भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के आन्दोलन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ
द्वितीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्तुत आधार आलेख
अभिनव सिन्हा
1. प्रस्तावना
भारतीय और साथ ही अन्तरराष्ट्रीय मजदूर आन्दोलन आज एक गम्भीर संकट का शिकार है। यह अब किसी विवाद का विषय नहीं है कि सोवियत संघ में 1953 में और विशेषकर चीन में 1976 में मजदूर सत्ताओं के पतन के बाद से, पूँजी की शक्ति श्रम की शक्ति पर हावी रही है। यह एक दीगर बात है कि 1970 के दशक से ही स्वयं पूँजीवाद भी अपने संकट से कभी उबर नहीं पाया है। 1973 के आर्थिक संकट के बाद से विश्व पूँजीवाद ने किसी विचारणीय तेजी का दौर नहीं देखा है। लेकिन 1980 के दशक में अपनायी गयी भूमण्डलीकरण की नीतियों, सूचना-प्रौद्योगिकी व संचार क्रान्ति और पहले से बिखरे और एक हद तक निराशा के शिकार मजदूर वर्ग पर विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हमलों की बदौलत विश्व पूँजीवादी व्यवस्था ने अपनी जर्जर हालत के बावजूद 1970 के दशक के बाद से मजदूर वर्ग की तरफ से किसी भी अर्थपूर्ण प्रतिरोध को टालने और संगठित ही न होने देने में सफलता हासिल की है। भूमण्डलीकरण के इस दौर में भारत और कमोबेश पूरे विश्व में मजदूर वर्ग का आन्दोलन आज संकटग्रस्त है।
यहाँ हम एक सम्भावित भ्रम का पहले ही निवारण कर देना चाहेंगे। जब हम मजदूर वर्ग के आन्दोलन के संकटग्रस्त होने की बात करते हैं तो मजदूर वर्ग की विचारधारा, विज्ञान और विश्व-दृष्टिकोण के संकटग्रस्त होने की बात कतई नहीं कर रहे होते हैं। पूँजीवादी चिन्तकों, विचारकों और अर्थशास्त्रियों की ओर से मार्क्सवाद-लेनिनवाद-माओवाद पर 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध से ही जो भी हमले किये गये हैं, उनमें एक भी नयी बात नहीं है। उनमें से अधिकांश ऐसे थे जिनका जवाब मार्क्स-एंगेल्स के काल में दिया जा चुका था और जो बचे-खुचे थे, उनका जवाब लेनिन ने दे दिया था। अपनी मरणासन्न और रोगशैया-ग्रस्त अवस्था में 1960 के दशक से (गौरतलब है कि यही विश्व पूँजीवाद की आखिरी तेजी के दौर के समापन का वक्त था) विश्व पूँजीवाद ने कुछ विचार-सरणियों को जन्म दिया जिन्हें उत्तरआधुनिकतावाद, उत्तर-औपनिवेशिक सिध्दान्त, उत्तर संरचनावाद, आदि के नाम से पुकारा गया। दुनिया भर के मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारी और अन्य मार्क्सवादी बुध्दिजीवी इस पूरे सिध्दान्त की धज्जियाँ उड़ा चुके हैं और यह दिखला चुके हैं कि इनमें कुछ भी नया नहीं है। यह नीत्शे, स्पेंगलर के मानवतावाद-विरोध, अराजकतावाद, काण्टीय अज्ञेयवाद, रूसी सर्वखण्डनवाद, उत्तर-औद्योगिक समाज के सिध्दान्तों, और कम्प्यूटर युग की मानवद्वेषी एब्सर्डिटी का कुरूपतम सम्भव मिश्रण है, और कुछ भी नहीं। यहाँ हमारा मकसद इन विचार-सरणियों के आलोचनात्मक विवेचन में जाना नहीं है, और यह अपने आप में एक ऐसा विषय है जो अलग से समर्पित चर्चा की माँग करता है।
इसलिए मार्क्सवादी विचारधारा और विज्ञान के संकटग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं है। ऐसा स्पष्ट कर देना हम यहाँ इसलिए जरूरी समझते हैं कि अपने पराजय-बोध, कमजोर अध्ययन, नववामपंथी भटकाव, राजनीतिक नौबढ़पन, धुरीविहीन मुक्त चिन्तन और निराशा के कारण कुछ क्रान्तिकारी ग्रुप और मुक्त-चिन्तक आज मार्क्सवादी विचारधारा के ही संकटग्रस्त होने की बातें कर रहे हैं और फ्रांसीसी मार्क्सवादी चिन्तक लुई अल्थूसर के शब्दों में इस संकट के निवारण के लिए ”दार्शनिक छुट्टी” पर चले गये हैं (लेनिन एंड फिलॉसफी एंड अदर एसेज)। चूँकि यह संकट-अन्धभक्ति (क्राइसिस फेटिसिज्म) आजकल खूब चलन में है इसलिए हम यह स्पष्टीकरण देना जरूरी समझते हैं कि हम मार्क्सवादी विचारधारा को किसी संकट का शिकार नहीं मानते हैं। निश्चित रूप से हर विज्ञान के समक्ष कुछ समस्याएँ उपस्थित होंगी क्योंकि उसका उद्देश्य एक सतत् गतिमान विश्व का अध्ययन और उसकी गति के नियमों की तलाश होता है। ये समस्याएँ नयी परिघटनाओं की व्याख्या और उनसे विज्ञान को और उन्नत और समृद्ध करने की समस्याएँ होती हैं। लेकिन यह तो नैसर्गिक है। एक मृत विचारधारा या धर्म के समक्ष यह समस्या कभी नहीं होती। विज्ञान के समक्ष ही ऐसी समस्याएँ होती हैं। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि ऐसी समस्याएँ ही किसी भी विज्ञान का प्राथमिक प्रेरक तत्व (प्राइम मूवर) होती हैं।
हम जिस संकट की बात कर रहे हैं वह मजदूर वर्ग के आन्दोलन का संकट है। वैश्विक स्तर पर भूमण्डलीकरण के दौर में श्रम के प्रतिरोध को तोड़ने और अपने मुनाफे की गिरती दर को उत्तरजीविता के स्तर पर बनाए रखने के लिए पूँजी द्वारा अपनायी गयी रणनीतियों के परिणामस्वरूप आज मजदूर वर्ग का आन्दोलन एक संकट का शिकार है और हमारा मकसद उस संकट को समझना है ताकि उसे दूर किया जा सके।
इस संकट के मुख्य रूप से दो पहलुओं की बात की जा सकती है। एक पहलू आत्मगत है, जिस पर हम यहाँ लम्बी चर्चा नहीं कर सकते हैं। यह संकट है विश्व भर में, विशेषकर उन देशों के मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों के बीच, जिन्हें लेनिन ने विश्व पूँजीवाद की कमजोर कड़ियाँ कहा था, कार्यक्रम के धरातल पर एक कठमुल्लावादी नजरिया। हम समझते हैं कि विश्व भर के मार्क्सवादी-लेनिनवादी क्रान्तिकारियों के शिविर में नवजनवादी क्रान्ति का कार्यक्रम एक गाँठ या पाँव की बेड़ी बन चुका है। इस पर गम्भीरता से आलोचनात्मक पुनर्विचार की जरूरत है। अपने देश की सामाजिक-आर्थिक संरचना और प्रभावी उत्पादन पद्धति, उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के विकास के स्तर के मौलिक और स्वतन्त्र मार्क्सवादी अध्ययन की बजाय माओ के नेतृत्व में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा 1963 में बतायी गयी सामान्य कार्यदिशा से चिपके रहने की प्रवृत्ति ने मजदूर आन्दोलन को काफी नुकसान पहुँचाया है।
इसका नुकसान मजदूर आन्दोलन को हमारे देश में भी दो तरीके से उठाना पड़ा है। नवजनवादी क्रान्ति के कार्यक्रम पर अमल करने वाले क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के एक हिस्से में मजदूर वर्ग के बीच काम की कोई सुसंगत सोच नहीं है। कुछ क्रान्तिकारी ग्रुप ऐसे हैं जो किसान प्रश्न के समाधान से आगे सोचते ही नहीं और उनकी पहुँच ही देश के सर्वहारा वर्ग तक नहीं है। अन्य ग्रुप मजदूर वर्ग के बीच काम के नाम पर जो कार्रवाइयाँ कर रहे हैं उन्हें अधिक से अधिक जुझारू अर्थवाद कहा जा सकता है। कुछ जगहों पर छिटपुट कामों को छोड़ दिया जाये तो भारत के मजदूर वर्ग को फासीवादी या संसदीय वामपंथी और संशोधनवादी ट्रेड यूनियनों की रहमत पर छोड़ दिया गया है। नतीजतन, मजदूर वर्ग के भीतर आज ट्रेड यूनियनवाद, अर्थवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद की रुझानें गहरे तक जड़ जमाए बैठी हैं। यह कोई छोटी-मोटी समस्या नहीं है। लेनिन ने स्पष्ट बताया है कि अर्थवाद और अराजकतावाद हमेशा मजदूरों के बीच पूँजीवादी आर्थिक तर्क (पिक्यूनरी लॉजिक) को पैठाता है। इसका अर्थ होता है कि मजदूर वर्ग अपने वेतन-भत्तों की लड़ाइयों में उलझा रह जाता है। यह उसके संगठन को बुरी तरह तोड़ता है। यदि इन आर्थिक लड़ाइयों को ही अन्तिम लक्ष्य बना दिया जाएगा तो मजदूर वर्ग के बीच पूँजीवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र के नियम प्रभावी बनेंगे। उसके अन्दर प्रतिस्पर्द्धा का तर्क काम करेगा और यही मजदूर वर्ग के लिए सबसे खतरनाक होता है। मार्क्स और लेनिन ने बताया है कि पूँजीपति वर्ग मुनाफे की औसत दर के जरिये स्वत:स्फूर्त ढंग से संगठित होते हैं। उनका संगठन प्रतिस्पर्द्धा के तर्क से पैदा होता है। पूँजीवादी व्यवस्था में एक मजदूर पूँजीपति के लिए अपरिहार्य नहीं होता है क्योंकि मजदूरों की एक विशाल बेरोजगार ‘रिजर्व आर्मी’ समाज में मौजूद होती है। लेकिन वह मजदूर वर्ग के बिना कुछ नहीं कर सकता है। इसलिए मजदूरों की ताकत एक वर्ग के रूप में उनके संगठित होने में ही अन्तर्निहित है और लेनिन ने लिखा है कि उसे सचेतन तौर पर संगठित करना पड़ता है। स्वत:स्फूर्त तरीके से मजदूर वर्ग आर्थिक तर्क (पिक्यूनरी लॉजिक) पर काम करता है। राजनीतिक संगठन की विचारधारा उनके भीतर हमेशा बाहर से ही आती है। यह काम एक क्रान्तिकारी राजनीतिक मजदूर अखबार के जरिये पार्टी निर्माण की दिशा में आगे बढ़कर ही हो सकता है। वहीं दूसरी तरफ, ट्रेड यूनियन एक विशेष जनसंगठन है जिसमें कई वर्गों की भागीदारी नहीं होती; वह मजदूर वर्ग का विशिष्ट जनसंगठन है। ट्रेड यूनियन का मकसद होता है पूँजी का आक्रमण के समक्ष मजदूर वर्ग को उसके वर्ग हितों के इर्द-गिर्द एकजुट और संगठित करना। यह एक ऐसा मंच होता है जिसमें मजदूर वर्ग पूँजीवाद के खिलाफ एक वर्ग के रूप में संगठित होना सीखता है। लेनिन ने ट्रेड यूनियन के भीतर पार्टी कार्य की अहमियत के बारे में स्पष्ट किया है कि कम्युनिस्ट संगठनकर्ता ट्रेड यूनियन के भीतर पेशागत संकुचन, अर्थवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद की रुझानों के विरुद्ध सतत प्रचार करता है और मजदूरों के बीच क्षेत्र-पारीय, कारखाना-पारीय, पेशा-पारीय वर्ग-चेतना पैदा करने के लिए संघर्ष करता है। लेनिन ने इसीलिए इसे ‘कम्युनिज्म की पाठशाला’ भी कहा है। मजदूर वर्ग की ट्रेड यूनियन में पार्टी कार्य का लेनिनवादी अर्थ है आर्थिक मुद्दों पर लड़ते हुए भी आर्थिक तर्क (आप इसे अर्थवाद भी पढ़ सकते हैं) का खण्डन; ट्रेड यूनियन के भीतर पार्टी कार्य के जरिये मजदूर वर्ग को उसके ऐतिहासिक मिशन से अवगत कराना।
जिसे मार्क्सवादी-लेनिनवादी शिविर कहा जाता है उसके अधिकांश ग्रुप अपने नवजनवादी क्रान्ति के ‘हैंगओवर’ के चलते मजदूर वर्ग के भीतर काम को गम्भीरतापूर्वक नहीं लेते हैं और यदि लेते भी हैं तो इसकी एक सुस्पष्ट और सुसंगत समझदारी का अभाव होता है। नतीजतन, भारत का विशाल औद्योगिक मजदूर वर्ग संशोधनवाद या फिर फासीवादी कार्पोरेटिज्म की दया पर छोड़ दिया गया है। जिन मामलों में मार्क्सवादी-लेनिनवादी संगठन उनके बीच जाते भी हैं, उनमें वे स्वयं भी आम तौर पर अर्थवाद, ट्रेड यूनियनवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद को ही अमल में लाते हैं। संशोधनवादी ट्रेड यूनियनवाद से फर्क बस इतना होता है कि उनका अर्थवाद थोड़ा ज्यादा जुझारू, थोड़ा ज्यादा गर्म और थोड़ा ज्यादा ‘लाल’ होता है, लेकिन मजदूर वर्ग के बीच राजनीतिक कार्य की समझदारी या तो अनुपस्थित है या फिर बेहद अविकसित और कमजोर। और अगर ट्रेड यूनियनवाद और अर्थवाद ही करना है तो क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट इस मामले में संसदीय वामपंथियों को नहीं हरा सकते!
दूसरा पहलू वस्तुगत है और इस प्रस्तुति का प्रमुख सरोकार यही समस्या है। यह पहलू है 1970 के दशक से विश्व साम्राज्यवाद की कार्य-प्रणाली में आए बदलावों, विश्व पूँजी के संघटन में आए परिवर्तनों को, जिन्हें एक साथ भूमण्डलीकरण की संज्ञा दी गयी है, समझने की समस्या। भूमण्डलीकरण के दौर में नवउदारवादी नीतियों, निजीकरण, विनियमन के कमजोर पड़ने, पूँजी के वैश्विक प्रवाह के अधिक से अधिक बाधामुक्त होने, फोर्डिज्म के पराभव, विखण्डित असेम्बली लाइन और लचीले श्रम बाजारों के अस्तित्व में आने, एक कमोबेश एकीकृत वित्तीय बाजार के अस्तित्व में आने और वित्तीय पूँजी के बढ़ते दबदबे और पूँजी के अधिक से अधिक परजीवी, अनुत्पादक और परभक्षी होते जाने के साथ पूरे विश्व के और विशेष रूप से तथाकथित ‘तीसरी दुनिया’ के उत्तर-औपनिवेशिक और पिछड़े पूँजीवादी देशों में मजदूर वर्ग की पूरी संरचना, संघटन, आकार और प्रकृति में कुछ महत्वपूर्ण बदलाव आए हैं। इन बदलावों को समझे बगैर हम 21वीं सदी के मजदूर आन्दोलन को खड़ा करने की बात नहीं कर सकते। इन बदलावों को ही एक साथ अनौपचारिकीकरण, स्त्रीकरण, परिधिकरण, आदि का नाम दिया गया है। एक अतिविशालकाय असंगठित मजदूर वर्ग पूरे विश्व के पैमाने पर अस्तित्व में आया है, जो औपचारिक क्षेत्र में भी काम कर रहा है और अनौपचारिक क्षेत्र में भी। जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी ग्रुप मजदूर वर्ग के बीच काम कर रहे हैं वे भी आम तौर पर इस अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी के बारे में तमाम पूर्वकल्पित धारणाओं, पूर्वग्रहों और पक्षपातपूर्ण रवैये के शिकार हैं। वे इसे पिछड़ा, वर्ग-चेतना से रिक्त या उसकी कमी का शिकार मानते हैं। लेकिन आनुभविक अध्ययन इन धारणाओं का समर्थन नहीं करते। इस अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग के पूरे चरित्र, आकार और प्रकृति को समझे बगैर हम देश के पैमाने पर किसी मजदूर आन्दोलन को खड़ा करने के बारे में नहीं सोच सकते। इसके वैसे तो बहुत से कारण है, जिनकी हम बाद में विस्तृत चर्चा करेंगे, लेकिन अभी सिर्फ इतना बता देना ही काफी है कि यह भारत के सर्वहारा वर्ग का 97 प्रतिशत है!
भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद की कार्य-प्रणाली में आए परिवर्तनों की एक संक्षिप्त चर्चा और अनौपचारिक क्षेत्र के आकार, प्रकृति और चरित्र पर विस्तृत चर्चा के बाद इस प्रस्तुति में हमारा तीसरा लक्ष्य होगा इन सभी परिवर्तनों के मद्देनजर 21वीं सदी के मजदूर आन्दोलन और प्रतिरोध को संगठित करने के नये रूपों और रणनीतियों पर एक प्रस्ताव रखना। इन रूपों और रणनीतियों पर हम स्वयं काम कर रहे हैं और इन्हें समझने की प्रक्रिया में हैं, इसलिए निश्चित रूप से इसे एक कार्यकारी प्रस्ताव समझा जाना चाहिए। यह प्रस्ताव यहाँ उपस्थित सभी कॉमरेडों के लिए बहस के लिए खुला है।
2. साम्राज्यवाद का द्वितीय विश्वयुद्धोत्तर संक्षिप्त इतिहास : पूँजी का भूमण्डलीकरण, विनियमन का क्षरण, श्रम का अनौपचारिकीकरण, वित्तीय पूँजी का अभूतपूर्व प्रभुत्व और गहराता अन्तकारी साम्राज्यवादी आर्थिक संकट
2.1 विश्व पूँजीवाद (1870-1945)
विश्व पूँजीवाद की कार्यप्रणाली में द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पूरे दौर में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन आए हैं। निश्चित रूप से हम आज भी साम्राज्यवाद और सर्वहारा क्रान्तियों के युग में जी रहे हैं। लेनिन ने 19वीं सदी के उत्तरार्द्ध में विश्व पूँजीवाद की संरचना और कार्यप्रणाली में आने वाले युगान्तरकारी बदलावों का गहन अध्ययन कर साम्राज्यवाद का सिध्दान्त प्रतिपादित किया और साम्राज्यवाद के युग में सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को स्पष्ट किया। लेनिन ने साम्राज्यवाद के अपने अध्ययन के आधार पर इस दौर में विश्व पूँजीवाद की चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ बतायीं। इनमें पूँजी के निर्यात, बैंक पूँजी और औद्योगिक पूँजी के विलय से वित्तीय पूँजी के प्रादुर्भाव और उसका उत्तरवर्ती प्रभुत्व, इजारेदारीकरण की प्रवृत्ति और साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्द्धा और युद्ध प्रमुख थे। साम्राज्यवाद की ये आभिलाक्षणिकताएँ आज भी देखी जा सकती हैं। लेनिन ने मार्क्स के ही पूँजीवाद के विश्लेषण को आगे बढ़ाया था।
मार्क्स ने ‘कम्युनिस्ट पार्टी के घोषणापत्र’, ‘पूँजी’ और ‘ग्रुंडरिस्से’ में पूँजी की गति में अन्तर्निहित वैश्विक रुझान की ओर इशारा किया था। उस समय निश्चित रूप से मार्क्स ने ‘साम्राज्यवाद’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था लेकिन लेनिन के साम्राज्यवाद के सिध्दान्त के कुछ इशारे हम मार्क्स के शब्दों में देख सकते हैं। ‘घोषणापत्र’ के इन शब्दों पर जरा गौर करें :
”विश्व बाजार को अपने लाभ के लिए इस्तेमाल कर पूँजीपति वर्ग ने हर देश में उत्पादन और खपत को एक सार्वभौमिक रूप दे दिया है। प्रतिगामियों की भावनाओं को गहरी चोट पहुँचाते हुए उसने उद्योग के पैरों के नीचे से उस राष्ट्रीय आधार को खिसका दिया है जिस पर वह खड़ा था। पुराने जमे-जमाये सभी राष्ट्रीय उद्योग या तो नष्ट कर दिये गये हैं या नित्यप्रति नष्ट किये जा रहे हैं। उनका स्थान ऐसे नये-नये उद्योग ले रहे हैं, जिनकी स्थापना सभी सभ्य देशों के लिए जीवन-मरण का प्रश्न बन जाती है; उनका स्थान ऐसे नये उद्योग ले रहे हैं जो उत्पादन के लिए अब अपने देश का कच्चा माल इस्तेमाल नहीं करते, बल्कि दूर-दूर देशों से लाया हुआ कच्चा माल इस्तेमाल करते हैं; उनका स्थान ऐसे उद्योग ले रहे हैं जिनके उत्पादन की खपत सिर्फ उस देश में नहीं, बल्कि पृथ्वी के कोने-कोने में होती है। उन पुरानी आवश्यकताओं की जगह, जिन्हें स्वदेश की बनी चीजों से पूरा किया जाता था, अब ऐसी नयी-नयी आवश्यकताएँ पैदा हो गयी हैं जिन्हें पूरा करने के लिए दूर-दूर के देशों और भू-भागों से माल मँगाना होता है। पुरानी स्थानीय और राष्ट्रीय पृथकता और आत्मनिर्भरता का स्थान चौतरफा पारस्परिक सम्पर्क ने, सार्वभौमिक अन्त:निर्भरता ने ले लिया है। और भौतिक उत्पादन की ही तरह, बौध्दिक उत्पादन के जगत में भी यही परिवर्तन घटित हुआ है। अलग-अलग राष्ट्रों की बौध्दिक कृतियाँ सार्वभौमिक सम्पत्ति बन गयी हैं। राष्ट्रीय एकांगीपन और संकुचित दृष्टिकोण दोनों अधिकाधिक असम्भव होते जा रहे हैं, और अनेक राष्ट्रीय और स्थानीय साहित्यों से एक विश्व साहित्य उत्पन्न हो रहा है।” (पृ. 40-41, ‘कम्युनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र‘, प्रगति प्रकाशन, मास्को)
मार्क्स स्पष्ट रूप से पूँजी के वैश्वीकरण की रुझान को स्पष्ट करते हैं। मार्क्स के युग में पूँजी के तीन रूपों या क्षणों (मूमेण्ट्स) में से केवल माल पूँजी का ही वैश्वीकरण हुआ था। वित्तीय पूँजी अभी अस्तित्व में आ रही थी और राष्ट्रीय सीमाओं में ही थी और उत्पादक पूँजी भी अभी राष्ट्रीय सीमाओं में ही थी। नतीजतन, औद्योगिक देशों के बीच विश्व बाजार पर कब्जे की होड़ थी जिसका लक्ष्य था सस्ते कच्चे माल की उपलब्धता को सुनिश्चित करना और तैयार माल के लिए बाजार को सुनिश्चित करना। इस प्रकार उपनिवेशवाद ”मुक्त व्यापार” पूँजीवाद की एक नैसर्गिक अभिव्यक्ति के रूप में पैदा हुआ। अगर फ्रांसीसी ‘मार्क्सवादी रेग्युलेशन स्कूल’ की शब्दावली का इस्तेमाल करें तो कह सकते हैं कि उस समय उपनिवेशवाद और औद्योगिक पूँजीवाद विश्व पूँजीवाद का ”संचय का प्रभुत्वशाली रूप” (डॉमिनेण्ट रेजीम ऑफ एक्युम्युलेशन) था और ”मुक्त व्यापार” की वकालत करने वाला उदारवादी बुर्जुआ राज्य ”विनियमन का प्रभुत्वशाली रूप” (डॉमिनेण्ट मोड ऑफ रेग्युलेशन)।
1870 के दशक में विश्व पूँजीवाद को अपने पहले गम्भीर संकट का सामना करना पड़ा। यह संकट था राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर पूँजी-संचय की प्रचुरता का संकट। वास्तव में यह वही अति-उत्पादन का संकट था जिसे मार्क्स पूँजीवाद का अन्तकारी संकट बताते हैं। उपनिवेशवाद के दौर में दुनिया भर की लूट के कारण उन्नत औद्योगिक पूँजीवादी देशों में अति-उत्पादन का संकट और पूँजी की प्रचुरता का संकट पैदा हुआ। अब इस पूँजी का राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर उत्पादक निवेश नहीं हो सकता था। इस संकट के कारण मजदूर वर्ग को भयंकर बेरोजगारी, गरीबी और महँगाई का सामना करना पड़ा और नतीजतन फ्रांस, इंग्लैण्ड और यूरोप के अन्य देशों से लेकर अमेरिका तक में मजदूर वर्ग के शानदार आन्दोलन हुए। सर्वहारा वर्ग ने बड़े पैमाने पर राजनीतिक रूप से सचेत आन्दोलन किये। लेकिन शैशवावस्था में ही पूँजी की ताकत को चुनौती देने का काम करने वाले इस उदीयमान सर्वहारा वर्ग के लिए ये आन्दोलन सीखने की पाठशाला बने, हालाँकि वे कोई टिकने वाली सर्वहारा सत्ता कायम न कर सके। मजदूर आन्दोलन के इस हमले के बाद और अपने मुनाफे की दर के खतरनाक हदों तक गिरने के संकट से निपटने के लिए पूरे विश्व पूँजीवाद को अपनी पूरी कार्य-प्रणाली में कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन करने पड़े। इन्हीं परिवर्तनों का अध्ययन लेनिन ने किया और वित्तीय एकाधिकारी पूँजीवाद के उदय को साम्राज्यवाद की संज्ञा दी। लेनिन ने बताया कि इस दौर में पूँजी को राष्ट्रीय सीमाओं के बाहर विस्तार की जरूरत थी जो वित्तीय पूँजी (यानी, बैंक पूँजी और औद्योगिक पूँजी का विलय) के जरिये ही सम्भव था। वित्तीय पूँजी के उद्भव के साथ यूरोप में विशालकाय बैंकों, ज्वाइण्ट स्टॉक कम्पनियों और कार्टेलों का उदय हुआ। माल-पूँजी का निर्यात कोई नयी चीज नहीं था और यह लम्बे समय से मौजूद था, लेकिन यह युग मुद्रा-पूँजी के निर्यात का साक्षी बना और आने वाले दो-तीन दशकों में यह इस पैमाने पर बढ़ा कि उस युग की आम प्रवृत्ति बन गया। पूरा जर्मन औद्योगिकीकरण और युद्ध मशीनरी का निर्माण ब्रिटिश बैंकों के बूते हो पाया। जर्मन आर्थिक शक्तिमत्ता के उदय के पीछे ब्रिटिश वित्तीय पूँजी का बहुत बड़ा हाथ था। जल्दी ही यह साफ होने लगा कि वित्तीय पूँजी निर्णायक की भूमिका में आने लगी है। वित्तीय पूँजी के बढ़ते प्रभुत्व को लेनिन ने साम्राज्यवाद के युग की एक प्रमुख आभिलाक्षणिकता बताया। लेनिन ने ‘साम्राज्यवाद : पूँजीवाद की चरम अवस्था‘ में और साथ ही साम्राज्यवाद और यूरोपीय सामाजिक-जनवाद की गद्दारी (क्योंकि, दोनों ही जुड़ी हुई परिघटनाएँ थीं) तथा आर्थिक रोमैण्टिसिज्म से सम्बन्धित अपनी रचनाओं में स्पष्ट किया कि साम्राज्यवाद के युग में उन्नत पूँजीवादी देशों से क्रान्तियों का केन्द्र खिसककर औपनिवेशिक समाजों की तरफ आ गया है। राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों और उसमें सर्वहारा वर्ग की भूमिका को नये रूप में निरूपित करते हुए लेनिन ने दो चरण में सर्वहारा क्रान्ति का सिध्दान्त प्रतिपादित किया और राष्ट्रीय मुक्ति-युद्धों को विश्व सर्वहारा क्रान्ति के अंग के रूप में देखा। लेनिन की यह भविष्यवाणी कमोबेश सही सिध्द हुई। जब यूरोप के उन्नत पूँजीवादी देशों से क्रान्ति के तूफानों का केन्द्र एशिया और अफ्रीका के देशों की तरफ आ रहा था तो पश्चिम और पूर्व के सन्धि-स्थल पर ही सर्वहारा वर्ग ने अपनी प्रथम सफल क्रान्ति की और दुनिया के पहले मजदूर राज्य की स्थापना की। इसके बाद पूरी दुनिया भर में औपनिवेशिक देशों के राष्ट्रीय मुक्ति-युद्ध और आन्दोलन हुए जिन्होंने विश्व पूँजीवाद को जबर्दस्त झटके दिये। उपनिवेशवाद विश्व पूँजीवाद के जीवन-रूप (मोडस विवेंडी) के रूप में इतिहास से विदा ले रहा था। विश्व पूँजीवाद के नेतृत्व में भी बदलाव आ रहे थे। नयी साम्राज्यवादी ताकतों के उदय और विश्व के पूँजीवादी पुनर्विभाजन के लिए हुए प्रथम विश्वयुद्ध के बाद से ही ब्रिटिश प्रभुत्व ढलान पर था। अमेरिकी पूँजीवाद की ताकत उभार पर थी। 20वीं सदी के तीसरे दशक की शुरुआत आते-आते वित्तीय पूँजी का प्रभुत्व पूरे विश्व में स्थापित हो चुका था, लेकिन अभी कुल पूँजी के संघटन में औद्योगिक पूँजी का हिस्सा खासा बड़ा था, हालाँकि उस पर वित्तीय पूँजी का नियंत्रण स्थापित हो चुका था। इस समय तक शेयर मार्केट सट्टेबाजी और शेयरों की खरीद-फरोख्त के जरिये वित्तीय मुनाफा कमाने के केन्द्र बन चुके थे। लन्दन से विश्व की वित्तीय राजधानी न्यूयॉर्क के स्टॉक एक्सचेंज में स्थानान्तरित हो चुकी थी। महामन्दी की शुरुआत अक्टूबर 1929 में इसी स्टॉक एक्सचेंज के ढहने के साथ हुई। यह संकट भी अति-उत्पादन का वही पुराना संकट था और वित्तीय पूँजी के प्रभुत्व के दौर में यह अब तक के भयंकरतम रूप में प्रकट हुआ था।
इस संकट के कारण और सामाजिक-जनवाद के पतन और इसे क्रान्तिकारी अवसर बनाने में यूरोपीय मजदूर वर्ग की विफलता के फलस्वरूप जर्मनी और इटली में फासीवादी प्रतिक्रिया का जन्म हुआ और जर्मनी में नात्सी पार्टी और इटली में फासीवादी पार्टी सत्ता में आयीं। यूरोप में फासीवाद के उदय और वैश्विक पूँजीवाद के संकट ने द्वितीय विश्वयुद्ध को जन्म दिया। 1939 से 1945 तक विश्वयुद्ध चलता रहा और धुरी शक्तियों की पराजय और जर्मनी पर समाजवादी सोवियत संघ की विजय के साथ यह युद्ध समाप्त हुआ। इस युद्ध के समापन पर दो शिविर साफ तौर पर उभर चुके थे। एक समाजवादी शिविर था जिसका नेतृत्व सोवियत संघ कर रहा था और दूसरा पूँजीवादी शिविर जिसका नेतृत्व संयुक्त राज्य अमेरिका कर रहा था।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद बड़े पैमाने पर तबाह हो चुके यूरोपीय देशों पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए 1947 में मार्शल प्लान आया, जिसका आधिकारिक नाम था ‘यूरोपियन रिकवरी प्रोग्राम’। इसके तहत 1951 तक अमेरिका ने यूरोपीय देशों के पुनर्निर्माण में और उनकी पूँजीवादी राजसत्ताओं को स्थिर होने में मदद के लिए करीब 13 अरब अमेरिकी डॉलर दिये। इस योजना के जरिये अमेरिकी वित्तीय पूँजी ने जबर्दस्त मुनाफा कमाया। इसके अतिरिक्त, विश्व पूँजीवाद पर अमेरिकी चौधराहट अब प्रश्नों से परे थी। द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद विश्व पूँजीवाद का वह दौर शुरू हुआ जिसे सभी बुर्जुआ इतिहासकार और अर्थशास्त्री बड़े नॉस्टैल्जिक होकर याद करते हैं। यह था 1945 से लेकर 1973 के संकट तक चलने वाला दौर, जिसे पूँजीवाद का ”स्वर्णिम युग” भी कहा जाता है।
2.2 ”स्वर्णिम युग” (1945-1973)
महामन्दी और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद विश्व पूँजीवाद के चौधरियों को समझ आ गया था कि पूरी अर्थव्यवस्था को मुक्त बाजार की गति, वित्तीय पूँजी की अनियत गति, और सट्टेबाजी के भरोसे छोड़ दिया जाएगा तो यह विनाशकारी साबित होगा। जॉन मेनॉर्ड कीन्स ने पूँजीवाद के एक अच्छे हकीम की भूमिका निभाते हुए पहले ही बता दिया था कि उत्पादक पूँजी के प्रवाह में अगर सट्टेबाजी बुलबुले के समान है तो यह स्वीकार्य हो सकता है, लेकिन अगर उत्पादक पूँजी ही सट्टेबाजी के प्रवाह में बुलबुला बन गयी तो स्थिति बिगड़ सकती है। इससे बचने के लिए कीन्स ने हस्तक्षेपकारी और ”कल्याणकारी” राज्य का नुस्खा सुझाया और यही नुस्खा 1945 से 1973 तक के दौर में पूँजीवादी विश्व में अमल में लाया गया। इस दौर में पुनर्निर्माण के कार्य से पूँजीवाद को तेजी मिल रही थी और उत्पादक निवेश के कई अवसर थे। द्वितीय विश्वयुद्ध में उत्पादक शक्तियों के बड़े पैमाने पर हुए विनाश के बाद उत्पादक निवेश की कई सम्भावनाएँ खुल गयी थीं। इसके अतिरिक्त, राज्य बड़े पैमाने पर कल्याणकारी योजनाओं को चला रहा था जिसके कारण बेरोजगारों और गरीब आबादी को सामाजिक सुरक्षा मिल रही थी। इन योजनाओं को लागू करने का एक कारण समाजवादी शिविर की मौजूदगी भी थी, जहाँ बेरोजगारी और गरीबी का उन्मूलन किया जा चुका था, पूरी जनता के जीवन-स्तर में अभूतपूर्व सुधार आया था और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा से छुटकारा मिल चुका था।
विश्व पूँजीवाद अमेरिकी पूँजी की समृध्दि और द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के पुनर्निर्माण के दम पर फलता-फूलता नजर आ रहा था। 1940 के ही दशक में अमेरिका में फोर्डिज्म अस्तित्व में आया। यह नाम हेनरी फोर्ड के नाम से निकला था जिसने फोर्ड कार कम्पनी की स्थापना की थी। फोर्ड ने अपनी कम्पनी में नयी प्रणाली से उत्पादन शुरू किया। उसने पूरी उत्पादन-प्रक्रिया में तीन चीजों पर जोर दिया जिससे उत्पादन को बड़े से बड़े पैमाने पर अंजाम दिया जा सकता था। पहली चीज थी उत्पादन का अधिकतम सम्भव मानकीकरण। दूसरी थी अत्यधिक उन्नत श्रम-विभाजन जिसे गतिमान असेम्बली लाइन द्वारा कार्यान्वित किया गया। और तीसरी चीज थी, उत्पादन की पूरी प्रक्रिया में कुशल श्रम की भूमिका को न्यूनतम बनाना। इसके साथ ही फोर्ड उस अल्पउपभोगवादी तर्क (अण्डर कंजम्प्शनिस्ट लॉजिक) को मानता था कि मजदूरों को टिकाऊ और विचारणीय मजदूरी नहीं देने से व्यवस्था का संकट बढ़ेगा। ये फोर्डिज्म के कुछ बुनियादी तत्व थे। फोर्डिज्म 1945 से 1973 तक के काल में विश्व पूँजीवाद का संचय प्रभुत्वशाली का रूप बना रहा। इसके जरिये, उत्पादन की लागत को काफी कम किया जा सकता था और मुनाफे के मार्जिन को बढ़ाया जा सकता था। एक कारखाने में पूरे माल का उत्पादन होता था और ये विशालकाय कारखाने हुआ करते थे। फोर्ड ने इस मॉडल को अमेरिका में अपनी कम्पनी में सफलतापूर्वक लागू किया और 1940 के दशक में यह पूँजीवादी विश्व के अलग-अलग हिस्सों में फैल गया। अलग-अलग देशों में इसके अलग-अलग नाम भी पैदा हो गये, जैसे कि जापान में इसे एफ.एस.पी. (फ्लेक्जिबल सिस्टम ऑफ प्रोडक्शन) या जापानी प्रबन्धन व्यवस्था कहा गया। फोर्डिज्म के दौर में कारखाने ने पहली बार इतना बड़ा रूप अख्तियार किया। एक-एक कारखाने में कई बार 15 से 20 हजार मजदूर तक काम करते थे। इन मजदूरों की शक्तिशाली कारखाना यूनियनें हुआ करती थीं। इस दौर में विनियमन का प्रभुत्वशाली रूप था ”कल्याणकारी” राज्य। जब तक कल्याणकारी राज्य रहा, तब तक श्रम और पूँजी के बीच बड़े टकरावों को टालने में पूँजीपति वर्ग सफल रहा, या यूँ कहें कि उस समय यह कर पाना पूँजीपति वर्ग के लिए सम्भव था। पूँजी-संचय की प्रक्रिया कमोबेश सन्तोषजनक रूप से चल रही थी और पूँजीवादी विश्व अपनी समृध्दि के अब तक के सबसे अच्छे दौरों में से एक में था। इस समय पूँजीवादी राज्य मजदूर वर्ग को कारखाना कानूनों के रूप में कुछ सुरक्षा देना अफोर्ड कर सकता था। पूरी दुनिया में श्रम बाजार लचीले नहीं थे और श्रम कानूनों से विनियमित होते थे। इसका एक कारण संगठित मजदूर आन्दोलन का दबाव भी था। और पूँजीपति वर्ग इस हद तक मजबूर भी नहीं था कि इस दबाव की अनदेखी कर और दमन करके अपनी निरंकुशता चलाए। नतीजतन, श्रम कानून अभी ”शर्म कानून” में तब्दील नहीं हुए थे और उन पर एक हद तक अमल किया जाता था।
इस दौर में राष्ट्र-राज्य की प्रबल और प्रत्यक्ष भूमिका था। अधिकांश देश अपनी राष्ट्रीय पूँजी के हितों को ध्यान में रखते हुए संरक्षणवादी नीतियों को अमल में ला रहे थे। पूँजी का प्रवाह वैश्विक पैमाने पर मौजूद तो था, लेकिन राष्ट्रीय बाधाओं के साथ और काफी हद तक नियंत्रित। ‘डॉलर-गोल्ड मानक’ मौजूद था जो इस पूरे तंत्र की स्थिरता को सुनिश्चित भी करता था और उसका प्रतीक भी था। यह अपने आप में एक कीन्सीय उपकरण था। इसके तहत डॉलर का मूल्य सोने की कीमत से बंधा हुआ था और अन्य सभी मुद्राओं के मूल्य का मानक या इकाई डॉलर था। नतीजतन, मौद्रिक उपाय को मनमुआफिक अपनाना किसी भी एक देश के लिए सम्भव नहीं था। कोई गम्भीर आर्थिक संकट अभी निगाह में नहीं था इसलिए कोई भी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था तरल मुद्रा की आवश्यकता को महसूस नहीं कर रही थी और डॉलर-गोल्ड मानक उन्हें एक मौद्रिक स्थिरता प्रदान करता था, जो एक ”कल्याणकारी” कीन्सवादी राज्य के लिए आवश्यक थी।
