Category Archives: समाजवादी संक्रमण

पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी की रिपोर्ट

‘इक्कीसवीं सदी में सर्वहारा क्रान्ति के नये संस्करणों और नये समाजवादी प्रयोगों की तैयारी के लिए बीसवीं सदी में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर अध्ययन-चिन्तन और बहस के ज़रिये सही नतीजों तक पहुँचना ज़रूरी है’ पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी पिछले 10-14 मार्च तक इलाहाबाद में सम्पन्न हुई। इस बार संगोष्ठी का विषय था: ‘समाजवादी संक्रमण की समस्याएँ’। संगोष्ठी में इस विषय के अलग-अलग पहलुओं को समेटते हुए कुल दस आलेख प्रस्तुत किये गये और देश के विभिन्न हिस्सों से आये सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ताओं और बुद्धिजीवियों के बीच उन पर पाँचों दिन सुबह से रात तक गम्भीर बहसें और सवाल-जवाब का सिलसिला चलता रहा। संगोष्ठी में भागीदारी के लिए नेपाल से आठ राजनीतिक कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियों व पत्रकारों के दल ने अपने देश के अनुभवों के साथ चर्चा को और जीवन्त बनाया। संगोष्ठी का औपचारिक उद्घाटन करते हुए आयोजक अरविन्द स्मृति न्यास की मुख्य न्यासी मीनाक्षी ने अपने स्वागत वक्तव्य में कहा कि कॉमरेड अरविन्द जैसे योग्य, प्रतिभावान, ज़िम्मेदार और ऊर्जस्वी क्रान्तिकारी को सच्ची श्रद्धांजलि यही होगी कि सर्वहारा वर्ग की मुक्ति और भारतीय क्रान्ति के जिस लक्ष्य के प्रति वे अपनी आखि़री साँस तक समर्पित रहे, उससे जुड़े सैद्धान्तिक-व्यावहारिक प्रयोगों का सिलसिला आगे बढ़ाया जाये और युवा क्रान्तिकारियों की नयी पीढ़ी तैयार करने की वैचारिक ज़मीन तैयार की जाये। अरविन्द स्मृति न्यास इसी लक्ष्य के प्रति समर्पित है। संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी ने कहा कि सोवियत संघ में 1956 से जारी छद्म समाजवाद का 1990 के दशक के शुरुआत तक आते-आते जब औपचारिक पतन हुआ तो बुर्जुआ कलमघसीट मार्क्सवाद की “शवपेटिका अन्तिम तौर पर क़ब्र में उतार दिये जाने” और “इतिहास के अन्त” का जो उन्माद भरा शोर मचा रहे थे, वह अब हालाँकि शान्त हो चुका है, परन्तु अब “मुक्त चिन्तन”, स्वयंस्फूर्ततावाद, ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नानाविध भटकाव क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर से ही पैदा हो रहे हैं। ऐसे में समाजवादी संक्रमण से जुड़ी तमाम समस्याओं – उस दौरान सर्वहारा वर्ग, उसकी हिरावल पार्टी और सर्वहारा राज्यसत्ता के बीच अन्तर्सम्बन्ध, समाजवादी समाज में उत्पादन-सम्बन्ध और उत्पादक शक्तियों के अन्तरविरोध, वर्ग संघर्ष के स्वरूप और क्रमशः उन्नततर अवस्थाओं में संक्रमण से जुड़े सभी प्रश्नों पर अतीत के…

संगोष्‍ठी के अन्तिम दिन यूरोपीय वाम पर आलेख और संगोष्‍ठी में उठे प्रश्‍नों पर चर्चा

दूसरे विश्‍वयुद्ध के बाद और ख़ासकर स्‍तालिन के निधन तथा सोवियत संघ की कम्‍युनिस्‍ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुश्‍चेव द्वारा फैलाये गये झूठों के प्रभाव में यूरोप में वाम राजनीति की अनेक प्रवृत्तियाँ उभरीं। इनमें से अधिकांश की विवेचना और आलोचना इस संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत अन्‍य आलेखों में की गयी है। यह आलेख अन्‍य की संक्षिप्‍त चर्चा के साथ इटली के 'आपेराइस्‍त' आन्‍दोलन और इससे निकली धाराओं पर केन्द्रित रहा जिसका प्रभाव आज तेज़ी से फैल रहा है।अंतोनियो नेग्री, मारियो ट्रोंटी, बोलोन्‍या और रेनियरो पैंज़ि‍एरी जैसे लोगों की मज़दूर आन्‍दोलन के एक अच्‍छे-खासे हिस्‍से में 'कल्‍ट' जैसी स्थिति बन गयी है। उनकी आलोचना करने वाले बहुत से लोग भी उनकी ''मौलिकता'' की बात करते हैं। आलेख में 'ऑपेराइज़्म' के उभार की पृष्‍ठभूमि की चर्चा करते हुए यह दिखाया गया कि किस प्रकार से इनकी ''मौलिकता'' मार्क्‍सवाद की पद्धति और दर्शन से विचलन का नतीजा है।

अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के चौथे दिन ”उत्‍तर मार्क्‍सवाद” और बोलिवारियन विकल्‍प पर चर्चा

उत्तर-आधुनिकता, उत्तर-उपनिवेशवाद जैसी तमाम ‘’उत्तर’’ विचारसरणियों के बुरी तरह पिट जाने के बाद अब मार्क्‍सवाद पर हमला करने के लिए उत्तर-मार्क्‍सवाद के रंगबिरंगे संस्‍करण सामने आये हैं। पूंजीवाद का विरोध करने के नाम पर छद्म मार्क्‍सवादी शब्‍दाडंबर रचते हुए इन तमाम विचारों का निशाना मार्क्‍सवाद के बुनियादी उसूलों पर हमला करना ही है। आज इन हमलों को ताकत देने के लिए बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरणों की पूरी ताकत झोंक दी गई है ताकि पूंजीवाद के गहराते विश्‍वव्‍यापी संकट के दौर में बढ़ते आंदोलनों और विकल्‍प तलाश रही जनता को दिग्‍भ्रमित किया जा सके। यह अनायास नहीं है कि पूँजीवाद, अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज्म के जरिये सहज गति से किस्म-किस्‍म के ‘‘रैडिकल’’ बुद्धिजीवियों को पैदा कर रहा है जो मार्क्‍सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे है। इन विचारधाराओं की आलोचना ज़रूरी है क्‍योंकि ये कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक हिस्‍से से लेकर छात्रों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे है।

बोलिवारियन विकल्पः विभ्रम और यथार्थ

यह 21वीं सदी का नया “समाजवाद” क्या है? इसका आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक कार्यक्रम क्या है? क्या अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करणों का समय सच में ही बीत चुका है? क्या ‘शीत प्रासाद पर धावे’ का युग बीत चुका है? मेस्ज़ारोस के शब्दों में, क्या क्रान्तियों के नये संस्करण अब चुनाव के रास्ते सरकारों में जाने के रूप में ही हो सकते हैं? इस प्रकार के तमाम सवालों का जवाब देकर ही इस ‘21वीं सदी के समाजवाद’ की मूल अन्तर्वस्तु की सही और सटीक पहचान की जा सकती है क्योंकि साम्राज्यवाद-विरोधी होना, कल्याणकारी नीतियों को लागू करना और लोकप्रिय जनवादी संस्थाओं की स्थापना अपने आप में समाजवाद का द्योतक नहीं है। सच है कि अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण कहीं घटित होते नज़र नहीं आ रहे हैं। अरब जनउभार, ‘वाल स्ट्रीट कब्ज़ा करो’ आन्दोलन व यूरोप से लेकर एशिया और पूरी दुनिया में उठे छिटपुट आन्दोलन किसी युगान्तरकारी राजनीतिक व आर्थिक-सामाजिक परिवर्तनों की तरप़फ़ इशारा नहीं कर रहे हैं। आज साम्राज्यवाद के ऐसे दौर में जब पूँजीवाद-विरोधी जनान्दोलन स्वतःस्फूर्त रूप से फूटते हुए नज़र आ रहे हैं लेकिन कहीं भी पूँजीवाद का कोई व्यावहारिक विकल्प खड़ा होता नहीं नज़र आ रहा है, जब अक्टूबर क्रान्ति के नये संस्करण के निकट भविष्य में निर्मित होने की कोई सम्भावना नहीं नज़र आ रही है, तो ऐसे में कोई भी जनपक्षधर स्वप्नद्रष्टा व्यक्ति दो तरह की उम्मीदों में जी सकता है। एक तो है वैज्ञानिक आशावाद जिसमें आशावाद की बुनियाद किसी ठोस समाजवादी मॉडल की वर्तमान दुनिया में मौजूदगी या ऐसे किसी मॉडल के निकट भविष्य में निर्मित हो जाने की सम्भावना नहीं है बल्कि एक वैज्ञानिक इतिहासबोध, जनता और समाज विकास के विज्ञान पर भरोसा होता है। दूसरे किस्म की उम्मीद है एक प्रकार का छद्म आशावाद। इतिहास बोध से वंचित और जनसंघर्षों से कटे तमाम बुद्धिजीवियों को अपने निराशावाद को ढकने के लिए किसी न किसी छद्म विकल्प की ज़रूरत होती है ताकि वे एक छद्म आशावाद में जी सकें। जनता से कटे और हवाई-गुलाबी सपनों में जीने वाले ऐसे बुद्धिजीवी जो कुछ मौज़ूद है उसी से काम चला लेने के पक्षधर होते हैं और पुरानी चीज़ों को ही नये नाम देकर उसे ही नये के…

उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’: उग्रपरिवर्तन के नाम पर परिवर्तन की हर परियोजना को तिलांजलि देने की सैद्धान्तिकी

“उत्तर-मार्क्सवाद के ‘कम्युनिज़्म’” इस विषय पर एक आलेख की ज़रूरत क्यों? क्या मार्क्सवाद का दौर बीत चुका है और कोई उत्तर-मार्क्सवादी दौर शुरू हो गया है? इस आलेख के आरम्भ में ही हम यह स्पष्ट कर देना चाहते हैं कि हमारे विचार में एक विचारधारा के रूप में मार्क्सवाद के सामने कोई संकट नहीं है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि मार्क्सवाद पर विचारधारात्मक हमलों का सिलसिला आज तक बदस्तूर जारी है। फ़र्क बस इतना है कि 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के औपचारिक विघटन के साथ विचारधारा और राजनीति की दुनिया में पूँजीवादी विजयवाद की उन्मत्त घोषणाओं की तरह ये नये बौद्धिक आक्रमण उतने खुले और आवरणहीन नहीं हैं। आज के दौर में, एक बार फिर, बुर्जुआ सांस्कृतिक और बौद्धिक उपकरण मार्क्सवाद पर नये हमले कर रहे हैं और कम्युनिस्ट आन्दोलन से लेकर छात्रों, बुद्धिजीवियों आदि के बीच एक विभ्रम पैदा करने का प्रयास कर रहे हैं। यह भी अनायास नहीं है कि पूँजीवाद, अपने वर्चस्वकारी मैकेनिज़्म के ज़रिये सहज गति से तमाम क़ि‍स्म के रंग-बिरंगे ‘रैडिकल’ बुद्धिजीवियों को पैदा कर रहा है, जो मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं पर चोट कर रहे हैं। उत्तर-मार्क्सवादियों की एक पूरी धारा है जो उग्र-परिवर्तनवादी जुमलों का सहारा लेकर मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अर्न्तवस्तु पर निशाना साध रही है। ऐलन बेज्यू, स्लावोय ज़ि‍ज़ेक, एण्टोनियो नेग्री, माइकल हार्ट, याक्स रैंशिये, अर्नेस्टो लाक्लाऊ, चैण्टेल माउफ आदि जैसे तमाम “रैडिकल दार्शनिक” इसी उत्तर-मार्क्सवादी विचार-सरणि से आते हैं। एक बात जिसे यहाँ पर विशेष तौर पर रेखांकित करने की ज़रूरत है वह यह कि मार्क्सवाद पर जो भी विचारधारात्मक-बौद्धिक हमले होते रहे हैं या फिर हो रहे हैं, उनके नाम नये हो सकते हैं लेकिन उनकी अन्तर्वस्तु में कुछ भी नया नहीं है, जैसा कि एक बार एक अलग सन्दर्भ में ज्याँ पॉल सार्त्र ने कहा था। सार्त्र ने कहा था कि मार्क्सवाद-विरोधी विचारधाराएँ जो कुछ सही कह रही हैं, वह मार्क्सवाद पहले ही कह चुका है और जो कुछ वे नया कह रही हैं वह ग़लत है! उत्तर आधुनिकतावाद, उत्तर-संरचनावाद, प्राच्यवाद, उत्तर-प्राच्यवाद, सबऑल्टर्निज्म जैसी तमाम ‘उत्तर-’ विचार-सरणियों की “चुनौतियों” का क्या हश्र हुआ, यह हम सभी जानते हैं। ये सभी विचार-सरणियाँ विचारधारात्मक कोमा…

