Category Archives: लेख व बहसें

बोलिवारियन विकल्पः विभ्रम और यथार्थ

यह 21वीं सदी का नया “समाजवाद” क्या है? इसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रम क्या है? क्या अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों का समय सच में ही बीत चुका है? क्या ‘शीत प्रासाद पर धावे’ का युग बीत चुका है? मेस्ज़ारोस के शब्दों में, क्या क्रान्तियों के नये संस्करण अब चुनाव के रास्ते सरकारों में जाने के रूप में ही हो सकते हैं? इस प्रकार के तमाम सवालों का जवाब देकर ही इस ‘21वीं सदी के समाजवाद’ की मूल अन्तर्वस्तु की सही और सटीक पहचान की जा सकती है क्योंकि साम्राज्यवाद-विरोधी होना, कल्याणकारी नीतियों को लागू करना और लोकप्रिय जनवादी संस्थाओं की स्थापना अपने आप में समाजवाद का द्योतक नहीं है। सच है कि अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण कहीं घटित होते नज़र नहीं आ रहे हैं। अरब जनउभार, ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन व यूरोप से लेकर एशिया और पूरी दुनिया में उठे छिटपुट आन्दोलन किसी युगान्तरकारी राजनीतिक व आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों की तरप़फ़ इशारा नहीं कर रहे हैं। आज साम्राज्यवाद के ऐसे दौर में जब पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन स्वतःस्फूर्त रूप से फूटते हुए नज़र आ रहे हैं लेकिन कहीं भी पूँजीवाद का कोई व्यावहारिक विकल्प खड़ा होता नहीं नज़र आ रहा है, जब अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निकट भविष्य में निर्मित होने की कोई सम्भावना नहीं नज़र आ रही है, तो ऐसे में कोई भी जनपक्षधर स्वप्नद्रष्टा व्यक्ति दो तरह की उम्मीदों में जी सकता है। एक तो है वैज्ञानिक आशावाद जिसमें आशावाद की बुनियाद किसी ठोस समाजवादी मॉडल की वर्तमान दुनिया में मौजूदगी या ऐसे किसी मॉडल के निकट भविष्य में निर्मित हो जाने की सम्भावना नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक इतिहासबोध, जनता और समाज विकास के विज्ञान पर भरोसा होता है। दूसरे किस्म की उम्मीद है एक प्रकार का छद्म आशावाद। इतिहास बोध से वंचित और जनसंघर्षों से कटे तमाम बुद्धिजीवियों को अपने निराशावाद को ढकने के लिए किसी न किसी छद्म विकल्प की ज़रूरत होती है ताकि वे एक छद्म आशावाद में जी सकें। जनता से कटे और हवाई-गुलाबी सपनों में जीने वाले ऐसे बुद्धिजीवी जो कुछ मौज़ूद है उसी से काम चला लेने के पक्षधर होते हैं और पुरानी चीज़ों को ही नये नाम देकर उसे ही नये के…

उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’: उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

“उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’” इस विषय पर एक आलेख की ज़रूरत क्यों? क्या मार्क्सवाद का दौर बीत चुका है और कोई उत्तर-मार्क्सवादी दौर शुरू हो गया है? इस आलेख के आरम्भ में ही हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारे विचार में एक विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद के सामने कोई संकट नहीं है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मार्क्सवाद पर विचारधारात्मक हमलों का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। फ़र्क बस इतना है कि 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के औपचारिक विघटन के साथ विचारधारा और राजनीति की दुनिया में पूँजीवादी विजयवाद की उन्मत्त घोषणाओं की तरह ये नये बौद्धिक आक्रमण उतने खुले और आवरणहीन नहीं हैं। आज के दौर में, एक बार फिर, बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरण मार्क्सवाद पर नये हमले कर रहे हैं और कम्युनिस्ट आन्दोलन से लेकर छात्रों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच एक विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। यह भी अनायास नहीं है कि पूँजीवाद, अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म के ज़रिये सहज गति से तमाम क़ि‍स्म के रंग-बिरंगे ‘रैडिकल’ बुद्धिजीवियों को पैदा कर रहा है, जो मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे हैं। उत्तर-मार्क्सवादियों की एक पूरी धारा है जो उग्र-परिवर्तनवादी जुमलों का सहारा लेकर मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर निशाना साध रही है। ऐलन बेज्यू, स्लावोय ज़ि‍ज़ेक, एण्टोनियो नेग्री, माइकल हार्ट, याक्स रैंशिये, अर्नेस्टो लाक्लाऊ, चैण्टेल माउफ आदि जैसे तमाम “रैडिकल दार्शनिक” इसी उत्तर-मार्क्सवादी विचार-सरणि से आते हैं। एक बात जिसे यहाँ पर विशेष तौर पर रेखांकित करने की ज़रूरत है वह यह कि मार्क्सवाद पर जो भी विचारधारात्मक-बौद्धिक हमले होते रहे हैं या फिर हो रहे हैं, उनके नाम नये हो सकते हैं लेकिन उनकी अन्तर्वस्तु में कुछ भी नया नहीं है, जैसा कि एक बार एक अलग सन्दर्भ में ज्याँ पॉल सार्त्र ने कहा था। सार्त्र ने कहा था कि मार्क्सवाद-विरोधी विचारधाराएँ जो कुछ सही कह रही हैं, वह मार्क्सवाद पहले ही कह चुका है और जो कुछ वे नया कह रही हैं वह ग़लत है! उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर-संरचनावाद, प्राच्यवाद, उत्तर-प्राच्यवाद, सबऑल्टर्निज्म जैसी तमाम ‘उत्तर-’ विचार-सरणियों की “चुनौतियों” का क्या हश्र हुआ, यह हम सभी जानते हैं। ये सभी विचार-सरणियाँ विचारधारात्मक कोमा…

महान बहस के 50 वर्ष

मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन से लेकर स्तालिन तथा माओ तक कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धान्तिक विकास संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए हुआ है। विकास के इस पूरे दौर में स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन और माओ कालीन चीन के महान क्रांतिकारी समाजवादी प्रयोगों ने इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लागू किया और समाजवादी संक्रमण की विचारधारात्मक समझ को और परिपक्व बनाया। सर्वहारा क्रांतियों के विचारधारात्मक विकास की इस कड़ी में 1963-64 में माओ के नेतृत्व में चली महान बहस ने आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष करते हुये समाजवादी संक्रमण के बारे में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को एक सुव्यवस्थित मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त से हथियारबन्द किया। इस बहस ने स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन के अनुभवों और ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का सैद्धान्तिक निचोड़ प्रस्तुत किया जो समाजवादी संक्रमण को समझने मे एक मील के पत्थर है। इन अनुभवों के आधार पर महान बहस में माओ ने चीन में 1966 से 1976 तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की।

समाजवादी संक्रमण और नेपाली क्रान्ति का सवाल

इक्किसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में नेपाल के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के द्वारा ली गई उचाइँ, वैचारिक बहस का सघनता, संविधान सभा लगायत के कुछ व्यवहारिक नऐं प्रयोगों और शान्तिपूर्ण राजनीति में प्रवेश के साथ आर्जित प्रारम्भिक लोकप्रियता छोटे समय में ही एक गम्भीर धक्के का शिकार हो गया है । बीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में सोभियत संघ और पूर्वी युरोप में कथित रूप से समाजवादी सत्ताओं के गिरने (विघटन) के बाद ‘समाजवाद की असफलता’, ‘इतिहास का अन्त्य’, ‘महाआख्यान का अन्त्य’ जैसे रागों के नगाडे बज रहे निराशाजनक समय में भी सगरमाथा के आधार तल से चोटी की ओर चढ रहे जनयुद्ध ने संसार का ध्यान आकृष्ट किया था । विश्व के क्रान्तिकारियों ने नेपाल की ओर आशावादी नजरों से देख रहे थे– ‘हिमालय की ओर देखो, नयाँ विश्व जन्म ले रहा है ।’ लेकिन आज दो दशक पुरे होते न होते वह आस्था डगमगा रहा है । विश्व के कई भाइचारा पार्टीयाँ निराश है । नेपाल के अन्दर भी पिछले दो दशक के माओवादी आन्दोलन का निर्मम आलोचना तथा गम्भीर समीक्षा शुरु हो चुका है और आन्दोलन नऐं शिरे से पुनर्निर्माण के तयारी में जुटा है । प्रस्तुत छलफल पत्र में समाजवादी संक्रमण को सन्दर्भ के तौर पर रखते हुए नेपाली क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्मुख अपने सपनों के रक्षार्थ कैसी–कैसी चुनौतीयों को सामना किया जाना है, इस विषय में कुछ सवालें को खडी की गई है ।