लेकिन जल्दी ही समृध्दि का यह दौर समाप्त हो गया। तीन दशक बीतते-बीतते पूँजी-संचय संतृप्ति की अवस्था में पहुँचने लगा था। राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर पूँजी की प्रचुरता को खपाना अब सम्भव नहीं हो पा रहा था। अति-उत्पादन का संकट एक बार फिर पूँजीवाद के सामने मुँह बाए खड़ा था। 1970 आते-आते पूरे पूँजीवादी विश्व में मुनाफे की दर ठहरावग्रस्त हो चुकी थी। पूँजी की गति का राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर अब दम घुटने लगा था। जल्द ही संकट अपने चरम पर पहुँच गया। इसे हम 1973 के आर्थिक संकट के रूप में जानते हैं। तमाम उन्नत पूँजीवादी देशों में मुद्रास्फीति की दर आसमान छूने लगी। अमेरिका में ही एक वर्ष में (1973 से 1974 के बीच) यह 12 प्रतिशत से भी ऊपर पहुँच गयी और 1975 तक यह 25 प्रतिशत तक पहुँच चुकी थी; अमेरिका में बेरोजगारी 10 प्रतिशत तक पहुँच गयी और उसके सकल घरेलू उत्पाद में करीब 4 प्रतिशत की गिरावट आई जो भयंकर मन्दी का द्योतक थी। पूरे पूँजीवादी विश्व की अर्थव्यवस्था काफी हद तक अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर निर्भर थी और जल्द ही यह संकट पूरे पूँजीवादी विश्व में फैल गया। इसी बीच एक और संकट का सामना पूँजीवादी विश्व को करना पड़ा। अरब-इजरायल टकराव की वजह से अरब तेल-उत्पादक देशों ने एक तेल-प्रतिबन्ध लगा दिया। इसके कारण 1973 का तेल संकट पैदा हुआ। इसके कारण अमेरिका के पुराने मित्र भी उसका साथ छोड़ने लगे, यहाँ तक कि जापान भी। अन्तत: अमेरिकी विदेश मन्त्री हेनरी किसिंगर ने इजरायल को अपनी सेनाएँ सिनाई और गोलन हाइट्स से वापस बुलाने पर बाध्य किया। इसके बाद अरब देशों ने तेल-प्रतिबन्ध हटा लिया। लेकिन तब तक वैश्विक पूँजीवादी संकट और भयंकर हो चुका था। मुद्रास्फीति के बढ़ने के साथ बेरोजगारी की दर भी अनियंत्रित हो चुकी थी। मुद्रास्फीति, निवेश में गिरावट और बेरोजगारी की बढ़ती दरों के एक साथ बढ़ने को अर्थशास्त्रियों ने स्टैग्फ्लेशन का नाम दिया। 1970 के दशक की मन्दी की चारित्रिक आभिलाक्षणिकता यही थी। लेकिन इन सबके पीछे जो कारण मौजूद था वह था पूँजी की प्रचुरता, अति-उत्पादन और मुनाफे की दर का उत्तरजीविता के न्यूनतम स्तर से नीचे जाना। इस संकट से निपटने के लिए पहले संयुक्त राज्य अमेरिका ने कुछ मौद्रिक उपायों को अपनाना चाहा, लेकिन डॉलर-गोल्ड मानक के रहते यह सम्भव नहीं था। नतीजतन, 1971 में अमेरिका ने डॉलर-गोल्ड मानक से अपने आपको अलग कर लिया और डॉलर को तरल मुद्रा (फ्लोटिंग करेंसी) बना दिया, ताकि इसकी विनिमय दरों में परिवर्तन करके और इसका अवमूल्यन करके संकट से निपटा जा सके। लेकिन इससे भी बात नहीं बनी। स्थिति कहीं ज्यादा गम्भीर हो चुकी थी। अन्य देशों ने भी जल्द ही तरल मुद्रा की नीति को अपनाना शुरू कर दिया लेकिन उन्हें भी उसी असफलता का मुँह देखना पड़ा। श्रम बाजारों के लचीला न होने, यानी कि मजदूर वर्ग को श्रम कानूनों के जरिये मिलने वाली सापेक्षिक सुरक्षा के कारण मजदूर वर्ग के शोषण को और बढ़ाकर मुनाफे की दर को उत्तरजीविता योग्य बना पाना सम्भव नहीं था। मौजूदा संचय के प्रभुत्वशाली रूप और विनियमन के प्रभुत्वशाली रूप के रहते ऐसे किसी भी प्रयास को मजदूर वर्ग के जबर्दस्त संगठित प्रतिरोध का सामना करना पड़ता।
जब सारे प्रयास विफल हो गये तब पूँजीवादी विश्व के चिन्तक-बुध्दिजीवी पूरी पूँजीवादी व्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन के बारे में सोचने लगे। नयी रणनीतियों पर चिन्तन शुरू हो गया जो कुछ वर्षों तक जारी रहा। एक हिस्सा कीन्सीय ढाँचे की भीतर ही समाधान की बात कर रहा था, जबकि दूसरा हिस्सा नवउदारवादी नीतियों, यानी बड़े पैमाने पर निजीकरण, उदारीकरण, पूँजी के प्रवाह पर सभी बाधाएँ खत्म करने, श्रम कानूनों को कचरा पेटी में फेंकने और लचीला श्रम बाजार बनाने, फिक्स्ड मुद्रा विनिमय दर को रद्द करने, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ावा देने और वित्तीय पूँजी पर से हर प्रकार के विनियमन को समाप्त करने की बातें कर रहा था। अन्तत:, इसी पक्ष को विजय मिली और 1980 के दशक की शुरुआत के साथ विश्व में भूमण्डलीकरण और नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों के पहले प्रयोग शुरू हुए।
2.3 1980 के दशक से वर्तमान तक : नवउदारवादी भूमण्डलीकरण का दौर और पूँजीवाद की कार्य-प्रणाली में आए महत्वपूर्ण परिवर्तन
इससे पहले कि हम भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया का एक संक्षिप्त ब्यौरा दें, एक जरूरी पहलू की तरफ ध्यान दिलाना जरूरी है। 1945 से 1973 तक का दौर विश्व पूँजीवाद के लिए आखिरी तेजी का दौर था। इसके बाद, भूमण्डलीकरण की नीतियों ने वित्तीय पूँजी का अभूतपूर्व भूमण्डलीकरण कर पूँजी को कुछ समय के लिए साँस लेने की जगह तो प्रदान की है, लेकिन कभी भी कोई तेजी का दौर देखने में नहीं आया। वास्तव में आर्थिक तेजी की परिभाषा ही बदल गयी। 1970 से अब तक अगर विश्व के कुल सकल घरेलू उत्पाद पर नजर डालें तो हम पातें हैं कि अपवादस्वरूप आए कुछ बेहद छोटे दौरों के अतिरिक्त यह हमेशा नीचे गया है। इस पूरे दौर में एक मन्द मन्दी बनी रही है जो बीच-बीच में गम्भीर संकटों के रूप में आती रही है। इनमें से अधिकांश गम्भीर संकट 1987 के शेयर मार्केट ध्वंस से लेकर 2010 के यूरोपीय सम्प्रभु ऋण-संकट के बीच आए हैं। और इनकी संख्या कम नहीं है। 1980 के दशक में मेक्सिको और लातिनी अमेरिकी देशों का ऋण-संकट; 1987 का वित्तीय संकट; 1990 के दशक में भारत में आया मौद्रिक संकट; 1997 का पूर्वी एशियाई मौद्रिक संकट; 2001 में डॉट-कॉम क्रैश के बाद आया संकट; 2005 में हाउसिंग बुलबुले के फूटने से आया संकट; 2006 से 2009 तक अमेरिका का सबप्राइम ऋण-संकट और अब 2010 में यूरोपीय देशों का सम्प्रभु ऋण-संकट। हमने सभी संकटों का तो अभी जिक्र भी नहीं किया है। 1980 के दशक से ही, यानी भूमण्डलीकरण की नीतियों के लागू होने के बाद के दौर से ही पूँजी का अन्तकारी संकट और अधिक गहराया है। इसने टुकड़ों-टुकड़ों में पूँजी को साँस लेने की जगह दी है। कभी कीन्सियाई उपकरणों, कभी राज्य के हस्तक्षेप तो कभी स्टिम्युलस पैकेजों के जरिये। लेकिन ये सब बेकार सिध्द हो रहे हैं और हर बार आने वाला संकट पिछले संकट से ज्यादा गम्भीर साबित हो रहा है। हम कह सकते हैं कि लेनिन ने साम्राज्यवाद को पूँजीवाद की चरम अवस्था कहा था, तो भूमण्डलीकरण को साम्राज्यवाद की अन्तिम मंजिल कहा जा सकता है। इसके बावजूद, अगर विश्व पूँजीवादी व्यवस्था आज टिकी हुई है और मजदूर आन्दोलन बिखरा हुआ है तो इसका कारण लेनिन के उस कथन में अन्तर्निहित है ”राजनीति निर्धारक होती है, अर्थशास्त्र नहीं।” भूमण्डलीकरण के दौर में विश्व पूँजीवाद ने मजदूर वर्ग के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए कई नयी रणनीतियाँ अपनायी हैं। इसके अतिरिक्त, समाजवादी शिविर के विघटन और विश्व भर में श्रम की शक्तियों के कदम पीछे हटाने से एक निराशा और पस्तहिम्मती का माहौल पैदा हुआ है। इसके अलावा, जो शायद सबसे महत्वपूर्ण है, कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच मौजूद कठमुल्लावाद और नयी परिस्थितियों का मार्क्सवादी विश्लेषण करने की बजाय पुराने फार्मूलों से चिपके रहने की प्रवृत्ति भी किसी भी देश में एक देशव्यापी क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट पार्टी के निर्माण में और मजदूर वर्ग के आन्दोलन को आगे बढ़ाने में भारी बाधा पेश कर रही है। लेकिन विश्व पूँजीवाद के संकट के स्तर की माप मजदूर आन्दोलन की सेहत कभी नहीं हो सकती। मजदूर आन्दोलन के बिखराव की हालत में होने का अर्थ यह नहीं है कि पूँजीवाद वृध्दि कर रहा है या फल-फूल रहा है। उसकी सेहत के बारे में ज्यादा कहने की जरूरत नहीं है। ज्यादा पहले जाने की जरूरत नहीं है, नयी सहस्राब्दि में ही उसके इतिहास पर एक नजर डालने से स्पष्ट हो जाता है कि विश्व पूँजीवाद पहले से ज्यादा मरणासन्न, खोखला और परजीवी हो चुका है और सिर्फ इसलिए टिका हुआ है कि उसे उखाड़ फेंकने वाली कोई ताकत आज संगठित तौर पर मौजूद नहीं है। भूमण्डलीकरण की नीतियों, प्रक्रिया और इतिहास को समझने से विश्व पूँजी की उन रणनीतियों को भी समझा जा सकता है जिनके बूते उसने मजदूर वर्ग के संगठन और प्रतिरोध को विखण्डित किया है।
भूमण्डलीकरण के दौर की नीतियों के प्रमुख तत्व थे निजीकरण, उदारीकरण, पूँजी के वैश्विक प्रवाह से सभी बाधाओं को हटाते जाना, राज्य के सार्वजनिक व्यय में भारी कटौती करके हर प्रकार के विनियमन को समाप्त करना, श्रम कानूनों को ढीला करते हुए श्रम बाजार को लचीला बनाना, प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की खुली छूट देना, तरल विनिमय दरों की स्थापना करना जिससे कि वित्तीय पूँजी का विनियमन समाप्त हो सके, निम्न ब्याज दरें, और राष्ट्रीय बाजार को पूरी तरह खोल देना। इन सभी नीतियों को विश्व बैंक-आई.एम.एफ. ने एक साथ 1980 के दशक में ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम (स्ट्रक्चरल एडजस्टमेण्ट प्रोग्राम) का नाम दिया और तीसरी दुनिया के तमाम संकटग्रस्त देशों को इस कार्यक्रम को लागू करने की कीमत पर ऋण देने की बात की। लातिन अमेरिका के कुछ देश और मेक्सिको ढाँचागत समायोजन कार्यक्रम की नीतियों की पहली प्रयोगभूमि बने। लेकिन जल्दी ही इन नीतियों के विनाशकारी परिणाम सामने आने लगे। भयंकर गरीबी, बेरोजगारी, छँटनी-तालाबन्दी, बेघरों की बढ़ती संख्या और सामाजिक-आर्थिक असुरक्षा के कारण जनता में भारी असन्तोष पैदा हुआ। 1990 के दशक की शुरुआत में भारत की अर्थव्यवस्था की स्थिति भी काफी बुरी हो गयी थी, हालाँकि अभी भारत ने ढाँचागत समायोजन की नीतियों को अपनाया नहीं था। भारत में आया मौद्रिक संकट सार्वजनिक क्षेत्र पूँजीवाद के तहत होने वाले पूँजीवादी विकास के संतृप्त होने की अभिव्यक्ति था। अब निजी पूँजीवाद के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के पूँजी-संचय रूप के तहत साँस ले पाना असम्भव हो गया था। हालाँकि 1986 से ही राजीव गाँधी निजी पूँजीवाद के विनियमन वाली नीतियों (लाइसेंसी राज, आदि) को ”विकास में बाधा” बताने लगे थे। लेकिन इन नीतियों को पूरी तरह तिलांजलि देने का काम 1991 से शुरू हुआ जब नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने अर्थशास्त्री वित्तमन्त्री और विश्व बैंक-अन्तरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की नीतियों के हिमायती नवउदारवादी अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह के संचालन के तहत नयी आर्थिक नीतियों को लागू करना शुरू किया। तब तक मेक्सिको, अर्जेण्टीना व कुछ अन्य लातिन अमेरिकी देशों में ढाँचागत समायोजन की नीतियों के विनाशकारी परिणाम सामने आ चुके थे और पूरी तरह अविनियमित अर्थव्यवस्था के जोखिम साफ दिख रहे थे। इसलिए भारत और चीन जैसे देशों ने ढाँचागत समायोजन की नीतियों को लागू तो किया लेकिन विनियमन को झटके से खत्म करने की बजाय धीरे-धीरे कम करने का रास्ता अख्तियार किया। यही कारण है कि भारत और चीन का हश्र मेक्सिको या लातिन अमेरिका के अन्य देशों के समान नहीं हुआ।
मेक्सिको और लातिन अमेरिकी देशों ने भी नवउदारवाद की नीतियों को बिना नियंत्रण के लागू करने के परिणाम देखने के बाद सीमित रूप में विनियमन की नीतियों को अपनाकर कुछ समय के लिए स्थिति को काबू में किया। लेकिन वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ एकीकरण बढ़ने के साथ ही विश्व में कहीं भी संकट के झटके आने पर उसे हर कोने में महसूस किया जाने लगा था। 1997 में दक्षिण-पूर्व एशियाई देशों की अर्थव्यवस्थाएँ, जिन्हें ‘एशियाई टाइगर्स’ कहा जाता था, मौद्रिक संकट के कारण डगमगाने लगीं। इस संकट से निपटने के लिए विश्व बाजार में निवेश का एक नयी तरकीब चाहिए थी, जो कुछ समय के लिए डॉट कॉम बबल ने दी। यही ई-कॉमर्स और ई-बिजनेस का दौर था। लोगों ने इण्टरनेट पर ही करोड़ों बनाए, जो वास्तव में कहीं नहीं थे। जल्द ही यह बुलबुला भी फूट गया और फिर अमेरिका में आवास बुलबुला पैदा करके स्थिति को कुछ समय के लिए सम्भालने की कोशिश की गयी। लेकिन सट्टेबाजी निर्देशित वित्तीय पूँजी-निवेश की हर ऐसी लहर आगे और भयंकर संकट को ही जन्म दे रही थी। यही आवास बुलबुले के साथ भी हुआ। 2005 आते-आते इसकी हवा निकल गयी। 2006 से लेकर 2008 तक का दौर 1930 के दशक की मन्दी के बाद से सबसे भयंकर मन्दी का दौर बना। यह मन्दी अमेरिका के वित्तीय बाजार से पैदा हुई जिसमें जहरीले ऋणों का कचरा इकट्ठा हो गया था और अमेरिकी बैंकों और वित्तीय संस्थाओं ने इसे ‘कोलैटरल डेट ऑब्लिगेशन’ नामक बॉण्डों के रूप में सारी दुनिया के वित्तीय बाजारों में बिखेर दिया। नतीजा हुआ विश्वव्यापी वित्तीय महासंकट। इस संकट से अभी विश्व पूँजीवाद स्टिम्युलस पैकेज दे-देकर निपटने की कोशिश कर ही रहा था कि 2010 में यूनान से सम्प्रभु ऋण संकट की शुरुआत हो गयी जो अब पुर्तगाल, स्पेन और कुछ अन्य दक्षिण यूरोपीय देशों को अपनी चपेट में ले चुका है।
भूमण्डलीकरण के इस दौर में तीन महत्वपूर्ण परिघटनाएँ घटित हुईं जो मजदूर आन्दोलन के लिए विशेष रूप से विचारणीय हैं। पहली परिघटना थी नवउदारवादी भूमण्डलीकरण की नीतियों द्वारा श्रम बाजारों का हर प्रकार का विनियमन समाप्त करके एक लचीला श्रम बाजार बनाना। इसका अर्थ था कि मजदूरों से हर उस कानूनी अधिकार को छीन लेना और उससे हर वह कानूनी सुरक्षा छीन लेना जो उसे भर्ती से लेकर काम करने की स्थितियों और न्यूनतम मजदूरी तक और कार्य दिवस की लम्बाई तक पूँजी के आक्रमणों के समक्ष थोड़ी सुरक्षा मुहैया कराते थे। इसके साथ ही पहले से स्थायी और औपचारिक रोजगार-प्राप्त मजदूर आबादी की भी बड़े पैमाने पर छँटनी की गयी। नये लचीले नियम-कानूनों के तहत मजदूर इसके खिलाफ कारगार तौर पर आवाज भी नहीं उठा सकते थे। दूसरी परिघटना थी वैश्विक पैमाने पर फोर्डिज्म का समाप्त होना। विश्व पैमाने पर पूँजी के प्रवाह को खुली छूट मिलने के साथ ही उसके लिए पूरे विश्व में कच्चे माल और सस्ते श्रम के लिए घूमना सरल हो गया। साथ ही, मजदूर-विरोधी नीतियों को सुचारू तरीके से लागू करना फोर्डिस्ट बड़े पैमाने के उत्पादन के मौजूद रहते, और कारखाना स्तर पर बड़े पैमाने पर संगठित मजदूर आबादी के रहते बहुत मुश्किल था। इसलिए भी फोर्डिस्ट उत्पादन के तौर-तरीकों को छोड़ना अब जरूरी हो गया था। आर्थिक तौर पर भी और राजनीतिक तौर पर भी। तीसरी बड़ी परिघटना थी, इस दौर में होने वाली सूचना प्रौद्योगिकी और संचार-परिवहन जगत की क्रान्ति। पूँजी के मुक्त प्रवाह की गति इसने पहले से कहीं अधिक तेज बना दी। मालों से लेकर पूँजी तक के वैश्वीकरण की पूरी प्रक्रिया को इस क्रान्ति ने अभूतपूर्व गति प्रदान की। राष्ट्र की सीमाओं के पार पूँजी के यात्रा करने को इसने बहुत तेज और आसान बना दिया। राष्ट्रपारीय निगम (ट्रांसनेशनल कार्पोरेशन) 1980 के दशक के पहले भी मौजूद थे लेकिन दुनिया भर में उनके प्रभुत्व को इसीलिए 1980 के दशक के बाद से विशेष रूप से अनुभव किया जा सकता था। अब पूँजी सस्ते श्रम और सस्ते कच्चे माल की तलाश में पूरे विश्व में कहीं भी तेजी से और निर्बन्ध घूम सकती थी। सूचना-प्रौद्योगिकी व संचार क्रान्ति ने फोर्डिस्ट उत्पादन को तोड़ना न सिर्फ आसान बना दिया, बल्कि फायदेमन्द भी बना दिया। अब पूरा का पूरा माल एक ही कारखाने में तैयार करने की कोई आवश्यकता नहीं थी। अगर ‘नाइकी’ को जूते का सोल बनवाने के लिए सस्ता श्रम और सस्ता कच्चा माल इण्डोनेशिया में, फीते के उत्पादन के लिए सस्ता श्रम और कच्चा माल टर्की में, चमड़े की बॉडी के लिए सस्ता श्रम और कच्चा माल मेक्सिको में मिलता है, और इन सभी अलग-अलग हिस्सों को जोड़ने की कुशलता रखने वाला सस्ता श्रम ब्राजील में मिलता है तो वह एक कारखाने की बजाय चार कारखाने लगाएगी। कारण यह कि परिवहन और संचार इतने सस्ते और तेज हो चुके हैं कि इससे उत्पादन की लागत में जो मामूली-सा फर्क आता है, उससे कहीं ज्यादा फायदा अलग-अलग जगहों पर सस्ते श्रम और सस्ते कच्चे माल के दोहन से मिलता है। ऊपर से इन देशों में किसी भी किस्म के श्रम कानून का कोई झंझट नहीं होता और सारा काम ठेके और उपठेके पर करवाकर हर प्रकार के सिरदर्द से बचा जा सकता है। एक अतिरिक्त और अच्छा-खासा बड़ा फायदा यह होता है कि जब काम इस प्रकार होता है तो यूनियन वगैरह के झंझट से भी पूँजीपति मुक्ति पा जाता है।
इन तीनों परिवर्तनों ने तीसरी दुनिया के देशों में पिछले तीन दशकों में दुनिया भर में और विशेष रूप में तीसरी दुनिया के अपेक्षतया पिछड़े पूँजीवादी देशों में भारी पैमाने पर पूरी उत्पादक अर्थव्यवस्था का अनौपचारिकीकरण किया है। श्रम के अनौपचारिकीकरण का अर्थ है मजदूरों के स्थायी तय वेतन वाले रोजगार से बेदखल कर उन्हें कैजुअल, ठेका और दिहाड़ी मजदूरों की कतार में खड़ा कर देना। यह मजदूर आबादी कहीं ज्यादा अरक्षित, कम मजदूरी पर काम करने को तैयार और असंगठित होती है। यह पहले से भयंकर संकट झेल रही पूँजी के लिए मुनाफे की दर को थोड़ा बढ़ाने का काम करता है। अर्थव्यवस्था के अनौपचारिकीकरण के दो पहलू हैं। एक है मजदूर आबादी का अनौपचारिकीकरण, जिसका हमने अभी जिक्र किया। दूसरा पहलू है एक बहुत बड़े अनौपचारिक क्षेत्र का अस्तित्व में आना। इसका अर्थ है बड़े पैमाने पर ऐसी छोटी वर्कशॉपों, कारखानों, आदि का अस्तित्व में आना जो या तो इतने छोटे हैं (भारत में 10 मजदूर और बिजली के साथ, या 20 मजदूर और बिना बिजली के) कि कानूनी तौर पर वे कारखाना अधिनियम के अन्तर्गत ही नहीं आते और इसलिए राज्य के विनियमन के दायरे से बाहर चले जाते हैं; या फिर ऐसे कारखाने जो कानूनी तौर पर तो कारखाना अधिनियम के तहत आते हैं लेकिन वे गैर-कानूनी तौर पर बिना किसी लाइसेंस और विनियमन के चल रहे हैं और सारे कानूनों को ताक पर रखकर मजदूरों का शोषण कर रहे हैं। अर्थव्यवस्था के अनौपचारिकीकरण की इस प्रक्रिया के आकार, इतिहास और प्रकृति पर हम आगे नजर डालेंगे।
3. अनौपचारिकीकरण : कितना और कैसा?
3.1 क्या है अनौपचारिकीकरण?
