Category Archives: लेख व बहसें

सरकार का युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध या जनता के विरुद्ध

उच्‍चतम न्यायालय ने सलवा जुडुम के साथ एस.पी.ओ. की भर्ती को असंवैधानिक बताते हुए छत्तीसगढ़ सरकार से जवाब माँगा है, और केन्द्र सरकार द्वारा उसे मदद देने की आलोचना करते हुए सलवा जुडुम को तुरन्त रोकने का आदेश दिया है। उच्‍चतम न्यायालय ने सरकार की नव-उदारवादी नीतियों पर सवाल उठाते हुए अपने फैसले में कहा है कि माओवादी आतंकवाद के बढ़ने का मुख्य कारण सरकार द्वारा लागू की जा रही सामाजिक और आर्थिक नीतियाँ हैं, जिनके कारण समाज पहले से ही भयानक असमानता से ग्रस्त है। फैसले में आगे कहा गया है कि नैतिक, संवैधानिक और कानूनी सत्ता द्वारा माओवाद के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध वास्तव में जनता की भावनाओं और आत्मा के विरुद्ध चलाया जा रहा है। (द हिन्दू, 6 जुलाई 2011, पृष्ठ 1 और पृष्ठ 13)

जनवादी अधिकारों के लिए आन्दोलन और मज़दूर वर्ग

जनवादी अधिकारों की यह लड़ाई मज़दूर वर्ग के लिए आज बेहद ज़रूरी इसलिए भी हो गई है कि लम्बे संघर्षों से जो अधिकार उसने हासिल किये थे, वे भी आज, मज़दूर आन्दोलन के उलटाव-बिखराव के दौर में उससे छिन चुके हैं। नवउदारवाद की नीतियों के दौर में मज़दूरों का 93 प्रतिशत हिस्सा ठेका, दिहाड़ी, कैजुअल और पीसरेट मज़दूरों का है। परम्परागत यूनियनें इन मज़दूरों के हितों को लेकर लड़ने का काम छोड़ चुकी हैं और बिखरे होने के चलते इन अनौपचारिक मज़दूरों की ख़ुद की सौदेबाज़ी की ताक़त बहुत कम हो गयी है। इस मज़दूर आबादी को नये सिरे से, नयी परिस्थितियों में संगठित होने और लड़ने के तौर-तरीक़े ईजाद करने हैं और आगे बढ़ना है।

जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के सामाजिक-सांस्‍कृतिक कार्यभार

राज्‍यसत्ता द्वारा जनवादी अधिकारों के दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष करना जनवादी अधिकार आन्‍दोलन का एक अहम और फौरी कार्यभार है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियां अपनी स्‍वत:स्‍फूर्त गति से राज्‍य के चरित्र को जैसे-जैसे अधिक से अधिक निरंकुश, दमनकारी और सर्वसत्तावादी बनाती जा रही हैं वैसे-वैसे तमाम काले क़ानूनों के द्वारा जनता की नागरिक स्‍वतन्‍त्रता और जनवादी अधिकारों पर हमले और सघन और आक्रामक होते जा रहे हैं। राजकीय मशीनरी द्वारा जनवादी अधिकारों का दमन और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना हम सबकी साझी चिन्ता और सरोकार का विषय है। लेकिन यहां मैं भारत के जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के समक्ष उपस्थित समस्‍याओं और चुनौतियों पर विचार-विमर्श करने के लिए एकत्रित सभी जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध नागरिकों का ध्‍यान एक अन्‍य बुनियादी पहलू की तरफ आकृष्‍ट करना चाहता हूं। वास्‍तव में एक लोकतान्त्रिक समाज में जनवादी अधिकारों का दमन और अतिक्रमण सिर्फ़ राज्‍यसत्ता ही नहीं करती है बल्कि वे प्राक् पूंजीवादी मूल्‍य, मान्‍यताएं और संस्‍थाएं भी करती हैं जिनके आधार अतर्कपरकता, असमानता, अंधविश्‍वासों-पूर्वाग्रहों, और मध्‍ययुगीन प्रथाओं में मौजूद होते हैं।

आनंद तेलतुंबडे को जवाबः स्व-उद्घोषित शिक्षकों और उपदेशकों के नाम

आनंद तेलतुंबडे ने हमारे बारे में अपना फैसला सुना दिया है। उन्होंने हमें ‘‘जड़ बुद्धि’’ के साथ ‘‘आत्म-मुग्ध मार्क्सवादी’’ कहा है। अब हम क्या कह सकते हैं? जैसा कि वह खुद स्वीकार करते हैं कि कुछ घण्टों के लिए ही वह संगोष्ठी में रुके थे और इस थोड़े-से समय में ही वह हमारे बारे में एक सुनिश्चित अवधारणा तक पहुँचने में सक्षम रहे और अन्ततः अपना फैसला सुना दिया। हालाँकि, उनसे इस छोटी-सी मुलाकात के दौरान हम भी श्रीमान तेलतुम्बडे के बारे में कुछ राय बनाने में सक्षम रहे। हम कुछ उदाहरणों से शुरू करेंगे और फिर श्रीमान तेलतुम्बडे के लेख का पैरा-दर-पैरा जवाब देंगे।

