जाति, वर्ग और अस्मितावादी राजनीति
— शिवानी
जिसे अस्मितावादी राजनीति या पहचान की राजनीति (आइडेण्टिटी पॉलिटिक्स) कहा जाता है, उसकी शुरुआत बड़े पैमाने पर 1980 के दशक में देखी जा सकती है। इसके केन्द्र में जैसा कि इसके नाम से ही साफ है, अस्मिता या पहचान की अवधारणा है। समाजशास्त्रीय या सामाजिक नृतत्वशास्त्रीय (सोशल एन्थ्रोपोलॉजिकल) अर्थों में ‘अस्मिता’ आचरण-सम्बन्धी एवं वैयक्तिक विशेषताओं का वह समुच्चय है जो किसी भी व्यक्ति को एक समूह के सदस्य के रूप में पहचान देता है। यह पहचान जाति, लिंग, धार्मिक सम्प्रदाय, नस्ल आदि वस्तुगत सामाजिक श्रेणियों द्वारा निर्धारित होती है और आम तौर पर सापेक्षिक रूप से स्थिर, स्थैतिक और स्वाभाविक रूप से प्रदत्त मानी ज़ाती है। अस्मितावादी राजनीति का प्रस्थान बिन्दु अस्मिता की यही परिभाषा है। लेकिन यह एक सामूहिक परिघटना के तौर पर किसी एक अस्मिता की बात नहीं करती है; बल्कि कई सारी विखण्डित अस्मिताओं पर ज़ोर देती है। अस्मिताओं का विखण्डीकरण न सिर्फ मनुष्य के व्यक्तित्व के धरातल पर होता है, बल्कि सम्पूर्ण समाज के धरातल पर भी किया जाता है। एक वर्ग समाज में किसी भी मनुष्य की बहुआयामी अस्मिताएँ होती हैं। हर मनुष्य की कोई जाति, भाषा, क्षेत्र, राष्ट्रीयता की अस्मिताएँ होती हैं। अस्मितावादी राजनीति इन सभी पहचानों को उभारती है और इनका सारभूतीकरण (एसेंशियलाइज़ेन) करती है। एक पहचान (जिसे शुद्ध अर्थों में पहचान कहा भी नहीं जा सकता है) जिसका यह राजनीति ज़िक्र तक नहीं करती है, वह है वर्ग पहचान। वर्ग अस्मिता प्राकृतिक रूप, नस्लीय, क्षेत्रीय, या भाषाई रूप से प्रदत्त नहीं होती। वर्ग अस्मिता समाज की बुनियादी गतिविधि यानी कि उत्पादक गतिविधि में निर्मित होती है, जिसमें लगे लोग आपस में अपनी इच्छा से स्वतन्त्र कुछ निश्चित सामाजिक सम्बन्ध स्थापित करते हैं। लेकिन अस्मितावादी राजनीति इस पहचान पर कभी बल नहीं देती। आपको ऐसे स्वयंसेवी संगठन मिल जायेंगे जो जेण्डर, जाति, क्षेत्रीय या भाषाई पहचान के आधार पर बने हों। लेकिन आपको कोई ऐसा एन.जी.ओ. बिरले ही मिलेगा जो मज़दूर एन.जी.ओ. हो!
आदिम समुदायगत अस्मिता को अतिरेखांकित और वर्ग अस्मिता को नज़रअन्दाज़ करने के पीछे का मकसद क्या है? इसे समझने के लिए सबसे पहले अस्मितावादी राजनीति के उदय की वैश्विक भौतिक पृष्ठभूमि को समझना ज़रूरी है। साथ ही, ‘नये सामाजिक आन्दोलन’, विश्व सामाजिक मंच जैसे मंचों और ग़ैर-सरकारी संगठनों (एन.जी.ओ.) के उद्भव की परिघटना को अस्मितावादी राजनीति के परिप्रेक्ष्य में सन्दर्भित करना होगा।
अस्मितावादी राजनीति के उदय की भौतिक पृष्ठभूमि
1980 और 1990 के दशक में भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया की शुरुआत के बाद दुनिया के उन देशों में जहाँ नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ लागू की गयीं, वहाँ बड़े पैमाने पर लोग उजड़े, बेरोज़गारी तेज़ रफ्तार से बढ़ी और जनता में असन्तोष काफी तेज़ी से बढ़ा। ऐसे में, जनता के बीच भूमण्डलीकरण की प्रक्रियाओं के प्रभावों पर पनप रहे भयंकर गुस्से पर ठण्डे पानी का छिड़काव करने और तीखे होते वर्ग अन्तरविरोधों को धूमिल करने के लिए अस्मितावादी राजनीति के ऐसे विचारधारात्मक औज़ार की ज़रूरत पैदा हुई, जो कि प्रत्यक्ष तौर पर काफी रैडिकल बातें करती हो। अस्मितावादी राजनीति “परिधिगत” या “हशिये” पर धकेल दी गयी अस्मिताओं या पहचानों की बात करके वर्ग अस्मिता को दृष्टि-ओझल करती है। मिसाल के तौर पर, फ्रांसीसी सरकार के पैसे पर काम करने वाला एन.जी.ओ. वर्ल्ड माउण्टेंस पीपुल्स असोसियेशन। यह एन.जी.ओ. देश के ही नहीं बल्कि दुनिया भर के पर्वतीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को एकजुट करने का आह्वान करता है! इसके अनुसार पर्वतीय जनता में ग़रीब और अमीर हों भी तो उनके मुद्दे एक हैं, क्योंकि वे पर्वतों पर रहते हैं! यह भी एक प्रकार की क्षेत्रीय और जातीयवादी पहचान के आवाहन पर आधारित राजनीति है।
इस तरह भूमण्डलीकरण की वजह से तीव्र हुए वर्ग विभाजन और ध्रुवीकरण के परिणामस्वरूप किसी वर्ग-आधारित एकता को बनने से रोकने में अस्मितावादी राजनीति का इस्तेमाल किया गया। पहचान की राजनीति वस्तुतः विश्व पूँजीवाद की आन्तरिक कार्यप्रणाली का ही अंग है, जो भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया की अनिवार्य विस्फोटक सामाजिक परिणतियों को नियन्त्रण में रखने के लिए एक प्रति-सन्तुलनकारी शक्ति के रूप में स्वयं पूँजीवाद द्वारा पोषित है। पूँजी का स्वतन्त्र तर्क यदि निर्बाध गति से विकसित हो, तो सामाजिक वर्गीय ध्रुवीकरण और उग्र सामाजिक अन्तरविरोधों का विस्फोट जल्दी ही पूँजीवादी व्यवस्था को उसकी परिणति तक पहुँचा देगा। इसे रोकने के लिए पूरी दुनिया में बुर्जुआ सिद्धान्तकार राज्यसत्ताएँ अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएँ तरह-तरह के ‘स्पीड ब्रेकर’ और ‘सेफ्रटी