संगोष्ठी के अन्तिम दिन यूरोपीय वाम पर आलेख और संगोष्ठी में उठे प्रश्नों पर चर्चा
अरविन्द स्मृति संगोष्ठी के पाँचवे और अन्तिम दिन यूरोपीय ”स्वायत्त” वाम के विचारों और मज़दूर आन्दोलन पर इसके प्रभावों पर केन्द्रित मिथिलेश कुमार का आलेख ‘द प्रॉमिस दैट नेवर वाज़: ए क्रिटिक ऑफ़ पोस्ट-1968 यूरोपियन ”ऑटोनॉमस” लेफ़्ट’ प्रस्तुत हुआ और पिछले चार दिनों के दौरान विभिन्न आलेखों पर चर्चा के दौरान उठे मुद्दों पर बातचीत जारी रही।
वेस्टर्न सिडनी युनिवर्सिटी, आस्ट्रेलिया के शोधकर्ता मिथिलेश के आलेख में कहा गया कि आज दुनियाभर में एक उथल-पुथल का दौर है, पूँजीवाद के ख़िलाफ़ आन्दोलन हो रहे हैं। लेकिन इतिहास का यह सबक हमें नहीं भूलना चाहिए कि जब क्रान्तिकारी राजनीति और उसे निर्देशित करने वाली ताक़तें बदलते हालात में सही कार्रवाई करने के लिए वैचारिक और राजनीतिक रूप से तैयार न हों तो इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद और ख़ासकर स्तालिन के निधन तथा सोवियत संघ की कम्युनिस्ट पार्टी की 20वीं कांग्रेस में ख्रुश्चेव द्वारा फैलाये गये झूठों के प्रभाव में यूरोप में वाम राजनीति की अनेक प्रवृत्तियाँ उभरीं। इनमें से अधिकांश की विवेचना और आलोचना इस संगोष्ठी में प्रस्तुत अन्य आलेखों में की गयी है। यह आलेख अन्य की संक्षिप्त चर्चा के साथ इटली के ‘आपेराइस्त’ आन्दोलन और इससे निकली धाराओं पर केन्द्रित रहा जिसका प्रभाव आज तेज़ी से फैल रहा है।अंतोनियो नेग्री, मारियो ट्रोंटी, बोलोन्या और रेनियरो पैंज़िएरी जैसे लोगों की मज़दूर आन्दोलन के एक अच्छे-खासे हिस्से में ‘कल्ट’ जैसी स्थिति बन गयी है। उनकी आलोचना करने वाले बहुत से लोग भी उनकी ”मौलिकता” की बात करते हैं। आलेख में ‘ऑपेराइज़्म’ के उभार की पृष्ठभूमि की चर्चा करते हुए यह दिखाया गया कि किस प्रकार से इनकी ”मौलिकता” मार्क्सवाद की पद्धति और दर्शन से विचलन का नतीजा है।
मिथिलेश ने कहा कि आज ”राष्ट्रपारीय एक्टिविज़्म” द्वारा तीसरी दुनिया के अनेक देशों में रैडिकल और क्रान्तिकारी संघर्षों को सहयोजित कर लेने या उन्हें संस्थागत रूप देने के ज़रिए उन पर वर्चस्व क़ायम करने की एक ख़तरनाक प्रवृत्ति दिखायी दे रही है। इसका एक रास्ता विकसित देशों की ट्रेड यूनियनों के ज़रिये भी है। भारत सहित तीसरी दुनिया के कई देशों में मज़दूर आन्दोलन में कुछ नए खिलाड़ी नज़र आ रहे हैं। इनमें यूनियनों के छद्मवेश में काम करने वाले एनजीओ, विकसित देशों की बड़ी यूनियनों के ‘एक्टिविस्ट’ से लेकर वाम के विभिन्न शेड्स से जुड़े लेबर एक्टिविस्ट तक शामिल हैं। दिलचस्प बात यह है कि ये नये खिलाड़ी यहाँ के कुछ ”क्रान्तिकारी” संगठनों के साथ भी मिलकर काम कर रहे हैं। इनकी शब्दावली में भी बेहद समानता दिखायी देती है – मज़दूर आन्दोलन की ‘स्वायत्तता’, मज़दूरों की ‘कम्युनिटी’ आदि, कुछ ने तो हाल के संघर्षों को एक प्रकार के ‘ऑक्युपाई’ आन्दोलन के रूप में भी प्रस्तुत करने की कोशिश की है। यह सोचने की बात है कि ऐसे क्रान्तिकारी संगठनों के सिद्धान्त और व्यवहार में ऐसा क्या है जिससे वे इन खिलाड़ियों के साथ जुट जाते हैं।