खुद पर फिदा मार्क्सवादियों और छद्म अंबेडकरियों के नाम

बाबासाहेब अंबेडकर के जीवन पर एक सरसरी नजर भी यह संकेत देती है कि उन्होंने हर चरण में नाकामियों का सामना किया. उन्होंने जिन चीजों की उम्मीद की थी, वे साकार नहीं हुईं. दलितों के जिस राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने इतनी मशक्कत की थी, वह अभिशाप साबित हुई. वे खुद आरक्षित सीटों पर राजनीतिक रूप से बौने कद के उम्मीदवारों के मुकाबले भी कभी जीत नहीं सके. उन्होंने दलितों के लिए उच्च शिक्षा पर जोर दिया और कॉलेज खोले, लेकिन जल्दी ही इस पर अफसोस जाहिर किया कि पढ़े-लिखे लोगों ने उन्हें धोखा दिया है. उन्होंने जाति के उन्मूलन का मंत्र दिया लेकिन आधुनिक भारत में जातियों को मिलती संवैधानिक वैधता ही उनके हाथ लगी. हम ऐसे अनचाहे अंजामों को गिनाते रह सकते हैं, जो उन्हें पूरी जिंदगी अपनी कोशिशों के नतीजे में हासिल होते रहे. अगर कोई दलितों की मौजूदा दशा पर नजर डाले, तो हमें इससे मिलती-जुलती तस्वीर दिखेगी. जबकि कुछ मुट्ठी भर दलितों ने महत्पवूर्ण तरक्की की है, दलितों की व्यापक बहुसंख्या गैर-दलितों की तुलना में ठहराव का शिकार है या यहां तक नीचे ही गिरी है. व्यापक रूप से कहें तो अछूतपन, हालांकि संविधान में इस पर पाबंदी है, हालिया सर्वेक्षणों द्वारा मिले संकेतों के मुताबिक खुलेआम व्यवहार में लाया जा रहा है. जातियां एक आधुनिक संस्थान के रूप में आक्रामक बनी हुई हैं. यहां तक कि दलित भी, और अजीब विडंबना है कि अंबेडकरी होने का दावा करने वाले दलित भी, जातीय पहचानों पर गर्व से इतराते हैं. उत्पीड़न की घटनाओं के आधार पर मापें तो, जिसे मैं जातिवाद का सबसे बेहतर प्रतिनिधि मानता हूं, तो जातियां यकीनन और भी संगीन हुई हैं. अंबेडकर ने दलितों के लिए जो संस्थान खोले, जैसे कि पीपुल्स एडुकेशनल सोसाइटी, बुद्धिस्ट सोसाइटी ऑफ इंडिया, समता सैनिक दल, उन सबमें बेतरतीबी पसरी हुई है. अंबेडकरी राजनीति के बारे में जितना कम कहा जाए, उतना ही बेहतर.

भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के आन्दोलन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ

भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के आन्दोलन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आधार आलेख अभिनव सिन्‍हाभूमण्डलीकरण और अनौपचारिकीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के संघर्ष और प्रतिरोध के नये रूपों को ईजाद करने का कार्यभार एक चुनौतीपूर्ण कार्यभार है। इसे निभाने के लिए हमें हर प्रकार के अर्थवादी, अराजकतावादी और कठमुल्लावादी नजरिये से निजात पानी होगी; पूँजीवाद की कार्य-प्रणाली और मजदूर वर्ग की संरचना और प्रकृति में आए बदलावों को समझना होगा; पूँजी द्वारा श्रम के विरुद्ध अपनायी गयी नयी रणनीतियों को समझना होगा; इसके बिना हम मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों और रणनीतियों का रचनात्मक तरीके से निर्माण नहीं कर सकते। जब तक हम यह नहीं करते, मजदूर आन्दोलन के उस संकट का समाधान भी नहीं हो सकता है, जिसके बारे में हमने शुरुआत में बात की थी। आज देश के और दुनिया भर के मजदूर आन्दोलन के गतिरोध को तोड़ने के काम का एक महत्वपूर्ण पहलू भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों की ईजाद है। और ऐसा सोचने वाले दुनिया में हम अकेले लोग नहीं हैं।

भारत का मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन : अतीत के सबक, वर्तमान समय की सम्भावनाएँ तथा चुनौतियाँ