अनौपचारिकीकरण की चर्चा करते हुए जब हम कहते हैं कि 1970 के दशक के साथ ही फोर्डिस्ट बड़े पैमाने के उत्पादन का हृास हुआ और एकीकृत असेम्बली लाइन विखण्डित हुई, तो इसका कतई यह मतलब नहीं है कि असेम्बली लाइन ही समाप्त हो गयी और अब असेम्बली लाइन पर उत्पादन नहीं होता। यह स्पष्टीकरण देने का एक निश्चित कारण है। जब पहली बार हमने यह बात कही थी, तो कुछ जल्दबाज आलोचकों ने हमें कुछ इसी तरह से उध्दृत किया और सन्दर्भों से काटकर नतीजे निकाले और फिर एक पुतला खड़ा करके उस पर काफी बाण-वर्षा की और यह आरोप लगा दिया कि हम यह कह रहे हैं कि अब मजदूर वर्ग उत्पादन ठप्प करने के अपने अमोघ अस्त्र से वंचित हो गया है! जबकि हमारा कहना सिर्फ यह था कि इस अमोघ अस्त्र का उपयोग पुराने तरीके से मुश्किल होता जा रहा है और इसके इस्तेमाल के दूसरे रास्ते और रणनीतियाँ निकलनी होंगी! अब फिर से ऐसा कोई भ्रम न हो इसके लिए हम पहले ही इस बात को स्पष्ट कर देना चाहते हैं। असेम्बली लाइन के विखण्डित होने का अर्थ उसका समाप्त होना नहीं है। इसका अर्थ यह भी नहीं है कि उत्पादन पहले से छोटे पैमाने पर हो रहा है। उल्टे इसका अर्थ तो यह है कि उत्पादन अभी भी बड़े पैमाने पर ही हो रहा है, बल्कि कहना चाहिए कि पहले से भी बड़े पैमाने पर। बड़े पैमाने के उत्पादन का अर्थ कारखाने की छत के आकार से नहीं होता है। बड़े पैमाने के उत्पादन की माप उसके निवेश और उत्पादन के आकार से होती है। सिर्फ इसलिए कि संचय का प्रभावी रूप एकीकृत असेम्बली लाइन पर होने वाले उत्पादन से बदलकर विखण्डित वैश्विक असेम्बली लाइन पर होने वाला उत्पादन बन गया, यह कहना राजनीतिक और आर्थिक नौसिखुआपन होगा कि उत्पादन अब छोटे पैमाने पर हो रहा है। इसका अर्थ सिर्फ इतना है कि उत्पादन प्रक्रिया एक कारखाने के स्तर पर पूरी नहीं होती बल्कि माल के अलग-अलग हिस्सों के उत्पादन के मद्देनजर सस्ते श्रम और कच्चे माल की उपलब्धता के लिहाज से कई कारखानों में होता है जो भौगोलिक तौर पर भूमण्डलीकरण के इस दौर में कई बार एक देश में नहीं बल्कि कई देशों में फैला हुआ है। यहाँ यह भी स्पष्ट कर देना जरूरी है कि पब्लिक सेक्टर और निजी क्षेत्र के कई आधारभूत एवं अवरचनागत उद्योगों, जिन्हें कोर सेक्टर भी कहा जाता है, के कुछ उपक्रमों में अभी भी फोर्डिस्ट असेम्बली लाइन के अवशेष और एक कारखाने में मजदूरों की भारी तादाद की मौजूदगी देखी जा सकती है। लेकिन पहली बात, यह आज की प्रभावी और विकासमान प्रवृत्ति नहीं है, बल्कि ह्रासमान प्रवृत्ति है। दूसरी बात, ऐसे कारखानों में भी ठेकाकरण, उपठेकाकरण, कैजुअलाइजेशन और पुरानी स्थायी नौकरी वाली मजदूर आबादी के संकुचन का सिलसिला लगातार जारी है। यह एक ग्लोबल ट्रेण्ड है और भारत में भी यही स्थिति है। यदि ऐसे कुछ नये बड़े कारखाने खुल रहे हैं, जिनमें मजदूरों की बड़ी आबादी काम करती है तो वहाँ भी श्रम के अनौपचारिकीकरण की प्रवृत्ति ही मुख्य एवं हावी प्रवृत्ति है। इसकी विस्तृत चर्चा हमने आगे की है, लेकिन कोई भ्रम न पैदा हो इसलिए एक संक्षिप्त स्पष्टीकरण यहाँ आवश्यक था।
अनौपचारिकीकरण की प्रक्रिया के दो अंग हैं। पहला है पूरी अर्थव्यवस्था में एक विशालकाय अनौपचारिक क्षेत्र का पैदा होना। इसका अर्थ है विशाल संख्या में ऐसी औद्योगिक इकाइयों का पैदा होना जो किसी भी प्रकार के कानून या सरकार द्वारा लागू किसी भी विनियमन के अन्तर्गत नहीं आतीं। इनमें घरों में उपठेकाकरण के तहत होने वाले काम से लेकर, हैण्डीक्राफ्ट उद्योग, वर्कशॉप, छोटे-छोटे कारखाने तक शामिल हैं। इसमें काम करने वाली श्रमिक आबादी का 98 प्रतिशत हिस्सा ऐसा है जिसके पास निश्चित मजदूरी वाला पक्का नियमित रोजगार नहीं है और किसी भी प्रकार की कानूनी सुरक्षा उन्हें हासिल नहीं है।
अनौपचारिकीकरण की प्रक्रिया का दूसरा अंग है, संगठित और असंगठित, दोनों ही क्षेत्र के कारखानों की कार्यशक्ति का अनौपचारिकीकरण। यानी कि जो मजदूर आबादी संगठित क्षेत्र में पक्के रोजगार और नियमित पक्के वेतन के साथ काम कर रही थी, उसके आकार को ठेकाकरण-उपठेकाकरण और छँटनी के जरिये तेजी से छोटा करना। यानी संगठित क्षेत्र में भी अनौपचारिक करार के तहत काम करने वाले मजदूरों के हिस्से को लगातार बढ़ाना।
आइये देखें कि अलग-अलग सरकारी स्रोत और श्रम इतिहासकार और अर्थशास्त्री इस प्रक्रिया को किस रूप में परिभाषित करते हैं।
2006 में संयुक्त प्रगतिशील गठबन्धन सरकार ने अपने पहले कार्यकाल में अर्जुन सेनगुप्ता के नेतृत्व में ‘नेशनल कमीशन ऑन एण्टरप्राइजेज इन दि अनऑर्गनाइज्ड सेक्टर‘ का गठन किया। इस समिति ने अनौपचारिकीकरण की जो परिभाषा दी, वह एक सटीक परिभाषा मानी जा सकती है। इस समिति ने अनौपचारिक क्षेत्र और अनौपचारिक श्रमिक वर्ग में भेद किया और इसे समझना जरूरी है। आइये देखें कि यह समिति इन दोनों अवधारणाओं को कैसे परिभाषित करती है।
”अनौपचारिक क्षेत्र में व्यक्तियों या परिवारों के मालिकाने वाले, जो कि स्वयं भी उसमें संलग्न होते हैं, वे सभी अनिगमित निजी उद्यम आते हैं जो वस्तुओं या सेवाओं का उत्पादन मालिकाने या साझीदारी के आधार पर करते हैं और जिसमें 10 से कम मजदूर लगे होते हैं।” (अध्याय-2, एन.सी.ई.यू.एस., रिपोर्ट ऑन डेफिनिशनल एंड स्टैटिस्टिकल इशूज रिलेटिंग टू दि इनफॉर्मल इकॉनमी, भारत सरकार, दिसम्बर, 2008, नई दिल्ली, अनुवाद हमारा½
निस्सन्देह इस प्रकार के उद्यमों में काम करने वाली लगभग 98 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक मजदूर के रूप में काम करती है, जिसके पास कोई रोजगार सुरक्षा, सामाजिक सुरक्षा, श्रम कानूनों का संरक्षण, काम करने की अच्छी स्थितियाँ, न्यूनतम मजदूरी, 8 घण्टे का कार्यदिवस, पेंशन, ई.एस.आई. आदि की सुविधा मौजूद नहीं है। लेकिन यह समिति इस बात पर काफी जोर देती है कि आज औपचारिक क्षेत्र/संगठित क्षेत्र में भी काम करने वाली मजदूर आबादी का तीन-चौथाई से भी ज्यादा हिस्सा अनौपचारिक मजदूर में तब्दील हो चुका है, जिसका कारण है पिछले तीन दशक से जारी ठेकाकरण, कैजुअलाइजेशन और दिहाड़ीकरण की प्रक्रिया। इसलिए, पूरे के पूरे अनौपचारिक मजदूर वर्ग को एक अलग और सम्पूर्ण परिभाषा की आवश्यकता है। यह समिति अनौपचारिक मजदूर वर्ग की परिभाषा निम्न प्रकार से देती है :
”असंगठित/अनौपचारिक मजदूरों में वे मजदूर शामिल हैं जो अनौपचारिक क्षेत्र या पारिवारिक उद्यम में काम करते हैं, जिनमें उन नियमित मजदूरों को नहीं गिना जाना चाहिए जिनके पास नियोक्ता द्वारा प्रदान सामाजिक सुरक्षा लाभ मौजूद हैं, और साथ ही औपचारिक क्षेत्र के वे मजदूर भी शामिल हैं जिनके पास नियोक्ता द्वारा प्रदत्त रोजगार सुरक्षा और सामाजिक सुरक्षा लाभ नहीं मौजूद हैं।” (वही, अनुवाद हमारा½
स्पष्ट है कि अनौपचारिक मजदूर वर्ग का अर्थ सिर्फ अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली मजदूर आबादी नहीं है, बल्कि औपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली वह आबादी भी है जो ठेकाकरण, कैजुअलाइजेशन या दिहाड़ीकरण का शिकार हो चुकी है।
असंगठित मजदूर आबादी की एक अलग परिभाषा मौजूद है जो 1969 के राष्ट्रीय श्रम आयोग ने दी थी जो इस प्रकार है : ”जो एक साझे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए संगठित होने में अक्षम हैं।” ऐसी आबादी आम तौर पर वही है जो अनौपचारिक मजदूर वर्ग में आती है। लेकिन फिर भी दोनों अवधारणाओं में फर्क है। प्रसिध्द अर्थशास्त्री के.पी. कानन ने अनौपचारिक क्षेत्र और अनौपचारिक मजदूर वर्ग के बीच अर्जुन सेनगुप्ता समिति द्वारा किये गये भेद को उपयुक्त बताया है और कहा है कि आज के समय में क्षेत्र की अवधारणा की बजाय वर्ग की अवधारणा पर जोर देना जरूरी है। (पृ. 4-6, डुअलिज्म, इनफॉर्मैलिटी और सोशल इनिक्वॉलिटी : एन इनफॉर्मल इकॉनमी पर्सपेक्टिव ऑफ दि चैलेंज ऑफ इन्क्लूजिव डेवेलपमेण्ट इन इण्डिया, दि इण्डियन जर्नल ऑफ लेबर इकोनॉमिक्स, वॉल्यूम 52, नम्बर 1, जनवरी-मार्च, 2009)। अब संक्षिप्त रूप में औपचारिक/अनौपचारिक और संगठित/असंगठित की श्रेणियों को समझ लिया जाये। औपचारिक क्षेत्र का अर्थ है फैक्टरी लेजिस्लेशन के जरिये सरकारी विनियमन के तहत आने वाली सभी औद्योगिक और वाणिज्यिक इकाइयाँ; अनौपचारिक क्षेत्र का अर्थ है वे औद्योगिक और वाणिज्यिक इकाइयाँ जिनमें 10 से कम मजदूर का करते हैं और बिजली कनेक्शन होता है, या 20 से कम मजदूर काम करते हैं और बिजली कनेक्शन नहीं होता है। संगठित मजदूर आबादी का अर्थ है जो किसी भी रूप में किसी संगठन या यूनियन के रूप में संगठित हैं और अपने आर्थिक हितों के लिए लड़ सकती है; असंगठित आबादी वह है जो किसी भी रूप में यूनियन या किसी संगठन में एकजुट या संगठित नहीं है। अगर हम अनौपचारिक क्षेत्र की जगह अनौपचारिक मजदूर वर्ग की बात करें तो उसका मतलब कमोबेश वही होगा जो असंगठित मजदूर वर्ग का होता है; लेकिन अगर हम औपचारिक क्षेत्र की जगह संगठित मजदूर वर्ग की बात करें तो उसका अर्थ वही नहीं होगा जो औपचारिक मजदूर वर्ग का होता है। क्योंकि औपचारिक मजदूर वर्ग की भी बड़ी आबादी असंगठित ही है।
हालाँकि, ये सरकारी परिभाषाएँ हैं, लेकिन सिर्फ सरकारी कहकर इन्हें खारिज नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये आज की सच्चाई को काफी हद तक सही पकड़ती हैं। इनके नतीजे अलग होते हैं, लेकिन सूचनाएँ और डेटा नहीं। इनका नतीजा होता है पूँजीवादी ढाँचे के भीतर कल्याणवाद और ”समेकित विकास” और हमारा नतीजा होता है क्रान्ति!
अब कुछ गैर-सरकारी श्रम इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों की परिभाषा पर एक निगाह डाल लेने से अनौपचारिकीकरण की अवधारणा और स्पष्ट हो जाएगी।
भारत में अनौपचारिक क्षेत्र और अनौपचारिक मजदूर वर्ग पर काम करने वालों में बारबरा हैरिस-व्हाइट और नन्दिनी गुप्तू और यान ब्रीमन को अग्रणी माना जाता है। बारबरा हैरिस-व्हाइट और नन्दिनी गुप्तू ने अनौपचारिकीकरण की परिभाषा निम्न प्रकार से दी है :
” ‘संगठित क्षेत्र मजदूर‘ का अर्थ है वे मजदूर जो नियमित मजदूरी या वेतन पर, किसी पंजीकृत फर्म में हैं और जिनके पास राज्य द्वारा प्रदत्त सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था और उसके श्रम कानून के फ्रेमवर्क तक पहुँच है। बाकी सभी यानी कुल श्रमिक आबादी का 93 प्रतिशत उस क्षेत्र में काम करता है जिसे हम ‘असंगठित‘ या ‘अनौपचारिक‘ अर्थव्यवस्था कहते हैं। वैसे तो यह समझा जाता है कि असंगठित क्षेत्र में काम करने वाली फर्म छोटी होती हैं। लेकिन वास्तव में उनमें अक्सर विचारणीय संख्या में मजदूर होते हैं, कई बार सैंकड़ों में, लेकिन उन्हें सोचे-समझे तौर पर कैजुअल कॉण्ट्रैक्ट पर रखा जाता है।” (पृ. 89, मैपिंग इण्डियाज वर्ल्ड ऑफ अनऑर्गनाइज्ड लेबर, वर्किंग क्लासेज, ग्लोबल रियैलिटीज, सोशलिस्ट रजिस्टर, 2001] अनुवाद हमारा½
हैरिस-व्हाइट और गुप्तू का अध्ययन बतलाता है कि औपचारिक क्षेत्र में तीन प्रक्रियाओं के जरिये अनौपचारिकीकरण को लगातार बढ़ाया गया है : ठेकाकरण व उपठेकाकरण, ‘पुटिंग आउट सिस्टम‘, और कैजुअलाइजेशन। सरकारी ऑंकड़े भी इस प्रेक्षण की वस्तुपरकता को पुष्ट करते हैं। आज के समय में जो ‘पुटिंग आउट सिस्टम’ अस्तित्व में आया है वह कोई मध्ययुगीन संस्था नहीं है। आज ‘पुटिंग आउट सिस्टम’ के तहत पीस रेट में मिलने वाले काम को हजारों परिवार अपने-अपने घरों में करते हैं, जैसे कि बीड़ी बनाने, चूड़ी बनाने से लेकर ऑटोमोबाइल और निर्माण उद्योग में काम आने वाले पुरजे बनाने तक का काम। ये घरेलू उद्यम इकाइयाँ पूँजी के विशाल सर्किट का अंग होती हैं। इनके बारे में लेनिन ने स्पष्ट रूप में लिखा है जिसे हम आगे उध्दृत करेंगे, जब हम अनौपचारिक मजदूर आबादी की प्रकृति और चरित्र पर बात करेंगे।
यान ब्रीमन भारत में अनौपचारिक क्षेत्र का अध्ययन करने वाले अग्रणी इतिहासकार हैं। ब्रीमन ने इस विषय पर कई प्रसिध्द पुस्तकें और लेख लिखे हैं और भारतीय मार्क्सवादी अकादमीशियनों के बीच अनौपचारिक मजदूर वर्ग को अध्ययन के केन्द्र में लाने का श्रेय ब्रीमन को ही जाना चाहिए। ब्रीमन इस पूरी परिघटना का द्वन्द्वात्मक विश्लेषण करते हुए और अनौपचारिकीकरण के मूल को तलाशते हुए लिखते हैं कि 1970 के दशक से भूमि सम्बन्धों में परिवर्तन और ‘हरित क्रान्ति’ के दौर से गाँव से शहरों की ओर मजदूरों का प्रवास बेहद तेजी से बढ़ा। लाखों की तादाद में आने वाले ये श्रमिक शहरों में नियमित और औपचारिक रोजगार पाने में सफल नहीं हो पाए और शहर के ‘अतिरिक्त’ श्रम पूल में एकत्र होते गये। इस पूरे पूल का उपयोग पूँजी हमेशा से अपने मुनाफे को बढ़ाने के लिए करती है और 1980 के दशक में नवउदारवादी नीतियाँ लागू होने के बाद से यह काम वैश्विक पैमाने पर हुआ और भारत में विशेष रूप से यह 1990 के दशक से शुरू हुआ। ब्रीमन बताते हैं कि अनौपचारिक क्षेत्र व मजदूर आबादी का जिक्र सबसे पहले कीथ हार्ट नामक एक मार्क्सवादी नृविज्ञानी ने 1973 में घाना के बारे में अपने अध्ययन में किया था। इसमें कीथ हार्ट घाना के शहरों की सड़कों का जिक्र करते हुए लिखते हैं कि पूँजीवादी विकास के आगे बढ़ने के साथ शहरी सड़कों का दृश्य बदलने लगा। एक बहुत बड़ी रंग-बिरंगी आबादी नजर आने लगी जिसमें छोटे-मोटे काम करने वाले तमाम मजदूर शामिल थे, जूता साफ करने वाले, रेहड़ी-खोमचा लगाने वाले, बेलदार, ठेलेवाले, आदि। (इनफॉर्मल इनकम अपॉर्चुनिटीज एंड अर्बन इम्प्लॉयमेण्ट इन घाना, जर्नल ऑफ मॉर्डन अफ्रीकन स्टडीज, 11, 1 : पृ. 61-89, 1973)
ब्रीमन आगे बताते हैं कि भारतीय पूँजीवादी विकास, या कहें कि 1950 से 1980 के बीच स्वाधीन होने वाले सभी देशों में जिस प्रकार का विकास हुआ उसमें ऐसी अनौपचारिक अर्थव्यवस्था का अस्तित्व में आना स्वाभाविक था। यह कोई पिछड़ा, आधुनिक-पूर्व, आदिम मजदूर वर्ग नहीं था। इस पूरे वर्ग में आन्तरिक गतिमानता इतनी ज्यादा थी, कि वह कारखाने का मजदूर भी माना जा सकता था, रेहड़ी-खोमचे वाला भी, पटरी दुकानदार भी, रिक्शेवाला भी, और खेतिहर मजदूर भी! क्योंकि साल भर में अक्सर वह ये सारे काम करता था! ऐसे में उसे पिछड़ा या आदिम मानना एक पूर्वग्रह है। ऐसा भी नहीं था कि वह कुशल नहीं था। बल्कि वह बहुकुशल है। ब्रीमन ने अनौपचारिक क्षेत्र और इसकी मजदूर आबादी की प्रकृति पर जो विचार रखे हैं हम उन पर आगे वापस आएँगे।
प्रसिध्द श्रम इतिहासकार प्रभु महापात्र बताते हैं कि अनौपचारिक क्षेत्र के मूल औपनिवेशिक पूँजीवादी व्यवस्था के दौरान ही देखे जा सकते हैं। अनौपचारिक क्षेत्र को महापात्र विनियमन के परे मानने को गलत समझते हैं। उनके अनुसार वर्ग और क्षेत्र दोनों की ही अनौपचारिकता को शुरू से ही विनियमित किया गया है। हाँ, यह विनियमन उतने प्रत्यक्ष कानूनों द्वारा नहीं होता है। पूँजीवाद को अनौपचारिक क्षेत्र की आवश्यकता हमेशा से रही है और वह उसे कानूनों से परे अन्य तरीकों से विनियमित करता है। महापात्र बताते हैं कि मार्क्स ने स्पष्ट रूप से दिखलाया था कि पूँजी श्रम को केवल अपनी राजसत्ता के जरिये विनियमित नहीं करती है, बल्कि निजी अनौपचारिक तौर पर भी विनियमित करती है। इसलिए अनौपचारिकता कोई ऐसी चीज नहीं है जो पूँजीवादी व्यवस्था के विचलन से पैदा हुई हो। यह पूँजी की कार्य-प्रणाली का शुरू से ही अभिन्न अंग रही है। अनौपचारिकता को औपचारिक विनियमन का अभाव माना जा सकता है, विनियमन का अभाव नहीं। (देखें मार्क्स, पूँजी खण्ड-1 का कारखाना कानून से सम्बन्धित अध्याय)। (पृ. 29-46, मेकिंग ऑफ दि कुली : लीगल कंस्ट्रक्शन ऑफ लेबर रिलेशंस इन कलोनियल इण्डिया एण्ड इन दि कैरीबियन, लेबर इन दि पब्लिक एरीना, वी.वी. गिरी नेशनल लेबर इंस्टीटयूट, नोएडा, 2004)
इसी प्रकार जियर्ट डि नेवे, दिलीप सिमियन, रोहिणी हेंसमान, आर्यन डि हान, आदि जैसे तमाम श्रम इतिहासकार और अर्थशास्त्री हैं जिन्होंने अनौपचारिक क्षेत्र और अनौपचारिक मजदूर आबादी की परिभाषाएँ दी हैं। उनकी रचनाओं के लिए आप नीचे सन्दर्भ-सूची देख सकते हैं।
मार्क्स और लेनिन ने इस अनौपचारिक मजदूर वर्ग को किस प्रकार देखा (हालाँकि, उन्होंने कभी इस शब्द का जिक्र नहीं किया) इसे हम आगे देखेंगे।
3.2 अनौपचारिक मजदूर वर्ग : संख्या, आकार और उनका क्षेत्रवार वितरण
अनौपचारिक मजदूर वर्ग आज भारत के मजदूर वर्ग के आन्दोलन के लिए महत्वपूर्ण और केन्द्रीय प्रश्न क्यों बन गया है? इस प्रश्न का सीधा और स्पष्ट उत्तर यह है : क्योंकि यह कुल मजदूर वर्ग का 93 प्रतिशत है! अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग के आकार और संख्या और साथ ही उनके क्षेत्रवार वितरण पर एक निगाह डालने से स्थिति और स्पष्ट हो जाती है।