कामरेड अरविन्द के पचासवें जन्मदिवस पर सांस्कृतिक कार्यक्रम

“समाजवादी संक्रमण की समस्‍याएं विषयक” पाँचवी अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी के तीसरे दिन के सत्र का समापन कामरेड अरविन्द के पचासवें जन्मदिवस पर उनको श्रद्धांजलि देते हुए एक सांस्कृतिक कार्यक्रम की प्रस्तुति‍ द्वारा हुआ। इस कार्यक्रम की शुरुआत में कामरेड अरविन्द को याद करते हुए सत्यम, आनन्द, अभिनव, योगेश और राजविन्दर ने उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं को बड़ी आत्‍मीयता से याद किया। उन्होंने कहा कि का. अरविंद को महज़ 44 वर्ष का जीवन मिला जिसमें से 24 वर्ष उन्‍होंने सर्वहारा की मुक्ति के लिए होम कर दिये। एक ऐसे दौर में जब दुनिया भर में कम्युनिज्म के खिलाफ़ दुष्प्रचार अपने चरम पर था, कामरेड अरविन्द एक सच्चे योद्धा की भांति वर्ग संघर्ष के मोर्चे पर अंतिम सांस तक डटे रहे। वह एक सरल, सहृदय किन्तु कम्‍युनिस्‍ट उसूलों पर दृढ़ आस्‍था रखने वाले व्‍यक्ति थे। वे हम सबकी स्‍मृतियों में हमेशा जीवित रहेंगे और हमने उनके साथ मिलकर जो सपने देखे थे उन्‍हें पूरा करने की राह पर हमें प्रेरित करते रहेंगे।

संगोष्‍ठी के तीसरे दिन नेपाली क्रान्ति, महान बहस और माओवाद पर आलेख प्रस्‍तुत

नेपाली क्रांति से सम्बन्धित दोनों आलेखों पर चर्चा में ‘दिशा संधान’ के संपादक सत्यम ने कहा कि नेपाल क्रांति की मुख्‍य समस्‍या विचारधारात्‍मक है। पार्टी राज्‍य और क्रांति विषयक लेनिन की शिक्षाओं को और पेरिस कम्‍यून से लेकर चिली और इंडोनेशिया तक अंतरराष्‍ट्रीय कम्‍युनिस्‍ट आंदोलन के अनुभवों को भुलाकर संसदवाद के विभ्रमों का बुरी तरह शिकार हो गई। संसदीय चुनाव, सरकार में भागीदारी और संविधान सभा के मंच के इस्‍तेमाल करने को रणकौशल (टैक्टिक्‍स) के बजाय रणनीति (स्‍ट्रेटेजी) का सवाल बना देना उनकी गलतियों का मुख्‍य स्रोत था। सत्‍ता में आने के बाद एनेकपा (मा) के नेतृत्‍व का पूरा व्‍यवहार येनकेन प्रकारेण सत्‍ता में बने रहने के प्रयासों में दिखता था। बीच-बीच में जनयुद्ध में लौट जाने की धमकियां बस दोहराई जाती थीं। पार्टी की तमाम कार्रवाइयों से कार्यकर्ताओं और जनता के जुझारूपन और क्रांतिकारी चौकसी ढीली पड़ती गई और पार्टी जनता से दूर होती गई। दूसरी संविधान सभा के चुनाव में पार्टी की हार को केवल प्रतिक्रियावादियों की साजिश का नतीजा बताना असली कारण से मुंह चुराना है। बेशक, प्रतिक्रियावादियों की तरफ से घपले भी कराये ही गये होंगे मगर नेकपा (मा) ने ऐसी उम्‍मीद ही क्‍यों पाली थी कि बुर्जुआ ताकतें चुनाव निष्‍पक्षता से होने देंगी। चर्चा में औरंगाबाद के दत्तु, लखनऊ के अमेंद्र, दिल्ली के नवीन व अजय, गाजियाबाद के मनदीप और पंजाब के सुखविन्दर ने हिस्सा लिया।

