जाति व्यवस्था-सम्बन्धी इतिहास-लेखनः कुछ आलोचनात्मक प्रेक्षण
चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्तुत आलेख
– अभिनव सिन्हा
जाति व्यवस्था पर लिखे जाने वाले तमाम लेखों, शोध-निबन्धों व अन्य प्रकार की रचनाओं की शुरुआत लगभग सभी मामलों में कुछ अत्यधिक प्रयोग का शिकार हो चुके वाक्यों या वाक्यांशों से होती है, और चूँकि पर्याप्त घिस जाने के बाद भी ये जुमले एक हद तक एक सच्चाई का बयान करते हैं, इसलिए मैं भी ऐसे ही कुछ वाक्यों से शुरुआत करूँगा।
जाति/वर्ण भारतीय सामाजिक जीवन का एक प्रमुख यथार्थ है। भारतीय समाज का अध्ययन करने वाला कोई भी इतिहासकार, समाजशास्त्री, नृविज्ञानी और यहाँ तक कि राजनीतिक अर्थशास्त्री भी, इस सच्चाई की उपेक्षा नहीं कर सकता है। निश्चित तौर पर, यह बात सही है कि भारतीय जनमानस पर जातिगत मानसिकता का प्रभाव गहराई तक है। लेकिन जाति व्यवस्था और जातिगत मानसिकता की बात पर ज़ोर डालते हुए कई बार सामान्य लोगों से लेकर अकादमिकों, राजनीतिक कार्यकर्ताओं तक में इस पहलू को भारतीय समाज और जीवन का एकमात्र सर्वप्रमुख पहलू करार देने का रुझान होता है। ऐसा करके व्यवहारतः वह जाति व्यवस्था और जातिगत मानसिकता की समस्या को वस्तुतः समाधान के एजेण्डे पर नहीं रखते, बल्कि उसे एक ऐसा अतियथार्थ बना देते हैं, जिसके पार जाना सम्भव नहीं है। वास्तव में, इस प्रकार के निष्कर्षों में जो चीज़ निहित होती है, वह है जाति व्यवस्था के प्रति एक अनैतिहासिक नज़रिया। जाति व्यवस्था एक प्रकार से अनादि और अनन्त बना दी जाती है; एक ऐसा यथार्थ जो शाश्वत और सनातन है। निस्सन्देह, आम तौर पर इस प्रकार के बयान देने वाले लोगों का यह मक़सद नहीं होता है। लेकिन वस्तुगत तौर पर इस प्रकार की बातों का नतीजा कुछ ऐसा ही निकलता है। जाति व्यवस्था के प्रति एक ऐतिहासिक दृष्टिकोण न अपनाना एक प्रकार का पराजय-बोध पैदा करता है, जो कि जाति व्यवस्था को अपराजेय बनाकर प्रस्तुत करता है। अन्य सभी संघर्षों, “पहचानों” और वर्ग-संघर्ष को ख़ारिज करते हुए यह नज़रिया जाति व्यवस्था को भारतीय जीवन और जनता का एक अभिन्न अंग बना देता है, उसकी जैविक विशिष्टता में तब्दील कर देता है और इसे भारतीय जनमानस की परिभाषा देने का पैमाना बना दिया जाता है। हाल ही में, भारतीय जनता के मानस में मौजूद ऐसी आदिम और सर्वसत्तावादी चेतना (!) के कारण कुछ बुद्धिजीवियों ने भारतीय जनता को ही मूल तौर पर एक ‘सर्वसत्तावादी समुदाय’ करार दिया! उनके मुताबिक भारत में आधुनिकता की परियोजना के पूरा न होने कारण समाज में ‘नीचे से’ (यानी कि जनता के बीच) तमाम सर्वसत्तावादी रुझान मौजूद हैं जो जातिवाद, खाप पंचायतों, साम्प्रदायिकता, आदि के रूप में अपने आपको प्रकट करते हैं! इसलिए इन बुद्धिजीवियों के अनुसार अभी भारत में पहले आधुनिकता की परियोजना को पूरा किया जाना चाहिए, और जब तक कि आधुनिकता की परियोजना को एक मुकम्मिल मुक़ाम तक नहीं पहुँचा दिया जाता, तब तक पूरे सामाजिक-आर्थिक ढाँचे के क्रान्तिकारी परिवर्तन की परियोजना को, कमोबेश, स्थगित कर दिया जाना चाहिए! इस प्रकार की बात कहने वाले ये अकेले लोग नहीं हैं, और भी तमाम बुद्धिजीवियों ने ऐसी और इससे मिलती-जुलती बातें कहीं हैं। ऐसी बातों में एक पूर्वधारणा काम कर रही होती है। यह पूर्वधारणा यह है कि पूँजीवाद को जनवादी और आधुनिकता की परियोजना से सम्बन्धित कार्यभारों को पूरा करना चाहिए, और अगर वह नहीं करता तो प्रगतिशील ताक़तों का प्रमुख काम यह बन जाता है, कि पहले उन कार्यभारों को पूरा करें, और जब कि पूँजीवादी जनवाद और आधुनिकता को पूर्णता तक नहीं पहुँचा दिया जाय, तब तक सर्वहारा कार्यभारों को स्थगित किया जा सकता है। जहाँ एक ओर यह बात सच है कि पूँजीवाद को अधिक से अधिक जनवादी बनाने की हर लड़ाई में कोई भी क्रान्तिकारी हर-हमेशा भागीदारी करेगा, वहीं यह भी सच है कि ऐसा वह ठीक इसीलिए करेगा कि सर्वहारा वर्ग संघर्ष के लिए ज़्यादा मुफीद ज़मीन तैयार की जा सके, और इस प्रक्रिया के पूरे होने तक वह शुद्ध और ठोस रूप से सर्वहारा कार्यभारों को स्थगित नहीं कर देता है।
बहरहाल, इन बुद्धिजीवियों की अवस्थिति से बिल्कुल विपरीत, दूसरे छोर की, अवस्थिति अपनाने वाले बुद्धिजीवी भी हैं। ये बुद्धिजीवी जाति व्यवस्था को, या कम-से-कम, आज हम जिस जाति व्यवस्था को जानते हैं, उसे औपनिवेशिक राज्यसत्ता की निर्मिति मानते हैं। इन अकादमिकों का यह मानना है कि उपनिवेशवाद के भारत में आने से पहले जाति के साथ तमाम पहचानें/अस्मिताएँ भारतीय समाज में मौजूद थीं, और (सामंजस्यपूर्ण तरीके से) से सहअस्तित्वमान थीं। औपनिवेशिक राज्य ने अपने प्रभुत्व की परियोजना के तहत भारतीय जनता को दबाने-कुचलने के लिए अपने एथनोग्राफिक राज्य उपकरण के ज़रिये जाति का निर्माण किया! पश्चिमी प्रबोधन की तर्कणा से लैस पश्चिमी उपनिवेशवादियों ने भारत को बेहतर तरीके से शासित करने के लिए उसे बेहतर तरीके से जानना चाहा। भारत के बारे में जिस प्रकार का औपनिवेशिक ज्ञान पैदा हुआ, वह भारत में मौजूद औपनिवेशिक राज्य सत्ता की एथनोग्राफिक मशीनरी और ब्राह्मणवादी व अन्य वर्चस्वकारी समूहों के संलयन की पैदावार था, और इसी ने जाति व्यवस्था को इसके समकालीन रूप में जन्म दिया। औपनिवेशिक राज्य में चीज़ों को गिनने और वर्गीकृत करने का जो प्रबोधन की मानसिकता से पैदा हुआ फेटिश मौजूद था, उसी के कारण भारतीय जनता को भी “तार्किक” श्रेणियों में वर्गीकृत किया गया, जिसमें जाति प्रमुख श्रेणी बन गयी। जनगणना में जाति के इस्तेमाल से यह चीज़ और भी बढ़ी।
ये दोनों दृष्टिकोण ही जाति व्यवस्था की ऐतिहासिकता को नज़रअन्दाज़ करते हैं। हम इन दोनों ही दृष्टिकोणों पर इस आलेख में आगे चर्चा करेंगे।
इस आलेख में हमारा प्रमुख लक्ष्य यही है कि जाति व्यवस्था के उद्गम और सदियों से इसमें हो रहे परिवर्तनों की एक ऐतिहासिक समझदारी को विनम्रतापूर्वक सामने रखा जाय। जाति-सम्बन्धी इतिहास लेखन के विभिन्न रुझानों का एक आलोचनात्मक ब्यौरा पेश करना ही यहाँ हमारा मकसद नहीं है, क्योंकि यह आप इतिहास की किसी भी स्तरीय पाठ्यपुस्तक से प्राप्त कर सकते हैं। हमारा इरादा यह भी नहीं है कि हम महज़ यह दिखला दें कि जाति व्यवस्था सतत् गतिमान रही है, क्योंकि यह भी आज संजीदा अकादमिकों में एक स्थापित तथ्य है। प्राचीन और मध्यकालीन भारत के इतिहासकारों ने यह बार-बार प्रदर्शित किया है कि जाति व्यवस्था में अलग-अलग ऐतिहासिक दौरों में महत्वपूर्ण बदलाव आये हैं; आधुनिक भारत के इतिहासकारों ने भी यह दिखलाया है कि जाति की अस्मिता का औपनिवेशिक राज्य और राष्ट्रवादी राजनीति, दोनों ने ही किस प्रकार इस्तेमाल किया और किस प्रकार इस इस्तेमाल की प्रक्रिया के दौरान ही इन अस्मिताओं और उनके आपसी सम्बन्धों के बीच उच्चानीच क्रम में भी परिवर्तन ला दिया। तमाम समाजशास्त्रियों ने भी जाति व्यवस्था के भीतर मौजूद गतिमानता की ओर हमारा ध्यान खींचा है। इसलिए आज की तारीख़ में किसी का यह दावा करना कि जाति व्यवस्था के भीतर गतिमानता की उसने खोज की है, नये सिरे से आग या चक्के के आविष्कार की बात करने के समान होगा! यह भी बताया गया है कि जाति व्यवस्था में आने वाले बदलावों के लिए अलग-अलग युगों का सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ या परिवेश ज़िम्मेदार होता है, और उसके साथ आर्टिकुलेशन के ज़रिये ही जाति व्यवस्था के आन्तरिक ढाँचे में बदलाव आता है।
इसलिए हमारा इरादा यहाँ पहले से आविष्कृत चीज़ों का दुबारा आविष्कार करने का नहीं है। इस आलेख में हमारा एक लक्ष्य यह है कि हम इस आर्टिकुलेशन को अधिक विशिष्ट रूप में विश्लेषित करें। सामाजिक-आर्थिक कारक जाति व्यवस्था को प्रभावित और परिवर्तित करते रहे हैं, यह कहने के साथ यह बताना भी आवश्यक है कि वे सामाजिक-आर्थिक कारक क्या हैं और जिस चीज़ को हम आम शब्दों में सामाजिक-आर्थिक परिवेश या सन्दर्भ कह रहे हैं, उनकी चारित्रिक आभिलाक्षणिकताएँ क्या हैं। हमारे विचार में किसी भी दौर के प्रभावी उत्पादन सम्बन्ध और प्रभावी उत्पादन पद्धति ही हैं, जिनके साथ जाति व्यवस्था का आर्टिकुलेशन होता है। दूसरी बात, जो कि हम अपने इस आलेख में प्रस्तावित कर रहे हैं, वह यह है कि इस परस्पर अन्तरक्रिया में उत्पादन सम्बन्धों, उत्पादक शक्तियों के विकास और वर्ग संघर्ष का पहलू अन्तिम विश्लेषण में प्रमुख भूमिका निभाता है। कहने का तात्पर्य यह है कि जाति व्यवस्था और समाज में मौजूद प्रभावी उत्पादन पद्धति की परस्पर अन्तरक्रिया में उत्पादन पद्धति का भौतिक कारक अन्तिम विश्लेषण में प्रभावी भूमिका निभाता है। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि जाति व्यवस्था हर क्षण (मोमेण्ट) पर यान्त्रिक तरीके से उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बन्धों मे आने वाले परिवर्तनों से निर्धारित हो रही है। इसीलिए हमने स्पष्ट किया है कि ये परिवर्तन अन्तिम विश्लेषण में निर्धारक भूमिका निभाते हैं। इसका यह अर्थ भी कतई नहीं है कि जाति और वर्ग वास्तव में एक ही हैं, या जाति ही वर्ग है। निश्चित तौर पर, ऐसी कोई भी अवधारणा वास्तव में किसी आर्टिकुलेशन की बात नहीं कर रही है, बल्कि दो भिन्न परिघटनाओं के पूर्ण अतिच्छादन (ओवरलैपिंग) की बात कर रही है, और भारतीय इतिहास के प्रमाण दिखलाते हैं कि अपने उद्भव के दौर के अतिरिक्त जाति के सम्पूर्ण इतिहास में कोई ऐसा दौर नहीं रहा है, जब जाति और वर्ग के बीच ऐसा कोई भी सापेक्षिक अतिच्छादन मौजूद रहा हो। लेकिन उसके बाद जाति व्यवस्था और वर्ग विभाजन के बीच जो अन्तर पैदा हुआ, वह अभी तक के इतिहास में मौजूद रहा है, और अलग-अलग उत्पादन व्यवस्थाओं में इनके बीच एक संगतता (करेस्पॉण्डेंस) मौजूद रही है जिसका स्वरूप अलग-अलग उत्पादक व्यवस्थाओं के ही अनुरूप बदलता रहा है। तीसरी बात, जो हम इस आलेख में रखना चाहेंगे वह यह है कि जाति व्यवस्था हर ऐतिहासिक दौर में अलग-अलग शासक वर्गों के वर्चस्व को बनाये रखने वाली एक उपयोगी विचारधारा का काम करती रही है।
इस रूप में, जाति व्यवस्था की विशिष्टता को स्वीकारा जाना चाहिए, क्योंकि अन्य समाजों के इतिहास में शासक वर्गों के प्रभुत्व और वर्चस्व को वैधीकरण (लेजिटिमेशन) प्रदान करने वाली विचारधाराओं में इस प्रकार की निरन्तरता का तत्व मौजूद नहीं रहा है। नये शासक वर्गों के आने के साथ आम तौर पर अन्य समाजों में शासक वर्ग के शासन को वैधीकरण देने वाली नयी विचारधाराओं में परिवर्तन का पहलू प्रधान रहा है। लेकिन भारतीय सामाजिक संरचना के इतिहास में जाति की विचारधारा में तमाम बुनियादी बदलावों के बावजूद उसका मूलभूत तत्व (कोर एलिमेण्ट) जो कि इसे निर्धारित और निरूपित करता है, वह समान रहा है। हालाँकि अलग-अलग सामाजिक संरचनाओं में इस विचारधारा को जिन चर राशियों पर लागू किया गया वे बिल्कुल बदल गयीं, और स्वयं इस विचारधारा के कार्यान्वयन में भी मूलभूत अन्तर आ गये।
आगे हम जाति व्यवस्था के उद्भव, प्राचीन भारत और मध्यकालीन भारत के ऐतिहासिक कालखण्डों में उसमें आये परिवर्तनों, और उन परिवर्तनों के मूल कारणों के रूप में मौजूद उत्पादन सम्बन्धों में आये परिवर्तनों और साथ ही आधुनिक भारत में और विशेष तौर पर औपिनवेशिक काल के उत्तरार्द्ध और स्वातन्त्र्योत्तर भारत में इसमें आये कुछ बुनियादी परिवर्तनों को चिन्हित करेंगे और उसके आधार पर अपनी उपरोक्त प्रस्थापनाओं को पुष्ट करने का प्रयास करेंगे।
वर्ण/जाति व्यवस्था के उद्भव और विकास की व्याख्याएँ: इतिहास-लेखन की प्रमुख समस्याएँ
ऋग्वैदिक काल (जिसे आरम्भिक वैदिक काल भी कहा जाता है) के अन्तिम दौर में वर्ण व्यवस्था के भ्रूण रूप में विकसित होने और उत्तर-वैदिक काल में इसके सुदृढ़ीकरण के बारे में इतिहासकारों में काफ़ी विवाद है। वर्ण व्यवस्था के उदय के पीछे मूल कारक क्या थे और आगे जातियों के जन्म में किन कारकों की प्रमुख भूमिका थी, इन्हें लेकर भी इतिहासकारों में कई मत प्रचलित हैं। हम इन प्रमुख मतों को यहाँ संक्षेप में रखेंगे, और इनके बारे में अपनी राय को पेश करेंगे। वर्ण और जाति के बीच के फर्क पर भी हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन इतिहास-लेखन का विश्लेषण भी ऐतिहासिक तौर पर होना चाहिए, क्योंकि इतिहास-लेखन का इतिहास भी इतिहास के बारे में उपयुक्त विचारों, व्याख्याओं और प्रस्थापनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। इसलिए हम औपनिवेशिक दौर से शुरुआत करेंगे। उससे पहले के दौर में देशी और विदेशी प्रेक्षकों ने वर्ण/जाति व्यवस्था के बारे में जो विचार रखे थे, उनके बारे में चर्चा कर पाना इस आलेख के दायरे से बाहर है। और हमारे विश्लेषण के लिए फिलहाल यह ज़रूरी भी नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में सामाजिक विभेदन की प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन मौटे तौर पर औपनिवेशिक दौर में ही शुरू हुए। आगे हम औपनिवेशिक काल में हुए जाति व्यवस्था के प्रमुख अध्ययनों और उनकी व्याख्याओं का एक संक्षिप्त ब्यौरा देंगे।
औपनिवेशिक काल की प्रमुख व्याख्याएँ