भारत की कुल मजदूर आबादी इस समय करीब 45.8 करोड़ है। इसमें गरीब और परिधिगत किसानों की आबादी शामिल नहीं है। यह शुद्ध रूप से ग्रामीण और शहरी सर्वहारा वर्ग की आबादी है। इसमें से 93 प्रतिशत आबादी अनौपचारिक क्षेत्र में काम करने वाली असंगठित/अनौपचारिक मजदूर आबादी है। बाकी 7 प्रतिशत आबादी औपचारिक क्षेत्र में काम करती है जिसमें से तीन-चौथाई ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मजदूर है या अगर वह स्थायी है भी तो किसी यूनियन में संगठित नहीं है। जो 3 प्रतिशत यूनियनों में संगठित हैं भी, उनमें से भी अधिकांश का संशोधनवादी और फासीवादी ट्रेड यूनियन नौकरशाही से विश्वास उठ चुका है। जो बाकी बचते हैं वे अब अपने आपको मजदूर समझते ही नहीं हैं। उन्हें काफी हद तक उस आबादी में गिना जा सकता है जिसे लेनिन ने कुलीन मजदूर वर्ग (लेबर अरिस्टोक्रेसी) कहा था। यह बेवजह नहीं है कि हाल ही में सीटू को पछाड़ते हुए फासीवादी भारतीय मजदूर संघ सबसे बड़ी ट्रेड यूनियन बन गया। यह 3 प्रतिशत संगठित मजदूर आबादी की संरचना और प्रकृति में आने वाले महत्वपूर्ण बदलावों की ओर इशारा करता है। यान ब्रीमन एक स्थान पर लिखते हैं : ”श्रम के पूरे लैण्डस्केप में, संगठित क्षेत्र में काम करने वाले औद्योगिक मजदूर एक विशेष लाभ-प्राप्त और संरक्षित एन्क्लेव हैं।…अपने सुरक्षित रोजगार की स्थिति के अलावा, वे उच्च सामाजिक प्रोफाइल और एक पर्याप्त आरामदेह जीवनशैली लागू करने वाले ‘कुलीन‘ वर्ग का निर्माण करते हैं।” (पृ. 407, दि स्टडी ऑफ इण्डस्ट्रियल लेबर इन पोस्ट-कलोनियल इण्डिया – दि इनफॉर्मल सेक्टर : ए कन्क्लूडिंग रिव्यू, दि वल्ड्र्स ऑफ इण्डियन इण्डस्ट्रियल लेबर, सेज पब्लिकेशन, 1999) खैर, मूल मुद्दे पर वापस आते हैं। कुल मिलाकर 97 प्रतिशत मजदूर ऐसे हैं (औपचारिक और अनौपचारिक क्षेत्र, दोनों में ही) जो कि असंगठित/अनौपचारिक हैं।
बारबरा हैरिस-व्हाइट और नन्दिनी गुप्तू बताती हैं कि 7 प्रतिशत औपचारिक मजदूर आबादी कुल मजदूरी का करीब 34 प्रतिशत हिस्सा पाती है, जबकि 93 प्रतिशत अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी को मात्र 66 प्रतिशत हिस्सा प्राप्त होता है। 1977 से 1994 के बीच अनौपचारिक अर्थव्यवस्था की वृध्दि दर 2.6 प्रतिशत रही, जबकि औपचारिक क्षेत्र में वृध्दि 1 प्रतिशत के करीब रही। अनौपचारिक क्षेत्र की कुल मजदूर आबादी का एक बड़ा हिस्सा अपने घर में काम करता है। इसका बड़ा हिस्सा वह है जो विखण्डित असेम्बली लाइन के अंग के रूप में अपने घर में पारिवारिक श्रम के साथ काम करता है। यान ब्रीमन लेनिन का अनुसरण करते हुए मानते हैं कि इस आबादी को उजरती मजदूर माना जाना चाहिए। लेनिन ने इसे उद्योग का ‘आउटसाइड डिपार्टमेण्ट’ कहा था। हैरिस-व्हाइट और गुप्तू भी इस पर सहमत हैं। घर में काम करने वाले मजदूरों को सरकारी ऑंकड़े अक्सर ‘स्वरोजगार-प्राप्त’ आबादी में जोड़ते हैं जो कि भ्रामक है। यह राज्य के ऊपर से जिम्मेदारी को हटाता है। यह श्रेणी ही इसलिए ईजाद की गयी है। लेनिन ने इसे एक भ्रामक श्रेणी माना है। ऐसे तथाकथित ‘स्वरोजगार प्राप्त’ मजदूर कुल मजदूर आबादी का 56 प्रतिशत है। कुल कैजुअल मजदूरों का प्रतिशत 29 प्रतिशत है। (उपरोक्त सभी ऑंकड़े इस स्रोत से : बारबरा हैरिस-व्हाइट व नन्दिनी गुप्तू, मैपिंग इण्डियाज वर्ल्ड ऑफ अनऑर्गनाइज्ड लेबर, वर्किंग क्लासेज, ग्लोबल रियैलिटीज, सोशलिस्ट रजिस्टर, 2001)। देश के सकल राष्ट्रीय उत्पाद का 60 प्रतिशत, कुल आय का 68 प्रतिशत, कुल बचत का 60 प्रतिशत, कुल कृषि निर्यात का 31 प्रतिशत और कुल औद्योगिक निर्यात का 41 प्रतिशत अनौपचारिक क्षेत्र से आता है। (इण्डियाज सोशली रेग्युलेटेड इकॉनमी, बारबरा हैरिस-व्हाइट, क्रिटिकल क्वेस्ट, नई दिल्ली, 2007)।
अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रपट के ऑंकड़ों ने असंगठित/अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की तस्वीर को सबसे अधिक साफ किया है। यह रिपोर्ट बताती है कि अगर 2011-12 में भारतीय अर्थव्यवस्था 7 प्रतिशत की रफ्तार से वृध्दि करती है तो कुल सर्वहारा आबादी की संख्या होगी 54 करोड़ (जिसमें बरबादी की कगार पर खड़ा गरीब, अर्द्धसर्वहारा किसान शामिल नहीं है, जिसकी आबादी 25 से 30 करोड़ के बीच है!)। इसमें से 47 करोड़ मजदूर अनौपचारिक क्षेत्र में होंगे और मात्र 7 करोड़ औपचारिक क्षेत्र में। यह रपट बताती है कि इस समय देश में हो रहे कुल औद्योगिक उत्पादन का महज 17.3 प्रतिशत हिस्सा औपचारिक मजदूर आबादी द्वारा हो रहा है और 82.7 प्रतिशत औद्योगिक उत्पादन के लिए अनौपचारिक मजदूर आबादी जिम्मेदार है। 1990 में सारी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों में से 52 प्रतिशत इकाइयाँ वे थीं जिनमें 50 से भी कम मजदूर काम करते थे। अनौपचारिकीकरण की असली प्रक्रिया तो शुरू ही 1990 से हुई है। आज की तस्वीर क्या होगी, आसानी से समझा जा सकता है।
अर्जुन सेनगुप्ता समिति की रिपोर्ट के बाद अगर सबसे अच्छी तरह से कोई स्रोत अनौपचारिकीकरण की तस्वीर उपस्थित करता है तो वह है राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन के ऑंकड़े। 2000-2001 में नमूना सर्वेक्षण का 55वाँ चक्र चला। इसके अनुसार, उस समय देश में मजदूर (ग्रामीण और शहरी) आबादी 40 करोड़ थी जिसमें से 34.3 करोड़ अनौपचारिक क्षेत्र में थी। इस अनौपचारिक मजदूर आबादी में से 67.7 प्रतिशत खेतिहर मजदूर थे और 32.3 प्रतिशत गैर-खेतिहर मजदूर (औद्योगिक समेत)। यानी कुल अनौपचारिक मजदूर आबादी कुल मजदूर आबादी का 91 प्रतिशत थी। (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 55वाँ चक्र, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन) इसके तीन वर्ष बाद 2004-05 में नमूना सर्वेक्षण के 61वें चक्र में जो ऑंकड़े सामने आये, वे अनौपचारिकीकरण की गति के बारे में काफी कुछ बताते हैं। इसके अनुसार, देश में 45.8 करोड़ मजदूर (ग्रामीण और शहरी) मजदूर थे। इसमें से करीब 39.5 करोड़ अनौपचारिक मजदूर थे। अनौपचारिक मजदूरों में से 64 प्रतिशत खेतिहर मजदूर थे और 36 प्रतिशत गैर-खेतिहर मजदूर। अनौपचारिक मजदूरों का कुल हिस्सा 93 प्रतिशत तक पहुँच चुका था। ध्यान रहे कि ये ऑंकड़े 2004 के हैं। (राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, 61वाँ चक्र, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण संगठन)। पिछले छह वर्षों में अगर अनौपचारिकीकरण की रफ्तार उसी गति से आगे बढ़ी हो तो आज अनौपचारिक मजदूर आबादी कुल मजदूर आबादी का करीब 96 प्रतिशत होगी और कुल मजदूर आबादी की 53 करोड़ होगी। यानी, कि अनौपचारिक मजदूर आबादी ही करीब 47 करोड़ होगी। इसमें से करीब 20 करोड़ मजदूर ऐसे होंगे जो औद्योगिक उत्पादन में लगे होंगे।
ये ऑंकड़े अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी के आकार, संख्या और वितरण को काफी हद तक स्पष्ट कर देते हैं। ऐसे तमाम ऑंकड़े हैं जो इन्हीं बुनियादी रुझानों को पुष्ट करते हैं। यहाँ उन सबको प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। इतने ऑंकड़े ही स्पष्ट कर देते हैं कि अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी का आकार ही इतना है कि उसे कोई अन्धा ही नजरअन्दाज कर सकता है। पूरे मजदूर आन्दोलन के एजेण्डे पर आज यह प्रमुख सवाल बनकर खड़ा है कि इस विशालकाय आबादी को, जिसे प्रसिध्द मार्क्सवादी लेखक माइक डेविस ”अब तक का विशालतम और सबसे तेजी से बढ़ता वैश्विक श्रमिक वर्ग” कहते हैं, किस प्रकार से संगठित किया जाये? उसे संगठित करने की क्या-क्या चुनौतियाँ हैं? क्या आज का अनौपचारिक/असंगठित मजदूर पिछड़ी चेतना रखता है? क्या वह किसानी चेतना रखता है? क्या वह पूर्व-आधुनिक है? क्या वह आदिम है? क्या उसमें वर्ग-चेतना का अभाव है? अगर कोई ऐसा मानता है तो उसके पीछे क्या विश्लेषण मौजूद है? अगर कोई ऐसा नहीं मानता है तो उसके पास क्या विश्लेषण मौजूद है? यह हमें अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग से जुड़े तीसरे महत्वपूर्ण मुद्दे पर लाता है – अनौपचारिक मजदूर आबादी की प्रकृति और चरित्र क्या है? इस विषय पर हम मार्क्स और लेनिन के विचारों की रोशनी में भी विचार करेंगे और समकालीन मार्क्सवादी इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों के ऐतिहासिक और सांख्यिकीय-आनुभविक अध्ययनों को भी देखेंगे।
3.3 अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग : प्रकृति, चरित्र और चेतना
अनौपचारिक मजदूर वर्ग के बारे में जो सबसे पहले नजर आने वाली विशेषता है – इस वर्ग का भौगोलिक तौर पर कार्यस्थल के मायने में बिखरा होना। कारखाना फ्लोर पर यह आबादी बिखरने की प्रक्रिया में है। इसके कारणों की हम पहले व्याख्या कर आए हैं। बड़े-बड़े कारखानों की संख्या राष्ट्रीय पैमाने पर घटी है। कोर सेक्टर के उद्योगों को छोड़ दें तो बाकी लगभग पूरी औद्योगिक गतिविधि अनौपचारिक क्षेत्र में जा रही है। (ग्लोबलाइजेशन एण्ड लेबर, नवीन चन्द्र, पी.यू.डी.आर. द्वारा नयी दिल्ली में आयोजित डा. रामनाधम मेमोरियल मीटिंग में दिया गया भाषण)। जो बड़े कारखाने अभी भी मौजूद हैं और जिन नये औद्योगिक क्षेत्रों में कुछ बड़े कारखाने लग रहे हैं (हालाँकि, यह आम रुझान नहीं है) उनमें भी मजदूरों की बड़ी आबादी (तकनीशियनों और फोरमैनों को छोड़कर) ठेके या दिहाड़ी पर है या कैजुअल मजदूर के रूप में है। इस आबादी की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह बहुत गतिमान होती है। बड़े कारखानों में जो ठेका, दिहाड़ी या कैजुअल मजदूर काम करते हैं उनमें भी एक कारखाने में रुककर काम करने की प्रवृत्ति बेहद कम हो जाती है। इसलिए ऐसे कारखानों में भी कोई शक्तिशाली ट्रेड यूनियन बना पाना एक चुनौतीपूर्ण कार्य होता है। कारण यह है कि इसकी लक्षित आबादी में आन्तरिक गतिशीलता बेहद ज्यादा है। आज किसी बड़े कारखाने में जो मजदूर काम करते हैं, ज्यादा सम्भावना यह रहती है कि अगले 6 महीनों में उनमें से 50 प्रतिशत बदल चुके होंगे। और आप यूनियन में व्यक्तियों को संगठित करते हैं संख्या को नहीं। इस तरह कारखाने में काम करने वाले मजदूरों की संख्या हो सकता है कि वही रहे या हो सकता है कि बढ़ भी जाये, लेकिन उसका प्रोफाइल बदल चुका होता है। इस गतिमान मजदूर आबादी को यान ब्रीमन ने अपनी एक प्रसिध्द और प्रशंसित रचना (फुटलूज लेबर : वर्किंग इन इण्डियाज इनफॉर्मल इकॉनमी, 1996, कैम्ब्रिज, कैम्ब्रिज यूनीवर्सिटी प्रेस) में फुटलूज लेबर कहा है, यानी वह मजदूर आबादी जिसके पाँव में मानो चक्का लगा होता है और किसी भी प्रकार की रोजगार सुरक्षा या सामाजिक सुरक्षा के अभाव में वह लगातार अपना पेशा बदलता रहता है। यही कारण है कि इस आबादी को यान ब्रीमन ने वेज हण्टर्स एण्ड गैदरर्स भी कहा है (वेज हण्टर्स एण्ड गैदरर्स : सर्च फॉर वर्क इन दि अर्बन एण्ड रूरल इकॉनमी ऑफ साउथ गुजरात, 1994, ऑक्सफर्ड यूनीवर्सिटी प्रेस, दिल्ली) जो कि एक अनौपचारिक मजदूर के लिए काफी सटीक शब्द है। इस मजदूर की कार्यस्थल गतिमानता उसे कार्यस्थल पर पकड़ पाने और गोलबन्द-संगठित कर पाने को काफी मुश्किल बना देती है। यह मजदूर आम तौर पर एक बहुकुशल मजदूर होता है, जो आदिम से उन्नत उद्योग तक में काम कर चुका होता है, तथाकथित ‘स्वरोजगार’ भी कर चुका होता है, पारिवारिक श्रम के साथ घर में भी काम कर चुका होता है, रिक्शा-ठेला-रेहड़ी-खोमचा-पटरी दुकान आदि जैसे काम भी कर चुका होता है। अक्सर एक साल के ही भीतर वह ये सारे काम कर चुका होता है और तीन महीने गाँव में खेत मजदूरी भी कर आता है।
यान ब्रीमन का मानना है कि 56 प्रतिशत तथाकथित ‘स्वरोजगार-प्राप्त‘ आबादी का बड़ा हिस्सा वास्तव में उजरती मजदूर है और वह औद्योगिक जगत का ही एक हिस्सा है। ‘स्वरोजगार-प्राप्त’ सही मायने में सिर्फ वह आबादी है जिसे अर्थशास्त्र की भाषा में ‘ओन एकाउण्ट’ उद्यमी कहा जाता है। ऐसे उद्यमियों की संख्या पूरी अनौपचारिक औद्योगिक मजदूर आबादी की 5 फीसदी भी नहीं बनेगी। ब्रीमन के मुताबिक मजदूर वर्ग की सर्वहारा चेतना को यांत्रिक तरीके से और पुराने फार्मूलों में बिठाकर नहीं समझा जा सकता। ग्रामीण अनौपचारिक मजदूरों के बीच ऋण बन्धुआ प्रथा पर चली बहस में उन्होंने एक अन्य मार्क्सवादी बुध्दिजीवी टॉम ब्रास का विरोध करते हुए कहा कि श्रम के इस रूप में ”अ-मुक्त” होने को पूँजीवादी विकास और सर्वहारा चेतना की कमी के रूप में नहीं देखा जा सकता है। मुक्त व ”अ-मुक्त” श्रम की मार्क्सवादी अवधारणा को यांत्रिक रूप में ले लेना बहुत बड़ी भूल होगी। ब्रीमन गुजरात के अपने अध्ययन के आधार पर बताते हैं कि अनौपचारिक मजदूर आबादी वर्ग-चेतना में किसी भी रूप में स्थायी कारखाना मजदूर से पीछे नहीं है। और हम इसमें जोड़ दें कि वह अपने जीवन के हालात से ही ज्यादा व्यवस्था-विरोधी है।
मार्क्सवादी चिन्तक हेनरी बर्नस्टाइन ने भी इस विचार का समर्थन किया है। अनौपचारिक मजदूर वर्ग पर यान ब्रीमन और माइक डेविस की रचनाओं का अनुसरण करते हुए बर्नस्टाइन बताते हैं कि आज का अनौपचारिक मजदूर वर्ग बेहद बहुरंगी वर्ग है जिसमें जबर्दस्त आंतरिक गतिशीलता है। यह बेहद रैडिकल वर्ग है जो पूँजी की सत्ता का सामना सड़क से लेकर घर और काम की जगह तक करता है। इसके अन्दर वर्ग चेतना की कोई कमी नहीं है। और 1980 के दशक से विश्व पूँजीवाद अपने संकट के चलते भूमण्डलीकरण की जिन नीतियों को लागू कर रहा है उन्होंने पिछले तीस वर्षों में एक विशालकाय अनौपचारिक मजदूर वर्ग पैदा कर दिया है जो पहले की सापेक्षिक ”अतिरिक्त” श्रम आबादी के समान अकुशल, पिछड़ी, किसानी या आदिम चेतना से ग्रस्त नहीं है, बल्कि आधुनिक, रैडिकल और सर्वहारा चेतना से लैस है। यह वर्ग भयंकर गरीबी में जीने को मजबूर है और यही इसके रैडिकल होने का स्रोत है। बर्नस्टीन माइक डेविस को उध्दृत करते हुए बताते हैं कि यह सर्वहारा वर्ग का अब तक सबसे तेजी से बढ़ता, बड़ा और सम्भावना-सम्पन्न हिस्सा है। (लिविंग ऑन दि मार्जिंस. वल्नरेबिलिटी, एक्स्क्लूजन एण्ड दि स्टेट इन इनफॉर्मल इकॉनमी विषय पर सम्मेलन में की-नोट भाषण, केपटाउन, 26-28 मार्च, 2007, प्रिपरेटरी मसौदा इण्टरनेट पर उपलब्ध)।
प्रसिध्द श्रम इतिहासकार जियर्ट डि नेवे ने तमिलनाडु के कपड़ा उद्योग पर एक शानदार अध्ययन किया है जो अनौपचारिक मजदूर आबादी के बारे में बहुत-सी बातें स्पष्ट करता है। जियर्ट डि नेवे बारबरा हैरिस-व्हाइट और नन्दिनी गुप्तू के इस नतीजे से अपनी असहमति जताते हैं कि अनौपचारिक मजदूर वर्ग में कुशलता की कमी है। नेवे तमिलनाडु के पावरलूम उद्योग के अपने व्यापक और सघन अध्ययन के आधार पर इस बात का प्रमाण पेश करते हैं कि यह अनौपचारिक मजदूर वर्ग पर्याप्त कुशल है और कई मामलों में यह संगठित मजदूर वर्ग से भी अधिक तकनीकी कुशलता रखता है। नेवे इस बात को भी एक अति-सरलीकृत अवधारणा मानते हैं कि अनौपचारिक क्षेत्र में औद्योगिक इकाइयाँ छोटे आकार की ही होती हैं। वे बताते हैं कि इकाइयों के छोटा होने का ऑंकड़ा सरकारी एजेंसियों को छोटे पूँजीपति वर्ग द्वारा दी जाने वाली सूचनाओं पर आधारित होता है जो आधे से अधिक मामलों में झूठ होती हैं। निश्चित तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में बड़ी संख्या में छोटी औद्योगिक इकाइयाँ हैं, लेकिन वे अपने अध्ययन के आधार पर दिखलाते हैं कि मंझोले और बड़े आकार की औद्योगिक इकाइयों की संख्या भी अनौपचारिक क्षेत्र में कम नहीं है, जो कि गैर-कानूनी रूप से काम कर रही हैं। नेवे यान ब्रीमन का समर्थन करते हुए कहते हैं कि यह अनौपचारिक मजदूर वर्ग के प्रति मजदूर वर्ग के आन्दोलन के नेतृत्व का पूर्वग्रह है कि अनौपचारिक मजदूर में वर्ग-चेतना का अभाव होता है। अनौपचारिक क्षेत्र के तमाम अध्ययन बतलाते हैं कि इसमें काम करने वाले मजदूरों में विचारणीय रूप में वर्ग-चेतना होती है जो कई मामलों में संगठित क्षेत्र में काम करने वाली मजदूर आबादी की वर्ग-चेतना से अधिक उन्नत है। (पृ. 1-38, इण्ट्रोडक्शन, दि एवरीडे पॉलिटिक्स ऑफ लेबर : वर्किंग लाइव्स इन इण्डियाज इनफॉर्मल इकॉनमी, जियर्ट डि नेवे, सोशल साइंस प्रेस, दिल्ली, 2005)।
इन श्रम इतिहासकारों और अर्थशास्त्रियों के बाद एक निगाह मार्क्स और लेनिन के लेखन पर डालना भी अनौपचारिक मजदूर वर्ग के चरित्र को समझने में सहायक होगा।
