Category Archives: जाति प्रश्‍न

जाति प्रश्‍न और उसका समाधान : एक मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण

भारतीय समाज को शोषणमुक्त बनाने की कोई भी क्रान्तिकारी परियोजना जाति प्रश्‍न को छोड़कर नहीं बनायी जा सकती। इस धारणा को सिरे से ख़ारिज करने के पर्याप्त आधार हैं कि पहले सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर कुछ सुनिश्चित सचेतन प्रयासों से जाति-व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए, इसके बाद ही जनता के विभिन्न वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी सम्भव हो सकती है। इसके विपरीत, यह धारणा भी उतनी ही ग़लत है कि वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी और सर्वहारा क्रान्ति की प्रक्रिया जाति-व्यवस्था को स्वतः समाप्त कर देगी, अतः यह प्रश्‍न अलग से कोई अहम मुद्दा बनता ही नहीं है। हमारी यह स्पष्ट धारणा है कि सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी की प्रक्रिया जाति-आधारित उत्पीड़न के विविध रूपों और उनकी कारक-वाहक संस्थाओं को स्पष्ट निशाना बनाये बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती, इसके बिना जातियों में बँटी हुई और सामाजिक पार्थक्य की शिकार व्यापक मेहनतकश जनता के विभिन्न वर्गों की चेतना का क्रान्तिकारीकरण और लामबन्दी सम्भव नहीं। साथ ही, क्रान्ति के हरावलों को जाति-उन्मूलन की एक ऐतिहासिक-वैज्ञानिक, तर्कसंगत परियोजना प्रस्तुत करनी होगी, जो भले ही दीर्घकालिक (स्वाभाविक है कि ऐसी ही होगी) हो, पर जिसके कुछ ठोस तात्कालिक कार्यभार भी हों। हाँ, इतना तय है कि जाति-व्यवस्था के अन्तिम तौर पर, समूल नाश के लिए, सर्वहारा राज्य की स्थापना के बाद भी, उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण और समाजवादी सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक ढाँचे के क्रमशः उन्नततर होते जाने की सुदीर्घ प्रक्रिया के साथ-साथ विचार और संस्कृति के धरातल पर भी सतत क्रान्ति की प्रक्रिया चलानी होगी। इस आलेख में हम आगे अपनी इस प्रस्थापना की विस्तार से चर्चा करेंगे और इस सन्दर्भ में, हमारे हिसाब से, जो ग़लत, अधूरी, अस्पष्ट और भ्रामक प्रस्थापनाएँ प्रचलित हैं, उनका खण्डन भी करेंगे।

जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति

जिसे अस्मितावादी राजनीति या पहचान की राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स) कहा जाता है, उसकी शुरुआत बड़े पैमाने पर 1980 के दशक में देखी जा सकती है। इसके केन्द्र में जैसा कि इसके नाम से ही साफ है, अस्मिता या पहचान की अवधारणा है। समाजशास्त्रीय या सामाजिक नृतत्वशास्त्रीय (सोशल एन्थ्रोपोलॉजिकल) अर्थों में ‘अस्मिता’ आचरण-सम्बन्धी एवं वैयक्तिक विशेषताओं का वह समुच्चय है जो किसी भी व्यक्ति को एक समूह के सदस्य के रूप में पहचान देता है। यह पहचान जाति, लिंग, धार्मिक सम्प्रदाय, नस्ल आदि वस्तुगत सामाजिक श्रेणियों द्वारा निर्धारित होती है और आम तौर पर सापेक्षिक रूप से स्थिर, स्थैतिक और स्वाभाविक रूप से प्रदत्त मानी ज़ाती है। अस्मितावादी राजनीति का प्रस्थान बिन्दु अस्मिता की यही परिभाषा है। लेकिन यह एक सामूहिक परिघटना के तौर पर किसी एक अस्मिता की बात नहीं करती है; बल्कि कई सारी विखण्डित अस्मिताओं पर ज़ोर देती है। अस्मिताओं का विखण्डीकरण न सिर्फ मनुष्य के व्यक्तित्व के धरातल पर होता है, बल्कि सम्पूर्ण समाज के धरातल पर भी किया जाता है।