नेपाली क्रान्तिः विपर्यय का दौर और भविष्य का रास्ता

अनालोचनात्मक महिमामंडन और भयंकर पस्ती और निराशा दोनों का स्रोत एक ही है और वह है मार्क्सवादी विज्ञान की समझ का अभाव और समाज को ऐतिहासिक भौतिकवादी नज़रिये से समझने की बजाय अनुभववादी और भावुकतावादी नज़रिये से देखना। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आज जो लोग निराश और हताश होकर कोप भवन में जा चुके हैं वे वही लोग हैं जो कभी अतिउत्साहित होकर माचू पिच्चू के शिखर पर लाल झण्डा फ़हराने के ख़्याली पुलाव पका रहे थे तो कभी सगरमाथा पर लाल झण्डा फहराने को लेकर कापफ़ी जोश से भरे थे। इस क़ि‍स्म का अतिउत्साह और निराशा और हताशा दोनों ही मार्क्सवादी विज्ञान के अधकचरी समझ की ही निशानी है। मार्क्सवाद हमें विजय के दौर में भी संयम न खोने और भयंकर से भयंकर पराजय के दौर में भी निराश और हताश होने की बजाय अपनी ग़लतियों का निर्ममता से विश्लेषण कर उन्हें दुरुस्त कर संघर्ष के मोर्चे पर नये संकल्प के साथ जुट जाने की शिक्षा देता है। इसलिए नेपाली क्रान्ति के इस विपर्यय के दौर में भी ज़रूरत इस बात की है कि इसकी कमियों, कमज़ोरियों और विघटन के स्रोतों का निर्ममता से विश्लेषण किया जाये और भविष्य की राह निकाली जाये।

जाति प्रश्‍न और उसका समाधान : एक मार्क्‍सवादी दृष्टिकोण

भारतीय समाज को शोषणमुक्त बनाने की कोई भी क्रान्तिकारी परियोजना जाति प्रश्‍न को छोड़कर नहीं बनायी जा सकती। इस धारणा को सिरे से ख़ारिज करने के पर्याप्त आधार हैं कि पहले सामाजिक-राजनीतिक धरातल पर कुछ सुनिश्चित सचेतन प्रयासों से जाति-व्यवस्था को समाप्त किया जाना चाहिए, इसके बाद ही जनता के विभिन्न वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी सम्भव हो सकती है। इसके विपरीत, यह धारणा भी उतनी ही ग़लत है कि वर्गों की क्रान्तिकारी लामबन्दी और सर्वहारा क्रान्ति की प्रक्रिया जाति-व्यवस्था को स्वतः समाप्त कर देगी, अतः यह प्रश्‍न अलग से कोई अहम मुद्दा बनता ही नहीं है। हमारी यह स्पष्ट धारणा है कि सर्वहारा क्रान्ति की तैयारी की प्रक्रिया जाति-आधारित उत्पीड़न के विविध रूपों और उनकी कारक-वाहक संस्थाओं को स्पष्ट निशाना बनाये बिना आगे बढ़ ही नहीं सकती, इसके बिना जातियों में बँटी हुई और सामाजिक पार्थक्य की शिकार व्यापक मेहनतकश जनता के विभिन्न वर्गों की चेतना का क्रान्तिकारीकरण और लामबन्दी सम्भव नहीं। साथ ही, क्रान्ति के हरावलों को जाति-उन्मूलन की एक ऐतिहासिक-वैज्ञानिक, तर्कसंगत परियोजना प्रस्तुत करनी होगी, जो भले ही दीर्घकालिक (स्वाभाविक है कि ऐसी ही होगी) हो, पर जिसके कुछ ठोस तात्कालिक कार्यभार भी हों। हाँ, इतना तय है कि जाति-व्यवस्था के अन्तिम तौर पर, समूल नाश के लिए, सर्वहारा राज्य की स्थापना के बाद भी, उत्पादन-सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण और समाजवादी सामाजिक-राजनीतिक-शैक्षिक-सांस्कृतिक ढाँचे के क्रमशः उन्नततर होते जाने की सुदीर्घ प्रक्रिया के साथ-साथ विचार और संस्कृति के धरातल पर भी सतत क्रान्ति की प्रक्रिया चलानी होगी। इस आलेख में हम आगे अपनी इस प्रस्थापना की विस्तार से चर्चा करेंगे और इस सन्दर्भ में, हमारे हिसाब से, जो ग़लत, अधूरी, अस्पष्ट और भ्रामक प्रस्थापनाएँ प्रचलित हैं, उनका खण्डन भी करेंगे।

