दायरे में लाने की तथा श्रम कानूनों के प्रभावी अमल एवं निगरानी की बनती है; आवास, स्वास्थ्य, शिक्षा आदि को मूलभूत अधिकारों के दायरे में लाने की बनती है तथा सरकार की ओर से रोजगार-गारण्टी तथा बेरोजगारी भत्ता की बनती है। विकसित पूँजीवादी खेती के इलाकों में तो श्रम और पूँजी के अन्तरविरोध एकदम स्पष्ट हैं। पिछड़ी किसानी अर्थव्यवस्था वाले इलाकों में भी न्यूनतम मजदूरी, ग्रामीण मजदूरों के लिए श्रम कानूनों के निर्माण एवं अमल, रोजगार गारण्टी तथा बुनियादी नागरिक अधिकारों की माँग सीधे बुर्जुआ राज्यसत्ता से बनती है। इनमें से रोजगार गारण्टी, बेरोजगारी भत्ता, सामाजिक सुरक्षा, स्वास्थ्य-शिक्षा आदि के अधिकार सम्बन्धी माँगों पर उजड़ते हुए निम्न मध्यवर्गीय मालिक किसान तो मजदूरों के साथ आ जायेंगे, लेकिन खुशहाल मालिक किसान हर हाल में मजदूरों के विरोध में ही खड़े होंगे। सर्वहाराकरण की तेज गति से अब भारत के गाँवों में भी सर्वहारा-अर्द्धसर्वहारा आबादी तेजी से बढ़ रही है और क्रान्तिकारी वाम का लक्ष्य गाँवों में सर्वोपरि तौर पर उन्हें ही संगठित करने का होना चाहिए। जो उन्हें छोड़कर मालिक किसानों के लिए लागत मूल्य, लाभकारी मूल्य की माँग उठा रहे हैं, उन्हें कथनी में मार्क्सवादी और करनी में नरोदवादी ही कहा जा सकता है।
विगत करीब तीन दशकों के दौरान विश्व पूँजीवाद की संरचना, कार्यप्रणाली और उत्पादन-प्रक्रिया में आये इन बदलावों तथा भारत जैसे देशों की सामाजिक-आर्थिक संरचना में आये बदलावों की इस संक्षिप्त चर्चा के बाद हम नयी सदी में भारतीय मजदूर आन्दोलन के पुनरुत्थान और पुनर्निर्माण के लिए नीति-रणनीति में बदलावों की आवश्यकता की चर्चा करेंगे।
सबसे पहले हम औद्योगिक मजदूरों को ट्रेड यूनियन आन्दोलनों में नये सिरे से संगठित करने की समस्याओं और चुनौतियों की चर्चा करेंगे।
‘फोर्डिस्ट मास प्रोडक्शन असेम्बली लाइन’ को छोटी-छोटी प्रोडक्शन यूनिटों में विखण्डित करके बिखरा देने के पीछे पूँजीपति वर्ग की आर्थिक रणनीति के अतिरिक्त राजनीतिक रणनीति भी रही है। इस चीज की चर्चा मार्क्स ने ही ‘घोषणापत्र’ में की थी कि किस प्रकार आधुनिक उद्योगों ने मजदूरों को कारखानों में बड़ी-बड़ी जमातों में संकेन्द्रित करके सैनिकों के समान संगठित कर दिया। इस भौतिक स्थिति ने मजदूरों को उनकी ताकत का अहसास कराने के साथ ही संगठित होने की भी चेतना दी। ‘फोर्डिस्ट मास प्रोडक्शन असेम्बली लाइन’ ने उन्नत तकनोलॉजी आधारित उत्पादन-प्रक्रिया के द्वारा कम समय में मजदूरों से ज्यादा से ज्यादा उत्पादन कराकर ज्यादा से ज्यादा लाभ कमाना तो सम्भव बना दिया, लेकिन एक ही कारखाने में मजदूरों की और बड़ी आबादी के संकेन्द्रण ने औद्योगिक मजदूरों के संगठित होने का व्यापक आधार तैयार कर दिया था। ये संगठित मजदूर सामूहिक सौदेबाजी के द्वारा अपने आर्थिक हितों की बेहतर हिफाजत कर लेते थे और मुनाफे की लगातर बढ़ती दर की राह में अवरोध भी खड़े कर देते थे। साथ ही, आगे चलकर यह संगठित शक्ति पूँजी की सत्ता को चुनौती भी दे सकती थी। सोवियत क्रान्ति, जर्मनी, ग्रीस और इटली की अधूरी क्रान्तियों और यूरोपीय मजदूर वर्ग के 1920 और 1930 के दशक के जुझारू संघर्षों से बुर्जुआ वर्ग ने भी अपने लिए जरूरी सबक निकाले।