मार्क्स पूँजी के खण्ड 1 के अध्याय 25 के खण्ड 3 में ‘सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के निर्माण‘ के बारे में लिखते हुए कई ऐसे प्रेक्षण हमारे सामने रखते हैं जो आज के अनौपचारिक क्षेत्र की मजदूर आबादी के चरित्र को समझने में सहायक हैं। मार्क्स बताते हैं कि पूँजी के बढ़ते संचय के साथ पूँजीपति स्थिर पूँजी (यानी, तकनोलॉजी और मशीनरी पर निवेश) को बढ़ाता जाता है जिससे कि परिवर्तनशील पूँजी की उत्पादकता में अभूतपूर्व वृध्दि होती है और अतिरिक्त मूल्य पैदा होने की दर में बढ़ोत्तरी होती है। इसके साथ ही, पूँजीपति नियमित रूप से होने वाले व्यय को न्यूनतम करने की दृष्टि से मजदूरों की छँटनी करता है और एक सापेक्षिक रूप से अतिरिक्त आबादी का निर्माण होता है। मार्क्स बताते हैं कि पूँजी के संचय के अलग-अलग चक्रों के मुताबिक इस सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी के आकार-प्रकार में तब्दीली आती रहती है। लेकिन पूँजीवाद के विकसित होने के साथ यह पूँजीवादी समाज की स्थायी विशेषता और पूँजी के लिए एक अनिवार्य आवश्यकता बन जाती है। पूर्ण रोजगार समाज पूँजीवाद की एंटीथीसिस है। यह किसी छोटे विशिष्ट दौर में हो सकता है लेकिन पूँजीवादी समाज की आम रुझान ऐसी नहीं हो सकती है। यह सापेक्षिक अतिरिक्त आबादी पूँजीवादी समाज में अनियमित रोजगार और सामाजिक असुरक्षा के साथ कभी कोई तो कभी कोई काम करते हुए बसर करती रहती है और रोजगार प्राप्त मजदूरों के खिलाफ मोलभाव करने की पूँजी की क्षमता को बढ़ाती है। यह पूँजी की रिजर्व श्रम सेना की भूमिका अदा करती है। मार्क्स ने इसकी चार मुख्य किस्में बताई हैं : तरल, संभावित, ठहरावग्रस्त, और दरिद्र। इसमें से चौथी किस्म वह है जो कार्यशक्ति का हिस्सा नहीं होती, जैसे कि भिखारी, अपंग, पागल, आदि। लेकिन बाकी तीन हिस्से कार्यशक्ति का अंग होते हैं। इसमें से सबसे महत्वपूर्ण हैं पहली और तीसरी किस्म। ठहरावग्रस्त सापेक्षिक अतिरिक्त-जनसंख्या के बारे में मार्क्स बताते हैं कि यह सक्रिय कार्यशक्ति का हिस्सा होती है लेकिन इसके पास बहुत ही अनियमित रूप में रोजगार होता है। मार्क्स के इस उद्धरण पर गौर करें :
”सापेक्षिक अतिरिक्त-जनसंख्या की तीसरी श्रेणी है ठहरावग्रस्त, जो सक्रिय श्रम सेना का हिस्सा है, लेकिन जिसके पास बेहद अनियमित रोजगार होता है। यहाँ यह पूँजी को उपयोग करके फेंक देने लायक श्रम-शक्ति का एक असीमित भण्डार उपलब्ध कराती है। इसके जीवन की स्थितियाँ मजदूर वर्ग के औसत सामान्य स्तर से नीचे चली जाती हैं; यही इसे पूँजीवादी शोषण की विशेष शाखाओं का एक व्यापक आधार बनाती है। इसकी चारित्रिक आभिलाक्षणिकता है अधिकतम कार्यकाल और न्यूनतम मजदूरी। हमने जाना है कि इसका प्रमुख रूप ”घरेलू उद्योग” के शीर्षक के तहत आता है।… जैसे-जैसे पूँजी संचय की मात्रा और ऊर्जा बढ़ती जाती है और अतिरिक्त-जनसंख्या का निर्माण बढ़ता जाता है, इस आबादी की मात्रा बढ़ती जाती है। लेकिन साथ ही यह मजदूर वर्ग का स्वयं बढ़ते जाने वाला और स्वयं अविरत होते जाने वाला तत्व बन जाता है, जो वर्ग के अन्य तत्वों के मुकाबले अपना हिस्सा अधिक तेजी से बढ़ाता जाता है।” (पृ. 602, पूँजी, खण्ड-1, कार्ल मार्क्स, अंग्रेजी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1974 पुन:प्रकाशन, अनुवाद हमारा)।
आज की अनौपचारिक मजदूर आबादी का दूसरा बड़ा हिस्सा वह है जिसे मार्क्स तरल सापेक्षिक अतिरिक्त-जनसंख्या का नाम देते हैं। इसके बारे में मार्क्स के निम्न उद्धरण से आज के अनौपचारिक मजदूर वर्ग के बारे में एक और अन्तर्दृष्टि मिलती है :
”आधुनिक उद्योग के केन्द्रों – क़ारखानों, मैन्युफैक्चर, लौह उद्योग, खानों आदि – में मजदूरों को कभी निकाल दिया जाता है तो कभी और बड़ी संख्या में बुलाया जाता है; कुल मिलाकर कुल रोजगार-शुदा लोगों की संख्या बढ़ती है, लेकिन यह उत्पादन के स्तर के अनुपात में हमेशा घटती रहती है। यहाँ अतिरिक्त-जनसंख्या तरल रूप में मौजूद रहती है।
”स्वचालित कारखानों में, ठीक उसी प्रकार जैसे कि बड़ी कार्यशालाओं में, जहाँ मशीनरी एक कारक के रूप में प्रवेश करती है, लड़कों की विशाल संख्या को बड़े होने तक रखा जाता है। जब यह समय पूरा हो जाता है, तो उद्योग की उसी शाखा में बेहद कम लोगों के पास ही रोजगार रह जाता है, जबकि बहुसंख्या को नियमित रूप से बाहर किया जाता रहता है। यह बहुसंख्या तरल अतिरिक्त-जनसंख्या का एक तत्व होती है, जो उद्योग की उन शाखाओं के विस्तार के साथ लगातार बढ़ती रहती है।” (पृ. 600, वही, अनुवाद हमारा)।
इसी कथन में आगे मार्क्स बताते हैं कि पूँजीवाद के अन्दर कार्यशक्ति के किशोरीकरण और स्त्रीकरण की अन्तर्निहित रुझान होती है। और हमने समझा था कि मजदूर आबादी का अनौपचारिकीकरण, स्त्रीकरण, बाल श्रम, आदि का सैद्धान्तीकरण 20वीं सदी के बुध्दिजीवियों ने किया है! स्पष्ट है कि मार्क्स ने अपने लेखन में स्पष्ट तौर पर पूँजी की इस रुझान को चित्रित किया था। यह बात दीगर है कि यह एक प्रभुत्वकारी और स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त परिघटना के रूप में भूमण्डलीकरण के दौर में प्रकट हुआ है।
मार्क्स तीसरी सापेक्षिक अतिरिक्त-आबादी का जिक्र करते हुए बताते हैं कि यह सुषुप्त सापेक्षिक अतिरिक्त-जनसंख्या है जिसमें मुख्य रूप से गाँवों और कृषि क्षेत्र के प्रच्छन्न बेरोजगार, अनियमित खेतिहर मजदूर और गैर-कृषि कार्रवाइयों में लगे ग्रामीण गरीब शामिल हैं। यह आबादी पूँजी के गाँवों को भेदने के साथ शहरों की तरफ पलायन को जारी रखती है; कहीं तेज गति में तो कहीं धीमी गति में। (देखें, उल्लिखित पूरा अध्याय)।
स्पष्ट है कि आज के समान एक औद्योगिक अनौपचारिक मजदूर आबादी के निर्माण के बारे में मार्क्स स्पष्ट थे और निश्चित थे। पूँजी की नैसर्गिक गति से यह होना ही था। यह पहले भी हुआ था, लेकिन उसके रूप भिन्न थे। भूमण्डलीकरण के दौर में यह परिघटना एक नये रूप में उपस्थित हुई है।
लेनिन ने भी एक ऐसे अनौपचारिक मजदूर वर्ग का पूर्वानुमान लगाया था जब वे रूस में पूँजीवाद के विकास का अध्ययन कर रहे थे। हालाँकि उनकी इस रचना का मुख्य लक्ष्य घरेलू बाजार के निर्माण और अतिरिक्त मूल्य के वसूली के संकट के बारे में नरोदवादियों के गलत सिध्दान्तों का खण्डन अधिक था और सर्वहारा वर्ग के अलग-अलग हिस्सों के उद्भव का अध्ययन करना कम। लेकिन इसके बावजूद एक अनौपचारिक मजदूर आबादी के उदय के बारे में इस रचना में शानदार अन्तर्दृष्टि मिलती है।
लेनिन उद्योग में पूँजीवाद के विकास के अलग-अलग चरणों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि पहला चरण कारीगर उत्पादन (आर्टिजनल प्रोडक्शन) का होता है, जिसमें माल-उत्पादन अभी पूर्ण रूप से विकसित नहीं हुआ होता है। उत्पादक में उजरती मजदूर के गुण अभी नगण्य होते हैं। उत्पाद के विपणन के विकास के साथ वाणिज्यिक पूँजी का कार्य अलग हो जाता है, जो उद्योग के विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण श्रम-विभाजन होता है। इसके साथ ही एक क्रमिक प्रक्रिया में कारीगर व्यापारी पर निर्भर होता जाता है, न सिर्फ उत्पाद के विपणन के मामले में बल्कि कच्चे माल की आपूर्ति के मामले में भी। यहाँ से दूसरा चरण आता है, जिसे ”पुटिंग आउट सिस्टम” कहा जाता है। लेनिन बताते हैं कि व्यापारी और कारीगर के बीच का सम्बन्ध कालान्तर में एक पूँजीपति और उजरती मजदूर के बीच का सम्बन्ध बन जाता है। यहीं से माल-उत्पादन सरल पूँजीवादी सहकार (सिम्पल कैपिटलिस्ट कोऑपरेशन) के साथ शुरू होता है। लेकिन अभी हर श्रमिक हर काम करता है और उत्पादन की प्रक्रिया में श्रम-विभाजन भ्रूण रूप में होता है। उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ इस सरल पूँजीवादी सहकार का स्थान जटिल श्रम-विभाजन ले लेता है और यहीं से तीसरे चरण यानी कि मैन्युफैक्चर की शुरुआत होती है। मैन्युफैक्चरिंग के चरण के साथ ही उत्पादन का तेजी से विस्तार होता है और इसके साथ ही बाजार का भी विस्तार होता है। बाजार का विस्तार होने के साथ मैन्युफैक्चरिंग उन्नति के उस स्तर पर पहुँच जाती है, जिसके बारे में लेनिन ने लिखा है कि वह लगभग कारखाना व्यवस्था मानी जा सकती है। मैन्युफैक्चरिंग के चरण में जब श्रम-विभाजन और अधिक विकसित होकर छोटी-छोटी ऐसी कार्रवाइयों के स्तर पर पहुँच जाता है, जिनका स्वचालन किया जा सकता है, तब मशीनरी का प्रवेश होता है। इसके साथ ही फैक्टरी व्यवस्था अस्तित्व में आती है और उद्योग मैन्युफैक्चरिंग से मशीनोफैक्चरिंग के चरण में जाता है। लेनिन बताते हैं कि सामान्य माल उत्पादन के युग में उद्योग का प्रमुख रूप घरेलू उद्योग के रूप में सामने आता है। मैन्युफैक्चरिंग के युग में उद्योग का प्रमुख रूप मैन्युफैक्टरी होता है, जिसे लेनिन फैक्टरी से अलग करते हैं। और इसके बाद फैक्टरी का युग आता है जिसमें स्वचालन उद्योग को असेम्बली लाइन उत्पादन तक ले जाता है।
कुछ साथियों को यह चर्चा गैर-जरूरी लग सकती है, लेकिन हम आगे जो तर्क स्पष्ट करना चाहते हैं उसके लिए यह आवश्यक थी। लेनिन बताते हैं कि इन चरणों का बँटवारा कालानुक्रम के अनुसार नहीं किया जाना चाहिए। उन्नत से उन्नत पूँजीवाद में अलग-अलग चरणों का काल एक-दूसरे को अतिच्छादित (ओवरलैप) करते हैं। हर बार यह अतिच्छादन अतीत के बोझे के रूप में नहीं होता बल्कि कई बार पूँजीवादी विकास के एक अनिवार्य अंग के रूप में होता है। यहीं पर अनौपचारिक मजदूर वर्ग के विकास और विस्तार को समझने की कुंजी निहित है। लेनिन बताते हैं कि फैक्टरी व्यवस्था और मशीनोफैक्चर के विकास के साथ उसके आस-पास (आज यह आस-पास होने की शर्त जरूरी नहीं रह गयी है, संचार-परिवहन क्रान्ति जिन्दाबाद!) छोटे सहायक उद्योगों का एक विशाल ताना-बाना पैदा होता है। लेनिन के इस उद्धरण पर जरा गौर करें :
”लेकिन उत्पादन का यह सरलतम रूपों में विभाजित होना, एक ओर बड़े पैमाने के मशीन उत्पादन के लिए एक अनिवार्य पूर्वस्थिति होता है, वहीं यह छोटे उद्योगों की वृध्दि की तरफ भी ले जाता है। आस-पड़ोस की आबादी को ऐसे विस्तृत कामों को अपने घर में ही, अपने उपकरणों का उपयोग करने के योग्य बना दिया जाता है, या तो मैन्युफैक्टरी मालिकों के ऑर्डर पर, और या फिर वे ”स्वतन्त्र” रूप से सामग्री खरीदकर, उत्पाद के कुछ विशिष्ट पुरजे बनाकर मैन्युफैक्चरर्स को बेचते हैं। यह विरोधाभासपूर्ण लग सकता है कि पूँजीवादी मैन्युफैक्चर के विकास की एक अभिव्यक्ति छोटे (और कई बार ”स्वतन्त्र”) उद्योगों का विकास है : लेकिन यह एक तथ्य है। ऐसे ”हैण्डीक्राफ्ट्स मजदूरों” की ”स्वतन्त्रता” काफी काल्पनिक होती है। अगर उत्पाद के अन्य अंगों के साथ, अन्य विस्तृत कार्रवाइयों के साथ कोई सम्बन्ध न हो, तो उनका काम नहीं चल सकता, और उनके उत्पाद का कई मौकों पर कोई उपयोग मूल्य ही नहीं होगा।…नरोदवादी अर्थशास्त्र की मुख्य गलतियों में से एक यह है कि वह इस तथ्य की उपेक्षा करता है या उसे नेपथ्य में धकेल देता है कि ”हैण्डीक्राफ्ट्समैन” जो एक एकल कार्य को अंजाम देते हैं, वे पूँजीवादी मैन्यूफैक्टरी के ही अंग हैं।” (पृ. 433-434, रूस में पूँजीवाद का विकास, लेनिन, अंग्रेजी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1977 पुन: प्रकाशन, अनुवाद हमारा)।
लेनिन का यह उद्धरण काफी हद तक उत्तरऔपनिवेशिक पूँजीवादी समाजों में औद्योगिक विकास और मजदूर वर्ग के निर्माण की एक सच्चाई को बयान करता है। एक और उद्धरण पर निगाह डालें :
”मैन्युफैक्चर की पद्धति पर संगठित सभी उद्योगों में जिनकी हमने जाँच की है, मजदूरों की विशाल आबादी स्वतंत्र-स्वायत्त नहीं होती, बल्कि पूँजी के अधीन होती है, और सिर्फ मजदूरी प्राप्त करती है, उसके पास न तो कच्चे माल का मालिकाना होता है और न ही उत्पादित माल का। सबसे निचले पायदान पर, इन ”उद्योगों” की वह व्यापक बहुसंख्या है जो उजरती मजदूर है, हालाँकि मैन्युफैक्चर में यह सम्बन्ध वह पूर्णता और शुद्धता कभी हासिल नहीं कर पाता जो वह फैक्टरी में प्राप्त करता है।…मैन्युफैक्चर के तहत, निर्भर मजदूरों के साथ-साथ, हमेशा अर्द्ध-स्वतन्त्र उत्पादकों की एक कमोबेश विचारणीय संख्या मौजूद होती है। लेकिन रूपों का यह सारा वैविध्य मैन्युफैक्चर की मुख्य विशेषता पर पर्दा डालता है, यह तथ्य कि श्रम के प्रतिनिधियों और पूँजी के प्रतिनिधियों के बीच विभाजन पहले से ही पूरी ताकत के साथ अभिव्यक्त हो चुका है।” (पृ. 439-440, वही, अनुवाद हमारा)।
लेनिन आगे इसी कथन में बताते हैं कि पूँजीवाद की विकास की इस मंजिल में घर में काम करने वाले मजदूरों का एक वर्ग ऐसा भी होता है जिसके मालिक बन जाने का भ्रम अभी बरकरार होता है, लेकिन जो जल्द ही चकनाचूर हो जाता है। एक और सटीक उद्धरण पर ध्यान दें जो उत्तर-औपनिवेशिक समाज में पूँजीवादी विकास के अनौपचारिक अंग पर रोशनी डालता है :
”मैन्युफैक्चर के तहत छोटी इकाइयों का बने रहना (और यहाँ तक कि बढ़ना) एक बिल्कुल स्वाभाविक परिघटना है। हाथ से होने वाले उत्पादन के अन्तर्गत, बड़ी इकाइयों की छोटी इकाइयों पर कोई निर्णायक बढ़त नहीं होती; श्रम-विभाजन, सरलतम विस्तृत कार्रवाइयों की रचना करके छोटी कार्यशालाओं के उदय में सहायता करता है। इसी कारण से पूँजीवादी मैन्युफैक्चर का एक विशिष्ट गुण बड़ी इकाइयों की छोटी संख्या और साथ ही छोटी इकाइयों की एक विचारणीय संख्या की मौजूदगी होता है।” (पृ. 443, वही, अनुवाद हमारा½
आगे लेनिन बताते हैं कि वास्तव में ये छोटी कार्यशालाएँ बड़ी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों के ‘आउटसाइड डिपार्टमेण्ट‘ के रूप में काम करती हैं। लेनिन यह भी बताते हैं कि इस पूरे दौर में जबकि कारखाना-व्यवस्था, मैन्युफैक्चरिंग, छोटी औद्योगिक इकाइयाँ एक साथ अस्तित्वमान होती हैं तो ठेकेदारों और बिचौलियों का एक पूरा वर्ग अस्तित्व में आता है। और साथ ही इस ठेकाकरण के जरिये मजदूरों के शोषण के बर्बरतम रूप अस्तित्व में आते हैं। इसका कारण यही होता है कि छोटी औद्योगिक इकाइयाँ और घरों पर होने वाला काम पूँजीवादी मैन्युफैक्चरिंग का ही अंग होता है। निम्न उद्धरण अनौपचारिकीकरण की भविष्यवाणी जैसा प्रतीत हो सकता है :
”आइये सबसे पहले घरेलू उद्योग में पूँजीपति और मजदूर के बीच बिचौलियों की विशाल मात्रा पर गौर किया जाये। बड़ा उद्यमी स्वयं सैकड़ों और हजारों मजदूरों को सामग्री नहीं बाँट सकता है, जो कई बार कई गाँवों में बिखरे होते हैं; यहाँ जिस चीज की जरूरत होती है वह है एक बिचौलिये (कुछ मामलों में बिचौलियों के एक पूरे पदानुक्रम) का प्रकट होना जो सामग्री को थोक में लेता है और छोटी-छोटी मात्राओं में वितरित करता है। हम एक नियमित स्वेटिंग सिस्टम पाते हैं, भयंकरतम शोषण का एक तंत्र : ”सबकॉण्ट्रैक्टर” (या ”वर्करूम ओनर”, या लेस उद्योग में ”ट्रेड्सवुमन”, आदि, आदि) जो मजदूर के करीब होता है, जानता है कि उसके दुख के एक-एक मामले का फायदा कैसे उठाना है और शोषण के ऐसे-ऐसे तरीके निकालता है जिनकी कल्पना भी कर पाना बड़ी इकाइयों में संभव नहीं होगा…” (पृ. 447, वही, अनुवाद हमारा½
इसी कथन में आगे लेनिन ऐसे उद्योगों में काम करने की स्थितियों का वर्णन करते हैं। अगर किसी के समक्ष इस वर्णन को बिना किसी सन्दर्भ के पेश कर दिया जाये तो वह आज के अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों की काम और जीवन की स्थितियों का वर्णन लग सकता है। (देखें पृ. 447-449, वही)।
लेनिन ने उस समय के उन्नत पूँजीवादी देशों के पूँजीवादी विकास से तुलना करते हुए यह उम्मीद की थी कि जब रूस में मशीनोफैक्चर काफी उन्नत हो जाएगा तो वह ऐसे उद्योग के बिना ही काम चला लेगा। लेकिन 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध के इतिहास ने दिखलाया है कि मशीनोफैक्चर के हावी होने के बाद भी भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजी ने मुनाफे की दर को बढ़ाने और श्रमिक वर्ग के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए अनौपचारिक क्षेत्र को और अधिक बढ़ाया है। इसके बावजूद वह उत्पादकता को बरकरार रख पा रहा है। इसकी कई वजहें हैं। पहली वजह यह है कि आज श्रम-विभाजन लेनिन के समय से कहीं ज्यादा उन्नत स्तर पर है और ऐसे में कुशलता और अकुशलता के बीच की विभाजक रेखा धूमिल हो गयी है। इस बात की भविष्यवाणी स्वयं लेनिन ने की थी। अगर उत्पादकता के स्तर को गिराए बगैर छोटी इकाइयों में पूरी उत्पादन-प्रक्रिया को विखण्डित किया जा सकता है, तो यह पूँजी के लिए तात्कालिक तौर पर लाभदायक ही होगा। यह इसलिए भी सम्भव बन गया है कि सूचना प्रौद्योगिकी और संचार-परिवहन क्रान्ति ने पूँजी की गतिमानता को इस हद तक बढ़ा दिया है कि एक विखण्डित असेम्बली लाइन चलाने की लागत नहीं के बराबर हो गयी है। और इसकी लागत जितनी है, उससे अधिक उसके फायदे हैं क्योंकि उत्पाद के अलग-अलग हिस्से के उत्पादन के लिए सस्ता श्रम और सस्ता कच्चा माल जहाँ-जहाँ उपलब्ध होगा, पूँजी वहाँ-वहाँ आराम से पहुँच सकती है।
लेनिन एक अन्य स्थान पर बताते हैं कि पूँजीवादी समाज में हमेशा ही अनौपचारिक/असंगठित मजदूरों का एक वर्ग मौजूद रहेगा। इसके साथ ही कारखाने के एक ”अपेण्डेज” के तौर पर एक विशाल मजदूर आबादी होगी जिसमें पल्लेदार, बेलदार, निर्माण मजदूर, पैकर आदि शामिल होंगे। यह पूरे मजदूर वर्ग की आबादी का एक विचारणीय हिस्सा होंगे। (पृ. 539-541, वही) लेनिन के निम्न कथन से यह बात और स्पष्ट हो जाती है :