वॉल्व’ बनाती रहती हैं, व्यवस्था की हिफाज़त के लिए दूसरी, तीसरी सुरक्षा पंक्तियाँ खड़ी करती रहती हैं, तथा जनसंघर्षों के बीच तरह-तरह के ‘ट्रोजन हॉर्स’ घुसाती रहती हैं। वर्ल्ड सोशल फोरम जैसे मंच इसी ट्रोजन हॉर्स की भूमिका को अंजाम दे रहे हैं, जो कि तथाकथित ‘नये सामाजिक आन्दोलनों’ का साझा मंच होने का दावा करते हैं। यह नाम भी विलक्षण है। ये अपने सामाजिक होने पर इसीलिए ज़ोर देते हैं, क्योंकि ये राजनीतिक नहीं हैं। राजनीतिक होने का अर्थ होगा सत्ता के प्रश्न को उठाना, व्यवस्था के प्रश्न को उठाना। लेकिन ये आन्दोलन यही प्रश्न नहीं उठाना चाहते हैं। आज यही काम तथाकथित ‘न्यू सोशल मूवमेण्ट्स’ तथा अस्मितावादी राजनीति का नारा बुलन्द करने वाले तमाम एन.जी.ओ. और उनके द्वारा प्रायोजित संगठन एवं आन्दोलन कर रहे हैं। प्रश्नों के दायरे से ये सत्ता और व्यवस्था को ग़ायब कर देते हैं। पूँजीपति वर्ग कभी कठघरे में नहीं खड़ा किया जाता। दुश्मन कौन है यह नहीं बताया जाता, लड़ना किससे है यह नहीं बताया जाता। सरकार पर उंगली उठाने को ग़लत बताया जाता है, और आमूलगामी (रैडिकल) जुमलों का इस्तेमाल करते हुए जनता की पहलकदमी, नीचे से पहलकदमी, आदि की बात करते हुए, हर दुख, तकलीफ, और दिक्कत की ज़िम्मेदारी जनता पर डाल दी जाती है।
यहाँ एक महत्वपूर्ण बिन्दु की तरफ ध्यानाकर्षण की ज़रूरत है। पूँजीवादी व्यवस्था एक ‘होमोजेनाइज़र’ होती है, और उसे पहचान के धरातल पर एक हद तक की एकरूपता की आवश्यकता पड़ती है। आर्थिक धरातल पर पूँजीवाद एक सार्वभौमीकरण (यूनीवर्सलाइज़ेशन) की प्रक्रिया को अंजाम देता है। आर्थिक सार्वभौमीकरण अधिरचना में भी सार्वभौमीकरण को अभिव्यक्त करता है। एक सार्वभौमीकरण पूँजीवाद आदमी/औरत की अस्मिता का भी करता है और एक मनुष्य के रूप में, एक स्वतन्त्र व्यक्ति के रूप में भी करता है, कम-से-कम फौरी तौर पर तो स्थापित करता ही है। पूँजीवाद ही मज़दूर वर्ग के भीतर एक वर्ग बोध पैदा करता है, और इस रूप में अगर अभी वर्ग को भी एक विशेष ऐतिहासिक अर्थ में अस्मिता कहें तो, एक वर्ग अस्मिता का निर्माण करता है। लेकिन यह सार्वभौमिक अस्मिता पूँजीवाद के लिए ख़ास तौर पर उसके सर्वाधिक मरणासन्न और परजीवी दौर में ख़तरनाक साबित हो सकती है, क्योंकि स्वतः ही यह वर्ग ध्रुवीकरण की ओर बढ़ती है। पूँजीवाद समाज में वर्ग विभाजन को पहली बार इतने तीखे रूप में पैदा करता है। इस प्रक्रिया में पैदा होने वाली यह वर्ग चेतना ही पूँजीवाद के लिए घातक होती है।
इसलिए अपनी सारी प्रगतिशील सम्भावनाओं से रिक्त और मरणासन्न पूँजीवाद को आर्थिक धरातल पर तो सार्वभौमीकरण की ज़रूरत पड़ती है, लेकिन अधिरचना के धरातल पर उसे खण्ड (फ्रैगमेण्ट) चाहिए होते हैं। सामन्तवाद-विरोधी संघर्ष में उसने जिन अस्मिताओं के ख़िलाफ़ लड़ाई छेड़ी थी, उन्हीं मृत अस्मिताओं को जीवित करने की आवश्यकता पड़ती है। इस व्यापक परिप्रेक्ष्य में ही अस्मितावादी राजनीति के पीछे के राजनीतिक एजेण्डा को अवस्थित किया जा सकता है।
अस्मितावादी राजनीति और उत्तरआधुनिकतावाद
यह और कुछ नहीं उत्तरआधुनिक एजेण्डा है। उत्तरआधुनिक दर्शन कहता है कि महाख्यानों (मेटा-नैरेटिव्स) का दौर समाप्त हो चुका है। हर किस्म का सार्वभौमीकरण, सामान्यीकरण, समांगीकरण (होमोजेनाइज़ेशन), और मानकीकरण दमनकारी होता है। पश्चिमी साम्राज्यवाद आधुनिकता, तर्कणा, आदि के नाम पर प्राच्य विश्व को अधीन बनाता है। उत्तरआधुनिकतावादी दर्शन के अनुसार, दरअसल, ये सभी विचारधाराएँ प्रबोधन-नामक एक पश्चिमी षड्यन्त्र का हिस्सा हैं! पश्चिमी औपनिवेशिक विमर्श के बरक्स यह ‘पारम्परिक ज्ञान’, ‘प्राच्य मासूमियत’, देशी समुदाय, पहचान, भाषा, संस्कृति आदि को महिमा-मण्डित करता है। हालाँकि, उत्तरआधुनिकतावाद हर किस्म के सारभूतीकरण के ख़िलाफ़ है, लेकिन आधुनिकता के विरुद्ध अपनी इस जंग में यह तमाम प्रागाधुनिक/प्राच्य पहचानों का सकारात्मक निरपेक्षीकरण (पॉज़िटिव एब्सॉल्यूटाइज़ेशन) करता है। जो देशी है, प्रागाधुनिक है, वह अच्छा है; आधुनिकता अवांछित है।
ल्योतार ने 1970 के दशक के उत्तरार्द्ध और 1980 के दशक के पूर्वार्द्ध में दर्शन के धरातल पर उत्तरआधुनिकतावाद के एजेण्डे की शुरुआत की थी। आगे तमाम ‘उत्तर’ विचारसरणियाँ जुड़तीं चली गयीं, जैसे कि उत्तरऔपनिवेशिक चिन्तन, उत्तर-संरचनवाद, उत्तर-मार्क्सवाद, उत्तर-नारीवाद, उत्तर-प्राच्यवाद आदि। मूलतः ये सभी उत्तरआधुनिक चिन्तन के ही अलग-अलग अंग, आयाम या विस्तार हैं। इन सभी चिन्तन-सरणियों के केन्द्र में ‘सत्ता’ (पावर) की अवधारणा है। उत्तरआधुनिक चिन्तन के एक प्रमुख दिग्गज मिशेल फूको के अनुसार सत्ता पोर-पोर में समायी होती है और विकेन्द्रित होती है। यह रोज़मर्रा के जीवन के अंग-अंग में व्याप्त होती है और लोगों द्वारा आभ्यन्तरीकृत (इण्टर्नलाइज़) कर ली जाती है। यह अप्रतिरोध्य है क्योंकि कोई भी कारगर सामूहिक प्रतिरोध, यानी जिसमें सामाजिक रूपान्तरण की