अब जिन उद्योगों में भी सम्भव है, वहाँ ‘फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन’ के विखण्डन के साथ ही आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग को छोटी-छोटी इकाइयों में बिखरा दिया गया है। छोटे-छोटे समूहों में बँटे हुए ज्यादातर काम वे ठेके पर, दिहाड़ी पर या पीसरेट पर करते हैं। नियमित प्रकृति का काम होता है, लेकिन कैजुअल मजदूर से कराया जाता है। छोटे वर्कशापों में ठेका या पीस रेट पर काम करने वाले मजदूरों के अतिरिक्त ऐसे भी मजदूर हैं जो अपने परिवारजनों के बूते पर (बाहर से मजदूर रखकर नहीं) खुद छोटा-मोटा वर्कशाप चलाते हैं और पीस रेट पर काम करते हैं। पीस रेट पर फैक्ट्रियों-वर्कशापों में भी काम होता है और घरों पर लाकर भी काम होता है। छोटे-छोटे कारखानेदारों के कारखानों में जो मजदूर व्यवहारत: नियमित काम करते हैं, उन्हें भी ज्यादातर हाजिरी कार्ड व वेतनपर्ची तक नहीं मिलती और व्यवहारत: उनकी स्थिति दिहाड़ी या ठेका मजदूर की ही होती है। असंगठित मजदूरों का एक बड़ा हिस्सा ‘फुटलूज वर्कर्स’ का है, जो कभी हॉकर, वेण्डर का काम कर लेते हैं, कभी रिक्शा चला लेते हैं, कभी लोडिंग-अनलोडिंग कर लेते हैं तो कभी किसी फैक्ट्री में लग जाते हैं। असंगठित मजदूरों की इन सारी किस्मों को मिला दें, तो भारत की कुल मजदूर आबादी का 93 प्रतिशत से भी अधिक इस श्रेणी में आता है। यह मजदूर आबादी छोटे-छोटे हिस्सों में विखण्डित है, पर इसका बड़ा हिस्सा राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय बाजार के लिए अत्याधुनिक मशीनों, इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों, तथा ड्यूरेबल व नॉन-ड्यूरेबल कंज्यूमर गुड्स का उत्पादन करता है। यह पुराने करघा चलाने वाले या लुहार या बढ़ई की तरह ‘जीवन-निर्वाह अर्थव्यवस्था’ में जीने वाला, सापेक्षत: स्वायत्त अस्तित्व वाला कारीगर या मजदूर नहीं है बल्कि ‘पूँजी के मुख्य परिपथ’ का हिस्सा है। यह परिपथ है जो छोटे-बड़े शहरों के अंधेरे कोनों के छोटे-छोटे वर्कशापों में उजरती गुलामी करने वाली आबादी को या अपनी झुग्गियों में पीस रेट पर काम करने वाले मजदूर को जूते, अन्तरराष्ट्रीय ब्राण्ड के कपड़े, इलेक्ट्रॉनिक सामान, कम्प्यूटर, आटोमोबाइल आदि बनाने वाले सूदूर देशों के दैत्याकार राष्ट्रपारीय निगमों और ‘वॉलमार्ट’ जैसी अन्तरराष्ट्रीय रिटेल-श्रृंखलाओं के गगनचुम्बी अट्टालिकाओं में स्थित मुख्यालयों से जोड़ देता है। आज के आधुनिक सर्वहारा वर्ग का बहुलांश ऐसा ही है और उसे संगठित करने के नये तौर-तरीकों पर विचार किये बिना हम मजदूर वर्ग की लड़ाई को आगे बढ़ाना तो दूर, उसकी आत्मरक्षात्मक रणनीति की तैयारी की बात भी नहीं कर सकते।