प्राचीन भारत के सामाजिक ढाँचे के व्यवस्थित अध्ययन की शुरुआत एक रूप में औपनिवेशिक प्रशासकों और अध्येताओं ने की। इनमें प्रमुख आरम्भिक प्रातिनिधिक रचना थी जे.सी.नेस्फील्ड की ‘ए ब्रीफ व्यू ऑफ कास्ट सिस्टम ऑफ नॉर्थ-वेस्टर्न प्रॉविंसेज़ एण्ड अवध’ जो कि 1855 में प्रकाशित हुई। नेस्फील्ड ने अपने अध्ययन के आधार पर यह स्थापना दी कि जाति व्यवस्था का बुनियादी आधार आनुवंशिक तौर पर पेशे का निर्धारित होना है। नेस्फील्ड के अनुसार प्राचीन भारत में दस्तकारों और कारीगरों के जो संघ (गिल्ड) थे वे ही जातियों में तब्दील हो गये थे। उनके बीच का पदानुक्रम उनके पुराने या नये होने से तय होता था। जितना नया कोई पेशा होता, उसकी पदानुक्रम में उतनी ही ऊँची स्थिति होती। इसके बाद भी तमाम औपनिवेशिक प्रशासकों और उस दौर के पश्चिमी अध्येताओें ने जाति व्यवस्था को परिभाषित और व्याख्यायित करने के प्रयास किये। इनमें फ्रांसीसी भारतविद् चार्ल्स एमिली मैरी सेनार्त की भूमिका अहम थी। सेनार्त पहले व्यक्ति थे जिन्होंने वर्ण और जाति में फर्क किया था। उनका मानना था कि वर्ण की अवधारणा वर्ग के ज़्यादा करीब है, जबकि जाति उससे एक हद तक स्वायत्त थी। बाद में, जातियाँ वर्ण में शामिल हो गयीं। जातियों का पदानुक्रम उनके लिए एक वास्तविक परिघटना थी, जबकि वर्णाश्रम व्यवस्था में बताया गया पदानुक्रम अवास्तविक और अवधारणात्मक था। सेनार्त के अनुसार विभिन्न इण्डो-यूरोपीय वंश समूहों को ब्राह्मणों ने वर्ण व्यवस्था में शामिल किया था, और उन्हें अधीनस्थ स्थिति प्रदान की थी ताकि वे अपना वर्चस्व बनाये रख सकें। इस विषय पर सेनार्त की सोच को ज़्यादातर इतिहासकारों ने ख़ारिज कर दिया था। लेकिन सेनार्त का सबसे बड़ा योगदान था जाति और वर्ण में फर्क करना, जिसे आगे के इतिहास-लेखन में काफ़ी हद तक अपनाया गया।
हरबर्ट एच. रिसले जो कि भारत में जनगणना की शुरुआत करने वाले औपनिवेशिक प्रशासक थे, ने जाति/वर्ण व्यवस्था की अपनी व्याख्या पेश की। उनके अनुसार जातियों के उद्भव में नस्ली कारक प्रमुख था। उन्होंने नाक की लम्बाई के सूचकांक (नेज़ल इण्डेक्स) के ज़रिये आर्यों और अनार्यों के बीच का फर्क किया। रिसले द्वारा जातियों के आधार पर भारत की जनगणना की शुरुआत करने के कारण भारत में जाति व्यवस्था काफ़ी हद तक सुदृढ़ हुई, और इसके अलावा अपने समकालीन रूप में एक हद तक अश्मीभूत भी हुई। रिसले की नस्ली व्याख्या का काफ़ी बाद तक प्रभाव मौजूद रहा, हालाँकि स्वातन्योर्क त्तर भारत में हुए इतिहास लेखन ने पुरातात्विक और साहित्यिक प्रमाणों के आधार निर्णायक रूप से इस नस्ली व्याख्या को ख़ारिज कर दिया है।
रिसले के बाद जिस तत्कालीन पश्चिमी अध्येता का जाति व्यवस्था के अध्ययन पर सबसे गहरा असर पड़ा वह थे फ्रांसीसी समाजशास्त्री सेलेस्तिन बूगले, जो कि एमिल दुख़ीर्म के सहयोगी भी रहे थे। बूगले ने जाति व्यवस्था की जो व्याख्या पेश की थी, उसका बाद में एक अन्य फ्रांसीसी समाजशास्त्री लूई दूमों के विचारों पर गहरा प्रभाव पड़ा, जिनके विचारों पर हम आगे चर्चा करेंगे। लूई दूमों समाजशास्त्र में जाति के प्रश्न पर सबसे प्राधिकार-सम्पन्न अध्येता माने जाते हैं, हालाँकि उनके विचारों की बाद के इतिहासकारों और समाजशास्त्रियों ने तीखी आलोचना की। फिलहाल, हम बूगले के विचारों पर आते हैं। सेलेस्तिन बूगले का मानना था कि जाति व्यवस्था की पहचान तीन चारित्रिक आभिलाक्षणिकताओं से की जा सकती है। पहला, आनुवंशिक रूप से निर्धारित पेशा; दूसरा, पदानुक्रम; और तीसरा, प्रतिकर्षण (रिपल्शन), यानी कि एक जाति का दूसरी जाति से अलगाव। बूगले इस विचार को नहीं मानते थे कि ब्राह्मणों ने जाति व्यवस्था की रचना की है। इसके विपरीत, जाति व्यवस्था सामाजिक-आर्थिक परिवर्तनों के फलस्वरूप पैदा हुई और ब्राह्मणों ने इसे वैधीकरण प्रदान किया। इसमें मौजूद पदानुक्रम के पीछे शुद्धता (प्यूरिटी) और प्रदूषण (पल्यूशन) का विचार प्रमुख था। रिसले की नस्ली व्याख्या को बूगले ने सिरे से ख़ारिज कर दिया। अपने समय में बूगले के अध्ययन को जाति व्यवस्था के सबसे गम्भीर और प्रभावी अध्ययनों में माना जा सकता है। बूगले ने भी सेनार्त के इस विचार को स्वीकार किया था कि वर्ण व्यवस्था एक आदर्शीकृत अवधारणा है जबकि जातियाँ एक यथार्थ।
1947 से पहले के जाति व्यवस्था के प्रमुख अध्येताओं में आखिरी थे जे.एच. हटन जिनकी पुस्तक ‘कास्ट इन इण्डिया’ 1946 में छपकर आयी थी। हटन का मानना था कि उस समय तक जाति व्यवस्था की व्याख्या करने वाले सिद्धान्त अनुपयुक्त थे, जो कि जाति के यथार्थ को सही तरीके से नहीं पकड़ते थे। जाति की विशेषताओं में उन्होंने पन्द्रह गुण गिनाये, जिसमें परिवेशीय अलगाव, जादुई आस्थाएँ, टोटकावाद, शुद्धता-प्रदूषण के विचार, कर्म का सिद्धान्त, नस्लों का टकराव, त्वचा के रंग को लेकर मौजूद पूर्वाग्रह, और पदानुक्रम का प्रयोग कर शोषण करने की प्रवृत्ति प्रमुख थे। लेकिन हटन के पूरे सिद्धान्त में तमाम विसंगतियाँ थीं। एक तो यह कि जाति व्यवस्था के उद्भव और विकास के बारे में वह कोई कारणात्मक व्याख्या नहीं रखते हैं, और उनके लिए जाति एक अलग-अलग सामाजिक समूहों का योग बन जाती है। उनके बीच के आपसी सम्बन्धों को समझने में हटन पूरी तरह नाकाम रहे थे। दूमों, पोकॉक समेत तमाम उत्तरवर्ती समाजशास्त्रियों ने हटन के सिद्धान्त को खारिज किया। यह एक प्रकार का सार-संग्रहवादी सिद्धान्त था, जो कि जाति व्यवस्था के अलग-अलग प्रतीतिगत लक्षणों की एक सूची तैयार करता था।
औपनिवेशिक दौर में कुछ भारतीय अध्येताओं ने भी जाति व्यवस्था के समाजशास्त्रीय अध्ययन किये थे। लेकिन हमने ऊपर जिन व्याख्याओं की चर्चा की है, उनके अध्ययन उनके विचारों से ही मिलते-जुलते थे। 1911 में एस.एन. केतकर ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ कास्ट इन इण्डिया’ प्रकाशित की थी, जिसमें उन्होंने सेलेस्तीन बूगले के विचारों से मिलते-जुलते विचार रखे थे और नस्ली सिद्धान्त को ख़ारिज किया था। पंजाब की जातियों के बारे में 1916 में डी. इबेटसन ने अपनी पुस्तक ‘पंजाब कास्ट्स’ प्रकाशित की थी। इसमें उन्होंने जातियों के उद्भव के पीछे जनजातियों की भूमिका पर बल दिया था। लेकिन, आज़ादी के पहले जो जाति व्यवस्था के जो प्रमुख व्याख्यात्मक ढाँचे थे वे उपरोक्त थे।
यहाँ पर आगे बढ़ने से पहले यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि रोनाल्ड इण्डेन, निकोलस डर्क्स, और कई सबऑल्टर्न इतिहासकारों, जैसे कि पार्थ चटर्जी ने औपनिवेशिक प्रशासकों द्वारा जाति व्यवस्था के अध्ययनों पर यह विचार रखे हैं, कि वे जाति व्यवस्था का आविष्कार या उसकी कल्पना करते हैं। जाति व्यवस्था को भारत में अश्मीभूत रूप में स्थापित करने का काम औपनिवेशिक शासक वर्ग ने किया। औपनिवेशिक राज्यसत्ता ने भारत की जनता के प्रतिरोध को तोड़ने के लिए आर्थिक और राजनीतिक उपायों के अलावा ज्ञान और संस्कृति का उपयोग भी किया। उनके अनुसार तो यह ज्ञान और संस्कृति का उपयोग आर्थिक और राजनीतिक कारकों से भी ज़्यादा महत्व रखता है। जाति उनके विचार में उपनिवेशवादियों की निर्मिति बन जाती है। इस पूरे दृष्टिकोण के साथ दो समस्याएँ हैं। एक तो यह कि जब आप यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था उपनिवेशवादियों की निर्मिति (कंस्ट्रक्ट) है, औपनिवेशिक ज्ञान का एक नमूना है जो कि भारतीय लोगों पर प्रभुत्व स्थापित करने के लिए तैयार किया गया था, तो आप अनकहे तौर पर उपनिवेशवाद के पहले के दौर के भारत के प्रति अनालोचनात्मक हो जाते हैं। आप हर गड़बड़ी को प्रबोधनकालीन तर्कणा और आधुनिकता पर थोपकर साम्राज्यवाद, जाति व्यवस्था, साम्प्रदायिकता आदि सभी को औपनिवेशिक निर्मिति करार देते हैं, और ब्रिटिश-पूर्व भारत का जाने-अनजाने महिमा-मण्डन कर बैठते हैं। मिसाल के तौर पर, निकोलस डर्क्स का मानना है कि उपनिवेशवाद के आने के पहले भी भारत में जाति मौजूद थी, लेकिन वह तमाम सामाजिक पहचानों में से एक थी। लेकिन उपनिवेशवाद ने जाति को एकमात्र प्रभावी पहचान के रूप में निर्मित किया और समूची भारतीय आबादी को उसी में श्रेणीबद्ध कर दिया। इसके ज़रिये पश्चिम (ऑक्सिडेण्ट) ने प्राच्य (ओरियेण्ट) को नीचा दिखाने, सभ्यता के तौर पर हीन बनाने, और भारतीय लोगों को पिछड़ा और आदिम दिखाने में कामयाब हुए। जाति को भारतीय जनता की नैसर्गिक विशिष्टता के तौर पर पेश किया गया और इसकी निन्दा की गयी। लेकिन इस पूरे दृष्टिकोण के बारे में यह कहा जा सकता है कि जहाँ एक ओर उपनिवेशवाद ने जाति व्यवस्था को अश्मीभूत करने में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और जातिगत विभेद को रूढ़ बनाया, वहीं यह भी सच है कि उपनिवेशवाद के स्थापित होने के बाद भी भारतीय समाज में बहुल अस्मिताएँ मौजूद थीं। मिसाल के तौर पर भाषाई और जनजातीय और उनके आधार पर भी राजनीति होती थी।
दूसरी बात यह कि उपनिवेशवादियों के प्रभुत्व की परियोजना में राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व गौण नहीं था, बल्कि भारतीय समाज पर शासन करने के लिए उसे जानने के जो प्रयास उपनिवेशवादियों ने किये, वे उसी राजनीतिक और आर्थिक प्रभुत्व को सम्भव और ज़्यादा असरदार बनाने के लिए किये गये थे। यह कोई साज़िश नहीं थी। वास्तव में, उपनिवेशवादियों का यह मानना था कि भारत पर बेहतर तरीके से शासन करने के लिए भारत को जानना होगा। 1784 में विलियम जोंस द्वारा एशियाटिक सोसायटी की स्थापना से ही यह प्रक्रिया शुरू हो गयी थी और बाद तक जारी रही। हम यह ज़रूर कह सकते हैं कि उपनिवेशवादियों को अपने इस प्रयास में सफलता और असफलता, दोनों का ही सामना करना पड़ा और वे भारत को “सही तरीके से” समझने में पूरी तरह कामयाब नहीं हो पाये! लेकिन उनकी असफलता को सचेतन साज़िश और निर्मिति का नाम देना, जबरन उत्तरआधुनिकतावादी, उत्तरऔपनिवेशिक सिद्धान्त, और प्राच्यवाद के आधुनिकता-विरोध और प्रबोधन-विरोध को भारतीय इतिहास पर थोपना है। सूज़न बेली ने अपनी पुस्तक कास्ट एण्ड पॉलिटिक्स इन एटीन्थ सेंचुरी इण्डिया में अपने दृष्टिकोण से (जिसकी हम निश्चित तौर पर आलोचना कर सकते हैं) निकोलस डर्क्स की इस सोच की आलोचना की है, और कहा है कि ब्राह्मणवाद और उसका वर्चस्व उपनिवेशवाद की पैदावार नहीं थे, हालाँकि वे इससे मज़बूत ज़रूर हुए। औपनिवेशिक ज्ञान के निर्माण में भी इन ब्राह्मणों ने अहम भूमिका निभायी और इस पूरी प्रक्रिया में औपनिवेशिक राज्य और देशी कुलीनों के बीच के आपसी सहयोग को देखा जा सकता है। देशी कुलीन और सामन्ती वर्गों और औपनिवेशिक सत्ता के बीच का सहयोग कोई कल्पना या निर्मिति नहीं था, बल्कि एक यथार्थ था।
इसलिए, उपनिवेशवादियों द्वारा किये गये जाति-सम्बन्धी अध्ययनों को प्रबोधन की तर्कणा के षड्यन्त्र के तौर पर पेश करना और ‘प्राच्य मासूमियत’ (आशीष नन्दी) को ‘पैस्सिव विक्टिम’ के तौर पर दिखलाने के प्रयास व्यर्थ हैं। आधुनिकता और प्रबोधन के विरोध के नाम पर सबऑल्टर्न स्टडीज़ के इतिहासकार और एडवर्ड सईद के प्राच्यवाद और उत्तरआधुनिकतावाद से प्रेरित अन्य अकादमिक जिस उपनिवेशवाद-पूर्व अतीत का जश्न मनाते हैं, वास्तव में, वह ऐसे इतिहासकारों की कल्पना की उड़ान और मानसिक निर्मिति है। सुमित सरकार ने अपनी पुस्तक बियॉण्ड नेशनलिस्ट फ्रेम्स में दिखलाया है कि उपनिवेशवाद की यह सांस्कृतिक आलोचना अन्त में धुरदक्षिणपंथ के पुनरुत्थानवाद के पक्ष में जाकर खड़ी हो जाती है, हालाँकि ऊपरी तौर पर वह साम्प्रदायिकता को भी औपनिवेशिक निर्मिति ही बताते हैं (जो कि जाति के विषय में कही गयी बात के मुकाबले ज़्यादा सही है)। यह पूरा तर्क एक चक्रीय और आत्मपराजयकारी तर्क है।
स्वातन्योर्य त्तर समाजशास्त्रीय अध्ययनः इतिहास की उपेक्षा और जाति व्यवस्था का अतिमूलकरण (एसेंशियलाइज़ेशन)
सुवीरा जायसवाल ने अपनी पुस्तक कास्टः ओरिजिन, फंक्शन एण्ड डाइमेंशंस ऑफ चेंज में स्वातन्योर्व त्तर समाजशास्त्रीय अध्ययनों के बारे में टिप्पणी करते हुए कहा है कि ये अध्ययन इतिहास के पहलू को एक प्रकार से उपेक्षित करते हैं। इन अध्ययनों का पूरा ज़ोर जाति के समकालीन स्वरूप की बारीकियों का अध्ययन करने पर होता है, लेकिन उसके उद्भव तक जाने का ये प्रयास नहीं करते, या कम-से-कम संजीदगी से नहीं करते। यह बात काफ़ी हद तक सही प्रतीत होती है। चूँकि जाति व्यवस्था का अध्ययन करते हुए ये समाजशास्त्री उसके उद्भव और मूल की उपेक्षा करते हैं और उसे केवल उसकी समकालीनता में देखते हैं, इसलिए उनके अध्ययन बेहद अलग और अधूरे नतीजे तक पहुँचते हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में जातियों के बीच अलग-अलग पदानुक्रम के मिलने पर वे अचम्भित होते हैं, और उसके बाद उसके सैद्धान्तिकीकरण के प्रयासों में वे विचित्र नतीजों तक पहुँच जाते हैं। निस्सन्देह रूप से उनके अध्ययन समकालीन जाति व्यवस्था के बारे में कई अन्तर्दृष्टियाँ देते हैं। लेकिन इन अन्तर्दृष्टियों का वे बेहतर उपयोग नहीं कर पाते, बल्कि इतिहासकार करते हैं।