जाति व्यवस्था-सम्बन्धी इतिहास-लेखनः कुछ आलोचनात्मक प्रेक्षण

ऋग्वैदिक काल (जिसे आरम्भिक वैदिक काल भी कहा जाता है) के अन्तिम दौर में वर्ण व्यवस्था के भ्रूण रूप में विकसित होने और उत्तर-वैदिक काल में इसके सुदृढ़ीकरण के बारे में इतिहासकारों में काफ़ी विवाद है। वर्ण व्यवस्था के उदय के पीछे मूल कारक क्या थे और आगे जातियों के जन्म में किन कारकों की प्रमुख भूमिका थी, इन्हें लेकर भी इतिहासकारों में कई मत प्रचलित हैं। हम इन प्रमुख मतों को यहाँ संक्षेप में रखेंगे, और इनके बारे में अपनी राय को पेश करेंगे। वर्ण और जाति के बीच के फर्क पर भी हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन इतिहास-लेखन का विश्लेषण भी ऐतिहासिक तौर पर होना चाहिए, क्योंकि इतिहास-लेखन का इतिहास भी इतिहास के बारे में उपयुक्त विचारों, व्याख्याओं और प्रस्थापनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। इसलिए हम औपनिवेशिक दौर से शुरुआत करेंगे। उससे पहले के दौर में देशी और विदेशी प्रेक्षकों ने वर्ण/जाति व्यवस्था के बारे में जो विचार रखे थे, उनके बारे में चर्चा कर पाना इस आलेख के दायरे से बाहर है। और हमारे विश्लेषण के लिए फिलहाल यह ज़रूरी भी नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में सामाजिक विभेदन की प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन मौटे तौर पर औपनिवेशिक दौर में ही शुरू हुए। आगे हम औपनिवेशिक काल में हुए जाति व्यवस्था के प्रमुख अध्ययनों और उनकी व्याख्याओं का एक संक्षिप्त ब्यौरा देंगे।

अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति

आज लगभग सभी तरह के अम्बेडकरवादी अम्बेडकर को दलितों के मसीहा के तौर पर पेश करते हैं। उनका कहना है कि दलित मुक्ति का एकमात्र सिद्धान्त अम्बेडकरवाद है। कुछ का कहना है कि जात-पाँत के ख़ात्मे के लिए अम्बेडकरवाद ज़रूरी है तथा वर्गों के ख़ात्मे के लिए मार्क्सवाद की ज़रूरत है। पर क्या अम्बेडकर दलितों के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक दमन-उत्पीड़न से मुक्ति का कोई व्यवहार्य यथार्थवादी मार्ग सुझाते हैं? क्या अम्बेडकर दलित प्रश्न का कोई वैज्ञानिक ऐतिहासिक विश्लेषण तथा समाधान प्रस्तुत करते हैं? क्या अम्बेडकर के विचारों में दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना है? क्या धर्म परिवर्तन (जो अम्बेडकर ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में किया और जातिगत दमन-उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए अपने अनुयायियों से करने के लिए कहा) जाति प्रश्न का कोई रास्ता हो सकता है? अम्बेडकर ने जाति प्रश्न के सन्दर्भ में तथा अन्य सन्दर्भों में मार्क्सवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की, क्या वह आलोचना उनके द्वारा मार्क्सवाद के गहन-गम्भीर अध्ययन पर आधारित थी?