जनवादी अधिकार आन्दोलन के संगठनकर्ताओं और कार्यकर्ताओं के विचारार्थ कुछ बातें

गिनती के नज़रिये से अगर देखें तो कोई पर्यवेक्षक इस बात पर सन्तोष ज़ाहिर कर सकता है कि इस समय पूरे देश में नागरिक आज़ादी और जनवादी अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाने वाले छोटे-बड़े संगठनों की संख्या दो दर्जन से भी कुछ अधिक ही है। यह भी सही है कि देश के अलग-अलग हिस्सों में होने वाली पुलिस दमन और राजनीतिक बंदियों के उत्पीड़न की घटनाओं, साम्प्रदायिक दंगों एवं नरसंहारों में हिन्दुत्ववादी ताकतों और शासन-प्रशासन की भूमिका, जाति एवं जेण्डर आधारित उत्पीड़न, बँधुआ मज़दूरी, बाल श्रम, मज़दूरों को उनके विधिसम्मत अधिकार नहीं मिलने जैसी घटनाओं, तथा कश्मीर और पूर्वोत्तर भारत की जनता पर आधी सदी से भी अधिक समय से जारी अर्द्धफासिस्ट किस्म के परोक्ष सैनिक शासन पर आये दिन प्रकाशित होने वाली रिपोर्टों और लेखों तथा उच्चतम न्यायालय एवं उच्च न्यायालय में प्रस्तुत याचिकाओं की संख्या आज अच्छी-खासी दीखती है। लेकिन इन गिनतियों से अलग हटकर जब हम इस बैलेन्स शीट की जाँच करते हैं कि पिछले करीब 30–35 वर्षों के दौरान जनवादी अधिकार आन्दोलन ने हमारे देश में सत्ता, समाज और संस्कृति के ताने-बाने को किस हद तक प्रभावित किया है, व्यापक जनसमुदाय की जनवादी चेतना को उन्नत बनाकर उसने किस हद तक उन्हें अपने जनवादी अधिकारों की हिफाजत के लिए जागरूक एवं सक्रिय बनाया है तथा किस हद तक अपना व्यापक सामाजिक आधार तैयार करके उसने एक जनान्दोलन की शक्ल अख़्तियार की है; तो हमें थोड़ी मायूसी का सामना करना पड़ता है।

जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति

जिसे अस्मितावादी राजनीति या पहचान की राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स) कहा जाता है, उसकी शुरुआत बड़े पैमाने पर 1980 के दशक में देखी जा सकती है। इसके केन्द्र में जैसा कि इसके नाम से ही साफ है, अस्मिता या पहचान की अवधारणा है। समाजशास्त्रीय या सामाजिक नृतत्वशास्त्रीय (सोशल एन्थ्रोपोलॉजिकल) अर्थों में ‘अस्मिता’ आचरण-सम्बन्धी एवं वैयक्तिक विशेषताओं का वह समुच्चय है जो किसी भी व्यक्ति को एक समूह के सदस्य के रूप में पहचान देता है। यह पहचान जाति, लिंग, धार्मिक सम्प्रदाय, नस्ल आदि वस्तुगत सामाजिक श्रेणियों द्वारा निर्धारित होती है और आम तौर पर सापेक्षिक रूप से स्थिर, स्थैतिक और स्वाभाविक रूप से प्रदत्त मानी ज़ाती है। अस्मितावादी राजनीति का प्रस्थान बिन्दु अस्मिता की यही परिभाषा है। लेकिन यह एक सामूहिक परिघटना के तौर पर किसी एक अस्मिता की बात नहीं करती है; बल्कि कई सारी विखण्डित अस्मिताओं पर ज़ोर देती है। अस्मिताओं का विखण्डीकरण न सिर्फ मनुष्य के व्यक्तित्व के धरातल पर होता है, बल्कि सम्पूर्ण समाज के धरातल पर भी किया जाता है।

भार‍तीय संविधान और भारतीय लोकतंत्र: किस हद त‍क जनवादी?

जब भी कभी नागरिकों के जनवादी अधिकारों की हिफ़ाजत करने में भारतीय लोकतंत्र की विफ़लताओं पर चर्चा होती है तो प्राय: यह तर्क सुनने में आता है कि भारतीय संविधान में कोई कमी नहीं है, कमी तो संविधान को लागू करने वालों में है। इस तर्क के पक्ष में संविधान सभा के समापन भाषण में संविधान के प्रारूप निर्माण समिति के अध्‍यक्ष डा. भीमराव अंबेडकर का यह क‍थन प्राय: उद्धृत किया जाता है: “....संविधान चाहे जितना अच्‍छा हो, वह बुरा साबित हो सकता है यदि उसका अनुसरण करने वाले लोग बुरे हों। एक संविधान चाहे जितना बुरा हो, वह अच्‍छा साबित हो सकता है यदि उस‍का पालन करने वाले लोग अच्‍छे हों। ...” 1 इस प्रकार का तर्क करने वाले लोग भारतीय लोकतंत्र की तमाम विफ़ल‍ताओं का ठीकरा संविधान को लागू करने वाली पीढ़ी के सिर पर फोड़ते हैं और संविधान को पाक-साफ़ बताकर उसे प्रश्‍नेतर बना देते हैं। परन्‍तु ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि संविधान को लागू करने वाली पीढ़ी दरअसल उसी सामाजिक-आर्थिक एवं राजनीतिक संरचना का उत्‍पाद होती है जिसको बनाने में संविधान की महत्‍वपूर्ण भूमिका होती है।

अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति

आज लगभग सभी तरह के अम्बेडकरवादी अम्बेडकर को दलितों के मसीहा के तौर पर पेश करते हैं। उनका कहना है कि दलित मुक्ति का एकमात्र सिद्धान्त अम्बेडकरवाद है। कुछ का कहना है कि जात-पाँत के ख़ात्मे के लिए अम्बेडकरवाद ज़रूरी है तथा वर्गों के ख़ात्मे के लिए मार्क्सवाद की ज़रूरत है। पर क्या अम्बेडकर दलितों के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक दमन-उत्पीड़न से मुक्ति का कोई व्यवहार्य यथार्थवादी मार्ग सुझाते हैं? क्या अम्बेडकर दलित प्रश्न का कोई वैज्ञानिक ऐतिहासिक विश्लेषण तथा समाधान प्रस्तुत करते हैं? क्या अम्बेडकर के विचारों में दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना है? क्या धर्म परिवर्तन (जो अम्बेडकर ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में किया और जातिगत दमन-उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए अपने अनुयायियों से करने के लिए कहा) जाति प्रश्न का कोई रास्ता हो सकता है? अम्बेडकर ने जाति प्रश्न के सन्दर्भ में तथा अन्य सन्दर्भों में मार्क्सवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की, क्या वह आलोचना उनके द्वारा मार्क्सवाद के गहन-गम्भीर अध्ययन पर आधारित थी?