इन समाजशास्त्रियों में सबसे प्रसिद्ध थे लूई दूमों, जिनकी पुस्तक होमो हाइरार्किकस जाति व्यवस्था का अध्ययन करने वाले समाजशास्त्रियों के लिए बाइबिल जैसा महत्व रखती है, चाहे वे उससे सहमत हों या असहमत। इसका एक कारण यह है कि दूमों की व्याख्या बहुत ही तराशी हुई है। उसमें कहीं कोई बड़ा अन्तरविरोध नहीं दिखता। अलग-अलग अवधारणाएँ एक बारीकी से तराशे हुए ढाँचे में फिट कर दी गयी हैं। जैसा पुस्तक का नाम ही दिखला रहा है, यह उन लोगों या समुदायों के बारे में है, जो कि समानता के सिद्धान्त को नहीं मानते। दूमों के अनुसार पश्चिम का मनुष्य अपने व्यक्तिवाद के कारण समानता के सिद्धान्त में यकीन करता है (होमो इक्वालिस या होमो इकोनॉमिकस)। लेकिन हर समाज को पदानुक्रम की ज़रूरत पड़ती है। दूमों के अनुसार जैसे ही आप किसी मूल्य को अपनाते हैं, आप वास्तव में एक पदानुक्रम को स्वीकार कर रहे होते हैं। हिन्दू समाज की सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि यह पदानुक्रम सामंजस्यपूर्ण है। इस पदानुक्रम यानी कि जाति व्यवस्था का भौतिक और आर्थिक कारकों से कोई लेना-देना नहीं है। जाति व्यवस्था को निर्धारित करने और यहाँ तक कि निर्मित करने वाला तत्व है कर्मकाण्डीय पदानुक्रम (रिचुअलिस्टिक हाईरार्की)। यह कर्मकाण्डीय सिद्धान्त वह बुनियादी संरचना है (लेवी स्ट्रॉस वाले अर्थों में) जो कि वास्तविकता को निर्धारित कर रहा है। ब्राह्मणवादी कर्मकाण्डी विचारधारा हिन्दू समाज में सामाजिक यथार्थ का निर्माण करती है। इस विचारधारा का सबसे बुनियादी तत्व है शुद्धता और प्रदूषण के सिद्धान्त के आधार पर एक समूचे सामाजिक पदानुक्रम की रचना करना जिसमें ब्राह्मण शीर्ष पर हैं, और अस्पृश्य सबसे नीचे। हर जाति अन्य जातियों से अपने सम्बन्धों के आधार पर परिभाषित होती है, और नतीजे के तौर पर हमें पदानुक्रम में व्यवस्थित जातियों का एक पूरा ढाँचा मिलता है। दूमों के पास इस सवाल का जवाब भी है कि शुद्धता और प्रदूषण का विचार कहाँ से आया है! उनका कहना है कि यह वह मूलभूत मूल्यों की संरचना है जो कि यथार्थ का निर्माण करती है, और यह पूर्वप्रदत्त है। ऐसा मूल्य समुच्चय हर समाज में होता है। पदानुक्रम एक अनिवार्य मूल्य है और हर समाज को इसकी ज़रूरत होती है। जाति व्यवस्था इस रूप में हिन्दू समाज को एक ऐसा पदानुक्रम का ढाँचा देती है, जो कि अप्रतिस्पर्द्धापूर्ण है, सामंजस्यपूर्ण है, अपरिवर्तनीय है और समाज को स्थिर बनाता है। दूमों इन सारी विशिष्टताओं को बार-बार पश्चिमी समाज के बरक्स रखते हैं, और यह सवाल एक प्रकार से अन्तर्निहित होता है कि समानता और व्यक्तिवाद के मूल्यों ने पश्चिमी सभ्यता को क्या दिया? इस प्रकार से दूमों, जेराल्ड बारेमैन के शब्दों में, जाति का ब्राह्मणवादी दृष्टिकोण अपना लेते हैं। यह एक प्रकार से जाति व्यवस्था को सही ठहराये जाने के समान है। दूमों इस बात की कोई व्याख्या नहीं कर पाते हैं कि उद्योगों और पूँजीवाद के विकास के साथ जाति-सम्बन्धी पेशागत बन्धन और खान-पान के पूर्वाग्रह कम होते गये हैं, जैसा कि जी.एस. घूर्ये और ई.के. गफ ने प्रदर्शित किया था, और जिसे दूमों भी मानने के लिए मजबूर हैं; जो एकमात्र गुण बचा है वह है सजातीय विवाह। दूमों मानते हैं कि इन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक बदलावों से जाति व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता है, वे जाति व्यवस्था के भीतर ही समाहित हो जाते हैं। इन परिवर्तनों से दूमों कोई नतीजा नहीं निकालते हैं। दूमों के लिए हिन्दू समाज अपनी जाति व्यवस्था और पदानुक्रम के साथ एक आदर्श, अपरिवर्तनशील समाज बन जाता है। जाहिर है, दूमों की व्याख्या के खण्डन के लिए हमें ज़्यादा शब्द ख़र्च करने की ज़रूरत नहीं है।
जवीद आलम ने एक जगह सही ही टिप्पणी की है कि ऐसे ज़्यादातर समाजशास्त्रीय सिद्धान्त वास्तव में मार्क्सवाद और भौतिकवादी द्वन्द्ववादी ऐतिहासिक पद्धति के साथ एक प्रच्छन्न युद्ध (शैडो बॉक्सिंग) के लिए रचे जाते हैं। दरअसल, एक जगह दूमों मार्क्स की आलोचना करते हैं कि उन्होंने रेलवे और बड़े पैमाने के उद्योगों के विकास के साथ जाति के ख़ात्मे की बात कही थी। वास्तव में वहाँ मार्क्स जातिगत आनुवंशिक श्रम विभाजन के टूटने की बात कर रहे थे, और इस मायने में मार्क्स की भविष्यवाणी कमोबेश सही सिद्ध हुई है। दूमों के अनुसार चूँकि भारतीय सामाजिक ढाँचा अपरिवर्तनीय है, चिरन्तन है, इसलिए उसका कोई इतिहास नहीं लिखा जा सकता है। यह दृष्टिकोण पुराने औपनिवेशिक दृष्टिकोण के काफ़ी करीब जाकर खड़ा होता है, जिसे कि ई.पी. थॉम्सन के पिता एडवर्ड जॉन थॉम्सन ने काफ़ी अच्छी अभिव्यक्ति दी थी। थॉम्सन ने कहा था कि भारत इतिहास से बिल्कुल वंचित देश है। इरफ़ान हबीब ने दूमों के इस विचार के बारे में ठीक ही लिखा हैः
“अगर भारत के इतिहास को ऐसा होना है, ताकि एक समकालीन पश्चिमी समाजशास्त्री की जाति व्यवस्था की कल्पना के साथ वह फिट बैठे, तो क्या इस बात की ज़्यादा सम्भावना नहीं है कि इस कल्पना के साथ कुछ गड़बड़ है, न कि भारतीय इतिहास के साथ?… पिछले सौ से कुछ अधिक वर्षों के दौरान, आनुवंशिक श्रम विभाजन अगर पूरी तरह बिखरा नहीं है, तो कम-से-कम बुरी तरह से झकझोर दिया गया है। नतीजतन, यह पहलू जाति के जीवित बचे क्षेत्र के भीतर काफ़ी हद तक पृष्ठभूमि में चला गया है। हालाँकि, शुद्ध रूप से धार्मिक और व्यक्तिगत पहलू कम प्रभावित हुए हैं। (आप देख सकते हैं कि यह बात सिर्फ भारत की विशिष्टता नहीं हैः धार्मिक विचारधारा उस समाज के ग़ायब हो जाने के काफ़ी बाद तक जीवित रहती है, जिसे तर्कसंगत आधार देने का काम वह विशिष्ट धर्म कर रहा था।)” (इरफ़ान हबीब, 1995. कास्ट इन इण्डियन हिस्ट्री, ‘एसेज़ इन इण्डियन हिस्ट्री’, पृ. 164 तूलिका बुक्स, नई दिल्ली, अनुवाद हमारा)
दूमों के बाद भी तमाम समाजशास्त्रियों ने जाति व्यवस्था का अध्ययन किया है। उन्होंने स्वातन्योर्द त्तर भारत में हरेक जाति में पैदा हुए धनी कुलीन वर्गों द्वारा जातिगत चेतना के इस्तेमाल की ओर ध्यानाकर्षण किया है और दिखलाया है कि किस प्रकार चुनावी राजनीति में जातिगत समीकरणों का इस्तेमाल होता है। उनके अध्ययन से हमें दो पहलू दिखलायी पड़ते हैं, जो कि आज जातिगत राजनीति की चारित्रिक आभिलाक्षणिकता बने हुए हैं। एक तो यह कि हरेक जाति में, जिसमें कि दलित जातियाँ भी शामिल हैं, एक धनिक वर्ग पैदा हुआ है, जोकि वोटों के लिए और संसाधनों के भोगाधिकार या उन तक पहुँच पर अपने एकाधिकार को स्थापित करने के लिए अपनी जाति के आम लोगों की जातिगत चेतना का आवाहन करते हैं। बसपा, सपा, राजद आदि की राजनीति में इस पहलू को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है, और यहाँ तक कि भाजपा और कांग्रेस के तमाम चुनावी उम्मीदवार ज़मीनी स्तर पर अपनी जातिगत पहचान का इस्तेमाल करते हैं और जातिगत समीकरण बनाते हैं। इसके बाद, जब चुनावी नतीजे सामने आ जाते हैं तो विभिन्न जातियों के कुलीन आपसी मोलभाव, सौदे और बातचीत करते हैं और लेन-देन के आधार पर शासकीय गठबन्धन तैयार किये जाते हैं। यानी कि शासक वर्ग अपनी आपसी प्रतिस्पर्द्धा में जातिगत समीकरणों का इस्तेमाल करता है। दूसरा पहलू जो कि इससे भी महत्वपूर्ण है वह यह है कि तमाम जातियों, जिसमें कि दलित जातियाँ भी शामिल हैं, के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली चुनावी पार्टियाँ इन जातियों के कुलीनों के चुनावी दल हैं, और अलग-अलग जातियों के ये कुलीन वर्ग जनता के दमन में आपसी सहयोग करते हैं, और जनता को बाँटे रखने के लिए जातिगत चेतना को बढ़ावा देने का काम करते हैं। इन महत्वपूर्ण अन्तर्दृष्टियों के बावजूद इन समाजशास्त्रीय अध्ययनों की सबसे बड़ी ख़ामी यह है कि ये जाति के इतिहास पर गम्भीर दृष्टि नहीं डालते। चलते-चलाते किये गये उल्लेखों को छोड़ दिया जाय, तो जाति/वर्ण व्यवस्था के उद्भव और उत्तरवर्ती विकास के बारे में इनकी समझदारी अनुपयुक्त है। यही कारण है कि ये जाति की परिघटना में होने वाले परिवर्तनों की कोई व्याख्या नहीं कर पाते। उनका पूरा ध्यान-केन्द्रण जाति की समकालीन परिघटना की गतिकी का अध्ययन करने पर होता है। लेकिन विडम्बना की बात यह है कि इस गतिकी के बारे में भी कोई सन्तुलित समझदारी तभी बन सकती है, जबकि जाति/वर्ण व्यवस्था के उद्गम और विकास के बारे में कोई स्पष्ट नज़रिया हो।
ऐतिहासिक दृष्टि का अभाव ही तमाम समाजशास्त्रियों को जाति व्यवस्था की गतिकी नहीं समझने देता और अक्सर समाजशास्त्री जाति व्यवस्था को एक स्थैतिक तन्त्र के रूप में समझते हैं, जो कि हिन्दू/भारतीय समाज की पहचान है और यह उसका मूल गुण या तर्क है। यह सदा से रहा है, और सदा रहेगा। कई बार ऐसे सैद्धान्तिकीकरण जाति व्यवस्था को सही ठहराने तक चले जाते हैं, जैसे कि पी.ए. सोरोकिन। सोरोकिन ने जाति व्यवस्था के कई युगों से मौजूद रहने को, यानी कि उसके टिकाऊपन को उसके सहीपन का आधार बना दिया था। उनकी दलील थी कि यह समाज में व्यक्तियों के बीच एक सन्तोषजनक पदानुक्रम देता है और यही कारण है कि वह अभी तक मौजूद है। इसमें भी आप यह पूर्वधारणा अन्तर्निहित रूप में देख सकते हैं कि जाति व्यवस्था एक अपरिवर्तनशील परिघटना है, जो कि प्राचीन काल से हिन्दू समाज को एक स्थायित्व प्रदान कर रही है। इसी प्रकार निर्मल बोस ने भी जाति व्यवस्था को एक स्थायित्व प्रदान करने वाला अपरिवर्तनशील कारक माना है। उनके अनुसार जाति व्यवस्था समाज में लोगों को उजड़ने से बचाती है, क्योंकि वह उनके पेशों पर उनके अधिकार को सुनिश्चित करती है। पेशों पर एकाधिकार लोगों को एक सुरक्षा प्रदान करता है।
इन समाजशास्त्रीय अध्ययनों में जाति व्यवस्था को स्थैतिक रूप में देखने की जो प्रवृत्ति है, उनके कारण हम इन अलग-अलग समाजशास्त्रियों में नहीं खोज सकते हैं। हमें यह समझना होगा कि यह कमी वास्तव में समाजशास्त्र की अकादमिक शाखा की कमी है। समाजशास्त्र की शाखा को खड़ा ही इसलिए किया गया था कि मार्क्सवाद के द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवादी दृष्टिकोण का खण्डन किया जा सके। मिसाल के तौर पर, पदानुक्रम को हर समाज की अनिवार्य आवश्यकता मानने का समाजशास्त्रीय दृष्टिकोण जाति व्यवस्था को भी एक प्रकार से वैधता प्रदान करता है और मार्क्सवाद द्वारा प्रस्तुत समानतामूलक समाज के लक्ष्य पर ही एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर देता है। बाद में, मार्क्सवाद द्वारा प्रस्तुत जवाब के समक्ष समाजशास्त्रीय शाखा में भी कई परिवर्तन आये और तमाम मार्क्सवादी समाजशास्त्री भी पैदा हुए, जिन्होंने वेबर और दुर्खीम के साथ मार्क्स को भी समाजशास्त्र की शाखा के जनक के तौर पर स्थापित किया। समाजशास्त्र का बुनियादी पूर्वाग्रह या पूर्वधारणा एक प्रत्यक्षवादी पूर्वधारणा है, जिसके मूल ऑग्यूस्ट कोम्ते के विचारों में ढूँढे जा सकते हैं। हम इस आलेख में समाजशास्त्र की पूरी ज्ञान शाखा की आलोचना नहीं कर सकते हैं, लेकिन इतना स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था के समाजशास्त्रीय अध्ययनों में मौजूद ख़ामी का मूल इस पूरी ज्ञान शाखा में मौजूद ऐतिहासिक दृष्टि की कमी, बल्कि एक प्रकार का सचेतन निषेध है। नतीजतन, समकालीनता को इतिहास से पूरी तरह काट कर किया गया अध्ययन टुकड़े-टुकड़े में कुछ मूल्यवान अन्तर्दृष्टियाँ देता है, लेकिन जाति व्यवस्था की व्याख्या का कोई सुसंगत अप्रोच या पद्धति नहीं देता।
इन समाजशास्त्रीय व्याख्याओं के अलावा, जी.एस. घूर्ये द्वारा जाति व्यवस्था का अध्ययन भी एक अहम योगदान था। घूर्ये ने मोटे तौर पर जाति व्यवस्था के नस्लीय मूल पर ज़ोर किया था। उनके अलावा कुछ अन्य समाजशास्त्री भी थे, जैसे कि एन.के. दत्त, डी.एन. मजूमदार और आर.पी. चन्द्र जिन्होंने इस नस्ली मूल के सिद्धान्त का समर्थन किया था। इनके मुताबिक आर्यों ने भारतीय उपमहाद्वीप के उत्तर-पश्चिमी क्षेत्र पर हमला किया, और द्रविड़ीय मूल के लोगों को अपने अधीन किया। इस अधीनस्था आबादी को ढाँचागत तौर पर अधीन रखने के लिए ब्राह्मणों ने शुद्धता/प्रदूषण के सिद्धान्त की रचना की। इसी सिद्धान्त के आधार पर ब्राह्मणों की तुलना में सापेक्षिक शुद्धता/प्रदूषण के आधार पर जाति पदानुक्रम की रचना हुई और जाति व्यवस्था अस्तित्व में आयी। लेकिन जैसा कि सुवीरा जायसवाल ने बताया है, इस सिद्धान्त के लिए प्रमाण मौजूद नहीं हैं। समाजशास्त्रियों ने वर्ण और जाति के बीच फर्क को लेकर भी काफ़ी बहस की है। मैक्स वेबर ने वर्ण को यूरोपीय ‘एस्टेट’ से मिलती-जुलती परिघटना माना था। ट्राउटमैन ने जाति को एक वास्तविक परिघटना और वर्ण को ‘एस्टेट’ जैसी परिघटना करार दिया था। कई समाजशास्त्री यह मानते हैं कि वर्ण व्यवस्था जाति व्यवस्था की एक किताबी तस्वीर पेश करती है, जो कि एक आदर्शीकृत श्रेणीकरण प्रदान करती है। जातियाँ वास्तविक परिघटना हैं, जो कि अपने पैदा होने के साथ इन वर्णों में स्थापित होती गयीं। इसीलिए वर्ण का चरित्र देशव्यापी है, जबकि इनमें जातियों की सहयोजित होने के अलग-अलग स्थानीय पैटर्न देखे जा सकते हैं। लेकिन एक बात हर जगह समान है। हर जाति की शुद्धता की परिभाषा का पैमाना, या उसे मापने की इकाई ब्राह्मण की उच्चतम शुद्धता होती है। यानी सारी जातियाँ जाति व्यवस्था में ब्राह्मणों से अपनी सापेक्ष दूरी के अनुसार स्थान पाती हैं। जाति और वर्ण की अवधारणा में समाजशास्त्री जो फर्क स्थापित करते हैं, वह भी केवल और केवल समकालीन जाति व्यवस्था के अधार पर स्थापित किया गया फर्क है। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि इन दोनों अवधारणाओं में फर्क है। लेकिन इनके उद्भव और विकास को समझे बग़ैर समाजशास्त्रियों ने वर्ण व्यवस्था को जिस प्रकार से ‘बुक व्यू ऑफ कास्ट’ और जातियों को ‘फील्ड व्यू ऑफ कास्ट’ का नाम दिया है, वह पूरी तरह से अनैतिहासिक है। प्राचीन इतिहास दिखलाता है कि शुरुआती दौर में वर्ण और जाति का प्रयोग एकार्थी रूप में किया जाता था। लेकिन वर्ण व्यवस्था शब्द के प्रयोग का अर्थ था कि उस चार वर्णों की क्लासिकीय आदर्शीकृत व्यवस्था की बात की जा रही है जिसका ज़िक्र पहली बार ऋग्वेद के उत्तरवर्ती हिस्से के ‘पुरुषसूक्त’ में किया गया था, जिसके अनुसार वैदिक समाज चार सामाजिक श्रेणियों में विभाजित था—ब्राह्मण, राजन्य, विश व शूद्र। जाति शब्द के प्रयोग का अर्थ था कि हम उन जनजातीय समूहों की बात कर रहे हैं जिन्हें वैदिक समाज में शामिल कर लिया गया था, और विभिन्न कारकों के प्रभाव के अनुसार उन्हें चार वर्णों की व्यवस्था में किसी वर्ण का अंग मान लिया गया था। लेकिन जब तक जातियों का उदय नहीं हुआ था तब तक जाति और वर्ण शब्द का इस्तेमाल एक ही अर्थ में किया जाता था। जाति शब्द का पहला उल्लेख 200 वर्ष ईसा पूर्व से पहले के दौर में मिलता है। सुवीरा जायसवाल का विचार है कि अभी वर्ण व्यवस्था के भीतर जातियों की संख्या में वृद्धि की परिघटना व्यापक रूप में शुरू नहीं हुई थी और वैदिक काल के ठीक बाद के साहित्य में और विशेषकर बुद्ध के दौर के स्रोतों में जाति शब्द का ज़िक्र अपनेआप में जातियों की व्यवस्था के पूरी तरह से अस्तित्व में आने की निशानी नहीं थी। वास्तव में अभी भी जाति शब्द का इस्तेमाल वर्ण के रूप में ही हो रहा था। वर्ण से जाति की ओर का संक्रमण किस प्रकार हुआ इसके बारे में इतिहासकारों के अलग-अलग मत हैं और इसे सन्तोषजनक रूप से समझने के लिए प्राचीन भारत के इतिहास-लेखन पर एक संक्षिप्त दृष्टि डालना आवश्यक होगा।
