बाबासाहेब अंबेडकर के जीवन पर एक सरसरी नजर भी यह संकेत देती है कि उन्होंने हर चरण में नाकामियों का सामना किया. उन्होंने जिन चीजों की उम्मीद की थी, वे साकार नहीं हुईं. दलितों के जिस राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने इतनी मशक्कत की थी, वह अभिशाप साबित हुई. वे खुद आरक्षित सीटों पर राजनीतिक रूप से बौने कद के उम्मीदवारों के मुकाबले भी कभी जीत नहीं सके. उन्होंने दलितों के लिए उच्च शिक्षा पर जोर दिया और कॉलेज खोले, लेकिन जल्दी ही इस पर अफसोस जाहिर किया कि पढ़े-लिखे लोगों ने उन्हें धोखा दिया है. उन्होंने जाति के उन्मूलन का मंत्र दिया लेकिन आधुनिक भारत में जातियों को मिलती संवैधानिक वैधता ही उनके हाथ लगी. हम ऐसे अनचाहे अंजामों को गिनाते रह सकते हैं, जो उन्हें पूरी जिंदगी अपनी कोशिशों के नतीजे में हासिल होते रहे. अगर कोई दलितों की मौजूदा दशा पर नजर डाले, तो हमें इससे मिलती-जुलती तस्वीर दिखेगी. जबकि कुछ मुट्ठी भर दलितों ने महत्पवूर्ण तरक्की की है, दलितों की व्यापक बहुसंख्या गैर-दलितों की तुलना में ठहराव का शिकार है या यहां तक नीचे ही गिरी है. व्यापक रूप से कहें तो अछूतपन, हालांकि संविधान में इस पर पाबंदी है, हालिया सर्वेक्षणों द्वारा मिले संकेतों के मुताबिक खुलेआम व्यवहार में लाया जा रहा है. जातियां एक आधुनिक संस्थान के रूप में आक्रामक बनी हुई हैं. यहां तक कि दलित भी, और अजीब विडंबना है कि अंबेडकरी होने का दावा करने वाले दलित भी, जातीय पहचानों पर गर्व से इतराते हैं. उत्पीड़न की घटनाओं के आधार पर मापें तो, जिसे मैं जातिवाद का सबसे बेहतर प्रतिनिधि मानता हूं, तो जातियां यकीनन और भी संगीन हुई हैं. अंबेडकर ने दलितों के लिए जो संस्थान खोले, जैसे कि पीपुल्स एडुकेशनल सोसाइटी, बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, समता सैनिक दल, उन सबमें बेतरतीबी पसरी हुई है. अंबेडकरी राजनीति के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही बेहतर.