रिपोर्ट – चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़

मज़दूर आन्दोलन से लेकर छात्र-युवा आन्दोलनों तक में सक्रिय हर राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ़ है कि जाति का सवाल आज मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता समेत छात्रों-युवाओं तक को संगठित करने में सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। और ऐसा महज़ आज से नहीं बल्कि कई दशकों से है। देश की करीब 17 करोड़ दलित आबादी का बहुलांश मेहनतकश लोग हैं, जो कि भयंकर आर्थिक उत्पीड़न के साथ बर्बर जातिगत उत्पीड़न के भी शिकार हैं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक तक मेहनतकश दलित आबादी के साथ आये दिन बर्बर और अमानवीय कृत्यों की ख़बरें आती रहती हैं। यह दलित मेहनतकश आबादी भारत के मज़दूर वर्ग का सबसे पीड़ित और साथ ही सबसे जुझारू हिस्सा है। यही कारण है कि इस दलित आबादी को मज़दूर वर्ग से अलग रखने के लिए जातिवादी अस्मितावादी राजनीति का जाल शासक वर्ग और उसके टट्टुओं द्वारा बिछाया गया है। चुनावी और ग़ैर-चुनावी अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले संगठन इस आबादी को एक राजनीतिक पार्थक्य में रखते हैं और उनके हितों के अकेले पहरेदार होने का दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाला कम्युनिस्ट आन्दोलन दलित आबादी के संघर्षों में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने और बेमिसाल कुर्बानियाँ देने के बावजूद, दलित प्रश्न को सही ढंग से समझने में नाकाम रहा। दलित आबादी के बीच कम्युनिज़्म को बदनाम करने में संसदवादी संशोधनवादी कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने अपने जीवन में सवर्णवादी मूल्यों-मान्यताओं पर अमल करते हुए लाल झण्डे पर धब्बा लगाने का काम किया। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अपने जीवन में जाति व्यवस्था को ख़ारिज करने के बावजूद जाति की सामाजिक समस्या के ऐतिहासिक मूल और समाधान के बारे में कोई विस्तृत योजना पेश न कर सके। लेकिन इन सबके बावजूद यह आज का सच है कि सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के बिना, बुर्जुआ व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित आबादी की मुक्ति सम्भव नहीं है; साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि व्यापक मेहनतकश दलित आबादी की भागीदारी और उसकी बाकी मज़दूर आबादी के साथ फौलादी एकजुटता के बिना ऐसी कोई क्रान्ति सम्भव ही नहीं है। यह एकता कैसे…

चतुर्थ अरविंद स्‍मृति संगोष्‍ठी – विषय: जाति प्रश्‍न और मार्क्‍सवाद – 12-16 मार्च 2013, चंडीगढ़ – कार्यक्रम