जाति व्यवस्था का उद्गम और विकासः इतिहास-लेखन की समस्याएँ
सुवीरा जायसवाल बताती हैं कि पाणिनी के ‘अष्टाध्यायी’ में जाति और वर्ण दोनों का इस्तेमाल किया गया है। पाणिनी का काल 200 ईसा पूर्व के आस-पास था। वराहमिहिर के ‘बृहतसंहिता’ में भी जाति और वर्ण दोनों का प्रयोग एक ही अर्थ में किया गया है। लेकिन ‘याज्ञवक्ल्यस्मृति’ में इन दोनों शब्दों में एक जगह पर फर्क किया गया है, और कई बार उनका प्रयोग एक अर्थ में भी किया गया है। स्पष्ट है कि 200 ईसवी पूर्व तक जातियों की व्यवस्था का विकास किसी मुकम्मिल मुकाम तक नहीं पहुँचा था।
प्राचीन भारत के इतिहासकारों में इरावती कर्वे और रोमिला थापर (अपने तमाम आपसी फर्कों के बावजूद) यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था के उद्गम को वास्तव में आर्यों के आने से पहले हड़प्पा सभ्यता में तलाशा जाना चाहिए। रोमिला थापर का मानना है कि जाति व्यवस्था के कुछ बुनियादी तत्व जैसे कि आनुवंशिक तौर पर विभाजित समूह जो कि विवाह को नियन्त्रित करते थे, शुद्धता/प्रदूषण का विचार और जजमानी की व्यवस्था के तत्व हड़प्पा संस्कृति में ही मौजूद थे। रोमिला थापर का मानना है कि मोहनजोदड़ो का विशाल स्नानागार शुद्धता/प्रदूषण से जुड़े किसी कर्मकाण्ड के लिए ही था। लेकिन यह प्रस्थापना खण्डित तथ्यों और प्रमाणों के मिलान पर आधारित कल्पना ज़्यादा प्रतीत होती है। आर्यों को जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के निर्माण के जुर्म से मुक्त कर दिया जाता है और जाति व्यवस्था भारतीय उपमहाद्वीप की एक नैसर्गिक उत्पत्ति बन जाती है। यानी, जाति व्यवस्था में कुछ है जो बिल्कुल भारतीय है। यह भारतीय जीवन और विचार पद्धति का प्रमुख गुण बन जाती है। ऐसे विचार पहले भी पेश किये गये थे। निश्चित तौर पर, रोमिला थापर का विचार जाति व्यवस्था का भारतीयतावादी अतिमूलकरण करना नहीं है, लेकिन उनकी थीसिस वस्तुगत तौर पर इस नतीजे का समर्थन करती है। और सबसे अहम बात यह है कि इसके प्रमाण नहीं मौजूद हैं, उल्टे इसके विपरीत प्रमाण मिल जाते हैं।
अगर प्राचीन भारत के इतिहास में वर्ण व्यवस्था के उदय पर निगाह डालें तो हम पाते हैं कि यह अभिन्न रूप से समाज में वर्गों, राज्यों और पितृसत्ता के उदय से जुड़ा हुआ है। इस इतिहास की एक सुसंगत समझदारी इसलिए ज़रूरी है क्योंकि इसके बग़ैर जाति और जाति व्यवस्था से जुड़ी मानसिकता की ऐतिहासिकता को नहीं समझा जा सकता है, और हमारे लिए भी जातिगत मानसिकता और जाति व्यवस्था भारतीय जनता की नैसर्गिक विशेषता बन जायेगी। प्राचीन भारतीय इतिहास की द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवादी व्याख्या की शुरुआत दामोदर धर्मानन्द कोसांबी के साथ मानी जा सकती है। कोसांबी के अनुसार ऋग्वैदिक काल के अन्त में वर्ण व्यवस्था के उद्गम के प्रमाण मिलते हैं। लेकिन जातियों की व्यवस्था की शुरुआत इसके साथ ही नहीं होती है। जब वैदिक सभ्यता का उत्तर पश्चिमी सीमान्त से पूर्व की ओर विस्तार हुआ तो नयी जनजातियों के वैदिक समाज में शामिल होने के साथ जातियों का उद्भव हुआ। इस पर हम आगे विस्तार से अपनी बात रखेंगे। मॉर्टन क्लास ने भी जातियों की व्यवस्था के उदय का अध्ययन किया। क्लास इस नतीजे पर पहुँचे कि जातियों की व्यवस्था का उद्भव प्रागैतिहासिक काल में ही हो जाता है जब कृषि की शुरुआत हुई। कृषि योग्य भूमि तक पहुँच रखने वाले कबीले ऊँची जातियों में तब्दील हो गये जबकि अन्य क्षेत्रों से इन इलाकों में आने वाली जनजातियाँ निम्न जातियों में तब्दील हुईं। इन जातियों ने स्वैच्छिक रूप से उन जातियों के समक्ष एक अधीनस्थ स्थिति को स्वीकार कर लिया जो कि पहले से कृषि योग्य क्षेत्र तक पहुँच रखती थीं और कृषि में लगी हुईं थीं। लेकिन इस सिद्धान्त के पक्ष में ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं हैं। इस सिद्धान्त के पीछे जो धारणा काम कर रही है वह यह है कि अधिशेष के उत्पादन की शुरुआत के साथ जाति व्यवस्था की शुरुआत हुई, यानी कि कृषि की शुरुआत के साथ। लेकिन अधिशेष उत्पादन अपने आपमें जाति व्यवस्था को जन्म नहीं दे सकता, जब तक कि ब्राह्मणवादी विचारधारा की मौजूदगी न हो। यह ब्राह्मणवादी विचारधारा वर्ग विभाजन को वर्णों की व्यवस्था के रूप में संस्थापित करने का विचारधारात्मक उपकरण थी। यही कारण है कि उत्तर-पूर्व में जाति व्यवस्था की शुरुआत अधिशेष उत्पादन की मंज़िल आने और वर्गों के अस्तित्व में आने के काफ़ी बाद में शुरू होती है, जब ब्राह्मणवादी विचारधारा इस वर्ग विभाजन को जातिगत स्वरूप देती है। इसके अतिरिक्त, मॉर्टन क्लास की वंश/जनजाति से जाति के संक्रमण का सिद्धान्त केवल उन जातियों के उद्भव की व्याख्या कर सकती है, जो कि उत्पादन में लगी हों। ऐसे में, स्वयं ब्राह्मण जाति के उद्गम की व्याख्या नहीं की जा सकती है। इसके अलावा मॉर्टन क्लास का यह सोचना भी ग़लत है कि जाति व्यवस्था पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में लगभग एक साथ अस्तित्व में आयी। ऐतिहासिक प्रमाण अब स्पष्ट रूप में दिखलाते हैं कि जाति व्यवस्था दक्षिणी और पूर्वी भारत में बाद में फैली और उसने उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत की जाति व्यवस्था से काफ़ी भिन्न स्वरूप अख़्तियार किया।
इसके अलावा जाति के उद्भव का एक द्रविड़ मूल का सिद्धान्त भी है जिसके अनुसार द्रविड़ीय सभ्यता में कुछ ऐसे तत्व थे, जिन्होंने जाति व्यवस्था को जन्म दिया। इसमें से एक प्राचीन दक्षिण भारतीय संगम साहित्य में तिनाई की अवधारणा पर बल देता है। इसमें तिनाई एक क्षेत्र के लिए इस्तेमाल किया गया शब्द है। पाँच तिनाइयों की बात की गयी है जिसमें कि अलग-अलग समुदाय रहते थे। इन तिनाइयों में मौजूद सामाजिक-आर्थिक स्थिति एकदम भिन्न प्रकार की थी। कहीं पर कृषि समाज अस्तित्व में आने लगा था, तो कहीं अभी भी चरवाहे समाज के तत्व मौजूद थे। जो तटीय क्षेत्र का तिनाई क्षेत्र था वहाँ मछली का शिकार करना अर्थव्यवस्था का प्रमुख आधार था। जब इनका संलयन शुरू हुआ तो उन्नत उत्पादन सम्बन्धों वाले तिनाई के लोग उन्नत जातियों का निर्माण करने लगे। लेकिन यह सिद्धान्त जाति व्यवस्था के मूल को सही तरीके से नहीं व्याख्यायित कर पाता है। इसका कारण यह है कि तिनाई पाँच अलग प्रकार के भौगोलिक-परिवेशीय क्षेत्रों की बात करता है, और इसमें मौजूद समुदाय एक वर्ग-विभाजित समाज का अंग नहीं थे। जाति व्यवस्था जिस समाज की चारित्रिक आभिलाक्षणिकता होती है, वह वास्तव में एक एकीकृत और निश्चित सम्पत्ति सम्बन्धों वाला समाज होता है।
एक दूसरा कारण जो कि द्रविड़ीय मूल के सिद्धान्त को जन्म देता है, वह है द्रविड़ीय सभ्यता में पवित्र समुदायों के अछूत होने का सिद्धान्त। इस सिद्धान्त के अनुसार पवित्र व्यक्ति वास्तव में तमाम अशुद्धताओं का वाहक होता है, और उसके भीतर मौजूद ये ख़तरनाक अशुद्धताएँ संक्रामक होती हैं। लेकिन यहाँ शुद्ध और अशुद्ध का रिश्ता जाति व्यवस्था की तुलना में बिल्कुल विपरीत है। ऐतिहासिक प्रमाणों ने अब प्रदर्शित कर दिया है कि शुद्धता/प्रदूषण के सिद्धान्त बहुत से खानाबदोश और चरवाहे समाजों में पैदा हो सकते हैं, जिसमें कि ब्रूस लिंकन नामक समाजशास्त्री के अनुसार, अक्सर ही पुरोहित और योद्धा वर्ग पैदा होते हैं। जादुई विश्व दृष्टिकोण के इस काल में एक वर्ग कर्मकाण्डों के ज़रिये पशुधन को बढ़ाने के लिए देवताओं को बलि चढ़ाकर अपनी भूमिका अदा करता है, तो दूसरा वर्ग अन्य कबीलों पर हमला करके उनके पशुधन पर कब्ज़ा करने की प्रक्रिया में नेतृत्व की भूमिका निभाता है। अन्य जो भी बचते हैं, वे सामान्य आबादी का निर्माण करते हैं। पहला वर्ग पुरोहित वर्ग का निर्माण करता है, और वह अक्सर शुद्धता/प्रदूषण के सिद्धान्तों का निर्माण करता है। लेकिन यह अपने आप में जाति व्यवस्था के उदय का कारण नहीं बन सकता है। इसलिए द्रविड़ीय मूल का सिद्धान्त भी एक परिकल्पना है, जिसके लिए ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद नहीं हैं।
वर्ण व्यवस्था के उदय के बारे में कोसांबी के सिद्धान्त महत्वपूर्ण हैं। उनके सिद्धान्त में कई विचार बाद में अनुपयुक्त पाये गये। लेकिन उनकी पूरी पद्धति मौजूद प्रमाणों की एक सुसंगत व्याख्या और उसके आधार पर अज्ञात पहलुओं के विषय में काफ़ी तर्कसंगत सिम्युलेशन करती है। कोसांबी के अनुसार, वैदिक आर्यों के आने के पहले आर्यों का एक समूह भारतीय उपमहाद्वीप में आकर बस चुका था। सम्भवतः इस समूह का हड़प्पा सभ्यता के बचे हुए तत्वों के साथ सम्मिलन हुआ था। वैदिक आर्यों के आने के बाद इस समूह के लोगों का उनके साथ टकराव हुआ। ऋग्वेद में इन्हीं समूहों को दस्यु या दास कहा गया है। इन दस्युओं और दासों के कबीलों के कुछ शक्तिशाली सरदारों के बारे में कुछ सकारात्मक बातें भी कही गयी हैं। उनके लिए असुर शब्द का इस्तेमाल किया गया है। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि पहले देवता के रूप में असुर शब्द का इस्तेमाल होता था। क्योंकि इन्द्र को भी असुर कहा गया है, जो कि वैदिक आर्यों का प्रमुख इहलौकिक देवता था। पारलौकिक देवता के लिए देव शब्द का इस्तेमाल किया जाता था। इन दास/दस्युओं के बारे में यह कहा गया है कि उनका वर्ण (रंग) सांवला या गाढ़े रंग का था, जो कि इस बात को दर्शाता है कि हड़प्पा सभ्यता के बचे हुए तत्वों के साथ उनका मेल हुआ था, और यह सम्भव है कि अन्य मूल निवासियों के साथ भी उनका मेल हुआ हो। दासों/दस्युओं और आर्यों के टकराव का ऋग्वेद में पर्याप्त ज़िक्र मिलता है। अन्ततः वैदिक आर्य इन दासों पर विजय प्राप्त करते हैं। ‘असुर’ और ‘दास’ शब्द का अर्थ दासों की पराजय के साथ बदल गया। चूँकि ‘असुर’ शब्द का प्रयोग मुख्य रूप से दासों के सरदारों के लिए किया जाता था, इसलिए बाद में आर्यों के सरदारों/देवताओं के लिए ‘सुर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। जब दासों/दस्युओं को पूर्णतः वैदिक आर्यों ने अधीन कर लिया तो ‘दास’ शब्द का आधुनिक अर्थ, यानी कि गुलाम, पैदा हुआ। ये अधीनस्थ किये गये दस्यु/दास ही शूद्र जाति में तब्दील हुए। डी.डी. कोसांबी के अनुसार, शूद्रों के अस्तित्व में आने के साथ और वैदिक सभ्यता के गंगा के मैदानों में पहुँचने के साथ नये उत्पादन सम्बन्ध पैदा हुए। कृषि के विस्तार और लोहे के प्रयोग के साथ अधिशेष के पैदा होने की मंज़िल आयी। इस मंज़िल के आने के दौरान ही नये कबीले वैदिक आर्यों के समाज में सम्मिलित हो रहे थे। कोसांबी के अनुसार, सजातीय विवाह के सिद्धान्त पर आधारित जातियों का उदय हुआ। रोमिला थापर इसी को थोड़े भिन्न अर्थों में कहती हैं। उनके अनुसार, विजित कबीले निचली जातियों में तब्दील हुए, जबकि विजेता कबीले उच्च जातियों में।
कोसांबी के अनुसार प्रारम्भिक वैदिक काल के अन्त के करीब हमें ऋग्वेद के दसवें मण्डल के ‘पुरुषसूक्त’ में जिस चार वर्णों की व्यवस्था का ज़िक्र मिलता है, वास्तव में वह वर्ग विभाजन को ही दिखला रही थी। उनके अनुसार, उत्पादन की आदिम मंज़िल में वर्ण व्यवस्था वर्ग विभाजन का ही लक्षण थी, और इस मंज़िल में हम जिसे वर्ण कह रहे हैं वह वास्तव में वर्ग ही है। कोसांबी की इस बात के लिए कई ऐतिहासिक प्रमाण मौजूद हैं। मिसाल के तौर पर, ‘पुरुषसूक्त’ में चार वर्णों की इस व्यवस्था का जो वर्णन दिया गया है उसमें अभी सजातीय विवाह, आनुवंशिक श्रम विभाजन की कोई बात नहीं है। यानी कि जिन मूल चारित्रिक विशेषताओं के आधार पर हम आज जाति व्यवस्था की पहचान करते हैं, उनमें से एक भी अभी मौजूद नहीं थी। रामशरण शर्मा ने भी इस बात की पुष्टि की है।