सम्भावना-सम्पन्नता है, ‘सत्ता के नये रूप’ पैदा कर देता है। इसलिए कोई भी सामाजिक रूपान्तरण के लिए सामूहिक तौर पर लड़ी जाने वाली लड़ाई, अवांछित है। कोई भी सामूहिक प्रतिरोध सत्ता के नये रूपों को जन्म देगा और इसलिए दमन का सामूहिक प्रतिरोध व्यर्थ है। अगर सामूहिक प्रतिरोध अन्ततः सत्ता को ही जन्म देगा, दमन को ही जन्म देगा तो उसके ख़िलाफ़ प्रतिरोध की ज़हमत उठाने की ज़रूरत क्या है? ऐसे में आप सत्ता का प्रतिरोध कैसे कर सकते हैं? फूको के अनुसार आप अपने निजी जीवन में हर प्रकार के मानक और सार्वभौम का खण्डन करते हुए सत्ता और दमन का प्रतिरोध कर सकते हैं। सत्ता और दमन के मूल में ही मानकीकरण, सावैभौमीकरण और सामन्यीकरण की अवधारणा होती है। व्यक्तिगत निजी जीवन में जेण्डरगत अस्मिता, जातिगत अस्मिता, आदि से सम्बन्धित हर ‘नॉर्म’ और ‘यूनीवर्सल’ के ख़िलाफ़ विद्रोह करना ही एकमात्र रास्ता है। इसी को फूको ने क्वियर थियरी का नाम दिया। यह अनायास नहीं है कि आज एन.जी.ओ. जगत में वैकल्पिक लैंगिक पहचान को लेकर तमाम एन.जी.ओ. काम कर रहे हैं, जो कि एल.जी.बी.टी. (लेस्बियन-गे-बाईसेक्शुअल-ट्रांसजेण्डर) समुदाय के अधिकारों के लिए काम कर रहे हैं। स्पष्ट है कि किसी भी प्रकार के सामूहिक प्रतिरोध (वर्ग प्रतिरोध पढ़ें!) की अवधारणा को ख़ारिज करके उत्तरआधुनिकतावाद परिवर्तन से हर प्रकार का अभिकरण छीन लेता है।
तो समाधान किस चीज़ में है? कुछ अन्य उत्तरआधुनिक दार्शनिक फूको से थोड़ा अलग समाधान बताते हैं। उनके अनुसार, समाधान उन संरचनाओं में है जो कि सत्ता के प्रभाव से दूषित नहीं हुई हैं। उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद सत्ता का एक ही रूप हैं। उनका प्रतिरोध उपनिवेशवाद-विरोधी संघर्ष में राष्ट्रवाद की ज़मीन से किया गया। लेकिन राष्ट्रवाद भी एक आधुनिक दर्शन है, जो कि पश्चिम का उत्पाद है। इसलिए इसमें भी अन्तर्निहित सत्ता संरचनाएँ हैं। यही कारण है कि राष्ट्रवाद की सफल लड़ाई के बाद अस्तित्व में आयी उत्तर-औपनिवेशिक राज्यसत्ता भी दरअसल आधुनिक राज्यसत्ता है। आज साम्राज्यवाद का विरोध आधुनिकतावादी ज़मीन से नहीं किया जा सकता है। क्योंकि आधुनिकता साम्राज्यवाद के ही विश्व प्रभुत्व की सांस्कृतिक-दार्शनिक परियोजना है और इसकी ज़मीन पर खड़े होकर प्रभुत्व और सत्ता अप्रतिरोध्य है। इसलिए इन चिन्तकों के अनुसार, हमें वे संरचनाएँ ढूँढनी होंगी जो प्रागाधुनिक हैं, यानी कि सत्ता से अनछुई, या, पश्चिमी प्रभावों से अनछुई हैं! और ये संरचनाएँ क्या हो सकती हैं? सभी प्रागाधुनिक पहचानें, सभी “आदिम” अस्मिताएँ (यहाँ आदिम शब्द का प्रयोग पिछड़ा होने के रूप में नहीं किया गया है, बल्कि उन अस्मिताओं के लिए किया गया है जो कि सामाजिक-आर्थिक अन्तर्क्रिया या विनिमय के दौरान नहीं पैदा होतीं, बल्कि नैसर्गिक रूप में प्रदत्त होती हैं) जैसे आदिवासी, दलित, स्त्री (विशेषकर घर के भीतर!) आदि। इस तरह उत्तरआधुनिकतावादी चिन्तन के अनुसार प्रबोधन, वैज्ञानिक क्रान्तियाँ, तार्किकता, मानवतावाद, आदि पश्चिम के वैश्विक प्रभुत्व की योजना का अंग हैं। इनके अनुसार, इन सभी का खण्डन ज़रूरी है। क्योंकि ये अपचयनवादी हैं, सार्वभौमिकतावादी हैं, एकलतावादी हैं, सजातीयताकरणवादी हैं आदि।
इनमें विशेष निशाना हमेशा मार्क्सवाद को बनाया जाता है। मार्क्सवाद को भी ‘आधुनिकतावादी महाख्यानात्मक परियोजना’ का हिस्सा बताकर प्रबोधन का विश्व प्रभुत्व कायम करने की पश्चिम की साज़िश का अंग बताकर ख़ारिज कर दिया जाता है। हालाँकि जिसने मार्क्सवादी की बुनियादी रचनाओं का भी अध्ययन किया है, वह जानता है कि मार्क्सवाद ने प्रबोधन की तरफ कभी भी अद्वन्द्वात्मक या अनालोचनात्मक अप्रोच नहीं अपनाया है। मिसाल के तौर पर, मज़दूरों के लिए लिखे गये एक पैम्फ्रलेट ‘समाजवादः काल्पनिक और वैज्ञानिक’ में एंगेल्स ने प्रबोधन-कालीन दर्शन और तर्कणा के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों की ओर ध्यान खींचा था। लेकिन प्रबोधन की पूरी परियोजना को कचरापेटी में फेंकने के पीछे फूको और ल्योतार जैसे लोगों का मकसद अपने बुर्जुआ पूर्वजों की विरासत को कचरे में फेंकना नहीं है, जितना कि वह मार्क्सवाद पर हमला है। यह मार्क्सवाद के विरुद्ध एक अप्रत्यक्ष युद्ध चलाने के समान है। मार्क्सवाद और सामाजिक रूपान्तरण की बात करने वाली सभी विचारधाराओं को पश्चिम का षड्यन्त्र घोषित कर दिया जाता है और कहा जाता है कि हमें वर्ग, समाजवाद आदि के बारे में नहीं सोचना चाहिए। हमें तो छोटे-छोटे खण्डों को बचाना है, यानी समुदाय, जाति, घरेलू स्त्री जगत, आदि-आदि। ये सभी पश्चिमी प्रबोधन की सत्ता संरचनाओं से स्वायत्त ‘स्पेस’ हैं। चूँकि ‘मेटा-नैरेटिव्स’ का दौर बीत गया है—इसलिए वर्ग संघर्ष, क्रान्ति, सामाजिक परिवर्तन, जो कि महाख्यान हैं—का दौर बीत गया है। यह उत्तरआधुनिक दौर है और उत्तरआधुनिक दौर में ल्योतार के ही शब्दों में, ‘मेटानैरेटिव्स (महाख्यान) अविश्वस्नीय होते हैं।’ (‘दि पोस्टमॉडर्न कण्डिशनः ए रिपोर्ट ऑन नॉलेज’, 1979)