”कारखाने के अपेण्डेज के बारे में पूर्ण विवरण जैसा कुछ भी प्रस्तुत करने के लिए आपके पास पूरी जनसंख्या के पेशे सम्बन्धी पूर्ण ऑंकड़े होने चाहिए, या कारखाना केन्द्रों के सम्पूर्ण आर्थिक जीवन और उसके परिवेश का समर्पित ब्योरा होना चाहिए। लेकिन केवल बिखरे हुए ऑंकड़ों से, जिनसे हमें सन्तोष करना पड़ता है, इस व्यापक रूप से प्रभावी राय की गलती दिख जाती है कि कारखाना उद्योग उद्योग के अन्य रूपों से कटा हुआ है, कि कारखाना जनसंख्या कारखाने में काम न करने वाली जनसंख्या से कटी हुई है। सामान्य रूप में सभी सामाजिक सम्बन्धों की ही तरह, उद्योग के विभिन्न रूपों का विकास बहुत क्रमिक प्रक्रिया में आपस में बंधे, संक्रमणशील रूपों और अतीत की ओर जाने वाली गति के आभास के बिना नहीं हो सकता है।…इस प्रकार छोटे उद्योगों का विकास (जैसा कि हम देख चुके हैं) पूँजीवादी मैन्युफैक्चर की प्रगति को अभिव्यक्त करता है; और अब हम देख रहे हैं कि फैक्टरी भी कई बार छोटे उद्योगों का विकास कर सकती है।” (पृ. 541, वही, अनुवाद हमारा½
अनौपचारिकीकरण के मूल के मार्क्सवादी तर्क को स्पष्ट करने के लिए ‘रूस में पूँजीवाद का विकास‘ में से उद्धरणों को छाँटना एक जटिल कार्य था, क्योंकि उनकी मात्रा इतनी ज्यादा थी कि इस आलेख की सीमा उनकी इजाजत नहीं देती। हम उन हिस्सों का सन्दर्भ दे रहे हैं और लेनिन की इस रचना में अनौपचारिकीकरण के मूल को देखने में दिलचस्पी रखने वाले साथी उन हिस्सों को देख सकते हैं। उद्योग के तीन प्रमुख चरणों, उनके अतिच्छादन और उनमें अस्तित्व में आने वाले भिन्न प्रकार के मजदूर वर्ग और उनके एक साथ अस्तित्वमान रहने के लिए देखें पृ. 546-47; अनौपचारिक मजदूर वर्ग के भीतर मौजूद जबर्दस्त आंतरिक गतिशीलता, मौसमी प्रवास, चक्रीय प्रवास और गैर-कृषक प्रवास के लिए देखें पृ. 575; और प्रवासी और शहरी अनौपचारिक मजदूर की उन्नत वर्ग चेतना के लिए देखें पृ. 582-87। खास तौर पर आखिरी सन्दर्भ देखने योग्य है।
अब हम अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी के बारे में अपने नतीजों को संक्षेप में आपके समक्ष रखना चाहेंगे।
पहली बात यह है कि अनौपचारिक मजदूर वर्ग का उदय पूँजीवादी विकास का कोई एबरेशन नहीं बल्कि नियम है। इसे मार्क्स और लेनिन दोनों ने ही स्पष्ट रूप से दिखाया है। लेनिन ने यह भी दिखाया है कि विशेष रूप से जिन देशों में बाद में और देर से, विशेष रूप से गैर-क्रान्तिकारी मार्ग से पूँजीवाद का विकास हुआ, वहाँ एक ऐसे मजदूर वर्ग की मौजूदगी नैसर्गिक थी।
दूसरी बात, यह मजदूर वर्ग मार्क्स और एंगेल्स के काल में भी पिछड़ा हुआ नहीं था, लेनिन के काल में भी नहीं और आज तो कतई नहीं। यह फोर्डिस्ट दौर में एकीकृत असेम्बली लाइन और मास प्रोडक्शन के दौर में पैदा हुए यूनियनवाद द्वारा बनाए गए पूर्वग्रह हैं। इन पूर्वग्रहों को तोड़ देने की जरूरत है कि अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग पिछड़ी, आदिम, किसानी, पूर्व-आधुनिक या अनौद्योगिक चेतना रखता है। आज के अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग के बारे में यह बात कहने वाला व्यक्ति निश्चित रूप से आज के अनौपचारिक मजदूर वर्ग से काफी हद तक अपरिचित है।
तीसरी बात, आज का अनौपचारिक मजदूर वर्ग औपचारिक/संगठित क्षेत्र में काम करने वाले 7 प्रतिशत मजदूर वर्ग से आम तौर पर अधिक रैडिकल है, प्रकृति से ही पूँजीवाद-विरोधी है, संशोधनवादी ट्रेड यूनियनवादियों द्वारा फैलाए गए अर्थवाद, अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद और सुधारवाद से अपेक्षतया मुक्त है; यह मजदूर वर्ग अपनी गतिशीलता के कारण पेशागत संकुचन की प्रवृत्ति से भी अपेक्षतया मुक्त है और एक कारखाना मालिक को अपना शत्रु नहीं समझता, बल्कि बिल्कुल व्यावहारिक अर्थों में कारखाना मालिकों के पूरे वर्ग को अपने शत्रु के रूप में पहचानता है। इसका राजनीतिकरण अपेक्षतया आसान है, हाँ यह जरूर है कि जिनका दिमाग पुराने ट्रेड यूनियनवादी अर्थवादी तौर-तरीकों में ही अश्मीभूत हो गया है, उनके लिए यह तर्क समझना थोड़ा मुश्किल होगा।
चौथी बात, इस वर्ग का साबका न सिर्फ पूँजीपति वर्ग से सीधे तौर पर पड़ता है, बल्कि हर रोज घर से लेकर सड़क और काम करने की जगह तक, इसका सीधा सामना पूँजीपति वर्ग की प्रबन्धन समिति का काम करने वाली सरकार से भी पड़ता है। यह पुलिस, नौकरशाही, न्यायपालिका और बुर्जुआ पार्टी के नेताओं के प्रति किसी कानूनी विभ्रम का शिकार नहीं होता। इसके सामने बुर्जुआ व्यवस्था के ये अंग हर दिन सबसे बर्बर रूप में नंगे होते हैं।
पाँचवीं बात, कारखाने और काम करने की जगह के धरातल पर बिखर जाने के कारण एक तात्कालिक निराशा और पस्तहिम्मती इस वर्ग के भीतर एक हद तक घर कर गयी है और यह अपने आप को कई मायनों में निस्सहाय पा रहा है। इसका कारण यह है कि वह स्वयं भी प्रतिरोध के पुराने रूपों से आगे नहीं सोच पाता है और उसे लगता है कि पूँजी के हमलों का अर्थपूर्ण प्रतिरोध करने की जमीन ही उसके पाँव के नीचे से खिसका दी गयी है। लेकिन कई मजदूर संघर्षों में, विशेषकर, छत्तीसगढ़ के मजदूर आन्दोलन, दिल्ली के 1988 के असंगठित मजदूरों के आन्दोलन और हाल ही में दिल्ली में हुए बादाम मजदूरों के आन्दोलन में, इस मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूप उभरकर सामने आये हैं। छत्तीसगढ़ के मजदूर आन्दोलन के बारे में 2005 में एक टर्किश मार्क्सवादी बुध्दिजीवी फातिमा उल्कू सेल्चुक ने ‘मंथली रिव्यू’ में लिखा था (‘ड्रेसिंग दि वूण्ड : ऑर्गनाइजिंग इनफॉर्मल सेक्टर वर्कर्स‘, मई 2005, मंथली रिव्यू)। यह पूरा लेख अनौपचारिक मजदूर वर्ग द्वारा पूरी दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में प्रतिरोध के नये रूपों का शानदार दस्तावेजीकरण करता है।
छठी बात, यह अनौपचारिक मजदूर वर्ग जबर्दस्त रूप से गतिशील वर्ग है। अनौपचारिक/असंगठित मजदूर रोजगार की सुरक्षा के अभाव में आम तौर पर साल भर छोटी-छोटी अवधियों के लिए कई काम करते हैं और कई पेशों में कुशल हो जाते हैं। आपको ऐसा मजदूर मिल सकता है जो राजमिस्त्री का काम जानता है और बीच-बीच में एक निर्माण मजदूर के रूप में काम करता है; लेकिन साथ ही वह लोहे की चादर बनाने वाले कारखाने में, ऑटोमोबाइल के पुरजे बनाने के कारखाने में, प्रेशर कुकर से लेकर स्क्रीन प्रिण्टिंग के पेण्ट बनाने के कारखानों और निर्यातोन्मुख कपड़ा उद्योग में काम कर चुका होता है; ऐसा कोई काम न होने पर वह रेहड़ी-ठेला-खोमचा आदि लगा लेता है और अप्रैल-जुलाई तक के महीनों में पंजाब, पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा आदि में खेत मजदूर के रूप में भी काम कर आता है। कहने का अर्थ यह है कि यह मजदूर वर्ग कार्यस्थल के मामले में अति-गतिशील वर्ग है। इस बात की ताईद जनगणना, राष्ट्रीय नमूना सर्वेक्षण, राष्ट्रीय ग्रामीण श्रम आयोग के ऑंकड़ों से लेकर अनौपचारिक क्षेत्र के मजदूरों का अध्ययन करने वाले लगभग सभी इतिहासकार और अर्थशास्त्री करते हैं और यह तथ्य अब किसी भी शंका से परे है।
सातवीं बात, अनौपचारिक मजदूर वर्ग के बीच में पारम्परिक ट्रेड यूनियनों की मौजूदगी अपेक्षतया बहुत कम है। सही कहें तो इनके बीच किसी भी किस्म की राजनीतिक ताकत की मौजूदगी बहुत कम है। जहाँ कुछ ट्रेड यूनियनें इन मजदूरों के कुछ मसलों को उठा भी रही हैं, वहाँ ये मजदूर उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण नहीं हैं और अधिकतर मामलों में इन मजदूरों की संख्यात्मक शक्ति का इस्तेमाल पारम्परिक ट्रेड यूनियनें अपने आन्दोलनों और प्रदर्शनों को मजबूत बनाने के लिए करती हैं, जिनका उद्देश्य आम तौर पर मुख्यत: संगठित मजदूर आबादी की आर्थिक माँगों के लिए लड़ना होता है। ऐसे में एक राजनीतिक निर्वात (वैकुअम) की स्थिति सामान्य रूप में इस मजदूर आबादी के बीच मौजूद है।
आठवीं बात, वर्ग-आधारित राजनीति की प्रभावी मौजूदगी के अभाव में अक्सर अनौपचारिक/असंगठित मजदूरों की आबादी के बीच हमें सामाजिक संगठन के जातिगत या क्षेत्रगत रूप मिल सकते हैं। हम कई मामलों में देख सकते हैं कि किसी भी क्रान्तिकारी एक्टिविज्म की गैर-मौजूदगी में इन मजदूरों ने स्वत:स्फूर्त ढंग से अपने आपको संगठित किया है। लेकिन इस संगठन का आधार प्रत्यक्ष तौर पर और सतही तौर पर देखने पर जाति या क्षेत्र दिख सकता है और इसका वास्तविक प्रभाव भी होता है। लेकिन इसको ही पूरा यथार्थ मान लेना एक बहुत बड़ी भूल होगी। वास्तव में प्रत्यक्ष तौर पर ”अवर्गीय” आधार पर संगठित दिखने वाले ये मजदूर वर्ग के आधार को ही अपनी सभी संघर्ष की गतिविधियों में सबसे प्रमुख आधार बनाते हैं। जियर्ट डि नेवे ने तमिलनाडु के लूम मजदूरों के संघर्ष में इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित किया है।
ये कुछ आम नतीजे हैं जिन पर हम अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी के अपने अध्ययन के आधार पर पहुँचे हैं। लेकिन ये सबसे प्रमुख और प्रत्यक्ष रूप से नजर आ जाने वाले कुछ नतीजे हैं। इस आबादी के क्षेत्रवार बँटवारे, पेशागत बँटवारे, सामाजिक प्रोफाइल के विस्तृत और गहन अध्ययन की आवश्यकता है। इससे इस अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी के बारे में ऐसे कई तथ्य उजागर होंगे जिनकी रोशनी में उनके बीच क्रान्तिकारी संगठन का कार्य आसान होगा। लेकिन यह इस प्रस्तुति की सीमाओं के परे है। ऐसे तमाम अध्ययन आज भी चल रहे हैं और हमें उन अध्ययनों के नतीजों का आलोचनात्मक विवेचन करके अपने निष्कर्ष निकालने होंगे। फिलहाल, हम उपरोक्त कुछ प्रमुख आभिलाक्षणिकताओं के आधार पर अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग को संगठित करने की नयी रणनीतियों के बारे में चर्चा की ओर आगे बढ़ सकते हैं।
4. अनौचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग : संगठन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ
प्रस्तुति के पिछले हिस्से में अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग के बारे में निकाले गये आम नतीजों के आधार पर अब हम उन्हें संगठित करने की चुनौतियों, नये रूपों और रणनीतियों के बारे में एक संक्षिप्त चर्चा कर सकते हैं। इस चर्चा के दौरान हम प्रसंगान्तर करके कुछ बहसों का सन्दर्भ भी देंगे जिसमें इस वर्ग को संगठित करने के नये रूपों और रणनीतियों के प्रश्न पर (या इस प्रश्न पर कि अनौपचारिक/असंगठित मजदूर वर्ग को इतना महत्व दिया भी जाये या नहीं) विवाद हुए थे। इन बहसों में हम अपनी स्थिति पहले भी स्पष्ट करते रहे हैं और इस मौके का इस्तेमाल करते हुए एक बार फिर हम उन मुद्दों पर अपनी पोजीशन स्पष्ट करेंगे।
अनौपचारिक/असंगठित मजदूर आबादी को संगठित करने की सबसे बड़ी चुनौती है उस संगठन के स्थान (लोकेशन) की पहचान। मजदूर वर्ग के संघर्ष के संगठित होने की पुरानी लोकेशन अधिकांश मामलों में कारखाना या कार्यस्थल ही हुआ करती थी। आज के समय में, जैसा कि हम पहले देख आए हैं, मजदूर वर्ग के 93 प्रतिशत हिस्से को काम करने की जगह के आधार पर पूँजी ने बिखराया है। हमने उन ऑंकड़ों का जिक्र किया था जो बताते हैं कि आज देश की सभी मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों में से 80 फीसदी के करीब ऐसी इकाइयाँ हैं, जिनमें 50 से भी कम मजदूर काम करते हैं। जिन 20 प्रतिशत मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों में 50 से अधिक मजदूर काम करते हैं उनमें भी अधिकांश मजदूर अब अस्थायी, कैजुअल, दिहाड़ी या ठेका मजदूर के रूप में काम करते हैं। ऐसे में कारखाने की कार्यशक्ति का प्रोफाइल बेहद अस्थिर (वोलाटाइल) होता जा रहा है। नतीजतन, मजदूर यूनियनों को कारखानों को आधार बनाकर संगठित करने का कार्य बेहद मुश्किल होता जा रहा है। अगर ऐसी यूनियनें बन भी जाती हैं तो उनकी ताकत अधिकांश मामलों में सीमित होती है। श्रम कानूनों के ढीले होते जाने के कारण उनकी ताकत और भी कम हुई है। पिछले दो दशकों के दौरान हुए अधिकांश कारखाना संघर्षों में मजदूर वर्ग को पहले के मुकाबले कहीं अधिक मामलों में पराजय का सामना करना पड़ा है। कई मामलों में (जैसे कि गोरखपुर मजदूर आन्दोलन के दौरान) मजदूरों के कारखाना-पारीय मजबूत संगठन ने राज्य की एजेंसियों को तो झुका दिया (जो कि मजदूरों की एक महत्वपूर्ण राजनीतिक विजय थी) लेकिन जिन मुद्दों पर मजदूर आन्दोलन शुरू हुआ था वे मुद्दे काफी हद तक असमाधानित ही रह गये। कई मामलों में जिन कारखानों के मुद्दे संघर्ष के केन्द्र में होते हैं वे कारखाने ही बन्द हो गये या उनके मालिकों ने कुछ समय के लिए कारखाना बन्द करके फिर से पूरी तरह से नयी कार्यशक्ति के साथ उत्पादन शुरू करवाया। कई बार ऐसे कारखाना-मालिकों ने पुरानी जगह से कारखाने को हटाकर नयी कार्यशक्ति से साथ नयी जगह पर कारखाना खोल लिया। लेकिन मालिकों के इस पलायनवादी रुख में भी पूँजी का फायदा ही निहित रहता है; श्रम की ताकतों को राजनीतिक विजय निश्चित रूप से मिलती है लेकिन उन माँगों पर बात ज्यादा आगे नहीं बढ़ पाती है, जो माँगें उठायी जाती हैं। और यह हम सर्वश्रेष्ठ सम्भावित स्थिति की बात कर रहे हैं, जैसा कि गोरखपुर मजदूर आन्दोलन में देखने को मिला। अधिकांश मामलों में तो यह भी हासिल नहीं हो पाता है और प्रशासन की पूरी मदद के साथ कारखाना-मालिक मजदूरों के प्रति एक दमनकारी और निरंकुश रुख अख्तियार करते हैं और काफी हद तक कामयाब भी हो जाते हैं। प्रभु महापात्र ने अपने ऊपर उल्लिखित अध्ययन में बताया है कि पिछले दो दशकों में ट्रेड यूनियन पक्ष की तरफ से श्रम न्यायालय में दाखिल की गयी याचिकाओं की संख्या में भारी कमी आयी है। अन्य ऑंकड़े भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं। इसलिए यह आज एक प्रत्यक्ष यथार्थ बन चुका है कि भूमण्डलीकरण और अनौपचारिकीकरण के साथ कारखाना-आधारित संघर्षों का ग्राफ पहले की अपेक्षा आम तौर पर नीचे आया है। गुड़गाँव में हाल ही में कारखाना-मजदूरों ने एक विशाल और पूरे प्रशासन को हिला देने वाला आन्दोलन किया। लेकिन वह भी कोई कारखाना-केन्द्रित मुद्दों पर संगठित हुआ आन्दोलन नहीं था, बल्कि कारखाना मजदूरों का एक इलाकाई उभार था। जब हम कहते हैं कि कारखाना-आधारित संघर्षों का ग्राफ नीचे आया है तो इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि कारखाना मजदूर अब बैठ गये हैं, कम रैडिकल हो गये हैं, लड़ नहीं रहे हैं, ‘उत्पादन ठप्प करने के अपने अमोघ हथियार से वंचित हो गये हैं’, आदि। हमारा अर्थ सिर्फ इतना है (न इससे कम, न इससे ज्यादा) कि कारखाना-मजदूरों के आन्दोलनों के पुराने रूप और रणनीतियाँ आज के नये दौर में उतने कारगर नहीं रह गये हैं। यह हमारी इच्छा से स्वतन्त्र एक तथ्य है और इसके लिए आपको कारखाना-विवादों और इससे सम्बन्धित दायर याचिकाओं के पिछले दो दशकों पर निगाह डालने की आवश्यकता है। तथ्य अपनी कहानी स्वयं कह देते हैं।
ऐसे में क्या किसी पस्तहिम्मती या निराशा का शिकार हो जाया जाये? हमारा कहना है नहीं! कतई नहीं! सही वैज्ञानिक पद्धति और विश्लेषण के जरिये हम इस नकारात्मक को सकारात्मक में बदल सकते हैं। आज की बदलती परिस्थितियों में हमें कारखाना गेटों से बस्तियों की ओर जाना होगा और फिर कारखाना गेटों की ओर वापस लौटना होगा। इस बात पर चर्चा से पहले हम भूमण्डलीकरण के दौर में पूँजीवादी विकास की गतिकी की एक विशेष आभिलाक्षणिकता की ओर इशारा करना चाहेंगे। हम देख आये हैं कि पूँजी ने अपने आर्थिक और राजनीतिक हितों के मद्देनजर मजदूर आबादी को कारखाना या कार्यस्थल के स्तर पर किस तरीके से विसंगठित किया है। यह एक तथ्य है जिससे आज कोई इंकार नहीं कर सकता। फैक्टरी-फ्लोर संघर्ष के साथ अपने भावनात्मक हैंगओवर के चलते कोई बीस उदाहरण दे सकता है जिसमें वह बता सकता है कि फलाँ-फलाँ जगहों पर आज के समय में भी विशाल कारखाना लग रहा है। हम उससे सिर्फ इतना ही कहेंगे कि निश्चित रूप से कई जगहों पर आज भी बड़े कारखाने लग रहे हैं या चल रहे हैं। लेकिन हम दो बातों की ओर इशारा करना चाहेंगे। पहली बात तो यह है कि यह आम रुझान है या नहीं है – इसका फैसला पूरे देश के पैमाने पर मौजूद ऑंकड़ों से किया जाना चाहिए। मैन्युफैक्चरिंग इकाइयों का औसत आकार लगातार घटा है। दूसरी बात यह कि अगर ऐसा न भी हो तो कारखाने के आकार से कोई फर्क नहीं पड़ता है। हम जिस निर्धारक कारक की बात कर रहे हैं वह कारखाने का आकार नहीं है; वह तो एक सहायक तथ्य है जिससे हम अपने मुख्य तर्क का समर्थन करते हैं। एक पल को उसे किनारे भी कर दिया जाये तो मुख्य बात बड़े कारखानों के भीतर भी श्रम का अनौपचारिकीकरण है जो कारखाना-आधारित संघर्षों की संभाव्यता को न्यूनातिन्यून बनाता जा रहा है। यह आज एक तथ्य है कि कार्यस्थल पर मजदूर वर्ग को पूँजी ने पिछले दो दशकों में लगातार विसंगठित किया है। लेकिन यहीं पर हम उस दूसरी परिघटना की ओर इशारा करना चाहेंगे, जिसमें हमारे लिए सम्भावनाएँ अन्तर्निहित हैं।