कोसांबी ने दास श्रम के पैदा होने को भी वैदिक समाज के उत्तरार्द्ध में वर्ग विभाजन के पैदा होने का एक स्रोत माना है। निश्चित तौर पर, भारतीय उपमहाद्वीप में दास श्रम उस पैमाने पर उत्पादक गतिविधियों में कभी इस्तेमाल नहीं हुआ, जिस पैमाने पर वह प्राचीन यूनान या रोमन सभ्यता में इस्तेमाल हुआ था। लेकिन कोसांबी इसके सन्दर्भ में यह तर्क देते हैं, जो कि सही प्रतीत होता है, कि एक आदिम कबीलाई या खानाबदोश चरवाहे समाज में दास श्रम के पैदा होने का अपनेआप में महत्व है, और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि उसका उत्पादक गतिविधि में कितना इस्तेमाल होता है। मूल बात यह है कि किसी भी पैमाने पर दास श्रम का उपयोग सामुदायिक सम्बन्धों के विघटन का एक लक्षण है। ऋग्वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में और मुख्य रूप से उत्तर-वैदिक काल में शूद्रों के वर्ण का पैदा होना, उनका दासों के रूप में प्रयोग होना, ब्राह्मणों और क्षत्रियों का मिलकर एक हद तक वैश्यों और पूर्ण रूप में शूद्रों का दमन और शोषण वर्ग समाज के जन्म की निशानी थी। लेकिन इस बात के लिए भी हमें पर्याप्त तर्क रखने होंगे, कि उत्पादन की इस आदिम मंज़िल में वर्ण और वर्ग के बीच में मुख्य और मूल रूप में एक अतिच्छादन (ओवरलैपिंग) मौजूद था।
इस पहलू को प्राचीन भारत के उत्कृष्ट इतिहासकार रामशरण शर्मा ने स्पष्ट किया है। शर्मा स्पष्ट करते हैं कि ऋग्वैदिक समाज में एक श्रेणीकरण मौजूद था, लेकिन अभी इसे वर्ग का नाम नहीं दे सकते हैं। दास श्रम की उपस्थिति भी केवल स्त्री दास श्रम के रूप में थी, जो कि न केवल घरेलू श्रम में लगायी जाती थीं, बल्कि कई बार उनसे विजेता कबीले में स्त्रियों की कम संख्या की पूर्ति भी की जाती थी; यानी कि वे विजेता जनजाति/जाति में सम्मिलित हो जाती थीं। लेकिन अभी न तो इतना अधिशेष मौजूद था कि ये श्रेणियाँ वर्ग में तब्दील हो सकें, और न ही इन श्रेणियों में अभी वर्ण या जाति के गुण आये थे, जैसे कि सजातीय विवाह, आनुवंशिक पेशा (श्रम विभाजन) और रूढ़ पदानुक्रम। दास श्रम के रूप में शूद्र थे, जो कि अधीनस्थ बनाये गये दस्यु/दास ही थे। उच्च वर्णों से पैदा होने वाले उनके बच्चे बिना किसी भेदभाव के वैदिक समाज में सम्मिलित हो जाते थे। ऋ्रग्वैदिक काल के उत्तरार्द्ध में जो चार वर्णों का सामाजिक श्रेणीकरण पैदा हुआ था, वह अभी वर्ण/जाति व्यवस्था नहीं था, बल्कि समाज के भ्रूण वर्ग विभाजन को दिखला रहा था। रामशरण शर्मा ने इसे ‘छोटे पैमाने का मुद्राविहीन समाज’ कहा था, जिसमें वितरण में असमानता की शुरुआत हो चुकी थी, लेकिन अभी जनजातीय समाज (खानाबदोश चरवाहे समाज) के शक्तिशाली तत्व मौजूद थे। 1000 से 700 ईसा पूर्व के करीब लोहे के प्रयोग के साथ गंगा के मैदानों में जंगल का सफाया हुआ, लोहे के हल का प्रयोग शुरू हुआ, उत्पादकता बढ़ी और पहली बार इतना अधिशेष पैदा होना शुरू हुआ, जिससे कि वर्ग और राज्य का निर्माण सम्भव हो सके। एक अन्य इतिहासकार बी.एन.एस. यादव ने रामशरण शर्मा की व्याख्या के पक्ष में कई नये प्रमाण रखे। उन्होंने दिखलाया कि 700 ईसा पूर्व से लेकर पहली सदी ईसवी के दौर तक वर्ग समाज के सुदृढ़ीकरण की यह प्रक्रिया जारी रही। इसी दौर में, नयी जनजातियाँ वर्ण आधारित समाज में सम्मिलित हुईं और इनसे नयी जातियों का उद्भव हुआ। इस दौर में, एक परिघटना यह भी सामने आयी कि शूद्रों पर ब्राह्मणों और क्षत्रियों का नियन्त्रण एक हद तक ढीला पड़ा और वे निर्भर कृषक आबादी में तब्दील होने लगे, जिनमें पहले वैश्यों की बहुतायत थी। जो वैश्य अभी भी खेती में ही लगे रहे, उनके कर्मकाण्डीय स्तर में भी गिरावट आयी और उनमें से कई शूद्रों में तब्दील होने लगे। जो बचे वे व्यापार को पेशे के तौर पर अपनाने लगे। इस प्रकार वैश्यों की आबादी में कमी आयी और उन्होंने व्यापार को अपना प्रमुख पेशा बना लिया।
वर्ण/जाति व्यवस्था में यह जो परिवर्तन आ रहा था, इसका मूल कारण क्या था? इसका मूल कारण था एक नयी उत्पादन व्यवस्था और नये उत्पादन सम्बन्धों का पैदा होना। पहली सदी ईसवी से हमें भूमि दान के प्रमाण मिलने लगते हैं। ये भूमि दान कई बार ब्राह्मणों को दिये जाते थे। लेकिन सिर्फ ब्राह्मणों को नहीं दिये जाते थे, बल्कि इसके प्राप्तकर्ता क्षत्रिय और कुछ मामलों में वैश्य भी हो सकते थे। क्षत्रिय और ब्राह्मणों का गठजोड़ मुख्य रूप से राज्यसत्ता में काबिज़ था। मौर्य काल की राज्यसत्ता में इस तत्व को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। ब्राह्मणों का कार्य मुख्य रूप से अभी तक पुरोहितों का ही था, लेकिन सामन्तवाद के भ्रूण रूप में जन्म लेने के साथ और ब्राह्मणों को भूमि दान मिलने के साथ, उनके चरित्र में परिवर्तन आया। वे भूस्वामियों के रूप में भी उभरे। क्षत्रियों के वर्ण का चरित्र पहले से ही योद्धा और भूस्वामी का था। ब्राह्मणों और क्षत्रियों का गठजोड़ ही अभी भी शासक वर्ग की भूमिका निभा रहा था। लेकिन चौथी शताब्दी से लेकर ग्यारहवीं शताब्दी तक, जब तक कि सामन्ती उत्पादन सम्बन्ध विकसित होते रहे, चारों वर्णों की भूमिकाओं में बुनियादी परिवर्तन आये। इन पर हम आगे और चर्चा करेंगे।
सुवीरा जायसवाल, रामशरण शर्मा और बी.एन.एस. यादव द्वारा सामन्तवादी उत्पादन पद्धति के विवरण से सहमति रखती हैं। उनके मुताबिक हरबंस मुखिया की यह आपत्ति, कि उस दौर की सामाजिक संरचना को सामन्तवाद नहीं कहा जा सकता क्योंकि उसमें भूदास व्यवस्था प्रमुख तौर पर मौजूद नहीं थी, व्यर्थ है। भारतीय सामन्तवाद में भूदास के रूप में किसी अलग वर्ग की ज़रूरत नहीं थी। शूद्र और अछूत जातियों की अधीनस्थ स्थिति इस कमी को पूरा करती थी। कई बार शूद्र बटाईदार बन जाते थे। वास्तव में, भारत में भूमिहीन कृषि मज़दूरों और निचली जातियों के बीच जो आंशिक अतिच्छादन आज तक मौजूद है, उसके बीज भारतीय सामन्तवाद के युग में ही पड़े थे। जायसवाल के अनुसार जाति व्यवस्था के वर्ग कार्य को नज़रअन्दाज़ करना इसके राजनीतिक और आर्थिक पहलू को नज़रअन्दाज़ करना होगा। और अगर जाति व्यवस्था के इन बुनियादी आर्थिक और राजनीतिक पहलुओं को नज़रअन्दाज़ किया जाता है, तो उसमें जो बचेगा वह मात्र सजातीय विवाह और आनुवंशिक श्रम विभाजन होगा। ऐसे में, जाति व्यवस्था भारतीय जीवन, इतिहास और समाज का एक अनैतिहासिक, अनादि-अनन्त और इसलिए नैसर्गिक हिस्सा बन जायेगी। हम जानते हैं कि दलित मुक्ति की बात करने वाले कई विचारक और संगठन लगभग ऐसी ही बात करते हैं, और अनजाने में जाति व्यवस्था का नैसर्गिकीकरण कर देते हैं। यह जाति व्यवस्था के आदर्शीकरण और एक प्रकार से वैधीकरण की ओर ले जाता है। सुवीरा जायसवाल के अनुसार हमें उपनिवेशवाद से पहले के भारतीय समाज के सन्दर्भ में ऐसे ढेरों प्रमाण मिलेंगे, जो दिखलाते हैं कि जहाँ कहीं भी जाति व्यवस्था का वर्ग विभाजन के साथ एक संगति (करेस्पॉण्डेंस) का रिश्ता था, वहाँ-वहाँ जाति का पदानुक्रम सुदृढ़ीकृत और रूढ़ हुआ, जबकि जहाँ कहीं भी जातियों के बीच मौजूद कर्मकाण्डीय पदानुक्रम वर्ग विभाजन की गतिकी के विपरीत था, वहाँ-वहाँ जाति व्यवस्था के भीतर संलयन और विखण्डन की प्रक्रिया शुरू हो गयी, जिसने क्रमिक प्रक्रिया में जाति पदानुक्रम में अहम बदलाव ला दिये।
सुवीरा जायसवाल ने कोसांबी, रामशरण शर्मा और इरफ़ान हबीब की इस विषय में आलोचना की है कि उन्होंने वर्ण व्यवस्था के भीतर जातियों के पैदा होने के लिए एक बाह्य कारक, यानी कि नयी जनजातियों के वैदिक समाज में सम्मिलित होने, को ज़िम्मेदार ठहराया है। जहाँ एक ओर यह बात सच है कि वैदिक सभ्यता के पूर्व की ओर विस्तार और नयी जनजातियों के इसमें शामिल होने ने जातियों को जन्म दिया, वहीं यह भी सत्य है कि अगर वर्ण व्यवस्था वाले समाज में पहले से जातिगत विभेद (यानी कि आनुवंशिक श्रम विभाजन और सजातीय विवाह के तत्वों पर आधारित वर्ण विभाजन) के तत्व मौजूद नहीं होते तो जनजातियों के शामिल होने से नयी जातियाँ पैदा नहीं होतीं। सुवीरा जायसवाल के अनुसार यह मानना कि पूर्व वैदिक जनजातियाँ सजातीय विवाह पर अमल करती थीं, जबकि वैदिक आर्यों में यह संस्कृति नहीं थी, ग़लत है। उन्होंने इसके विपरीत प्रमाण उपस्थित किये हैं कि वैदिक समाज में पितृसत्ता के पैदा होने के साथ ही वंश-आधारित सगोत्र विवाह की परम्परा समाप्त होने लगी थी, और स्त्रियों के अधीनस्थ स्थिति ग्रहण करने के साथ सजातीय विवाह की परम्परा के बीज पड़ चुके थे। दूसरी ओर, ऐसे पूर्व वैदिक कबीलों के प्रमाण भी मिल सकते हैं, जिनमें अभी सजातीय विवाह की परम्परा पैदा नहीं हुई थी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि जनजातियों के वैदिक समाज में शामिल होने के साथ सजातीय विवाह पर आधारित जातियों का जन्म हुआ। दूसरी तरफ़, वैदिक समाज में ही शूद्रों की जाति के जन्म के साथ शारीरिक श्रम के विशिष्ट रूपों को हीन बनाकर पेश किया जाना शुरू हो चुका था। ऐसे में, जब नये किस्म के उत्पादक श्रमों में विशेषज्ञता रखने वाले कबीले वैदिक समाज में शामिल हुए, तो उन्हें अलग-अलग जातियों के रूप में शामिल किया गया, और साथ ही आनुवंशिक श्रम विभाजन भी पैदा होने लगा। यही कारण था कि पूरे के पूरे कबीले एक जाति में तब्दील नहीं हुए। बल्कि हुआ यह कि कबीलों के उच्च पुरोहित वर्ग ब्राह्मणों के साथ मिल गये और अन्य वर्ग वैदिक समाज के अन्य वर्णों में सम्मिलित हुए। कई कबीलों के तमाम लोग क्षत्रियों के वर्ण में भी सम्मिलित हुए। संक्षेप में कहें तो सजातीय विवाह और आनुवंशिक श्रम विभाजन पर आधारित जातियों के जन्म की ज़मीन पहले से ही वैदिक समाज में मौजूद थी, और इसीलिए नयी जनजातियों का वैदिक समाज में शामिल होना जातियों के जन्म एक कारक बन सका। इस पूरी प्रक्रिया में वैदिक समाज में वर्ग विभाजन की आन्तरिक प्रक्रिया प्रमुख तौर पर ज़िम्मेदार थी। बाह्य जनजातियों का वैदिक वर्ण व्यवस्था के सम्मिलन तो मध्यकाल के उत्तरार्द्ध तक जारी रहा था। यह जातियों के पैदा होने का कारण अपनेआप में नहीं बन सकता था। इस विषय में सुवीरा जायसवाल की अवस्थिति ज़्यादा सन्तुलित प्रतीत होती है।
वैदिक काल की समाप्ति और प्राचीन गणराज्यों की शुरुआत के समय तक के इतिहास को देखें तो एक बात स्पष्ट तौर पर उभरकर सामने आ जाती है। वर्ण व्यवस्था का उद्भव और जातियों का पैदा होना एक व्यापक और जटिल ऐतिहासिक प्रक्रिया थी। अभी भी उस दौर के इतिहास के कई पहलू अछूते हैं और उनके बारे में पर्याप्त प्रमाण भी मौजूद नहीं हैं। लेकिन यह तय है कि वर्ण व्यवस्था अपने उद्गम से ही सतत् गतिशील थी। जातियों के पैदा होने के बाद जाति व्यवस्था का जो स्वरूप सामने आया वह भी गतिशील था। इनकी गति के पीछे जो प्राथमिक प्रेरक तत्व था वह उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बन्धों में आने वाला बदलाव था। वर्ग समाज के अस्तित्व में आने के समय पर वर्ण-वर्ग अतिच्छादन साफ तौर पर दिखलायी देता है। लेकिन यह अतिच्छादन बहुत लम्बे समय तक नहीं बना रह सकता है, और इसका अन्ततः एक संगति (करेस्पॉण्डेंस) के सम्बन्ध में तब्दील होना तय था।
इसका कारण यह है कि वर्ण व्यवस्था अपने उद्गम के समय पर मौजूद वर्ग सम्बन्धों का विचारधारात्मक वैधीकरण थी, लेकिन यह एक ऐसा विचारधारात्मक वैधीकरण था जो अपनेआप में विशिष्ट था। दुनिया के सभी समाजों में वर्ग शासन के अस्तित्व में आने के बाद शासक वर्गों के शासन को वैध ठहराने वाली विचारधाराएँ जन्म लेती हैं। लेकिन भारत में इस विचारधारा ने न सिर्फ धार्मिक रूप लिया, बल्कि वह कर्मकाण्डीय रूप से अस्थिभूत (ऑसिफाई) हो गयी। ज़ाहिरा तौर पर, अगर कोई भी शासक वर्ग अपने शासन के तहत मौजूद वर्ग विभाजन के ढाँचे को अपनी विचारधारा के ज़रिये कर्मकाण्डीय तौर पर अस्थिभूत करेगा, तो यह विचारधारात्मक वैधीकरण कभी भी समाज में उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन पद्धति के विकास के साथ मेल बिठाते हुए नहीं चल सकता है। ऐसे में, वर्ग विभाजन के पुराने विचारधारात्मक वैधीकरण, या विचारधारात्मक रूप से अस्थिभूत रूप और नये वर्ग विभाजन के बीच एक अन्तर पैदा होगा। निश्चित तौर पर, इस अन्तर का यह अर्थ नहीं है कि समाज में मौजूद वर्ग विभाजन और उसके विचारधारात्मक कर्मकाण्डीय वैधीकरण के बीच कोई भी सम्बन्ध या संगति नहीं रह जायेगी। इसका यह अर्थ है कि जब भी वर्ग विभाजन आमूल रूप से बदलेगा, तो पुराना कर्मकाण्डीय ढाँचा चरमराने लगेगा और उसमें कुछ समायोजन (एडजस्टमेण्ट) करने पड़ेंगे।