इसलिए अब छोटे-छोटे, विखण्डित, परिधिगत संघर्षों का समय है। जाति के संघर्षों का, महिलाओं के संघर्षों का, आदिवासियों के संघर्षों का, पर्यावरण को बचाने के मूल देशी समुदायों के संघर्षों का, आदि। इसी व्यवस्था के भीतर रहते हुए इन परिधिगत पहचानों के लिए स्वायत्त स्पेस बनाना है।
कुछ वर्षों पहले, “उत्तरमार्क्सवादी” चिन्तक अर्नेस्टो लाक्लाऊ और चैण्टेल माऊफ अपनी पुस्तक ‘वर्चस्व और समाजवादी रणनीतिः एक आमूलगामी जनवादी राजनीति की ओर’ (हेजेमनी एण्ड सोशलिस्ट स्ट्रैटेजीः टूवर्ड्स ए रैडिकल डेमोक्रैटिक पॉलिटिक्स’) में इस उत्तरआधुनिकतावादी दर्शन को नयी ऊँचाइयों पर ले गये हैं! लाक्लाऊ और माऊफ के अनुसार, हर प्रकार का दमन आत्मगत होता है। इसका वस्तुगत यथार्थ से, दमन की ठोस अमानवीयताओं से, कोई लेना-देना नहीं होता। यह वस्तुतः शोषणकारी और दमनकारी व्यवस्था के विरुद्ध किसी प्रकार के व्यापक संयुक्त आन्दोलन की सम्भावना को ही नकारना है। दूसरे अर्थों में, यहाँ भी सत्ता संरचनाओं की अप्रतिरोध्यता को ही रेखांकित किया जा रहा है।
भारत में उत्तरआधुनिक एजेण्डा और सबऑल्टर्न स्टडीज़
भारत की बौद्धिक दुनिया में उत्तरआधुनिक एजेण्डा को सबसे प्रभावी ढंग से लागू करने का काम सबऑल्टर्न स्टडीज़ के इतिहासकारों ने किया है। शुरुआत में मोटा-मोटी मार्क्सवादी शब्दावली और मार्क्सवादी विश्लेषण के दायरे में रहने के बाद सबऑल्टर्न स्टडीज़ में ‘भाषाई मोड़’ (लिंग्विस्टिक टर्न) आया, जो कि एडवर्ड सईद और मिशेल फूको का प्रभाव था। सबऑल्टर्न स्टडीज़ में भी ख़ास तौर पर पार्थ चटर्जी, दीपेश चक्रवर्ती, ज्ञानेन्द्र पाण्डेय और ज्ञान प्रकाश ने इस एजेण्डा को बखूबी लागू किया। ‘सबऑल्टर्न स्टडीज़’ श्रृंखला की पुस्तकों के शुरुआती लेखों में रणजीत गुहा ने इस सम्पूर्ण उपक्रम का उद्देश्य इतिहास-लेखन में ‘अभिजात्य पूर्वाग्रह को दुरुस्त करना’ बताया। हालाँकि, उत्तरवर्ती सबऑल्टर्न स्टडीज़ ‘व्युत्पन्न विमर्श’ (डेरिवेटिव डिस्कोर्स), देशी समुदाय और ‘खण्ड’ के बीच दोलन करता रहा, जो तीनों ही उत्तरआधुनिक विमर्श की श्रेणियाँ हैं। पार्थ चटर्जी अपनी किताब ‘नेशनलिस्ट थॉट इन ए कलोनियल वर्ल्डः ए डेरिवेटिव डिस्कोर्स?’ में कहते हैं कि भारत का बौद्धिक वर्ग औपनिवेशिक सत्ता-ज्ञान (कलोनियल पावर-नॉलेज) के वर्चस्व में आ गया था और इसलिए वह सिर्फ व्युत्पन्न विमर्श करने में ही सक्षम था। इस तरह से राष्ट्रवादी आन्दोलन में मध्यवर्गीय बौद्धिक जगत पूरी तरह आधुनिक चिन्तन की गिरफ्त में आ गया था। उसका कोई अभिकरण (एजेंसी) नहीं था। इस बौद्धिक जगत के पार, जिसमें सत्ता की संरचनाएँ घुसकर उसे दूषित कर चुकी हैं, सामुदायिक चेतना की दुनिया है जो शुद्ध है, आदिम है, पवित्र है। पार्थ चटर्जी भारत के सन्दर्भ में इसे ‘किसान चेतना’ से जोड़कर देखते हैं, जो पश्चिमी वर्चस्ववादी प्रभाव से मुक्त है। इसका प्रतीक पुरुष गाँधी को बताया जाता है।
यह एक हैरतअंगेज़ सादृश्य-निरूपण है। गाँधी एक आधुनिक चिन्तक थे। उनका मानवतावाद धार्मिक आध्यात्मिक आवरण, भाषा एवं पुट के बावजूद सारतः एक बुर्जुआ मानवतावाद था। इस बात पर पार्थ चटर्जी ध्यान देना ज़रूरी नहीं समझते कि उपनिवेशवाद ने किस तरह देशी संरचनाओं को सहयोजित किया और औपनिवेशिक शोषण में उनका इस्तेमाल किया। और ये देशी संरचनाएँ अपनी ‘प्राच्य मासूमियत’ (जैसा कि आशीष नन्दी ने कहा है) बल्कि अपने निहित स्वार्थों के चलते इस्तेमाल हुईं।
एडवर्ड सईद और गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक के सबऑल्टर्न स्टडीज़ के प्रोजेक्ट से जुड़ने के बाद खण्डों और समुदायों पर ज़ोर और बढ़ गया। आधुनिक उत्तरऔपनिवेशिक राज्यसत्ता को पश्चिमी सांस्कृतिक प्रभुत्व की प्रबोधन की परियोजना का अंग बताया गया। यह राज्यसत्ता राष्ट्रवाद के ज़रिये आयी थी, जो कि औपनिवेशिक विमर्श के व्युत्पन्न विमर्श के अलावा कुछ नहीं था। समुदाय और खण्डों को सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य और सन्दर्भ से काटकर महिमा-मण्डित किया गया।
1993 में पार्थ चटर्जी की पुस्तक ‘दि नेशन एण्ड इट्स फ्रैग्मेण्ट्सः कलोनियल एण्ड पोस्ट-कलोनियल स्टडीज़’ के साथ ही सबऑल्टर्न स्टडीज़ अपने तार्किक निर्वाण को प्राप्त हो गया। चटर्जी राष्ट्र के खण्डों के रूप में दलितों, स्त्रियों, आदि की अलग-अलग चर्चा करते हैं। उनका कोई सामान्य एजेण्डा नहीं हो सकता और ये सभी खण्ड परकीकृत (रीइफाइड) हैं, जिन्हें कभी जोड़ा नहीं जा सकता है। चटर्जी के अनुसार राष्ट्रवादी काल में स्त्रियों की पहल या स्वायत्तता की अभिव्यक्ति सिर्फ पायी जा सकती है। या फिर ज़्यादा से ज़्यादा आत्मकथाओं में। चटर्जी उन तमाम गतिविधियों और राजनीतिक संघों के विषय में एकदम चुप हैं, जिनमें स्त्रियों ने 1920 के दशक में ज़ोर-शोर से भाग लिया था। फुले, पेरियार, या अम्बेडकर से जुड़े जातिगत आन्दोलनों के