कहने की जरूरत नहीं, फिर भी हठी कठमुल्लापंथियों के लिए यह स्पष्टीकरण जरूरी है कि आज भी सार्वजनिक व निजी क्षेत्र के जिन आधारभूत व अवरचनागत उद्योगों में, या जिन किन्हीं भी उद्योगों में बड़े पैमाने पर औद्योगिक मजदूर एक साथ कारखाने की चौहद्दी में काम करते हैं, जहाँ कहीं भी ‘फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन’ मौजूद है, उन संगठित मजदूरों के क्रान्तिकारी ‘पोटेंशियल’ को अस्वीकार करने का सवाल ही नहीं उठता। ये सभी संगठित मजदूर ‘कुलीन मजदूर’ कतई नहीं कहला सकते। इनकी एक ऊपरी परत जरूर कुलीन मजदूरों की है। शेष जो स्थायी या नियमित मजदूर हैं, बेहतर जीवन-स्थिति के चलते वे असंगठित मजदूरों की भारी आबादी से दूर हैं। अभी वे संघर्ष-विमुख हैं और सौदेबाजी तथा सीमित आर्थिक आन्दोलनों के जरिए मान्यताप्राप्त राष्ट्रीय यूनियनें उन्हें कुछ राहत-रियायतें दिलाती रहती हैं। लेकिन भारत और दुनिया के अनुभव बता रहे हैं कि बढ़ते आर्थिक संकटों की मार से यह आबादी भी बची नहीं रहेगी। छँटनी-तालाबन्दी, वेज-कट, वेज-फ्रीज, आदि की आंच 2008 के आर्थिक संकट के बाद विकसित देशों के संगठित मजदूरों तक भी पहुँचने लगी थी और अभी भी एक हद तक यह स्थिति बनी हुई है। किसी क्रान्तिकारी संकट के समय में संगठित मजदूर वर्ग का यह हिस्सा भी अपनी ऐतिहासिक भूमिका को समझकर आगे आयेगा ही। समस्या यह है कि यह कुल मजदूर आबादी का अत्यन्त छोटा हिस्सा है, जो और अधिक सिकुड़ता जा रहा है। बुनियादी सवाल बहुसंख्यक मजदूर आबादी को संगठित करने का है। दूसरी फौरी समस्या यह है कि जो कारखानों के नियमित (संगठित) मजदूर हैं, उन पर फिलहाल स्थापित ट्रेड यूनियनों की नौकरशाही का एकाधिकार कायम है। इस ट्रेड यूनियन नौकरशाही के वर्चस्व को न केवल संसदीय पार्टियों का बल्कि सत्तातंत्र का पूरा सहयोग हासिल है। और आज का फौरी सच यह है कि मजदूरों का यह हिस्सा बहुसंख्यक मजदूर आबादी के साथ व्यापक एकजुटता बनाकर किसी रैडिकल संघर्ष के लिए तैयार भी नहीं है। बेशक मजदूरों की इस आबादी में क्रान्तिकारी प्रचार की कार्रवाई निरन्तर चलाई जानी चाहिए और बुर्जुआ पार्टियों एवं संसदीय वाम से जुड़ी यूनियनों के वर्चस्व को तोड़ने की कोशिश भी की जानी चाहिए, इन यूनियनों के भीतर काम करने की सम्भावना यदि हो तो उन्हें भी छोड़ा नहीं जाना चाहिए, लेकिन फिर भी, बुनियादी सवाल तो यही है कि जो 93 प्रतिशत सर्वहारा आबादी ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मजदूर के रूप में काम करती है और जो वर्गीय सार की दृष्टि से आधुनिक औद्योगिक सर्वहारा वर्ग है, उसे कैसे संगठित किया जाये!