जाति व्यवस्था और जाति विचारधारा के पूरे इतिहास में ऐसे परिवर्तन भरे पड़े हैं। ये परिवर्तन दिक् और काल दोनों ही पैमाने पर मौजूद रहे हैं। यानी कि एक ही युग में अलग-अलग क्षेत्रों में जातिगत पदानुक्रम बिल्कुल भिन्न प्रकार के रहे हैं। मिसाल के तौर पर, जब वैदिक सभ्यता दक्षिण भारत और पूर्वी भारत के समाज तक पहुँची, तो उस समय के दौर में कृषि आधारित अर्थव्यवस्था काफ़ी विकसित हो चुकी थी, और वर्ण व्यवस्था के भीतर भी कृषक जातियों की स्थिति में तब्दीली आ चुकी थी। नतीजतन, इन क्षेत्रों में हमें क्षत्रिय और वैश्य वर्ण नहीं मिलते। इनके बारे में हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन अभी इतना बताना पर्याप्त है कि जाति व्यवस्था के भीतर आपको दिक् और काल, दोनों ही पैमाने पर आमूलगामी परिवर्तन और वैविध्य मिलेंगे। बस एक चीज़ है जो वर्ण/जाति व्यवस्था में बरकरार रहती है। वह है किसी भी क्षेत्र में वर्ग संरचना के आधार पर जो कर्मकाण्डीय जाति विभाजन होता है, उसका आधार शुद्धता/प्रदूषण के सिद्धान्त पर आधारित ब्राह्मणवादी विचारधारा होती है। लेकिन इसके नतीजे के तौर पर जो जातिगत पदानुक्रम पैदा होता है, वह हर क्षेत्र में मौजूद उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादन व्यवस्था के आधार पर अलग-अलग होते हैं। अब अगर हम पूरी वर्ण/जाति व्यवस्था और अलग-अलग वर्णों/जातियों की स्थिति में उत्पादन सम्बन्धों में आये बदलाव के साथ आने वाले परिवर्तनों पर निगाह डालें तो यह बात और स्पष्ट हो जाती है।
उत्पादन व्यवस्था और उत्पादन सम्बन्धों में परिवर्तन के साथ अलग-अलग वर्णों/जातियों की स्थिति में परिवर्तन
सुवीरा जायसवाल ने ब्राह्मण वर्ण/जाति की जाति व्यवस्था में स्थिति में आने वाले परिवर्तनों की ओर ध्यान खींचा है। इन परिवर्तनों के पीछे भी मुख्य कारणों के तौर उत्पादन सम्बन्धों और वर्ग संरचना में आने वाले बदलावों को स्पष्ट रूप में देखा जा सकता है। रोमिला थापर ने दिखलाया है कि एक चरवाहे खानाबदोश समाज में ब्राह्मणों की आमदनी का मुख्य स्रोत उपहारों के रूप में था। ब्राह्मणों के लिए तत्कालीन धार्मिक संहिताओं में भी आमदनी के इसी स्रोत को वांछित ठहराया गया था। लेकिन कृषि में संक्रमण के साथ वस्तुओं के उपहारों की जगह भूमि दान ने ले ली। इस भूमि दान की प्रथा ने ब्राह्मणों को पुरोहित के साथ-साथ भूस्वामी में भी तब्दील कर दिया। इसने ब्राह्मणों की स्थिति में अहम बदलाव लाया। जब हम वैदिक युग और उसके बाद जनपदों के इतिहास और मौर्य काल से आगे बढ़ते हैं, तो हम देखते हैं कि ब्राह्मण अब शासकों की भूमिका में भी आ रहे हैं। कई ऐसे राज्य पैदा हुए जिनके शासक ब्राह्मण थे। अब ब्राह्मणों द्वारा अपने से नीचे आने वाले क्षत्रियों के कार्य को अपनाया जाना वर्जित या हीन नहीं माना जाता था। बल्कि उन ब्राह्मणों की स्थिति जाति पदानुक्रम मंप और ऊपर हो गयी। ताज्जुब की बात तो यह है कि शुरुआती मध्यकाल आते-आते उन ब्राह्मणों को हीन माना जाने लगा जो कि दान लेते थे, मन्दिर में पुरोहित का काम करते थे, और उन ब्राह्मणों की स्थिति ज़्यादा ऊपर हो गयी जो कि शासक-प्रशासक या भूस्वामी बन गये थे। यह परिवर्तन क्यों हुआ था? स्पष्ट है कि पूर्व सामन्ती सामाजिक संरचना से सामन्ती सामाजिक संरचना में प्रवेश ने ब्राह्मणों की स्थिति में बुनियादी परिवर्तन ला दिये थे। इसके अलावा, ब्राह्मणों की जाति के भीतर भी बड़े पैमाने पर जातियाँ पैदा हुई थी। सुवीरा जायसवाल ने ब्रह्म-क्षत्रियों की जाति के पैदा होने का ज़िक्र किया है, जिसके तीन सम्भावित स्रोत हो सकते हैं—पहला, ब्राह्मणों और क्षत्रियों के बीच वैवाहिक सम्बन्ध; दूसरा, ब्राह्मणों द्वारा क्षत्रियों के कार्य, यानी शासन-प्रशासन को अपनाया जाना और तीसरा शुरू से पुरु के वंश के रूप में एक ऐसी जाति के मूल का मौजूद होना।
जिस प्रकार से ब्राह्मणों की जाति पदानुक्रम और जाति विचारधारा द्वारा निर्धारित उनके कार्यों में बदलाव आया, वैसे ही बदलावों को हम क्षत्रियों के बीच भी देख सकते हैं। क्षत्रियों के बीच नयी जातियाँ पैदा हुईं, जिनके वैविध्यपूर्ण स्रोत थे। मिसाल के तौर पर, राजपूत जाति के निर्माण के विषय में अब पर्याप्त ऐतिहासिक स्रोत मौजूद हैं, जो यह दिखलाते हैं कि यह जाति शुरू से क्षत्रिय वर्ण की स्थिति में नहीं थी। इस जाति का निर्माण भारतीयकृत विदेशी तत्वों, जिन्होंने अन्य जनजातियों पर विजय पायी और अपना शासन स्थापित किया, अन्य वर्णों से आने वाले सदस्यों और कुछ देशज कबीलों के संलयन से हुआ था। यह एक योद्धा भूस्वामी जाति थी जिसका निर्माण अलग-अलग स्रोतों से आने वाले तत्वों के मिश्रण से हुआ था। इस जाति ने क्षत्रियों के साथ और साथ ही अन्य उच्च जातियों के साथ वैवाहिक सम्बन्ध स्थापित किये जिसने इनके कर्मकाण्डीय स्थिति का स्तरोन्नतयन किया। इस पूरी प्रक्रिया में इस समुदाय के लोगों ने राजपुत्र नाम अपनाया जो आगे चलकर राजपूत बना।
दक्षिण भारत में इस प्रकार की कोई योद्धा जनजाति मौजूद नहीं थी। वहाँ पर योद्धा जनजाति के कार्यों को भी उभरती हुई भूस्वामी किसान जातियों ने पूरा किया। नतीजतन, वहाँ कोई क्षत्रिय वर्ण पैदा ही नहीं हुआ। जब दक्षिण भारत में कृषि आधारित कबीलों में राज्य निर्माण की प्रक्रिया एक मुकम्मिल मुकाम तक पहुँची तो वहाँ बड़े क्षेत्रीय राज्य पैदा हुए। कृषक समुदायों के बीच से ही इन राज्यों के राजा पैदा हुए। इसके बाद ब्राह्मणों का एक प्रकार से वहाँ उत्तरी भारत से आयात हुआ। ये ब्राह्मण तत्व उन कबीलों में मौजूद पुरोहित तत्वों से भी संलयित हुए और उन्होंने दक्षिण भारत की ब्राह्मण जातियों का निर्माण किया। इन ब्राह्मणों ने शासक कृषक जातियों को शूद्र के रूप में वर्ण व्यवस्था में शामिल किया। लेकिन यहाँ शूद्रों की स्थिति वह नहीं थी, जो कि उत्तर भारत और उत्तर-पश्चिमी भारत में थी। इन्हंर उस समय शूद्रों के वर्ण में जातियों के रूप में इसलिए शामिल किया गया क्योंकि जाति व्यवस्था के उदय के केन्द्रीय क्षेत्रों में अब तक शूद्र प्रमुख कृषक जाति बन चुके थे। दक्षिण भारत में शूद्रों की स्थिति कहीं बेहतर थी, क्योंकि यहाँ वे महज़ कृषक जाति नहीं थे, बल्कि शासक वर्ग भी थे। इसलिए दक्षिण भारत की एक ऐसी ही जाति वेल्लाल को ब्राह्मणों का संरक्षक बताया गया है। ब्राह्मणों के पास कर्मकाण्डीय “शक्ति” थी, इसलिए उनके कार्य और कोई जाति नहीं कर सकती थी। लेकिन क्षत्रियों की पारम्परिक शक्ति का चरित्र पारलौकिक नहीं था, बल्कि इहलौकिक था, इसलिए परम्परागत तौर पर उनके लिए निर्धारित कार्य कोई और जाति भी कर सकती थी। दक्षिण भारत में यह कार्य वेल्लाल जाति ने किया, जिसे दक्षिण भारतीय जाति पदानुक्रम में काफ़ी ऊँचा स्थान हासिल था। यहाँ पर निर्भर, शोषित और दासवत स्थिति में जो लोग थे उन्हें असत शूद्र कहा गया। ब्राह्मणों के लिए ऐसी प्रस्थापना देना आसान था क्योंकि काफ़ी पहले ही हीन और अहीन शूद्र के बीच में ब्राह्मण संहिताओं में फर्क किया गया था। कुछ शूद्र ऐसे थे जिनके प्रदूषणों को दूर करने का कोई रास्ता नहीं था, जबकि कुछ शूद्र ऐसे थे जिनके प्रदूषण संक्रामक नहीं थे, या उनके प्रदूषणों को दूर किया जा सकता था। इसी के आधार पर वेल्लालों को सत शूद्र कहा गया, जिनकी स्थिति जाति व्यवस्था में काफ़ी ऊपर थी, जबकि आदि द्रविड़ जातियों को असत शूद्र कहा गया, जिनकी स्थिति भूदासों और बेहद दरिद्र दस्तकार जातियों जैसी हो गयी, जैसा कि उत्तर और उत्तर पश्चिमी भारत में वैदिक काल में शूद्रों की थी।
पूर्वी भारत में भी ऐसी किसान जातियाँ पैदा हुईं जो कि शासक वर्ग की स्थिति में पहुँच गयीं। वहाँ पर भी कोई क्षत्रिय या वैश्य वर्ण अलग से पैदा नहीं हो सका। इसलिए दक्षिण भारत और पूर्वी भारत में हमें दो ही वर्ण मिलते हैं—ब्राह्मण और शूद्र। इन्हीं के भीतर आने वाली सदियों में कई जातियों का जन्म हुआ—कभी नयी जनजातियों के शामिल होने से, तो कभी पहले से मौजूद जातियों के बीच विघटन और संलयन की प्रक्रिया से। वैद्यों और कायस्थों की जाति का जन्म इसी प्रकार से बंगाल में हुआ।
रामशरण शर्मा ने दिखलाया है कि कृषि का पेशा, जो कि मूल तौर पर वैश्यों का पेशा था, वह शूद्रों का प्रमुख पेशा कैसे बन गया। उनके अनुसार भूमि अनुदान की सामन्ती प्रथा के शुरुआत के साथ नये क्षेत्रों में ब्राह्मणों के जाने के कारण नयी जनजातियाँ वर्ण व्यवस्था में शामिल हुईं। ये नयी जनजातियाँ शूद्रों के वर्ण में सम्मिलित हुईं और खेती का काम इनका प्रमुख काम बना। लेकिन सुवीरा जायसवाल का कहना है कि सामन्ती उत्पादन पद्धति के जन्म के साथ खेती से जुड़ा शारीरिक श्रम हीन होता गया। इसके साथ ही, नयी कृषक जातियों को वैश्य जाति के तौर पर नहीं बल्कि शूद्रों के रूप में वैदिक समाज में सम्मिलित किया गया। इसके अलावा, जो वैश्य खेती के पेशे में ही रह गये क्रमिक प्रक्रिया में वे भी शूद्र बन गये। जो वैश्य खेती से जमा अधिशेष के आधार पर व्यापार में चले गये, उनकी स्थिति वैश्य के रूप में बरकरार रही। इस प्रकार सामन्ती उत्पादन पद्धति के जन्म और उस दौर में नयी जनजातियों के वैदिक समाज में सम्मिलन के साथ वैश्यों और शूद्रों के मूल रूप से निर्धारित कार्यों में फर्क आ गया। इससे पहले, वैश्य मुख्य रूप से कृषि के पेशे में थे और शूद्रों का एक हिस्सा भी दरिद्र निर्भर किसानों के तौर पर खेती में ही लगा हुआ था। सुवीरा जायसवाल और रामशरण शर्मा, दोनों ने ही दिखाया है कि एक कबीलाई कुल/वंश के मुखिया के लिए इस्तेमाल होने वाला शब्द ‘गृहपति’ अपने अर्थ बदलता गया और बुद्ध के युग तक इसका अर्थ कृषक परिवार के मुखिया में रूपान्तरित हो गया। इस शब्द के विकास में ही हमें वैश्यों और शूद्रों के बीच के श्रम विभाजन (खेती और व्यापार) के विकास का भी पूरा ब्यौरा मिलता है।
सुवीरा जायसवाल ने यह भी दिखलाया है कि किस प्रकार महाराष्ट्र और गुजरात में चारों वर्ण अस्तित्व में आये और नयी जनजातियाँ चारों ही वर्णों में सम्मिलित हुईं। इसका कारण यह था कि ब्राह्मणवादी समाज, संस्कृति और विचारधारा का प्रसार वहाँ सामन्तवाद के उदय से पहले ही शुरू हो चुका था, यानी कि 500 ईसा पूर्व से लेकर 200 ईसवी तक। अलग-अलग वर्णों/जातियों की स्थिति में जो परिवर्तन आये उन्होंने पूरे जाति पदानुक्रम में भी महत्वपूर्ण परिवर्तन किये। इस बात के पर्याप्त प्रमाण मौजूद हैं कि उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बन्धों में होने वाले बदलाव बार-बार वर्ण/जाति व्यवस्था पर आन्तरिक परिवर्तन के लिए दबाव पैदा करते थे। जाति और वर्ग के बीच एक अन्तर मौजूद रहता था, लेकिन कोई दृष्टिहीन ही यह दावा कर सकता है कि उनके बीच स्पष्ट संगति (करेस्पॉण्डेंस) मौजूद नहीं है। यह अन्तर किसी युग में ज़्यादा तो किसी युग में कम दिखलायी पड़ता है। उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों के विकास के द्वन्द्व में ही एक विशिष्ट मौके पर अस्पृश्यता पैदा हुई। इस प्रक्रिया को समझना भी आवश्यक है।
अस्पृश्यता का विकासः सामन्ती शोषण के सम्बन्धों के विकास का चरम
दक्षिण व पूर्व में असत शूद्रों के पैदा होने और उत्तर व उत्तर-पश्चिम में शूद्रों के मुख्य रूप से किसान जाति बन जाने के साथ ही, समाज के सबसे अधीन, सबसे दमित और शोषित तबके के रूप में अछूत (अस्पृश्य) आबादी, जिसे आगे दलित आबादी कहा गया, पैदा हुई। हमने पहले भी ज़िक्र किया है कि शूद्रों में काफ़ी पहले ही हीन व अहीन शूद्रों के बीच धार्मिक संहिताओं में फर्क किया गया था। मिसाल के तौर पर, चाण्डाल जाति वर्ण व्यवस्था में शूद्रों में ही गिनी जाती थी, लेकिन उन्हें हीन शूद्रों में रखा गया था। एक ओर तो शूद्र जातियों में जो निम्नतम संस्तर पर थे, उनमें से अस्पृश्यता का जन्म हुआ और दूसरी तरफ़, सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों के विकसित होने की प्रक्रिया में जब शारीरिक श्रम के कुछ रूपों को बेहद निकृष्ट कोटि का घोषित कर दिया गया तो उसके साथ ही शुद्धता/प्रदूषण की जातिगत विचारधारा में भी अस्पृश्यता का तत्व जोड़ दिया गया। शुद्धता/प्रदूषण का विचार भी ब्राह्मणवादी विचारधारा में एक परिवर्तनशील चर राशि के रूप में मौजूद रहा है। यही कारण है कि कई जातियों को बाद में अस्पृश्य घोषित किया गया। मिसाल के तौर पर, वैदिक स्रोतों में कहीं भी चमड़े से जुड़े कार्यों और उन्हें अंजाम देने वाली चर्मकार जाति को हीन या निकृष्ट बनाकर नहीं पेश किया गया है। उल्टे वैदिक कर्मकाण्डों में इस्तेमाल होने वाली तमाम सामग्रियों को चमड़े के झोले मंह ही ले जाने का प्रावधान किया गया था। यह 8वीं–9वीं सदी में हुआ कि चर्मकारों को अस्पृश्य घोषित किया गया।
अस्पृश्यता के मूल के बारे में भीमराव अम्बेडकर के विचार यह थे कि ब्राह्मणों ने सोचे-समझे तौर पर कुछ जातियों को अस्पृश्य बना दिया, विशेष तौर पर वे जो कि प्रतिरोध कर रही थीं, और अभी भी गौमांस का भक्षण करती थीं, और साथ ही जिन्होंने बौद्ध धर्म अपना लिया था। लेकिन विवेकानन्द झा ने प्रमाणों के साथ इस दृष्टिकोण को खण्डित किया है। झा ने प्रदर्शित किया है कि अस्पृश्यता के पैदा होने का गौमांस भक्षण और बौद्ध धर्म अपनाने के साथ कोई रिश्ता नहीं था। इसका गहरा रिश्ता सामन्ती उत्पादन पद्धति के विकास के साथ था जिसने दमित और शोषित जातियों के शोषण और उत्पीड़न को ढाँचागत बनाने के लिए अस्पृश्यता का अतिरेकी रूप प्रदान किया। कई अन्य अध्येताओं ने भी अस्पृश्यता के मूल पर काम किया है, जैसे कि जी.एल.हार्ट जो कि अस्पृश्यता को प्राचीन तमिल समाज की पैदावार बताते हैं; एन.के.दत्त जो कि द्रविड़ समुदायों द्वारा गैर-द्रविड़ समुदायों के प्रति दृष्टिकोण को अस्पृश्यता के मूल में देखते हैं; जर्मन विद्वान फ्रयूरर हाइमेनडॉर्फ शहरी सभ्यता के विकास को अस्पृश्यता के कारण के तौर पर देखते हैं। लेकिन इस विषय पर विवेकानन्द झा के कार्य को ही सबसे उत्कृष्ट माना जाता है। उन्होंने दिखलाया कि प्रदूषण और शुद्धता के विचारों ने कुछ कार्यों को इतनी निकृष्ट कोटि का नहीं बनाया उन्हें करने वालों को अस्पृश्य घोषित किया गया; बल्कि कुछ वर्गों का शोषण इतना बर्बर और नग्न बन गया कि उनके काम के साथ प्रदूषण की अवधारणा को जोड़ दिया गया, और उन्हें करने वालों को अस्पृश्य बना दिया गया। ब्राह्मण विचारधारा ने हमेशा की तरह वर्ग विभाजन और शोषण को कर्मकाण्डीय स्वरूप प्रदान किया। हमें दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि यहाँ पर हम वर्ग और अतिच्छादन की बात नहीं कर रहे हैं, बल्कि पूरी सामाजिक-आर्थिक संरचना में निहित शोषण और उत्पीड़न के सम्बन्धों के धार्मिक कर्मकाण्डीय वैधीकरण और अश्मीभूतीकरण की बात कर रहे हैं। इस पूरे ढाँचे में, जैसा कि हम बता चुके हैं, जाति और वर्ग के बीच एक संगति (करेस्पॉण्डेंस) का रिश्ता मौजूद होता है।