बारे में भी यह किताब चुप है। इस पुस्तक में चटर्जी एक नया युग्म पेश करते हैं—भौतिक/आत्मिक। ‘भौतिक’ वह है जो बाहर, अघरेलू, और पौरुषपूर्ण है और ‘आत्मिक’ वह है जो भीतर, घरेलू और स्त्रैण है। आत्मिक जगत में औपनिवेशिक ‘सब्जेक्ट’ अपनी स्वायत्तता कायम करता था, और भौतिक विश्व में अंग्रेज़ों द्वारा सहयोजित कर लिया जाता था; जैसे जब कानून के समक्ष समानता की बात आयी तो चटर्जी इसे पश्चिमी वर्चस्ववादी परियोजना द्वारा सहयोजित कर लिया जाना मानते हैं। साम्राज्यवाद का हर विरोध जो आधुनिक तरीके से किया गया, धर्मनिरपेक्ष (सेक्युलर) तरीके से किया गया, आर्थिक आलोचना के साथ किया गया, वह दरअसल साम्राज्यवाद के वर्चस्वकारी प्रबोधन प्रोजेक्ट के सामने हथियार डालना था। यानी, जो भी लड़ाइयाँ राष्ट्रवाद ने लड़ीं, वे सभी साम्राज्यवाद द्वारा सहयोजन (को-ऑप्शन) था।
आधुनिकता के इस विरोध में दीपेश चक्रवर्ती ने पार्थ चटर्जी को भी पीछे छोड़ दिया है। ‘दि डिफरेंस डेफरल ऑफ ए कलोनियल मॉडर्निटीः पब्लिक डिबेट्स ऑन डोमेस्टिसिटी इन ब्रिटिश बंगाल’ नामक अपने लेख में चक्रवर्ती ने कुल और गृहलक्ष्मी के घरेलू महिमा-मण्डन में “सुन्दरता” की अनअपचयनीय (इर्रिड्यूसिबल) श्रेणियाँ तलाशीं हैं। चक्रवर्ती इन्हें स्वायत्त, ग़ैर-बुर्जुआ और ग़ैर-धर्मनिरपेक्ष वैयक्तिकता के आदर्श के रूप में देखते हैं। यहाँ किसी को भी ‘क्यों’ सवाल पूछने की ज़रूरत नहीं है। पितृसत्तात्मक हुईं तो क्या हुआ, ये सभी श्रेणियाँ प्रागाधुनिक तो हैं ही! चक्रवर्ती का मानना है कि प्राच्य घरेलूपन के क्षेत्र में ही स्त्री की शक्ति निहित है। यानी, स्त्रियों को हिन्दू धर्म और सभ्यता जिन कार्यों के लिए उपयुक्त मानती है, उसी में स्त्रियों को अपनी शक्ति के स्रोत तलाश कर सन्तोष करना चाहिए! यह स्त्रियों के प्रतिरोध का एक भद्दा किस्म का परवज़र्न नहीं है तो और क्या है?
समुदायों की स्वायत्तता की बात को सबऑल्टर्न इतिहासकार आधुनिक राज्य द्वारा सामुदायिक मामलों में हस्तक्षेप के ख़ात्मे के छोर तक ले जाते हैं। क्या यहाँ किसी को खाप पंचायतों द्वारा बर्बर तालिबानी फरमानों को बेरोक-टोक अंजाम दिये जाने की अनुगूँज सुनायी दी? इसमें ताज्जुब की कोई बात नहीं है। ये पूरा विमर्श ही कभी साम्प्रदायिक फासीवाद के पक्ष में तो कभी नवउदारवादी पूँजीवाद के खेमे में खड़ा नज़र आता है। प्राच्य मासूमियत के दायरे में वह सबकुछ आ जाता है जो भारतीय समाज में राज्य के हस्तक्षेप के बिना होता है। मिसाल के तौर पर, सती प्रथा, खाप पंचायतों की संस्कृति रक्षा, स्त्रियों का दमन, आदि। इसमें तो आधुनिक राज्य का कोई हस्तक्षेप नहीं है, ओर अक्सर जनता के ही कुछ हिस्से इस तरह की कार्रवाइयों को अपनी प्रशंसित प्रागाधुनिक और प्राच्य चेतना के तौर पर करते हैं। लेकिन उपरोक्त सबऑल्टर्न इतिहासकारों के लिए यह सब उचित है, वांछित है, क्योंकि ये सभी खण्डों में बँटी या संगठित प्राच्य मासूमियतों के कारनामे हैं।
अस्मितावादी राजनीति के दो रूप और जातिगत राजनीति और अस्मितावादी राजनीति का प्रतिच्छेदन
अस्मितावादी राजनीति इसी उत्तरआधुनिकतावादी विचारसरणि से अपना विचारधारात्मक ईंधन ग्रहण करती है। उत्तरआधुनिकतावाद जिन खण्डों की बात करता है, अस्मितावादी राजनीति उन्हें अस्मिताओं के धरातल पर लागू करती है। पूरा का पूरा एन.जी.ओ. सेक्टर भी इसी सोच से जाकर जुड़ता है। जनता के अलग-अलग हिस्सों को खण्डित अस्मिताओं में बाँटकर एन.जी.ओ. सेक्टर सुधारवाद के ज़रिये जनता के संघर्षों को दिग्भ्रमित और विखण्डित करने का ख़तरनाक काम अंजाम दे रहा है। यह वास्तव में खण्डों का जश्न मनाते हुए जनता की वर्ग चेतना को कुन्द करने की ही साज़िश है। पूँजीवादी व्यवस्था के भीतर एन.जी.ओ. सेक्टर ‘सेफ्रटी वॉल्व’ मैकेनिज़्म के रूप में काम करता है और जब-तब जनता के आक्रोश और असन्तोष को नियन्त्रित करने की भूमिका निभाता है। इनकी साज़िश की गम्भीरता को हमें समझना होगा।
एक अन्य परिप्रेक्ष्य में भी अस्मितावादी राजनीति का प्रभाव देखने को मिलता है। पिछले कुछ वर्षों में फासीवादी बहुसंख्यावादी हिन्दुत्व राजनीति का उभार वास्तव में पहचान की ही राजनीति की एक अभिव्यक्ति है। इस तरह की कोई भी दक्षिणपंथी कट्टरपंथी राजनीति अस्मिता के एक स्थैतिक आदर्श पर कायम होती है और कल्पित अतीत के द्वारा मिथकों को यथार्थ और सामान्य बोध बना कर इस अस्मिता के लिए वैधीकरण हासिल करती है। अस्मितावादी राजनीति में इस तरह के सभी दक्षिणपंथी विनियोजन अन्तर्निहित हैं। आज के दौर में न सिर्फ परिधिगत पहचानें, बल्कि उनसे भी अधिक “मेनस्ट्रीम” पहचानें अस्मितावादी राजनीति के औज़ार का इस्तेमाल अपने निहित स्वार्थों के लिए कर रही हैं। यह भी एक ख़तरनाक रुझान है।