जाहिर है कि इस मजदूर आबादी को कारखाना गेटों पर नहीं पकड़ा जा सकता, क्योंकि इनके काम की जगहें बदलती रहती हैं। छोटे-छोटे वर्कशापों के स्तर पर भी इन्हें संगठित नहीं किया जा सकता। इन्हें केवल इनके रिहायशी इलाकों में ही जाकर पकड़ा जा सकता है। वहाँ जाकर इन्हें इलाकाई आधार पर, या श्रेणी बनाकर पेशों के आधार पर यूनियनें (जैसे टेक्सटाइल वर्कर्स, इंजीनियरिंग वर्कर्स, केमिकल वर्कर्स की अलग-अलग यूनियनें) बनाई जा सकती हैं। ये मजदूर चाहे जहाँ भी काम करें, काम के घण्टे, न्यूनतम मजदूरी, ई.एस.आई., पी.एफ., डबल रेट पर ओवरटाइम आदि से सम्बन्ध्ति माँगें सभी जगहों पर बनती हैं। मजदूरी, सेवा शर्तों और काम की स्थितियों से जुड़ी माँगों के अतिरिक्त आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी माँगें सभी मजदूरों की माँगें हैं जो राजनीतिक अधिकार की माँगें हैं और सीधे शासक वर्ग की राज्यसत्ता को सम्बोधित होती हैं। आवास, शिक्षा, स्वास्थ्य, पेंशन, पी.एफ. आदि जितनी भी माँगें असंगठित मजदूर आबादी करेगी, जाहिर है कि सरकार से ही करेगी, क्योंकि वह किसी एक मालिक के यहाँ काम नहीं करती है। सरकार इन माँगों को यदि सरकारी खजाने से पूरा भी कर दे तो यह बोझ तो जनता पर ही जायेगा क्योंकि सरकारी खजाने का 90 प्रतिशत से भी अधिक हिस्सा आम आबादी से उगाहे गये परोक्ष करों से ही आता है। अत: जरूरी है कि मजदूर इन सभी मदों के लिए उद्योगपतियों पर या विनियोजित अधिशेष के सभी हिस्सेदारों पर ‘सेस’ या विशेष कर लगाने की माँग करें। मजदूरों की इस बहुसंख्यक आबादी की फौरी माँग मौजूदा श्रम कानूनों को लागू करवाने की तथा दूरगामी माँग नये श्रम कानूनों के निर्माण की होनी चाहिए। श्रम विभागों के ढाँचे के जनतांत्रीकरण, श्रम अधिकारियों की जवाबदेही तय करने और उन्हें जन निगरानी के दायरे में लाने की माँग भी एक महत्वपूर्ण जनवादी माँग है जो सभी मजदूरों की साझा माँग है। ऐसी ही एक अन्य महत्वपूर्ण माँग श्रम न्यायालयों के जनतांत्रीकरण, विस्तार और प्रभावीकरण की है। असंगठित मजदूर आबादी की ऐसी जितनी भी माँगें हैं, उनके दायरे में सभी ग्रामीण मजदूरों को भी लाया जाना जरूरी है। इसके साथ ही असंगठित स्त्री मजदूरों, प्रवासी मजदूरों, स्वतंत्र दिहाड़ी मजदूरों की विशेष माँगों को भी नये मजदूर आन्दोलन के चार्टर में अलग से शामिल किया जाना चाहिए।
अनौपचारिक क्षेत्र के जो मजदूर और औपचारिक क्षेत्र के जो अनौपचारिक मजदूर अदृश्य ‘ग्लोबल असेम्बली लाइन’ पर उजरती गुलामों की भाँति खट रहे हैं, वे सोचते हैं कि वे बहुत कम हैं, बिखरे हुए हैं, इसलिए मजबूर और कमजोर हैं। लेकिन यह उनकी मिथ्याभासी चेतना है। इस मिथ्याभासी चेतना को यदि तोड़ दिया जाये तो उन्हें इस सच्चाई का अहसास कराया जा सकता है कि एक अदृश्य भूमण्डलीय श्रृंखला के जरिए हजारों मील दूर, यहाँ तक कि अलग-अलग देशों में