12 मार्च पूर्वाह्न 10-अपराह्न 1 बजे उद्घाटन सत्र: कामरेड अरविन्‍द को श्रद्धांजलि। परिचयात्‍मक वक्‍तव्‍य। अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास द्वारा प्रकाशित मज़दूर आन्‍दोलन पर द्वितीय अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत आलेखों के संकलन ‘इक्‍कीसवीं सदी में भारत का मज़दूर आंदोलन: निरंतरता और परिवर्तन, दिशा और संभावनाएं, समस्‍याएं और चुनौतियां’ (हिन्‍दी व अंग्रेज़ी संस्‍करण) का लोकार्पण। राहुल फाउंडेशन द्वारा प्रकाशित रंगनायकम्‍मा के लेखों के संकलन ‘जाति और वर्ग: एक मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण’ (हिन्‍दी व अंग्रेज़ी संस्‍करण) का लोकार्पण दूसरा सत्र (अपराह्न 3 – 8 बजे) – आलेखों की प्रस्‍तुति तथा चर्चा आरम्‍भ 1. जाति प्रश्‍न और उसका समाधान: एक मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण — अरविन्‍द स्‍मृति न्‍यास 2. अम्‍बेडकरवाद और दलित मुक्ति — सुखविन्‍दर, सम्‍पादक, प्रतिबद्ध, पंजाब 13 मार्च 3. जाति का इतिहासलेखन : कुछ आलोचनात्‍मक प्रेक्षण — अभिनव, सम्‍पादक, मुक्तिकामी छात्रों-युवाओं का आह्वान, दिल्‍ली 4. मार्क्‍सवाद और जाति प्रश्‍न – अनुराधा गांधी की पुस्‍तक ‘कास्‍ट क्‍वेश्‍चन इन इंडिया’ पर आधारित — असित दास, शोधकर्ता और ऐक्टिविस्‍ट, दिल्‍ली 5. जाति व वर्ग की सहजीविता और मार्क्‍स(वाद) तथा अम्‍बेडकर(वाद) की साझा प्रासंगिकता — सुखदेव सिंह जनागल, फतेहगढ़ साहब, पंजाब 6. भारत में जाति के विषय में एक पृष्‍ठभूमि पत्र — प्रो. इरफ़ान हबीब,  अलीगढ़ (वितरित किया जायेगा) 7. जातिवादी पदसोपानक्रम के भौतिक आधार के उन्‍मूलन के कार्यक्रम की दिशा में — अनंत फड़के, श्रमिक मुक्ति दल (डेमोक्रेटिक), पुणे (वितरित किया जायेगा) 14 मार्च 8. पश्चिम बंगाल में जाति और राजनीति: वाम मोर्चे का बदलता चेहरा — प्रस्‍कण्‍वा सिन्‍हारे, सेंटर फ़ॉर स्‍टडीज़ इन सोशल साइंसेज़, कोलकाता 9. वर्ग, जाति और अस्मितावादी राजनीति — शिवानी, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय 10.  विशिष्‍टता (Distinctiveness) विचारधारा के रूप में या विशिष्‍टता (Specificity) का दर्द और राजनीति — प्रशांत गुप्‍ता, बी.आर. अंबेडकर कॉलेज, दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय — आनन्‍द तेलतुंबडे द्वारा प्रस्‍तुति 15 मार्च 11. दलित समस्या और सौंदर्यशास्‍त्र — निनु चपागाईं, यूसीपीएन (एम) के पोलित ब्‍यूरो  सदस्‍य तथा पार्टी के सांस्‍कृतिक विभाग के प्रभारी 12. जो कुछ फिर से बदलना है: मार्क्‍सवादी परंपराओं में जाति और सेक्‍स — डा. राजर्षि दासगुप्‍ता, राजनीति अध्‍ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय — कात्‍यायनी द्वारा प्रस्‍तुति 16 मार्च 13. डा. अम्‍बेडकर या डा. मार्क्‍स — प्रो. पॉल कॉकशॉट, ग्‍लासगो विश्‍वविद्यालय, स्‍कॉटलैंड (यह पेपर बैकग्राउंड नोट के तौर पर वितरित किया जायेगा और प्रो.कॉकशॉट स्‍काइप लिंक के द्वारा अपनी प्रस्‍तुति देंगे।) — डा. तुलसीराम द्वारा प्रस्‍तुति कुछ अन्‍य भागीदार…

आमन्त्रण – चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

जाति प्रश्‍न, विशेषकर दलित प्रश्‍न आज भी भारतीय समाज का एक ऐसा जीवन्त-ज्वलन्त प्रश्‍न है, जिसे हल करने की प्रक्रिया के बिना व्यापक मेहनतकश अवाम की वर्गीय एकजुटता और उनकी मुक्ति-परियोजना की सफलता की कल्पना नहीं की जा सकती। इसलिए, जो मार्क्‍सवाद को सच्चे अर्थों में आज भी (अकादमिक विमर्श की जुगाली या महज़ वोट बैंक की राजनीति का एक औज़ार मानने के बजाय) क्रान्तिकारी व्यवहार का मार्गदर्शक मानते हैं, उनके लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि वे मार्क्‍सवादी नज़रिये से जाति प्रश्‍न के हर पहलू की सांगोपांग समझदारी बनाने की कोशिश करें, शोध-अध्ययन और वाद-विवाद करें।