अस्मितावादी राजनीति के ये दोनों ही रूप अपने आपको एक दूसरे के विरोधी और विकल्प के रूप में पेश करते हैं, लेकिन वास्तव में वे दो अलग विरोधी ताक़तें हैं ही नहीं। वे बस अपने आपको इस रूप में पेश करती हैं। यानी, एन.जी.ओ. राजनीति और दक्षिणपंथी धार्मिक कट्टरपंथी और साम्प्रदायिक फासीवादी राजनीति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। वे अपने आपको एक दूसरे के विरोधी के तौर पर पेश ज़रूर करते हैं, लेकिन उनकी विचारधारा और दर्शन में एक बुनियादी एकता है। कह सकते हैं कि वे एक छद्म विकल्पों का युग्म पेश करते हैं। इसी को गाइल्स देल्यूज़ ने ‘डिस्जंक्टिव सिंथेसिस’ का नाम दिया था। विपरीतों का एक ऐसा समुच्चय जिसमें विपरीत के तौर पर पेश किये गये तत्व वास्तव में विपरीत नहीं हैं।
अस्मितावादी राजनीति के केन्द्रीय सैद्धान्तिक वैचारिक सूत्रों की पड़ताल और इसके दार्शनिक अन्तर्य को उजागर करने के बाद हम मोटे तौर पर इस निष्कर्ष पर पहुँचने की सूरत में हैं कि जाति-आधारित राजनीति वर्तमान दौर में अस्मितावादी राजनीति का ही एक रूप है। जाति की पहचान पर आधारित राजनीति अपने दोनों ही अवतारों में—सवर्ण/उच्च जातियों की जातिगत राजनीति और दलितवादी राजनीति—अस्मितावादी राजनीति की ही अभिव्यक्ति हैं। इस रूप में इन्हें एक-दूसरे की ‘इन्वर्टेड मिरर इमेज’ भी कहा जा सकता है। यहाँ पर भी हम एक प्रकार के ‘डिस्जंक्टिव सिंथेसिस’ को, एक प्रकार के छद्म विकल्पों के युग्म को देख सकते हैं, जो कि वास्तव में एक-दूसरे के विकल्प हैं ही नहीं। क्योंकि इन दोनों का ही आधार अपने-अपने तरीके से जातिगत अस्मिता के साथ राजनीति का ‘ओवर-आइडेण्टिफिकेशन’ है। यहाँ सवर्ण जातियों के विभिन्न संगठनों द्वारा अमल में लायी जा रही अस्मितावादी जातिगत राजनीति की चर्चा अनावश्यक है। उसके प्रतिक्रियावादी, बर्बर और अमानवीय चरित्र के बारे में विकूटीकरण (डेसिफर) करने के लिए कुछ भी नहीं है। सार और रूप में ज़बर्दस्त एकता है।
लेकिन दलितवादी संगठनों द्वारा दलित अस्मिता के इर्द-गिर्द की जाने वाली राजनीति भी वास्तव में अस्मितावादी राजनीति के एजेण्डा को ही पूरा कर रही है, चाहे कुछ मामलों में इसके पीछे दलित मुक्ति की जेनुइन चाहत और इरादे ही क्यों न हों। अस्मिता-आधारित किसी भी राजनीति या संगठन के पास सामाजिक मुक्ति की कोई परियोजना नहीं हो सकती है। जातिगत, जेण्डरगत, भाषाई या राष्ट्रगत अस्मिता के आधार पर कोई वास्तविक बुनियादी मुद्दा अर्थपूर्ण रूप में नहीं उठाया जा सकता है। इसलिए दलितवादी संगठनों द्वारा दलित अस्मितावादी राजनीति के ज़रिये अचेतन तौर पर ही सही, पूँजीवादी व्यवस्था की ही सेवा की जाती है। यही अस्मितावादी राजनीति का वर्ग चरित्र है जो यथास्थितिवादी और प्रतिक्रियावादी है। अपनी तमाम सदिच्छाओं के बावजूद ऐसे सभी दलितवादी संगठन दलित मुक्ति की वास्तविक कारगर परियोजना को अमल में नहीं ला पा रहे हैं और अस्मितावादी राजनीति की ज़मीन पर खड़े होकर वे कभी ऐसी कोई परियोजना बना भी नहीं सकते हैं। बेशक इन संगठनों में तमाम ऐसे लोग हैं जो ईमानदारी और जुझारूपन के साथ दलित मुक्ति की परियोजना के बारे में सोचते हैं और सक्रिय रहते हैं। लेकिन एक सही राजनीति की ग़ैर-मौजूदगी में यह चिन्तन और सक्रियता अक्सर किसी दिशा में नहीं जाते, या अक्सर यथास्थिति का प्रतिनिधित्व करने वाली ताक़तों की सेवा में लग जाते हैं। क्योंकि जब तक यह स्पष्ट नहीं हो जाता कि जातिगत उत्पीड़न और इसके साथ ही शोषण-उत्पीड़न के अन्य सभी रूपों के लिए वास्तव में ज़िम्मेदार कौन है, और लड़ना किसके ख़िलाफ़ है, तब तक इनके विरुद्ध किया जाने वाला प्रतिरोध ‘मिस्प्लेस्ड’ होगा। यहाँ यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जब हम यहाँ दलितवादी संगठनों का ज़िक्र कर रहे हैं, तब हमारा मतलब बुर्जुआ राजनीति में लिप्त बसपा-सरीखी उन पूँजीवादी चुनावी पार्टियों से कतई नहीं है जो दलितों का प्रतिनिधित्व करने का दावा करते हैं और उन्हें महज़ वोट बैंक के तौर पर इस्तेमाल करते हैं (हालाँकि कुछ वर्षों पहले तक कई वामपंथी होने का दावा करने वाले बुद्धिजीवी भी मायावती के सत्ता में पहुँचने को लेकर हर्षित-प्रफुल्लित थे, कि अब दलितों के कदमों की धमक सत्ता के गलियारों में सुनाई दे रही है। गनीमत है कि मायावती के शासन के दौरान दलितों पर हुए अत्याचारों के सारे रिकॉर्ड ध्वस्त होने के साथ इस तरह का मूर्खतापूर्ण शोर अब शान्त हो गया है!)। इन अर्थों में बहुजन समाज पार्टी की बात जितनी कम की जाय उतना बेहतर है। बुर्जुआ चुनावी अवसरवादिता के कई नये कीर्तिमान मायावती के नेतृत्व में बसपा ने स्थापित किये हैं। सत्ता-सुख भोगने के लिए इसने सवर्णवादी फासीवादी हिन्दू दक्षिणपंथी ताक़तों से चुनावी गठजोड़ बनाने से भी परहेज़ नहीं किया। मायावती की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का नतीजा उत्तर प्रदेश में और किसी को नहीं बल्कि ग़रीब दलित आबादी को ही झेलना पड़ा है। चुनावी अस्मितावादी दलित राजनीति करने वालों में मायावती की स्थिति कोई अद्वितीय या अनोखी नहीं है। रामदास आठवले, तमिलनाडु में दलित पैन्थर्स के नेता थोर थिरुमावलवन, रामविलास पासवान जैसों की स्थिति भी कोई भिन्न नहीं है। कभी वे भाजपा तो कभी कांग्रेस की गोद में बैठे नज़र आते हैं।