काम करने वाले समान नियति वाले उजरती गुलाम आज एक दूसरे से जुड़ गये हैं। जापान या कोरिया की किसी एक कार निर्माता कम्पनी के भारत में चार या पाँच जगहों पर स्थित संयंत्रों और पूरी दुनिया में स्थित दर्जनों संयंत्रों में खटने वाले मजदूर एक-दूसरे को न जानते हुए भी एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। बिखराव की मिथ्याभासी चेतना को भेदकर जुड़ाव की वास्तविक चेतना तक पहुँचने के लिए, उसे मुखर बनाने के लिए मजदूर वर्ग के हरावल दस्तों को उनके बीच, बीसवीं शताब्दी के मजदूर आन्दोलनों की अपेक्षा ज्यादा सघन, ज्यादा विविधतापूर्ण, ज्यादा रचनात्मक, ज्यादा सूक्ष्म, ज्यादा व्यापक और ज्यादा दीर्घकालिक राजनीतिक प्रचार, शिक्षा एवं उद्वेलन की कार्रवाई चलानी होगी। यह सबसे बड़ी चुनौती है। इसे वही अंजाम दे सकते हैं जो नयी परिस्थितियों का पूर्वाग्रहमुक्त, साहसी वैज्ञानिक विश्लेषण कर सकते हैं, जो अनुभववादी कूपमण्डूकता और अतीत के अनुभवों को हूबहू दुहराने की कठमुल्लावादी जिद से अपने को मुक्त कर सकते हैं।
नयी परिस्थितियों के नये कार्यभारों को यदि ठीक से, अवधारणात्मक स्तर पर, जान-समझ लिया जाये, तो कुछ ऐसी स्थितियों की सहज कल्पना की जा सकती है जो हो सकता है कि आज दूर की कौड़ी लगे। किसी एक कम्पनी के दूर-दूर स्थित संयंत्रों, उनकी सभी एन्सिलियरीज और सभी वेण्डर्स के कामगार एक साथ काम ठप्प कर सकते हैं। किसी एक राष्ट्रपारीय निगम की कई देशों में स्थित इकाइयों में भी एक साथ ऐसा हो सकता है। जिस ”संचार क्रान्ति” ने पूँजी की भूमण्डलीय आवाजाही को सुगम और त्वरित बनाया है, वही तकनोलॉजी श्रमिकों के राष्ट्रपारीय स्तर पर एकजुट, संगठित कार्रवाई के लिए सम्पर्क-तालमेल को सुगम बनाकर ‘भूमण्डलीय असेम्बली लाइन’ को ठप्प और छिन्न-भिन्न कर देने का सबब भी बन सकती है। इस काम के लिए इलाकाई मजदूर यूनियनों के अतिरिक्त, राष्ट्रीय-अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर घराना/राष्ट्रपारीय निगम-विशेष के कामगारों की तथा सेक्टर-विशेष (जैसे, आटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, इस्पात आदि) की यूनियनें गठित करनी होंगी जिनमें कारखानों के नियमित कर्मी ही नहीं, ठेका व दिहाड़ी सहित सभी अनियमित/अनौपचारिक मजदूर भी शामिल हों।
वित्तीय पूँजी और उत्पादन एवं विनिमय प्रक्रिया का भूमण्डलीकरण वस्तुगत तौर पर श्रम का भी भूमण्डलीकरण कर रहा है (भले ही आभासी सत्य इसके विपरीत है) तथा अधिक व्यापक आधार पर (और अन्ततोगत्वा अन्तरराष्ट्रीय आधार पर) श्रम के संगठित होने का नया आधार तैयार कर रहा है। पूँजीपतियों की इच्छा से स्वतंत्र, दुनिया के मजदूरों की एकजुटता का नया भौतिक आधार तैयार हो रहा है।