इस आलेख पर हुई चर्चा में मुम्बई से आयी दीप्ति गोपीनाथ, आज़मगढ़ से आये अमरनाथ द्विवेदी,’आह्वान’ के सम्पादक अभिनव सिन्हा, जेएनयू के अक्षय,’प्रतिबद्ध’ के सम्पादक सुखविन्दर आदि ने भाग लिया। नेपाल से आये राजेन्द्र पौडेल ने आलेख में उठायी गयी बातों से सहमति जताते हुए तीसरी दुनिया के देशों से बड़े पैमाने पर विकसित देशों में जाकर काम कर रहे प्रवासी मज़दूरों का सवाल उठाया। भारी पैमाने के इस प्रवासन ने इन मज़दूरों को संगठित करने से जुड़े कई सवालों को जन्म दिया है जिन पर मज़दूर आन्दोलन को सोचना है। इस प्रश्न पर अभिनव और सत्यम ने भी अपने वक्तव्य में चर्चा की। मिथिलेश ने आलेख पर उठे प्रश्नों पर अपनी बात रखते हुए आस्ट्रेलिया की एक यूनियन में अपने काम के अनुभव के आधार पर प्रवासी मज़दूरों को संगठित करने की समस्याओं की चर्चा की।
समापन सत्र में संगोष्ठी में उठे अहम सवालों पर हुई चर्चा में बिहार से आये अरुण ने सोवियत संघ और चीन में पूँजीवाद की पुनर्स्थापना और माओवाद की समझ स्पष्ट करने के लिए कुछ सवाल उठाये। जयपुर से आये पी.एल. शकुन के सवाल पर अभिनव सिन्हा ने कहा कि एसयूसीआई को आलेख में प्रच्छन्न त्रात्स्कीपंथी इसलिए कहा गया है क्योंकि वह भी भारत में क्रान्ति की मंज़िल तय करने में त्रात्स्की की ही तरह निगमनात्मक पद्धति अपनाते हैं। सुखविन्दर ने एसयूसीआई की पैस्सिव-रैडिकल राजनीति की आलोचना रखी। भोजपुर से आये रामाशीष गुप्ता तथा लुधियाना से आये ताज मोहम्मद ने भी चर्चा में भाग लिया।
अन्त में अन्तिम दिन के अध्यक्ष मण्डल के सदस्यों दिल्ली विश्वविद्यालय के सनी सिंह, नेपाल के कवि एवं पत्रकार संगीत श्रोता तथा ‘दिशा सन्धान’ के सम्पादक सत्यम ने अपनी बात रखी। सनी ने कहा कि आज क्रान्तिकारी आन्दोलन के सामने मौजूद चुनौतियों का सामना करने के लिए ज़रूरी है कि हम भावना नहीं बल्कि विज्ञान पर पकड़ बनाकर काम करें।
संगीत श्रोता ने कहा कि पाँच दिनों में समाजवादी संक्रमण पर हुई चर्चा से हमने बहुत कुछ सीखा है जो संकट के दौर से गुज़र रही नेपाली क्रान्ति से जुड़े लोगों के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। ऐसी बहसों की निरन्तरता को हम वहाँ जारी रखेंगे। हम नेपाल लौटकर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर संगोष्ठी आयोजित करने की सोच रहे हैं। अरविन्द स्मृति न्यास की आगामी संगोष्ठियों में भी नेपाल से भागीदारी बनी रहेगी।
सत्यम ने कहा कि आज समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर सोचना कोई अकादमिक प्रश्न नहीं है। इससे विचारधारा के बेहद अहम सवाल जुड़े हुए हैं जो भारत तथा दुनियाभर में क्रान्तिकारी आन्दोलनों को सीधे प्रभावित कर रहे हैं। हम उम्मीद करते हैं कि पिछली अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों की ही तरह इस संगोष्ठी में शुरू हुई बहसें आगे भी विभिन्न मंचों पर जारी रहेंगी। आगामी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी भारतीय समाज की प्रकृति, उत्पादन सम्बन्धों और क्रान्ति की मंज़िल के सवाल पर करने की हम सोच रहे हैं। इस संगोष्ठी में प्रस्तुत सभी आलेख अरविन्द स्मृति न्यास की वेबसाइट पर उपलब्ध होंगे। इन्हें हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों भाषाओं में पुस्तकाकार प्रकाशित करने पर जल्दी ही काम शुरू कर दिया जायेगा। पंजाबी, मराठी और नेपाली भाषाओं में अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों के आलेखों के अनुवाद की योजना है।
‘का. अरविन्द को लाल सलाम’,’का. अरविन्द तुम ज़िन्दा हो, हम सबके संकल्पों में’ के नारों और शशि प्रकाश के गीत ‘नये संकल्प लें फिर से, नये नारे गढ़ें फिर से, उठो संग्रामियो जागो नई शुरुआत करने का समय फिर आ रहा है…’ की तपीश मैंडोला द्वारा प्रभावशाली प्रस्तुति के साथ संगोष्ठी का समापन हुआ।