न सिर्फ इन चुनावी दलितवादी राजनीतिक दलों (जो कि इरादतन भी बेईमान हैं और पूर्णतः पूँजीवाद की सेवा में लिप्त हैं) बल्कि ग़ैर-चुनावी अस्मितावादी दलितवादी संगठनों (जिनमें से कई ईमानदारी से दलित मुक्ति के एजेण्डे को उठाते हैं) की राजनीति के खोखलेपन की मिसाल सिर्फ एक घटना से दी जा सकती है, जिससे पता चलता है कि उनकी राजनीति में खोखले प्रतीकवाद के अलावा कुछ नहीं बचा है। हाल ही में राष्ट्रीय स्तर पर दो घटनाएँ घटीं जो कि आम ग़रीब दलित आबादी के लिए वास्तविक और प्रतीकात्मक महत्व रखतीं थीं। एक घटना थी बथानी टोला में दलितों के नरसंहार के आरोपी धनिक सवर्णों को अदालत द्वारा दोषमुक्त करार दिया जाना और दूसरी घटना थी एन.सी.ई.आर.टी. की योगेन्द्र यादव व सुहास पल्सीकर द्वारा तैयार पुस्तक में नेहरू और अम्बेडकर के एक कार्टून को रखना। ये दोनों घटनाएँ कुछ दिनों के ही अन्तर पर हुईं। लेकिन बथानी टोला नरसंहार के आरोपियों के छूटने पर कई दलित संगठन एक बयान तक देना भूल गये, जबकि कार्टून विवाद पर उन्होंने जमकर हल्ला मचाया। कुछ लोगों ने तो सुहास पल्सीकर के कार्यालय पर हमला तक किया। यह एक अलग चर्चा का विषय है कि अम्बेडकर और नेहरू के उस कार्टून में क्या सही और क्या ग़लत था; यह भी एक विस्तृत चर्चा का विषय हो सकता है कि अम्बेडकर की आलोचना की जा सकती है, या उन्हें आलोचनेतर घोषित कर दिया जाना चाहिए, ताकि “राष्ट्र” के “सवर्ण अपराधबोध” को समाप्त किया जा सके; इस पर भी चर्चा हो सकती है कि सुहास पल्शीकर के कार्यालय में जो किया गया और हिन्दुत्ववादी हुसैन की पेण्टिंग प्रदर्शनियों के साथ जो करते थे, या उन्होंने भण्डारकर शोध संस्थान में जो किया था, उसमें कोई गुणात्मक फर्क है या नहीं; और अन्त में इस बात पर भी चर्चा हो सकती है, कि तरह-तरह के बुतों से भरे इस देश में और नये बुतों की ज़रूरत है या नहीं। लेकिन अभी हम इन चर्चाओं में नहीं जायेंगे और सिर्फ इशारों में इतना कहना चाहेंगे, कि बथानी टोला के हत्यारों को बरी किये जाने पर दलितवादी संगठनों द्वारा वह शोर नहीं मचाया गया, जो कि अम्बेडकर और नेहरू के कार्टून पर मचाया गया। क्या यह समूची अस्मितावादी दलितवादी राजनीति के खोखले प्रतीकवाद को नहीं दर्शाता है?
सभी पूँजीवादी राजनीतिक ताक़तों के समान ही चुनावी दलितवादी अस्मितावादी राजनीति करने वाली पार्टियाँ उन्हीं वर्ग सम्बन्धों की हिफ़ाज़त करते हैं जो जातिगत उत्पीड़न की स्थितियाँ तैयार करते हैं। और सभी जाति-आधारित पार्टियाँ वर्ग एकजुटता बनने से रोकती हैं और जातिगत विभाजक रेखाओं को मज़बूत करने का ही काम करती हैं। और गैरचुनावी दलितवादी राजनीति भी वस्तुगत तौर पर यही काम करती है। किसी भी संगठन के राजनीतिक चरित्र का फैसला इस बात से नहीं होता, उसके सदस्यों का सामाजिक-आर्थिक मूल क्या है। मसलन, कोई भी दलित संगठन इसलिए दलितों की मुक्ति सही राजनीति का प्रतिनिधित्व नहीं करता माना जा सकता है, कि उसके सदस्यों की बहुसंख्या दलित है। इसी ज़मीन पर खड़े होकर कई दलित चिन्तक अक्सर यह पूछते हैं कि फलाँ पार्टी के नेतृत्व में कितने दलित हैं। मिसाल के तौर पर कई बार यह सवाल दलित चिन्तकों द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों से पूछा जाता है कि आपकी केन्द्रीय कमेटी में कितने दलित हैं। लेकिन क्या बिल्कुल इसी तर्क से आज मौजूद तमाम दलित संगठनों से क्या कोई यह सवाल नहीं पूछ सकता है कि उनके नेतृत्वकारी निकाय में कितने मज़दूर हैं? हमारा मानना है कि ये दोनों सवाल ही ग़लत हैं, और अस्मितावादी सोच की ज़मीन पर खड़े होकर उठाये गये हैं। हम किसी भी संगठन की राजनीतिक विचारधारा का फैसला उसके नेतृत्व में मौजूद लोगों के परिवार और जन्म से कर सकते हैं। क्या यह भी एक प्रकार का ब्राह्मणवादी तर्क नहीं बन जाता है? राजनीतिक विचारधारा के चरित्र का फैसला इस बात से होता है कि वह विचारधारा किस वर्ग की सेवा कर रही है, इस बात से नहीं कि उसके वाहक किस परिवार में पैदा हुए। अस्मितावादी राजनीति का तर्क एक चक्रीय तर्क है, तो थोड़ी ही देर में आपको वहीं पर ला कर छोड़ देता है, जहाँ से आपने शुरुआत की थी। यह एक प्रकार से अपने भीतर ही अपने पराजय का तर्क छिपाये होता है। सवर्णवाद पर चोट का सही तरीका जाति विभेद को ही हमेशा के लिए मिटाकर होना चाहिए। सवर्णवाद पर चोट के लिए दलित पहचान पर अस्मितावादी राजनीति के तर्क से ज़ोर देना इस उद्देश्य में किस प्रकार सहायता कर सकता है? स्पष्ट है कि सवर्णों के जातिवाद का मुकाबला किसी भी सूरत में अस्मितावादी दलित राजनीति की ज़मीन पर खड़ा होकर नहीं किया जा सकता है।