जाहिर है कि इस भौतिक आधार का अहसास मजदूर वर्ग को केवल ट्रेड यूनियन आन्दोलन की चौहद्दी के भीतर नहीं कराया जा सकता। यह फिर एक नये प्रकार का ट्रेड यूनियनवाद होगा। ट्रेड यूनियन आन्दोलन का क्रान्तिकारी आधार पर पुनर्निर्माण जरूरी है, पर यह कार्यभारों का अन्त नहीं बल्कि शुरुआत है। आर्थिक माँगों के अतिरिक्त ट्रेड यूनियन आन्दोलन यदि कुछ वर्गीय राजनीतिक माँगों को उठाता भी है तो उसकी एक सीमा होगी। ट्रेड यूनियन वर्ग संघर्ष की नर्सरी है, लेकिन वह मजदूर वर्ग की चेतना को बुर्जुआ जनवाद की चौहद्दी का अतिक्रमण करके उजरती गुलामी को समाप्त करके नये वैकल्पिक सामाजिक-आर्थिक ढाँचे और नयी राज्यसत्ता के निर्माण की मंजिल तक नहीं ले जा सकता। बुनियादी ऐेतिहासिक प्रश्न है, मजदूर वर्ग को पूँजीवाद के नाश के उसके ऐतिहासिक मिशन से परिचित कराना। यह केवल सर्वहारा वर्ग का हरावल उसकी एक क्रान्तिकारी पार्टी ही कर सकती है। आज का यक्ष प्रश्न यह है कि नयी सदी की नयी सर्वहारा क्रान्तियों के नये हरावल दस्ते के निर्माण की प्रक्रिया कहाँ से और कैसे शुरू होगी? हम समझते हैं कि क्रान्ति के विज्ञान और परिस्थितियों की वैज्ञानिक समझ से लैस लोगों को विभिन्न माध्यमों से (जिनमें मजदूर वर्ग के राजनीतिक अखबार की भूमिका प्रमुख होगी) मजदूर वर्ग की सतत् राजनीतिक शिक्षा, उनके बीच सतत् राजनीतिक प्रचार की कार्रवाई रोजमर्रा के आर्थिक और राजनीतिक संघर्षों के साथ-साथ चलानी होगी और मजदूरों के बीच से उनके हरावल तत्व, उनके नेतृत्व को विकसित करना होगा।
मजदूर आबादी को जागृत, लामबन्द और संगठित करने की प्रक्रिया में मजदूर बस्तियों में जन पहलकदमी के आधार पर व जन निगरानी के अन्तर्गत, पुस्तकालय, वाचनालय, सांस्कृतिक केन्द्र, युवा वालंटियर्स कोर, पारस्परिक सहायता समितियाँ, मजदूर स्वास्थ्य केन्द्र, आदि वैकल्पिक संस्थाएँ भी खड़ी करनी होंगी। इन पर यूनियनों का नहीं बल्कि स्थानीय मजदूर पंचायतों का नियंत्रण होना चाहिए। ये संस्थाएँ यूनियनों में या कहीं भी नौकरशाही और विशेषाधिकार की प्रवृत्ति के विरुद्ध जन-चौकसी का भी माध्यम बनेंगी तथा मेहनतकश जनसमुदाय में सामूहिक निर्णय का विवेक भी विकसित करेंगी। तात्पर्य यह कि ट्रेड यूनियनों और मजदूर वर्ग के राजनीतिक हरावल दस्ते को संगठित करने के साथ ही ऐसे व्यापक जन-मंचों (मास-प्लेटफार्मों) के विकास की भी कोशिश की जानी चाहिए, जो जन पहलकदमी विकसित करें, जनता को सामूहिक निर्णय की प्रक्रिया से परिचित करायें, तथा हर स्तर के नेतृत्व को जन निगरानी के दायरे में लायें। इस तरह जो जन-एकजुटता बनेगी, वह फौलादी होती जायेगी। व्यापक जन-एकजुटता ही पूँजी और उसकी राज्यसत्ता के किसी भी हमले के मुकाबले की पहली शर्त है। आज बुर्जुआ राज्यसत्ताओं की कार्यप्रणाली भी तकनोलॉजी के विकास और पूँजीवादी उत्पादन-प्रक्रिया में बदलाव के साथ ही अत्यन्त उन्नत हो गयी है। अत: व्यापक जन-एकजुटता को संगठित करने और फौलादी बनाने के नये-नये तौर-तरीकों का विकास करना ही होगा।