भारत का मजदूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन : अतीत के सबक, वर्तमान समय की सम्भावनाएँ तथा चुनौतियाँ द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख सुखविन्दर सम्पादक, ’प्रतिबद्ध’, लुधियाना जब मनुष्य अपने लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में प्रयत्न करता है तो इस प्रक्रिया में अतीत के प्रयोगों की शिक्षा की रोशनी में आगे बढ़ते हुए कई भूलें करता है, कभी सफल होता है तो कभी असफल। और अपने इन प्रयासों की नकारात्मक तथा सकारात्मक शिक्षाएँ आने वाली पीढ़ियों के लिए छोड़ जाता है। भारत में कम्युनिस्ट आन्दोलन का इतिहास लगभग नब्बे साल पुराना है। भारतीय मजदूर वर्ग इसके करीब चार दशक पहले से ही पूँजीवादी शोषण के विरुध्द संगठित संघर्षों की शुरुआत कर चुका था। मजदूर वर्ग के संघर्षों के जुझारूपन और कम्युनिस्टों की कुर्बानी, वीरता और त्याग पर शायद ही कोई सवाल उठा सकता है। लेकिन व्यापक सर्वहारा आबादी को नये सिरे से आर्थिक-राजनीतिक संघर्षों के लिए संगठित करने तथा उनके बीच मजदूर क्रान्ति के ऐतिहासिक मिशन का प्रचार करने की समस्याओं से जूझते हुए जब हम इतिहास का पुनरावलोकन करते हैं तो मजदूर आन्दोलन में कम्युनिस्ट पार्टी के काम को लेकर बहुत सारे प्रश्नचिह्न उठ खड़े होते हें।

मजदूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ

मजदूर आन्दोलन की नयी दिशा : सम्भावनाएँ, समस्याएँ और चुनौतियाँ द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख शेख अंसार जनरल सेक्रेटरी, प्रगतिशील इंजीनियरिंग श्रमिक संघ, छत्तीसगढ़ उपाध्‍यक्ष, छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चाइतिहास इस बात का गवाह है कि मजदूर आन्दोलन दुनिया में कहीं भी, ठहराव को तोड़कर लम्बी छलाँग ले पाने में और नयी ऊँचाइयों को छू पाने में तभी सफल हुआ है, जब उसने अपने अन्दर की विजातीय प्रवृत्तियों से, तमाम गैरसर्वहारा लाइनों से निर्मम, समझौताहीन संघर्ष किया है। जब ठहराव का दौर होता है और भटकावों का बोलबाला होता है तो मजदूर आन्दोलन के भीतर हावी कठमुल्लावाद, बौध्दिक अवसरवाद, अर्थवाद-संसदवाद, स्वयंस्फूर्ततावाद तथा ''वामपन्थी'' और दक्षिणपन्थी भटकावों की रंग-बिरंगी अभिव्यक्तियों के खिलाफ केवल वही लोग मोर्चा ले पाते हैं, जिनमें तोहमतों-गालियों-छींटाकशियों की परवाह किये बिना धारा के विरुध्द तैरने का सच्चा लेनिनवादी साहस हो।

विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली में बदलाव तथा भारत का मजदूर आन्दोलन : क्रान्तिकारी पुनरुत्थान की चुनौतियाँ

विश्व पूँजीवाद की संरचना एवं कार्यप्रणाली में बदलाव तथा भारत का मजदूर आन्दोलन : क्रान्तिकारी पुनरुत्थान की चुनौतियाँ द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख तपीश मेन्दौला बिगुल मजदूर दस्ताआज जिसे भूमण्डलीकरण कहा जा रहा है, वह साम्राज्यवाद के आगे की कोई नयी पूँजीवादी अवस्था नहीं बल्कि साम्राज्यवाद का ही एक नया दौर है। साम्राज्यवाद की बुनियादी अभिलाक्षणिक विशिष्टताएँ आज भी यथावत् मौजूद हैं। इतिहास को अनुभववादी नजरिये से देखने वालों को वर्तमान और भविष्य चाहे जितना भी अन्‍धकारमय नजर आये, वैज्ञानिक नजरिया यही बताता है कि यह युग साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों का ही युग है। विश्व पूँजीवाद का दीर्घकालिक और असाध्‍य ढाँचागत संकट इस सच्चाई का सबसे बड़ा प्रमाण है कि पूँजीवाद अमर नहीं है, न ही यह मानव इतिहास की आखिरी मंजिल है। बीसवीं शताब्दी की मजदूर क्रान्तियों की हार भी कोई अन्तिम चीज नहीं है। यह मजदूर क्रान्तियों के पहले चक्र का अन्त है, जिसके सार-संकलन के आधार पर इक्कीसवीं शताब्दी की नयी मजदूर क्रान्तियों के सूत्रपात से लेकर विजय तक ऐतिहासिक महाभियान आगे डग भरेगा।