महान बहस के 50 वर्ष

मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन से लेकर स्तालिन तथा माओ तक कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धान्तिक विकास संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए हुआ है। विकास के इस पूरे दौर में स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन और माओ कालीन चीन के महान क्रांतिकारी समाजवादी प्रयोगों ने इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लागू किया और समाजवादी संक्रमण की विचारधारात्मक समझ को और परिपक्व बनाया। सर्वहारा क्रांतियों के विचारधारात्मक विकास की इस कड़ी में 1963-64 में माओ के नेतृत्व में चली महान बहस ने आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष करते हुये समाजवादी संक्रमण के बारे में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को एक सुव्यवस्थित मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त से हथियारबन्द किया। इस बहस ने स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन के अनुभवों और ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का सैद्धान्तिक निचोड़ प्रस्तुत किया जो समाजवादी संक्रमण को समझने मे एक मील के पत्थर है। इन अनुभवों के आधार पर महान बहस में माओ ने चीन में 1966 से 1976 तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की।

समाजवादी संक्रमण और नेपाली क्रान्ति का सवाल

इक्किसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में नेपाल के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के द्वारा ली गई उचाइँ, वैचारिक बहस का सघनता, संविधान सभा लगायत के कुछ व्यवहारिक नऐं प्रयोगों और शान्तिपूर्ण राजनीति में प्रवेश के साथ आर्जित प्रारम्भिक लोकप्रियता छोटे समय में ही एक गम्भीर धक्के का शिकार हो गया है । बीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में सोभियत संघ और पूर्वी युरोप में कथित रूप से समाजवादी सत्ताओं के गिरने (विघटन) के बाद ‘समाजवाद की असफलता’, ‘इतिहास का अन्त्य’, ‘महाआख्यान का अन्त्य’ जैसे रागों के नगाडे बज रहे निराशाजनक समय में भी सगरमाथा के आधार तल से चोटी की ओर चढ रहे जनयुद्ध ने संसार का ध्यान आकृष्ट किया था । विश्व के क्रान्तिकारियों ने नेपाल की ओर आशावादी नजरों से देख रहे थे– ‘हिमालय की ओर देखो, नयाँ विश्व जन्म ले रहा है ।’ लेकिन आज दो दशक पुरे होते न होते वह आस्था डगमगा रहा है । विश्व के कई भाइचारा पार्टीयाँ निराश है । नेपाल के अन्दर भी पिछले दो दशक के माओवादी आन्दोलन का निर्मम आलोचना तथा गम्भीर समीक्षा शुरु हो चुका है और आन्दोलन नऐं शिरे से पुनर्निर्माण के तयारी में जुटा है । प्रस्तुत छलफल पत्र में समाजवादी संक्रमण को सन्दर्भ के तौर पर रखते हुए नेपाली क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्मुख अपने सपनों के रक्षार्थ कैसी–कैसी चुनौतीयों को सामना किया जाना है, इस विषय में कुछ सवालें को खडी की गई है ।

नेपाली क्रान्तिः विपर्यय का दौर और भविष्य का रास्ता

अनालोचनात्मक महिमामंडन और भयंकर पस्ती और निराशा दोनों का स्रोत एक ही है और वह है मार्क्सवादी विज्ञान की समझ का अभाव और समाज को ऐतिहासिक भौतिकवादी नज़रिये से समझने की बजाय अनुभववादी और भावुकतावादी नज़रिये से देखना। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आज जो लोग निराश और हताश होकर कोप भवन में जा चुके हैं वे वही लोग हैं जो कभी अतिउत्साहित होकर माचू पिच्चू के शिखर पर लाल झण्डा फ़हराने के ख़्याली पुलाव पका रहे थे तो कभी सगरमाथा पर लाल झण्डा फहराने को लेकर कापफ़ी जोश से भरे थे। इस क़ि‍स्म का अतिउत्साह और निराशा और हताशा दोनों ही मार्क्सवादी विज्ञान के अधकचरी समझ की ही निशानी है। मार्क्सवाद हमें विजय के दौर में भी संयम न खोने और भयंकर से भयंकर पराजय के दौर में भी निराश और हताश होने की बजाय अपनी ग़लतियों का निर्ममता से विश्लेषण कर उन्हें दुरुस्त कर संघर्ष के मोर्चे पर नये संकल्प के साथ जुट जाने की शिक्षा देता है। इसलिए नेपाली क्रान्ति के इस विपर्यय के दौर में भी ज़रूरत इस बात की है कि इसकी कमियों, कमज़ोरियों और विघटन के स्रोतों का निर्ममता से विश्लेषण किया जाये और भविष्य की राह निकाली जाये।