तो ऐसे में किया क्या जाना चाहिए? हम एक बार फिर कहेंगे कि जो पहचान/अस्मिता व्यापकतम सम्भव जनगोलबन्दी कर सकती हो, उसके इर्द-गिर्द ही व्यापक ग़रीब आबादी को गोलबन्द करना होगा और ऐसी पहचान एक ही है—वर्ग अस्मिता, जो कि शुद्ध अर्थों में पहचान है भी नहीं। वर्ग की अवधारणा एक सामाजिक सम्बन्ध को अभिव्यक्त करती है। लेनिन के अनुसार, “वर्ग लोगों के बड़े-बड़े समूहों को कहते हैं, जो सामाजिक उत्पादन की इतिहास द्वारा निर्धारित पद्धति में अपने स्थान की दृष्टि से, उत्पादन के साधनों के प्रति अपने सम्बन्धों की दृष्टि से, और (अधिकांश मामलों में, कानूनों में निश्चित और प्रतिपादित) श्रम के सामाजिक संगठन में अपनी भूमिका की दृष्टि से और फलस्वरूप सामाजिक सम्पदा के अपने भाग की प्राप्ति की विधि तथा आकार की दृष्टि से एक-दूसरे से भिन्न होते हैं। वर्ग लोगों के वे समूह हैं, जिनमें से एक समूह सामाजिक अर्थव्यवस्था की निश्चित पद्धति में अपने स्थान की बदौलत दूसरे समूह के श्रम को हथिया सकता है।” वर्ग एक सापेक्षिक अवधारणा है, जैसा कि इस परिभाषा से स्पष्ट है। वर्ग सिर्फ एक आर्थिक परिघटना नहीं है, बल्कि संस्कृति, साहित्य, समाज में इसकी अनेक रूपों में अभिव्यक्ति होती है। मार्क्सवाद पर वर्ग अपचयनवाद (क्लास रिडक्शनिज़्म) और आर्थिक नियतत्ववाद (इकोनॉमिक डिटरमिनिज़्म) का आरोप तथ्यों के साथ बदसलूकी है। एंगेल्स ने एक जगह स्पष्ट किया है, “इतिहास के भौतिकवादी दृष्टिकोण के अनुसार, इतिहास में अन्तिम मौके पर जो चीज़ निर्णायक होती है, वह है वास्तविक जीवन का उत्पादन और पुनरुत्पादन। इसके ज़्यादा न तो मार्क्स ने कहीं कहा है और न ही मैंने। लेकिन जब इसको विकृत करके ऐसे पढ़ता है कि आर्थिक कारक ही एकमात्र तत्व है, तो वह इस कथन को एक अर्थहीन, अमूर्त, अनर्गल जुमले में तब्दील कर देता है। आर्थिक स्थिति आधार है, लेकिन उनके परिणामों के विभिन्न तत्व, संविधान—कानूनी रूप, और साथ ही भागीदारों के दिमाग़ों में इन सभी प्रतिक्रियाओं के बीच वास्तविक संघर्ष, राजनीतिक, कानूनी, दार्शनिक, धार्मिक विचार—ये सभी ऐतिहासिक संघर्षों के विकास पर प्रभाव डालते हैं, और कुछ मौकों पर उनके रूपों को निर्धारित भी करते हैं।”
वर्ग “अस्मिता” एक आधुनिक “पहचान” है, जो सभी आदिम पहचानों को आन्तरिक तौर पर विभाजित करती है। यह अस्मिता ही एक प्रगतिशील क्रान्तिकारी जनगोलबन्दी को जन्म दे सकती है। इस मायने में वर्ग अस्मिता एक ‘ओवरराइडिंग’ पहचान है, जो अन्य सभी अस्मिताओं को विभक्त करते हुए अस्तित्वमान है। चाहे कोई भी राष्ट्र हो, कोई भी जाति हो, कोई भी भाषा हो, कोई भी क्षेत्र हो, इसके लोग वर्गों में विभाजित हैं, और उनके बीच एक तीख़ा ध्रुवीकरण हो चुका है। यहाँ यह स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि वर्ग अस्मिता को उभारने का अर्थ अन्य अस्मिताओं की विशिष्टताओं को कुचल देना या नष्ट कर देना नहीं है। वर्ग अस्मिता को सुदृढ़ीकृत करने का अर्थ वर्ग चेतना को उन्नत करना है और इसका मकसद वर्ग अस्मिता के इर्द-गिर्द व्यापक जनगोलबन्दी करना है चाहे, जाति, धर्म, क्षेत्र, भाषा, राष्ट्रीयता आदि कुछ भी हो। व्यापक जनमुक्ति की परियोजना का रास्ता भी यही हो सकता है। जातिगत, राष्ट्रीय, जेण्डरगत दमन करने वाली ताक़तों की जैसे ही हम पहचान करते हैं, वैसे ही हम पाते हैं कि दलित मुक्ति प्राप्त करने, राष्ट्रीय दमन को ख़त्म करने, स्त्री उत्पीड़न और असमानता को ख़त्म करने की परियोजना में हमारा मुश्तरका दुश्मन पूँजीवाद और पूँजीपति वर्ग ही हैं। समूचे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे में आमूलगामी परिवर्तन, हर प्रकार की असमानता के ख़ात्मे और एक समानतामूलक समाज की स्थापना की परियोजना के मुकाम पर पहुँचाने के साथ ही जाति का ख़ात्मा हो सकता है। निश्चित तौर पर इसका अर्थ यह नहीं है कि ऐसी क्रान्ति और ऐसे समाज की रचना तक जातिवाद और जातिगत मानसिकता के ख़िलाफ़ संघर्ष को स्थगित करने का कोई प्रस्ताव हम रख रहे हैं। हम अच्छी तरह से जानते हैं जातिगत मानसिकता और जातिवाद के ख़िलाफ़ निरन्तर प्रचार के बिना सर्वहारा वर्ग को भी एक वर्ग के तौर पर एकजुट नहीं किया जा सकता है। वास्तव में, वर्ग चेतना को पैदा करने का कार्य अनिवार्य और अपरिहार्य रूप से आज से ही, पूरी ताक़त के साथ जाति और जातिवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष से जुड़ा हुआ है। इसके बिना किसी भी रूप में सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद के ख़िलाफ़ एक वर्ग के रूप में जागृत, गोलबन्द और संगठित नहीं हो सकता है। लेकिन जाति के इस महत्वपूर्ण सवाल को एक अलग खण्ड के रूप में परकीकृत करके हल करने के सभी प्रयास अस्मितावादी राजनीति की ओर ले जायेंगे, और देश के उन मेहनतकशों को टुकड़ों-टुकड़ों में विभक्त करने में किसी भी रूप में पूँजीवादी सवर्णवादी विचारधारा से कम भूमिका नहीं निभायेंगे। इसलिए जाति प्रश्न के समाधान के लिए एक क्रान्तिकारी वर्ग दृष्टिकोण की ज़रूरत है, न कि खण्डों का जश्न मनाने वाली अस्मितावादी राजनीति की।
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