रामशरण शर्मा ने स्पष्ट रूप से दिखलाया है कि खान-पान, छुआछूत सम्बन्धी और साथ ही विवाह के रिश्ते सम्बन्धी जातिगत बन्धनों और रूढ़ियों का भी एक उद्भव और विकास हुआ है। सुवीरा जायसवाल और डी.डी. कोसांबी ने भी प्रदर्शित किया है कि शुद्धता/प्रदूषण के विचारों के विकास का एक इतिहास रहा है। इन विचारों को गढ़ने और बनाने का काम शासक वर्ग के अंग और विचारकों के तौर पर ब्राह्मणों ने किया। इन विचारों का कार्य था शोषण के प्रभावी सम्बन्धों को कर्मकाण्डीय रूप से अश्मीभूत कर स्थायित्व प्रदान करना। जब भी वर्ग समीकरणों में आने वाले बदलावों का पुराने कर्मकाण्डीय ढाँचों में दम घुटने लगता था तो इन ढाँचों में आवश्यक परिवर्तन किये जाते थे। इस पूरी प्रक्रिया में मध्यकाल आते-आते ब्राह्मणों के बीच भी ऐसे विभाजन पैदा हो गये कि कुछ ब्राह्मण जातियाँ दरिद्रता की स्थिति में पहुँच गयीं। विशेष तौर पर दान-दक्षिणा पर जीने वाले ब्राह्मणों की भौतिक और कर्मकाण्डीय स्थिति दोनों ही नीचे चली गयी। डेक्लान क्विगली ने अपनी पुस्तक दि इण्टरप्रेटेशन ऑफ कास्ट में अस्पृश्य ब्राह्मणों के मामले का ज़िक्र किया है। इसलिए समूचे ब्राह्मणों की आबादी की स्थिति भी कोई तय और अपरिवर्तनीय नहीं थी।
अस्पृश्य जातियों के उद्भव और विकास में विवेकानन्द झा ने चार चरणों की बात की है, जिसके ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध हैं। पहला चरण था वैदिक युग। ऋग्वैदिक काल में अस्पृश्यता का कोई ज़िक्र नहीं है। उत्तर-वैदिक काल में भी चाण्डालों का हीन शूद्रों के रूप में ज़िक्र किया गया है और उनसे विकर्षण प्रकट किया गया है, लेकिन स्पष्ट रूप में अस्पृश्यता का कोई ज़िक्र नहीं है। दूसरा चरण था, 700 ईसवी पूर्व से लेकर 200 ईसवी तक। इस युग में कुछ जातियाँ स्पष्ट रूप से अस्पृश्य जातियों के रूप में पैदा होती हैं। इसी युग के दौरान दास श्रम का अर्थव्यवस्था में बड़े पैमाने पर प्रयोग होता है और फिर पहली सदी ईसवी से सामन्तवादी उत्पादन पद्धति का उदय होता है। तीसरा दौर था, 200 ईसवी से 600 ईसवी तक। इस तौर पर कुछ नये जनजातीय समूह आर्य वैदिक समाज में अस्पृश्य जातियों के रूप में दर्ज़ हुए। और चौथा दौर था 600 ईसवी से 1200 ईसवी तक जो कि सामन्तवाद का उच्च युग है और इसी युग में अस्पृश्यता बड़े पैमाने पर एक परिघटना के रूप में पैदा होती है। बी.एन.एस यादव ने इस ओर ध्यानाकर्षित किया कि सामन्ती अर्थव्यवस्था के विकास के साथ गाँवों का महत्व बढ़ा और स्थिर और स्थैतिक गाँवों की व्यवस्था आयी, जो दमित और शोषित जातियों को गतिमानता की कोई आज्ञा नहीं देती थी, ख़ास तौर पर कारीगर जातियों को। यादव के अनुसार इस कारक ने भी अस्पृश्यता को बढ़ावा दिया क्योंकि इसने सबसे निचले तबकों की स्थिति को और ज़्यादा नीचे गिराया।
बौद्ध धर्म और जैन धर्म ने जहाँ एक ओर ब्राह्मणों के वर्चस्व को चुनौती दी, वहीं उन्होंने वर्ण/जाति व्यवस्था को कोई गम्भीर चुनौती नहीं दी। बल्कि कुछ मायनों में इन धर्मों ने वर्ण/जाति व्यवस्था को मज़बूत किया। इरफ़ान हबीब ने लिखा है कि बौद्ध और जैन धर्मों ने जाति व्यवस्था के धार्मिक वैधीकरण को अस्वीकार किया, लेकिन जाति व्यवस्था को समाज के तथ्य के रूप में स्वीकार किया। यह बात ठीक लगती है क्योंकि इन धर्मों में दासों, और ऋणी किसानों और साथ ही स्त्रियों के प्रति जो पूर्वाग्रह मौजूद है, वह एकदम स्पष्ट है। जब वैश्य व्यापारिक जातियों ने अपनी आर्थिक शक्तिमत्ता के बढ़ने के साथ ब्राह्मण वर्चस्ववाद का विरोध किया और जैन धर्म में प्रवेश किया, तो एक प्रकार से जैन धर्म में भी जाति व्यवस्था के तत्व आ गये, क्योंकि वैश्य जातियों ने वहाँ भी जातिगत पेशे और सजातीय विवाह की अपनी रूढ़ियों को कायम रखा। आज के समय में तो जैन धर्म काफ़ी हद तक हिन्दू धर्म का एक उपांग-सा बन गया है। इरफ़ान हबीब ने यह भी बताया है कि अहिंसा और कर्म के सिद्धान्त पर बौद्ध धर्म द्वारा बल दिया जाना वास्तव में अस्पृश्य आबादी के लिए एक अभिशाप सिद्ध हुआ, क्योंकि इन मूल्यों पर बल देते हुए जिन कार्यों को हीन घोषित किया गया वे आम तौर पर अस्पृश्य जातियाँ ही करती थीं। बौद्ध धर्म भी हिन्दू धर्म में वैष्णव और शैव सम्प्रदायों के पैदा होने और उससे भी ज़्यादा उत्साह से गोवध पर रोक लगाने पर बल देने के साथ अप्रासंगिक-सा हो गया। इसलिए नहीं कि हिन्दू धर्म ने शुद्धता के विचार पर अपने दावे को फिर से स्थापित कर दिया था, जैसा कि लूई दूमों का दावा है। बल्कि इसलिए कि बदलते युग के उत्पादन सम्बन्धों के साथ हिन्दू धर्म ने एक बार फिर से कदम मिला लिये। इस मायने में हिन्दू धर्म एक बेहद लचीला धर्म है, और जैसा कि वेबर ने कहा था, कि यह क्लासिकीय अर्थों में धर्म है ही नहीं (हालाँकि यह विचार सही नहीं है क्योंकि वेबर के अनुसार धर्म के लिए ‘डॉग्मा’ होना आवश्यक है, जबकि हिन्दू धर्म में ‘डॉक्सा’ प्रभावी है); अम्बेडकर का यह कहना एक मायने में ठीक था हिन्दू धर्म का कोर मूल्य जाति व्यवस्था है। वास्तव में, यह जाति व्यवस्था भी हिन्दू धर्म के लचीलेपन को बढ़ाती है। जाति की विचारधारा ने हरेक युग में शासक वर्गों को एक महत्वपूर्ण उपकरण दिया है। यह एक ऐसी लचीली विचारधारा है जो हरेक युग में, और विशेष तौर पर प्राक्-पूँजीवादी समाजों में, शासक वर्गों को अपने शासन को और मज़बूत बनाने का उपकरण देती है। यह शासक वर्गों के बर्बर और नंगे शोषण को धार्मिक वैधीकरण देता है, जो कि कर्मकाण्डीय अश्मीभूतीकरण का रूप लेता है। निश्चित तौर पर, इसके कारण जाति और वर्ग के बीच एक अन्तर मौजूद रहता है। लेकिन जब तक जाति की आर्थिक और राजनीतिक पंजिकाएँ मुख्य रूप से समाप्त नहीं हो जाती हैं (जैसा कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के उदय के साथ हुआ है), तब तक समाज में जाति और वर्ग के बीच एक गहरी संगति (करेस्पॉण्डेंस) मौजूद रहती है। कम-से-कम भारत का इतिहास इस बात की स्पष्ट गवाही देता है। जातिगत विचारधारा वर्ग की व्यवस्था से निश्चित अर्थों में स्वायत्त रहती है। और ऐसा उसके लिए ज़रूरी है, अगर वह सही मायने में प्रभावी बने रहना चाहती है।
अगर जातिगत विचारधारा वर्ग विभाजनों का प्रतिबिम्बन करने लगेगी, तो उसके साथ जुड़ी सारी दिव्यता और प्रभा-मण्डल जाता रहेगा। हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि जाति विचारधारा एक धार्मिक विचारधारा है, जो पेशागत, वैवाहिक बन्धनों और शुद्धता/प्रदूषण के पैमाने पर पदानुक्रम को सही ठहराने के लिए धर्म से अपना प्राधिकार प्राप्त करती है। जाहिरा तौर पर, अगर हम इस बात को समझते हैं तो यह समझना आसान होगा कि जाति कभी भी वर्ग के साथ पूर्णतः अतिच्छादित नहीं हो सकती। उनमें एक करेस्पॉण्डेंस का सम्बन्ध ही हो सकता है। लेकिन निश्चित तौर पर इस रूप में भी जाति विचारधारा अपने उद्भव से लेकर आज तक शासक वर्गों को अलग-अलग रूपों में एक ज़बर्दस्त औज़ार देती रही है। यह एक तरफ़ तो ग़रीब मेहनतकश आबादी को ढाँचागत पराधीनता में रखती है, वहीं उन्हें आपस में भी कई जातियों में बाँट देती है। लेकिन यह काम जाति विचारधारा अलग-अलग उत्पादन पद्धतियों में अलग-अलग तरीके से करती है।
जातिगत विचारधारा की यह उपयोगिता ही उसे दिल्ली सल्तनत और मुगल राज्य के शासकों के लिए भी सहनीय बनाती थी, बल्कि कहना चाहिए कि वांछित बनाती थी। इरफ़ान हबीब ने दिखलाया है कि मुस्लिम शासकों ने जाति व्यवस्था से छेड़छाड़ करना तो दूर, उसके बारे में कभी दो बुरे शब्द भी नहीं कहे। एकमात्र मुस्लिम प्रेक्षक जिसने जाति व्यवस्था की हल्के स्वर में आलोचना की वह एक वैज्ञानिक था—अलबरूनी। लेकिन इस अपवाद को छोड़ दें, तो मुस्लिम शासकों को कभी जातिगत दमन उत्पीड़न पर कोई आपत्ति नहीं थी। उल्टे सिंध की अरबी लोगों द्वारा विजय पर उनकी सेना के सेनापति ने जट्ट आबादी के भयंकर जातिगत दमन का अनुमोदन किया था। इस्लाम केवल मूर्ति पूजा और बहुदेववाद के लिए हिन्दू धर्म की आलोचना करता है। लेकिन जाति व्यवस्था को तो वह स्वयं ही लालच से देखता है! अगर ‘कुरान’ में केवल स्वतन्त्र मनुष्य और दास के विभाजन की बात न की गयी होती तो इस्लाम के धार्मिक गुरू और प्रशासक इसे अपने तरीके से अपनाने की कोशिश भी कर सकते थे! और व्यवहारतः जाति व्यवस्था ने इस्लामिक समाज में प्रवेश कर भी लिया। जो दलित और निचली जाति के लोग इस्लाम धर्म में गये, उन्हें कमीन कहा गया, जिसका अर्थ हुआ निकृष्ट या निचला। इस सबका अर्थ यह नहीं है कि जाति की विचारधारा में ऐसी कोई विषैली किन्तु दिव्य शक्ति है, जो कि नष्ट नहीं होती और हर चीज़ को प्रदूषित कर देती है। इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि जातिगत विचारधारा हर युग में भारत में आये शासक वर्गों को अपने शोषण के वैधीकरण का एक बना-बनाया, बेहद लचीला और उपयोगी उपकरण देती है। ऐसे में, कोई भी शासक वर्ग इसका इस्तेमाल करने से क्यों चूकेगा? यही कारण है कि जाति व्यवस्था पूरे मध्यकालीन भारत में वर्ग शोषण को धार्मिक कर्मकाण्डीय वैधीकरण देने वाली एक उपयोगी विचारधारा के रूप में बरकरार रही।
आधुनिक भारत में जाति की ऐतिहासिकता और समकालीनताः एक संक्षिप्त नोट
औपनिवेशिक दौर शुरू होने के साथ जाति व्यवस्था में कुछ अहम बदलाव आये। इन बदलावों के पीछे जो सबसे प्रमुख कारक थे, उन्हें कई स्तरों पर देखा जा सकता है।
एक स्तर तो जाति व्यवस्था और जाति पदानुक्रम के मौजूदा रूप को ही कुछ बदलावों के साथ सुदृढ़ करता है। जैसे कि 1793 में स्थायी बन्दोबस्त के लागू होने ने भूमिहीन दलित जातियों के दमन और उत्पीड़न को एक आधार मुहैया कराया। वहीं रैयतवाड़ी भूमि व्यवस्था ने पहले से ऊपर की ओर गतिमान कृषक जातियों के एक हिस्से को ज़मीनों का मालिक बनाया। महालवाड़ी ने ग्राम समुदाय के मुखिया को एक प्रकार से भूमि का नियन्त्रण सौंप दिया। अलग-अलग इलाकों में मौजूद जातिगत पदानुक्रम और समीकरणों में अंग्रेज़ों द्वारा लाये गये भूमि सुधारों ने कोई विशेष परिवर्तन नहीं किया। अगर उनसे कुछ हुआ तो यह कि दलित आबादी की स्थिति को भविष्य में भी ढाँचागत तौर पर दमित, शोषित और उत्पीड़ित के रूप में रखने का पूरा इन्तज़ाम हो गया। कहीं पर उनका दमन करने वाली पुरानी उच्च जातियाँ, यानी कि ब्राह्मण और क्षत्रिय जातियाँ थीं (जैसे कि संयुक्त प्रान्त और बंगाल) और कहीं पर उदीयमान कृषक जातियाँ जो कि कर्मकाण्डीय पदानुक्रम में तो शूद्र की स्थिति में थीं, लेकिन आर्थिक और राजनीतिक तौर पर उनकी स्थिति बेहतर हो चुकी थी।
एक दूसरा स्तर जिस पर अंग्रेज़ों ने जाति व्यवस्था को प्रभावित किया था, वह था एक हद तक उद्योगों के विकास और रेलवे को लाने में उनकी भूमिका। मार्क्स ने कहा था कि रेलवे और उद्योगों के विकास के साथ जाति व्यवस्था में मौजूद आनुवंशिक श्रम विभाजन टूटेगा। यह बात मोटे तौर पर सही साबित हुई। अंग्रेज़ों द्वारा उद्योगों का विकास बहुत बड़े पैमाने पर नहीं किया गया था। एक मायने में पुराने उद्योग-धन्धे तबाह हुए थे, और कुछ नये औद्यागिक केन्द्र विकसित हुए थे, जिनका काम था कच्चा माल आपूर्ति करना। लेकिन कलकत्ता, बम्बई, सूरत, अहमदाबाद आदि जैसे औद्योगिक केन्द्रों में जो सर्वहारा वर्ग पैदा हुआ, उसके बीच, जाहिरा तौर पर रूढ़ आनुवंशिक श्रम विभाजन होना सम्भव नहीं था। यह सच है कि इस सर्वहारा वर्ग के बीच ज़्यादातर दलित और निम्न जातियों के लोग थे। लेकिन इन जातियों में स्वयं भी तो एक रूढ़ पेशागत विभाजन हुआ करता था। यह रूढ़ आनुवंशिक श्रम विभाजन टूटने की प्रक्रिया अंग्रेज़ों के दौर में शुरू हो गयी थी। निश्चित तौर पर, यह प्रक्रिया देश के आज़ाद होने और यहाँ पूँजीवादी विकास होने के साथ ज़्यादा तेज़ी से आगे बढ़ी। लेकिन यह एक निर्विवाद तथ्य है कि इसके बीज औपनिवेशिक काल में पड़ चुके थे।