आधुनिक, विशेष रूप से भूमण्डलीकरण के दौर में होने वाला पूँजीवादी विकास, मजदूर वर्ग को उसके रिहायश की जगह के आधार पर कभी विसंगठित नहीं कर सकता है। इस पूँजीवादी विकास के मॉडल के साथ शहरी विकास का जो मॉडल नत्थी है वह इतने विशाल पैमाने पर मजदूरों की रिहायश का भौगोलिक संकेन्द्रीकरण कर रहा है, जो अभूतपूर्व है। माइक डेविस, अमिताभ कुण्डू, और ऐसे न जाने कितने मार्क्सवादी/गैर-मार्क्सवादी बुध्दिजीवी हैं जिन्होंने आज के पूँजीवादी शहरीकरण का अध्ययन करते हुए अब तक के व्यापकतम झुग्गीकरण की ओर हमारा ध्यान खींचा है। आज के पूँजीवादी विकास और शहरीकरण की विशेषता यह है कि वह मजदूरों को कारखाना-स्तर पर तो विसर्जित कर रहा है लेकिन उन्हें रिहायश के आधार पर एक जगह इकट्ठा करता जा रहा है। मजदूर आबादी को रिहायशी आधार पर समूचे शहरी लैण्डस्केप में बिखेर देना राज्यसत्ता के लिए सम्भव ही नहीं है। यह पूँजीवाद के सामाजिक अवलम्बों और ”सम्प्रभु उपभोक्ता” को कतई स्वीकार नहीं होगा कि उसके शहर की सड़कों पर एक ”भूरी भीड़” मंडराती रहे और उसके ”सुन्दर जीवन सन्दर्भ” को असुन्दर बनाए। इसलिए हर बड़े औद्योगिक, शहरी और वाणिज्यिक केन्द्र के इर्द-गिर्द मजदूर झुग्गी-बस्तियों का एक विशाल ढाँचा आज देखा जा सकता है। ये केन्द्र ऐसी बस्तियों और मजदूरों के उमड़ते-घुमड़ते विशाल समुद्र से घिरे हुए हैं। मजदूर आबादी इन इलाकों से काम करने जाती है और फिर वापस अपनी बस्ती लौट आती है। यह पूरी मजदूर आबादी एक बेहद बहुरूपी, बहुपेशा, बहुकुशल, बहुजातीय, बहुक्षेत्रीय मजदूर आबादी है।
मजदूर आन्दोलन के लिए ये रिहायशी क्षेत्र सम्भावना के जबर्दस्त स्रोत हैं। अगर इन मजदूरों को उनके रिहायशी इलाकों में संगठित करने के तौर-तरीके ईजाद हो सकें तो यह आज के संकट को तोड़ने का एक रास्ता साबित हो सकता है। जाहिर है, मजदूरों का ऐसा कोई भी संगठन अधिक व्यापक वर्ग एकता को स्थापित करेगा। इसलिए आज की जरूरत है ऐसी इलाकाई और पेशागत ट्रेड यूनियनों का निर्माण जो विभिन्न पेशों में लगे हुए मजदूरों और साथ ही बेरोजगार मजदूर आबादी को संगठित करे। ऐसी इलाकाई या पेशागत ट्रेड यूनियनें कारखाना-आधारित संघर्षों को एक नये रूप में संगठित कर सकती हैं। इसके अतिरिक्त, वे ऐसे कई मुद्दों पर संघर्ष कर सकती हैं जो मजदूरों के राजनीतिकरण को कहीं अधिक बढ़ावा देगा जो मजदूरों को पूँजी के हमलों के समक्ष एक वर्ग के रूप में संगठित करे। इलाकाई और पेशागत ट्रेड यूनियनें एक ही सिक्के का दो पहलू हैं। किसी इलाके के मजदूर एक इलाकाई ट्रेड यूनियन में संगठित होने के साथ-साथ पेशागत तौर पर बनायी गयी ट्रेड यूनियनों में भी संगठित हो सकते हैं। यहाँ इलाकाई और पेशागत ट्रेड यूनियनें अलग-अलग निकाय नहीं हैं। हम पेशागत ट्रेड यूनियन को देखते हैं या इलाकाई ट्रेड यूनियन को, यह इस बात पर निर्भर करेगा कि हम उस समय किस रणनीति और रणकौशल को ध्यान में रखते हुए, किस जगह खड़े होकर देख रहे हैं। जहाँ एक ओर इलाकाई ट्रेड यूनियन मजदूर वर्ग के आर्थिक हितों की रक्षा और पूँजी के हमलों के समक्ष वर्ग को संगठित करने के लिए तात्कालिक महत्व रखती हैं, वहीं पेशागत यूनियनें आने वाले दौर में एक पूरे सेक्टर को ठप्प करने की सम्भावना-सम्पन्नता से युक्त हैं, जो पूरे पूँजीवादी तन्त्र के संचय को अस्थिर कर सकता है। इलाकाई यूनियन किसी औद्योगिक क्षेत्र में इलाकाई हड़ताल कर अपनी माँगों पर पूँजीपति वर्ग को तत्काल झुकाने के काम को कारगर तरीके से अंजाम दे सकती है। वहीं पेशागत यूनियन किसी एक पूरे पेशे की नगरव्यापी, प्रदेशव्यापी, देशव्यापी या यहाँ तक कि विश्वव्यापी हड़ताल को अंजाम दे सकती है और उस पूरे सेक्टर को ही ठप्प कर सकती है।
कारखाना-केन्द्रित मुद्दों पर संघर्ष भी ऐसी यूनियनों के जरिये कारगर रूप से संगठित किया जा सकता है। इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है। किसी ऐसे औद्योगिक क्षेत्र की कल्पना करें जिसमें भारी संख्या में छोटे और मँझोले आकार के कारखाने हैं। आम तौर पर ऐसे औद्योगिक क्षेत्र में काम करने वाले मजदूर उसी केन्द्र के इर्द-गिर्द बनी झुग्गी-बस्तियों में रहते हैं। अब फर्ज कीजिए कि उस औद्योगिक क्षेत्र के किसी कारखाने में मालिक 5 मजदूरों को अन्यायपूर्ण तरीके से निकाल देता है, जिसमें कुल मजदूर 80 से 100 के बीच हैं। कारखाना यूनियन इस मुद्दे को लेकर संघर्ष करती है। अगर यह संघर्ष कारखाना-केन्द्रित ही रहता है तो ज्यादा सम्भावना यही होगी कि इसमें मजदूर यूनियन को विजय नहीं मिलेगी। या तो कोई ऐसा समझौता होगा जिसमें मालिक का हाथ ऊपर रहेगा या फिर कोई भी माँग नहीं मानी जाएगी और निकाले गये मजदूरों को वापस नहीं लिया जाएगा। अब फर्ज कीजिये कि उस औद्योगिक केन्द्र के मजदूरों की इलाकाई यूनियन मौजूद है। यह मुद्दा उसके समक्ष आता है और वह कारखाना मालिक से मजदूरों को वापस रखने की माँग करती है। कारखाना मालिक के न मानने पर वह इस मुद्दे पर पूरे औद्योगिक क्षेत्र के मजदूरों के एकजुट और संगठित संघर्ष की शुरुआत करती है और पूरे इलाके में औद्योगिक उत्पादन ठप्प कर देती है। ऐसे में, श्रम की संगठित ताकत पूँजी के लिए एक संकट पैदा कर देगी। अन्य कारखाना मालिक मिलकर कोई रास्ता निकालने और समझौता करने के लिए उस कारखाना मालिक पर दबाव डालेंगे जिसके कारखाने में विवाद हुआ है। ऐसी यूनियन की मौजूदगी में किसी भी कारखाना मालिक को तुरन्त नये मजदूर काम करने के लिए नहीं मिल जाएँगे। इसके अतिरिक्त, किसी भी इलाकाई यूनियन की सदस्यता चूँकि किसी कारखाने में काम करने के आधार पर नहीं बल्कि उस इलाके में रिहायश के आधार पर होगी, जिसमें कि तमाम ऐसे मजदूर भी शामिल होंगे जो फिलहाल बेरोजगार हैं। ऐसे में, किसी भी कारखाना मालिक के लिए संकट का समय रहते समाधान कर पाना बहुत मुश्किल होगा। ऐसी शक्तिशाली इलाकाई यूनियन के होने पर पूरे औद्योगिक क्षेत्र में जुझारू तरीके से पिकेटिंग का काम कर पाना भी सम्भव होगा, जो एक छोटे या मँझोले कारखाने की यूनियन कारगर तरीके से नहीं कर पाएगी, क्योंकि उसे ऐसा करने से रोकने के लिए मालिकों के भाड़े के गुण्डे ही काफी होंगे। लेकिन एक विशाल इलाकाई यूनियन को रोक पाने के लिए भाड़े के गुण्डों की कोई भी मात्रा पर्याप्त नहीं होगी। ऐसे में अधिक सम्भावना इसी बात की होगी कि कारखाना मालिकों को झुकना पड़ेगा। इस तरह के दो प्रयोग हमारे सामने हैं।
पहला प्रयोग है 1988 के असंगठित मजदूरों की सात दिन की हड़ताल। इसके बारे में जानने के लिए आप इंद्राणी मजूमदार के उस प्रशंसनीय शोध को देख सकते हैं जो इस हड़ताल पर आधारित है। (अनऑर्गनाइज्ड वर्कर्स स्ट्राइक इन डेल्ही, 1988, लेबर इन दि पब्लिक एरीना : रिप्रेजेण्टेशन एण्ड मार्जिनैलिटी, वी.वी. गिरी नेशनल लेबर इंस्टीटयूट, नोएडा, 2004) इसमें इंद्राणी मजूमदार ने हड़ताल को संगठित करने की पूरी प्रक्रिया, पिकेटिंग की नयी रणनीति और मजदूरों के प्रचार के तौर-तरीकों के बारे में विस्तार से बताया है। मजदूर पिकेटिंग के लिए कारखाना-गेटों पर नहीं जाते थे, क्योंकि यह इलाकाई पैमाने पर हुई हड़ताल थी और कारखाना गेटों पर जाने का कोई अर्थ नहीं होता। इसलिए सभी औद्योगिक क्षेत्रों में उन रास्तों और गलियों के मुहानों पर पिकेटिंग टोलियाँ खड़ी रहती थीं जहाँ से मजदूर गुजरते थे। 7 दिनों तक इस हड़ताल को मजदूरों ने शानदार तरीके से चलाया और सरकार को काफी हद तक झुकाने में कामयाब रहे।
दूसरा उदाहरण, 2009 में दिल्ली के बादाम मजदूरों की हड़ताल का है जिसमें 16 दिनों तक हजारों बादाम मजदूरों ने करावल नगर इलाके में हड़ताल की। यह हड़ताल एक समझौते में समाप्त हुई और मजदूरी को जिस हद तक बढ़ाने व अन्य सुविधाएँ देने की माँग इलाकाई यूनियन कर रही थी, वे पूरी तरह नहीं मानी गईं। लेकिन एक आंशिक विजय के बावजूद इस हड़ताल के दौरान इलाकाई पैमाने की यूनियन का एक अच्छा प्रयोग हुआ। इस दौरान करीब 70 बादाम कारखानों के मजदूरों ने दो हफ्ते तक बादाम कारखाना मालिकों के खिलाफ जबर्दस्त संघर्ष चलाया और करावल नगर के बादाम उद्योग को 80 प्रतिशत तक ठप्प रखा। आखिरी दो दिनों के दौरान कुछ कारकों के चलते हड़ताल कुछ कमजोर पड़ी। इसका प्रमुख कारण था मालिकों के दलालों द्वारा फैलायी जा रही अफवाहें। यह बादाम मजदूरों की पहली ऐसी हड़ताल थी और हर स्थिति से निपट पाने का अनुभव और इलाकाई पैमाने की ट्रेड यूनियन की गतिविधियों को चुस्त तरीके से संगठित कर पाने का तजुरबा मजदूरों और यूनियन नेतृत्व के पास नहीं था, जिससे कि कुछ मौकों पर चूकें हुईं। उसके बावजूद इस हड़ताल ने यह साबित किया कि एक इलाकाई पैमाने की यूनियन पूरे इलाके में एक पूरे उद्योग को ठप्प कर सकती है। इस हड़ताल के दौरान दिल्ली के मेवा बाजार में बादाम की कीमतें दोगुनी तक बढ़ गयीं और यह तमाम राष्ट्रीय अखबारों से लेकर राष्ट्रीय और अन्तरराष्ट्रीय वेबसाइटों की सुर्खी बना। इस दौरान मजदूर पुलिस से भी टकराये और दमन की धमकियों के बावजूद पीछे नहीं हटे। महिला मजदूरों ने विशेष रूप से हड़ताल को चलाने के लिए जुझारू तरीके से काम किया। इस पूरे हड़ताल के अनुभव के बारे में मजदूर अखबार ‘नई समाजवादी क्रान्ति का उद्धोषक बिगुल‘ के जनवरी 2010 के अंक की रिपोर्ट देखी जा सकती है।
इसके अतिरिक्त, दुनिया के कई देशों में ऐसे प्रयोग चल रहे हैं और हम ऐसी बात कहने वाले पहले नहीं हैं। अन्य देशों में इलाकाई मजदूर यूनियनों और आन्दोलनों के प्रयोग के बारे में जानने के लिए देखे फातिमा उल्कू सेल्चुक का ‘मंथली रिव्यू‘ में लिखा गया लेख (‘ड्रेसिंग दि वूण्ड : ऑर्गनाइजिंग इनफॉर्मल सेक्टर वर्कर्स‘, मई 2005, मंथली रिव्यू)।
इलाकाई और पेशागत यूनियनें हमें कारखाना संघर्षों को और बेहतर तरीके से संगठित करने का अवसर तो देती हैं, लेकिन साथ ही हमें कई ऐसे मुद्दों पर मजदूर आबादी को संगठित करने और उनके राजनीतिकरण का अवसर देती हैं जो एक कारखाना-आधारित यूनियन नहीं देती। इलाकाई आधार पर संगठित यूनियन कई ऐसे अधिकारों के लिए संघर्ष कर सकती हैं जो अनिवार्यत: कारखाने से नहीं जुड़े होते, लेकिन मजदूर वर्ग के बेहद महत्वपूर्ण और मूलत: और मुख्यत: अधिक राजनीतिक चरित्र रखने वाली माँगें हैं। मिसाल के तौर पर, आवास का प्रश्न; सहज, सुलभ और सस्ती चिकित्सा सुविधाओं का अधिकार; मजदूरों के बच्चों के लिए शिक्षा का अधिकार; जिन रिहायशी इलाकों में मजदूर रहते हैं उनमें तमाम बुनियादी सुविधाओं की माँग जैसे कि पीने योग्य पानी, बिजली, सैनीटेशन सिस्टम, महिला मजदूरों के लिए शिशु घर, आदि। ये मजदूरों की ऐसी माँगें हैं जिनका चरित्र मजदूरों के नागरिक अधिकारों की माँगों जैसा है। कुछ साथी समझते हैं कि ये मुद्दे ‘एन.जी.ओ. ब्राण्ड’ मुद्दे हैं या ‘सुधारवादी’ मुद्दे हैं! किसी त्रासद स्थिति को ‘नॉर्म’ बना देने या समझ लेने से जो स्थिति उत्पन्न होती है उसे दुखद विडम्बना कहा जा सकता है। कहने का अर्थ है कि अगर आज मजदूरों के ऐसे अधिकारों के मुद्दों को एन.जी.ओ. और स्वयंसेवी संगठन ले उड़े हैं और उन्हें सुधारवादी तरीके से उठाकर जिम्मेदारी का बोझ राजसत्ता के कन्धों से हटा दे रहे हैं और ”सहकार” और आपसी सहायता समूह जैसे सुधारवादी उपकरणों से इन मुद्दों का दिखावटी समाधान कर रहे हैं, तो यह एक त्रासदी है। ये तो ऐसी माँगें हैं जिन्हें मजदूरों की क्रान्तिकारी ट्रेड यूनियन को उठाना चाहिए। इन माँगों पर संघर्ष को संगठित करने के कई फायदे हैं। किसी भी आर्थिक माँग के मुकाबले इन माँगों के जरिये मजदूर आबादी का ज्यादा व्यापक और सघन राजनीतिकरण किया जा सकता है। ये माँगें प्रकृति से ही राजनीतिक हैं और पूरी पूँजीवादी व्यवस्था को कठघरे में खड़ा करती हैं। ये नागरिक पहचान पर मजदूर वर्ग के दावे को एसर्ट करती हैं और इसके जरिये पूँजीवादी नागरिक समाज की सच्चाई को मजदूरों के समक्ष उजागर करने में सहायता करती हैं। ये पूरी पूँजीवादी सत्ता और समाज को मजदूर वर्ग की निगाह में बेनकाब करती हैं। ऐसी माँगों पर क्रान्तिकारी संगठन और संघर्ष मजदूरों के बीच जहर की तरह फैलते एन.जी.ओ. सुधारवाद की भी कब्र खोदने का काम करेगा। हर तरह से ये माँगें मजदूर वर्ग को राजनीतिक तौर पर सचेत और शक्तिशाली बनाएँगी। लेनिन ने ‘जनवादी क्रान्ति की मंजिल में सामाजिक-जनवाद के दो रणकौशल’ नामक अपनी रचना में स्पष्ट रूप से बताया है कि सर्वहारा वर्ग को नागरिक पहचान पर अपने दावे को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। लेनिन ने लिखा है कि बुर्जुआ जनवाद ही वह स्पेस है जिसमें सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीति को सबसे व्यापक और सघन रूप से चला सकता है। बुर्जुआ जनवाद जो भी जनवादी और नागरिक अधिकार देता है, मजदूर वर्ग को किसी भावी ‘ठोस वर्ग संघर्ष‘ के इन्तजार में उस पर अपना दावा कभी नहीं छोड़ना चाहिए। यही तो पूँजीपति वर्ग चाहता है। कानूनी तौर पर मजदूर समान अधिकार प्राप्त नागरिक होता है लेकिन वास्तविकता में वह हर व्यावहारिक अर्थ में दोयम दर्जें का नागरिक होता है। ऐसे में मजदूर वर्ग अगर स्वयं ही इस अनौपचारिक सच्चाई को औपचारिक तौर पर मान लेगा, तो यह बेहद नुकसानदेह होगा।
दूसरी बात यह है कि जिन नागरिक अधिकारों के मुद्दों को लेकर मजदूर आन्दोलन संघर्ष करेगा उनका एक वर्ग चरित्र होगा। जाहिर है कि ये मुद्दे प्रियदर्शिनी मट्टू या जेसिका लाल को इंसाफ देने के लिए उठाए जाने वाले मध्यवर्गीय नागरिक अधिकार के मुद्दे नहीं होंगे। हम जिन नागरिक अधिकारों के मुद्दों को उठाएँगे उनका रिश्ता मजदूरों के भौतिक, जैविक और सांस्कृतिक पुनरुत्पादन से होगा। यह बात भी कोई नयी बात नहीं है। अगर हम चार्टिस्ट आन्दोलन के माँगपत्रक को उठाकर देखें तो हम पाएँगे कि जिन माँगों को कुछ साथी गलती से ”नागरिक मुद्दे” मात्र समझ बैठे हैं वे उसमें पर्याप्त संख्या में मौजूद हैं। वास्तव में, 19वीं सदी के यूरोप और अमेरिका में सर्वहारा वर्ग के अधिकांश बड़े और राजनीतिक आन्दोलनों में उस मजदूर वर्ग की बड़े पैमाने पर शिरकत रही थी जिसे आज असंगठित मजदूर वर्ग कहा जाता है और इन आन्दोलनों ने इन तथाकथित ”नागरिक मुद्दों” को काफी प्रमुखता के साथ उठाया था। लेकिन ऐतिहासिक दृष्टि के अभाव में और आज के एन.जी.ओ. राजनीति के घटाटोप में कुछ साथी इन माँगों को ही सुधारवादी एन.जी.ओ. ब्राण्ड नागरिक मुद्दे समझ बैठते हैं। अगर इस समझदारी को दुरुस्त नहीं किया गया तो इसके गम्भीर परिणाम हमें भविष्य में उठाने पड़ सकते हैं।
इससे पहले कि हम अपनी बात को आगे बढ़ाएँ, एक और गलत धारणा का खण्डन जरूरी है। एक निहायत ही अर्थवादी और भोंडी अवधारणा यह है कि ऐसी माँगें उठाकर हम संघर्ष को उत्पादन से उपभोग के क्षेत्र में लेते जाएँगे। ऐसी सोच रखने वाले साथी मार्क्सवाद की यह बुनियादी शिक्षा भूल जाते हैं कि पूँजीवादी समाज में श्रमशक्ति भी एक माल होती है और इस माल के पुनरुत्पादन का लोकेशन मजदूरों की बस्तियाँ और रिहायशी इलाके हैं। पीने योग्य पानी, आवास, चिकित्सा, शिक्षा आदि जैसे तथाकथित ”नागरिक मुद्दे” उठाकर मजदूर वर्ग अपने पुनरुत्पादन के लिए आवश्यक पूर्वशर्तों के लिए संघर्ष करेगा। इससे संघर्ष ”उपभोग के क्षेत्र” में नहीं चला जाएगा। ऐसी अर्थवादी समझ बरकरार रही तो मजदूर वर्ग के पास कारखाने में वेतन और भत्तों के लिए लड़ने के अलावा कोई मुद्दा ही नहीं बचेगा!
इस मुद्दे पर अन्त में हम इतना कहना चाहेंगे कि आज के दौर में मजदूर वर्ग की इलाकाई और पेशागत ट्रेड यूनियनें बनानी होंगी। इसका यह अर्थ कदापि नहीं निकाला जाना चाहिए कि कारखानों में यूनियनें नहीं बनायी जानी चाहिए। निश्चित रूप से कारखानों में यूनियनें बनानी होंगी और जहाँ कहीं भी सम्भव हो, हमें जरूर बनानी चाहिए। लेकिन जहाँ कारखाना-केन्द्रित यूनियनें बनेंगी वहाँ पर भी हमें इलाकाई और पेशागत यूनियनें बनानी होंगी। इसके बिना, सिर्फ कारखाना-केन्द्रित यूनियनों के जरिये, हम पूँजी के हमलों के समक्ष मजदूर वर्ग को एक वर्ग के रूप में कारगर तरीके से संगठित नहीं कर सकेंगे। इलाकाई और पेशागत यूनियनें मजदूर वर्ग की ठोस आर्थिक माँगों, कारखाना-केन्द्रित माँगों पर प्रभावी तरीके से लड़ने के अलावा कहीं अधिक राजनीतिक चरित्र रखने वाली आर्थिक और गैर-आर्थिक माँगों पर मजदूरों को संगठित कर सकती हैं।
भूमण्डलीकरण और अनौपचारिकीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के संघर्ष और प्रतिरोध के नये रूपों को ईजाद करने का कार्यभार एक चुनौतीपूर्ण कार्यभार है। इसे निभाने के लिए हमें हर प्रकार के अर्थवादी, अराजकतावादी और कठमुल्लावादी नजरिये से निजात पानी होगी; पूँजीवाद की कार्य-प्रणाली और मजदूर वर्ग की संरचना और प्रकृति में आए बदलावों को समझना होगा; पूँजी द्वारा श्रम के विरुद्ध अपनायी गयी नयी रणनीतियों को समझना होगा; इसके बिना हम मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों और रणनीतियों का रचनात्मक तरीके से निर्माण नहीं कर सकते। जब तक हम यह नहीं करते, मजदूर आन्दोलन के उस संकट का समाधान भी नहीं हो सकता है, जिसके बारे में हमने शुरुआत में बात की थी। आज देश के और दुनिया भर के मजदूर आन्दोलन के गतिरोध को तोड़ने के काम का एक महत्वपूर्ण पहलू भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के प्रतिरोध के नये रूपों की ईजाद है। और ऐसा सोचने वाले दुनिया में हम अकेले लोग नहीं हैं।
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‘भूमण्डलीकरण के दौर में मजदूर वर्ग के आन्दोलन और प्रतिरोध के नये रूप और रणनीतियाँ’ की पीडीएफ फाइल