तीसरे स्तर पर ब्रिटिश औपनिवेशिक राज्य ने जाति व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला, जिसकी चर्चा हम ऊपर कर आये हैं। औपनिवेशिक राज्य ने जाति की पूरी अवधारणा को पुनर्निर्मित किया। निकोलस डर्क्स और उन्हीं के समान सबऑल्टर्न स्टडीज़ के अन्य अनुसरणकर्ताओं का यह मानना कि जाति औपनिवेशिक राज्य की ओरियण्टलिस्ट निर्मिति है, एक प्रकार का आत्मगतवाद (सब्जेक्टिविज़्म) होगा। कोई भी राज्य ऊपर से इस प्रकार का कोई विभाजन निर्मित नहीं कर सकता है, अगर उसका कोई इतिहास न हो। निश्चित तौर पर, यह माना जाना चाहिए कि ब्रिटिश एथनोग्राफिक राज्य की जातियों को जोड़ने, सूचीबद्ध करने, वर्गीकृत करने और व्यवस्थित करने के प्रति जो फेटिश थी, उसने जातियों के बीच के विभाजन और पदानुक्रम को एक बार झकझोरा और फिर नये तरीके से रूढ़ बना दिया। इस पूरी प्रक्रिया पर अर्जन अप्पादुरई, बर्नार्ड एस. कोन, सूज़न बेली और निकोलस डर्क्स जैसे इतिहासकारों ने काफ़ी लिखा है। सूज़न बेली, सुमित गुहा और रिचर्ड ईटन द्वारा डर्क्स जैसे लोगों की यह आलोचना सही है कि वे औपनिवेशिक राज्य के साथ देशी कुलीनों, जिसमें कि ब्राह्मण भी शामिल हैं, के सहयोग को नहीं देख पाते हैं, जिसके नतीजे के तौर जाति व्यवस्था के आधुनिक रूप की पुनर्रचना हुई। न ही सबऑल्टर्न इतिहासकार इस बात को समझ पाते हैं कि औपनिवेशिक राज्य द्वारा भारतीय जनता के दमन के लिए जाति की रचना का सिद्धान्त एक प्रकार के षड्यन्त्र के सिद्धान्त जैसा है जो कि यह व्याख्या नहीं कर पाता है कि औपनिवेशिक राज्य वास्तव में जो औपनिवेशिक ज्ञान के अभिलेखागारों का निर्माण कर रहा है, यह उसकी अपनी ज़रूरत है, यानी, बेहतर तरीके से शासन करने की ज़रूरत। यह पूरी कसरत सांस्कृतिक प्रभुत्व की परियोजना के लिए नहीं है, बल्कि इसके पीछे निश्चित राजनीतिक और आर्थिक कारक काम कर रहे थे।
डेक्लान क्विगली ने इस पूरे अप्रोच को ठीक ही प्रत्ययवादी कहा है। क्विगली कहते हैं निकोलस डर्क्स, रोनाल्ड इण्डेन, आदि जैसे लोगों के विचारों का नतीजा यह निकलता है कि जाति एक मानसिक निर्मिति बन जाती है, भाषा का खेल बन जाती है। यह दृष्टिकोण एक प्रकार के साम्राज्यवादी अपराधबोध से पैदा हुआ नैतिक ‘क्रुसेड’ है, जो उन अपराधों के लिए साम्राज्यवाद को ज़िम्मेदार ठहराता है, जो कि साम्राज्यवाद ने किये ही नहीं है। लेकिन इस सारे मजमे के पीछे इस प्रकार की विचारधाराएँ जो करती हैं, वह यह कि साम्राज्यवाद को और मज़बूत बनाती हैं। क्योंकि साम्राज्यवाद का आज के दौर में सीधा गठबन्धन देश की पुनरुत्थानवादी फासीवादी ताक़तों के साथ है। उनका भी यही तर्क है कि जाति तो अंग्रेज़ों ने पैदा कर दी, उससे पहले हिन्दू धर्म में केवल कर्म के आधार पर श्रम विभाजन था, जन्म के आधार पर नहीं।
एक बात स्पष्ट है। पूँजीवाद और बड़े पैमाने के उद्योग-धन्धों के विकास के साथ, और साथ ही शहरीकरण के आगे बढ़ने के साथ जाति के दो पहलू समाप्ति की ओर बढ़ रहे हैं। पहला, आनुवंशिक श्रम विभाजन। अब जन्म के आधार पर किसी के कार्य या पेशे को निर्धारित करने की बात करना दूर की कौड़ी हो गयी है। बहुत से स्वरोज़गार के पेशों में अभी भी जातिगत चरित्र दिखता है, जैसे कि नाई, धोबी आदि। लेकिन यह अब रूढ़ श्रम विभाजन नहीं है, जिसे कि लाँघा न जा सके। दूसरी बात, अब खान-पान को लेकर जुड़े पूर्वाग्रह भी काफ़ी हद तक टूटे हैं, क्योंकि नये किस्म के गाँवों में उनका उसी रूप में बने रहना सम्भव नहीं है, और शहर में तो उनका पूरी तरह टूट जाना अवश्यम्भावी है। हम कह सकते हैं कि जाति की ये दो पंजिकाएँ अब इतनी धूमिल हो चुकी हैं, कि उन्हें कुछ समय में हम लुप्तप्राय कह सकेंगे। पूँजीवादी उत्पादन पद्धति और उत्पादन सम्बन्धों के साथ जाति के ये पहलू मेल नहीं खाते हैं, इसलिए पूँजीवाद के साथ उनकी यही नियति थी। हम इसे इरफ़ान हबीब के शब्दों में नहीं कहेंगे कि जाति की आर्थिक और सामाजिक पंजिकाएँ धूमिल हो रही हैं। लेकिन यह निश्चित है कि जाति के उपरोक्त दो पहलू समापन की ओर हैं।
एक पहलू है जो अभी भी बरकरार है और वह पहलू है सजातीय विवाह की प्रथा। और इसका कारण एकदम ठीक यही है कि इसका पूँजीवादी उत्पादन पद्धति से कोई बैर नहीं है। वास्तव में, यह पूँजीवाद के लिए बेहतर है और मेल खाता है। पूँजीवाद के दौर में पितृसत्ता का भी नये रूप में बरकरार रहने का यही कारण है। और ये दोनों कारक एक-दूसरे को बल देते हैं, यानी कि पितृसत्ता सजातीय विवाह पर आधारित पूँजीवादी जाति व्यवस्था को, और पूँजीवादी जाति व्यवस्था पूँजीवादी पितृसत्ता को। और ये दोनों ही मिलकर पूँजीवादी व्यवस्था और पूँजीपति वर्ग को अपने दमन और शोषण की मशीनरी को चाक-चौबन्द करने अवसर देते हैं। पूँजीवाद एक मायने में सभी प्राक्-पूँजीवादी व्यवस्थाओं से भिन्न होता है। यह अपने शासन का वैधीकरण किसी पारलौकिक सत्ता से नहीं लेता है। यह अपने शासन का वैधीकरण जनता से ‘सहमति’ के रूप में लेता है। इसी को ग्राम्शी ने वर्चस्व का नाम दिया था। पूँजीपति वर्ग का शासन प्रत्यक्ष प्रभुत्व पर आधारित नहीं होता है, बल्कि वर्चस्व पर आधारित होता है, जिसमें पूँजीपति वर्ग अपने शासन के लिए ‘सहमति’ का निर्माण करता है। ऐसी किसी भी व्यवस्था मंप जाति की विचारधारा पहले की तरह शासन और शासक वर्ग को वैधीकरण प्रदान करने वाली विचारधारा नहीं हो सकती है। वास्तव में, कोई भी धार्मिक विचारधारा इस काम को नहीं कर सकती है, क्योंकि अब पूरे शासन का वैधीकरण प्रकृति से ही पारलौकिक नहीं रह गया है, बल्कि इहलौकिक बन गया है। लेकिन जाति व्यवस्था का प्रश्न केवल राज्यसत्ता से जुड़ा हुआ प्रश्न नहीं है। जातिगत मानसिकता और विचारधारा सदियों से भारतीय जनमानस के पोर-पोर में बिठायी गयी है, अपने तमाम परिवर्तनों के साथ। जातिगत मानसिकता और विचारधारा का कोर शुद्धता/प्रदूषण के आधार पर तय होने वाला पदानुक्रम है, न कि किसी विशिष्ट ऐतिहासिक दौर में प्रभावी कोई विशिष्ट जाति पदानुक्रम। यह जातिगत विचारधारा सूक्ष्म रूपों में काम करती है और इसके लिए हमेशा शासक वर्गों के आवाहन की ज़रूरत नहीं होती है। कोई भी पूँजीवादी शासक वर्ग अपने शासन का वैधीकरण जातिगत विचारधारा से नहीं ले सकता है, लेकिन यह दो तरीके से जातिगत विचारधारा का इस्तेमाल कर सकता है। एक जनता के शोषित मेहनतकश हिस्सों को जातिगत आधार पर बाँटने में, और साथ ही, अपने पक्ष में वर्चस्व निर्मित करने के एक उपकरण के रूप में। पूँजीवादी चुनावों के दौरान इस पूरी प्रक्रिया को नंगे तौर पर घटित होते हुए देखा जा सकता है। साथ ही, जैसा कि हमने ऊपर बताया था, शासक वर्ग के विभिन्न धड़े आपस में प्रतिस्पर्द्धा के लिए भी जातिगत समीकरणों का इस्तेमाल करते हैं, हालाँकि हर जाति के शासक जनता के ख़िलाफ़ एकजुट ही रहते हैं।
कृषि में हुए पूँजीवादी विकास ने पिछले 50 वर्षों में जातिगत संरचना में कई अहम बदलाव लाये हैं। इन बदलावों को मँझोली किसान जातियों के उभार में देखा जा सकता है। दक्षिण भारत से लेकर उत्तर प्रदेश, बिहार, हरियाणा, पंजाब और गुजरात तक यह एक मान्य परिघटना है। इनमें से अधिकांश मँझोली जातियाँ पिछड़ी हुई जातियाँ हैं, जिनकी कर्मकाण्डीय स्थिति शूद्र की है। लेकिन वे अपने-अपने इलाके की आर्थिक और राजनीतिक शक्ति से सम्पन्न दबंग जातियाँ बन चुकी हैं। अन्य सभी जातियाँ, जिनमें कि ब्राह्मण और ठाकुर शामिल हैं, इनके प्रभुत्व के तहत ही रहती हैं। इन्हें हम कुलक जाति भी कह सकते हैं। इस पूरी परिघटना को ग्लोरिया रहेजा, मैकिम मैरियट आदि जैसे समाजशास्त्रियों ने सैद्धान्तिक तौर पर सूत्रबद्ध करने के विचारणीय प्रयास किये हैं। उत्तर प्रदेश के एक गाँव पहांसू का अध्ययन करते हुए रहेजा बतलाती हैं कि इस गाँव में गुज्जर दबंग जाति के रूप में मौजूद हैं, और अन्य तमाम जातियाँ उनके इर्द-गिर्द हैं। यहाँ रहेजा ‘प्रभुत्वशाली जाति की केन्द्रीयता’ का सिद्धान्त देती हैं, और बताती हैं कि अन्य सभी जातियों को गुज्जर जाति दान-दक्षिणा देती है, लेकिन कन्यादान को छोड़कर वह कोई दान लेती नहीं है। दान देना उसकी उच्च स्थिति का लक्षण है। गुज्जरों का अन्य जातियों से सत्ता और शक्ति का सम्बन्ध है लेकिन बाकी जातियों में ऐसा कोई आपसी पदानुक्रम नहीं नज़र आता है।
एक और परिघटना है जिस पर हम पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के प्रभावी होने के नतीजे के तौर पर ग़ौर कर सकते हैं। यह है दान-दक्षिणा पर जीने वाले ब्राह्मणों की स्थिति की गिरावट। कई जगहों पर तो यह दलितों जैसी हो गयी है। हमारे विचार में इसका कारण यह है कि एक पूँजीवादी समाज में विनिमय ही प्रतिष्ठित होता है, या फिर बराबरी की हैसियत रखने वालों में दिये जाने वाले उपहार (हालाँकि हम सभी जानते हैं कि वह भी एक प्रकार का विनिमय ही है!)। पूँजीवादी सामाजिक संरचना के उदय के साथ दान-दक्षिणा पर जीवन व्यतीत करने वाले ब्राह्मणों की स्थिति भौतिक और कर्मकाण्डीय तौर पर नीचे जाना सामान्य है और समझा जा सकता है।
अन्त में…
ऐसी तमाम परिघटनाएँ गिनायी जा सकती हैं जो कि पूँजीवादी उत्पादन पद्धति के आने के साथ जाति व्यवस्था में पैदा हुई हैं। निश्चित तौर पर पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था जाति व्यवस्था को ख़त्म नहीं करेगी। यह उसे सजातीय विवाह के तौर पर सम्पत्ति की निरन्तरता प्रदान करती है और साथ ही उसे एक शक्तिशाली राजनीतिक उपकरण देती है, जिससे कि मेहनतकश आम जनता को बाँटा जा सके। पूँजीवादी विकास और एक विशाल सर्वहारा वर्ग के उदय के साथ वर्ग और जाति के करेस्पॉण्डेंस में अन्तर का पहलू अब बहुत बढ़ चुका है। यह करेस्पॉण्डेंस गहरे अध्ययन से ही दृष्टिगोचर होता है। मिसाल के तौर पर, आज के दौर में भूमिहीन किसानों के वर्ग और जाति में यह करेस्पॉण्डेंस थोड़ा ज़्यादा मज़बूती से नज़र आता है। लेकिन पूरे सर्वहारा वर्ग में अन्य पिछड़ी जातियों और मँझोली जातियों की आबादी भी बहुत तेज़ी से बढ़ी है। लेकिन जाति और वर्ग के बीच के करेस्पॉण्डेंस के कमज़ोर होने से पूँजीवाद को जातिवादी विचारधारा के इस्तेमाल का एक अवसर भी मिलता है। जहाँ एक ओर स्वतःस्फूर्त तरीके से मज़दूर वर्ग में जाति के बन्धन टूटने की स्थितियाँ पैदा होती हैं, वहीं शासक वर्गों को यह मौका भी मिलता है कि सर्वहारा वर्ग को जाति के आधार पर बाँटा जा सके। अगर यह अन्तर छोटा होता और सर्वहारा वर्ग का 80 या 90 फीसदी हिस्सा दलित आबादी से आता, तो इससे उसे बाँटने के लिए जातिवादी विचारधारा के इस्तेमाल की गुंजाइश कम होती।
इसलिए सजातीय विवाह के ज़रिये पवित्र बुर्जुआ सम्पत्ति की निरन्तरता को बनाये रखने और सर्वहारा वर्ग को बाँटने का एक मज़बूत औज़ार जातिगत विचारधारा पूँजीवाद को दे रही है। ऐसे में, पूँजीवाद से जाति व्यवस्था को ख़त्म करने की उम्मीद करना मूर्खता होगा। लेकिन यह समझना भी अनिवार्य है कि जाति व्यवस्था अपने उद्गम से लेकर आज तक एक जैसी नहीं रही है; वह सतत् परिवर्तनशील रही है और इस परिवर्तन के पीछे मूल कारक बदलते उत्पादन सम्बन्ध, उत्पादन पद्धति और वर्ग अन्तरविरोध रहे हैं। यह भी स्पष्ट है कि जाति व्यवस्था का जन्म वर्ग, राज्य और पितृसत्ता के साथ अस्तित्व में आयी है, और उनके वैधीकरण का उपकरण बनी है। ऐसे में, वर्ग, राज्य और पितृसत्ता के किसी भी रूप में मौजूदगी तक जातिगत अन्तरविरोध, विचारधारा और मानसिकता की मौजूदगी भी बनी रहेगी। एक वर्गविहीन समाज की लड़ाई ही एक जातिविहीन समाज की लड़ाई हो सकती है। इसका अर्थ निश्चित तौर पर यह नहीं है कि एक वर्गविहीन समाज की लड़ाई के पूरे होने तक जाति के प्रश्न को कालीन के नीचे खिसका दिया जाय। इसका अर्थ तो उल्टे यह है कि पूँजीपति वर्ग के ख़िलाफ़ संघर्ष में सर्वहारा वर्ग को आज से ही उन सभी विचारधाराओं के ख़िलाफ़, पहचानों के ख़िलाफ संघर्ष करना होगा जो उसे तोड़ता है, बाँटता और उसके प्रतिरोध को विघटित करता है। जाति और जातिवाद के ख़िलाफ़ निरन्तर, अनथक प्रचार के बिना सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद के विरुद्ध संगठित नहीं हो सकता, और सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में समाजवादी सत्ता की स्थापना और एक वर्ग विहीन साम्यवादी समाज की ओर आगे बढ़े बग़ैर जाति और जातिवाद का नाश नहीं हो सकता।
निश्चित तौर पर, जाति पर लिखे गये इतिहास का यह कोई व्यापक और पूर्ण ब्यौरा नहीं था और न ही एक आलेख में ऐसी उम्मीद करना जायज़ होगा। ऐतिहासिक तथ्यों को पेश करने से ज़्यादा हमारा मकसद यह था कि जाति/वर्ण व्यवस्था के हर प्रकार के परकीयकरण (चाहे वह उत्तरआधुनिकतावादियों, प्राच्यवादियों आदि द्वारा किया जाता हो, राज्यसत्ता द्वारा किया जाता हो, या फिर धार्मिक प्राधिकारों द्वारा किया जाता हो, या फिर स्वयं जाति के आधार पर अस्मितावादी राजनीति करने वालों द्वारा किया जाता हो), उसके हर प्रकार के वेलोराइज़ेशन, उसके हर प्रकार के आदर्शीकरण, अतिमूलकरण और नैसर्गिकीकरण को ख़ारिज किया जाय; जाति व्यवस्था को उसकी ऐतिहासिकता और गतिमानता में समझा जाय; इस ऐतिहासिकता और गतिमानता के मूल चरित्र को समझा जाय, यानी कि उत्पादन सम्बन्धों, उत्पादन पद्धतियों और वर्ग अन्तरविरोधों की गतिकी को समझा जाय; और यह समझा जाय कि यदि वर्ण/जाति व्यवस्था कुछ हज़ार साल के उद्भव और विकास में अपने सामाजिक-आर्थिक सन्दर्भ या परिवेश से निर्धारित होते हुए यहाँ तक पहुँची है, तो आगे भी ऐसा ही होगा।
यह कहना कि ‘जाति सबकुछ निर्धारित करती है’ उतना ही बड़ा अपचयनवाद है जितना कि यह कहना कि ‘आर्थिक कारक ही सबकुछ निर्धारित करते हैं’ और मार्क्स और एंगेल्स ने सामाजिक परिघटना के चरित्र निर्धारण में ऐसे हर प्रकार के निर्धारणवाद को ख़ारिज किया है, और एक द्वन्द्वात्मक और ऐतिहासिक भौतिकवादी पद्धति की वकालत की है। अगर यह समझा जाय कि जाति/वर्ण व्यवस्था का एक आदि है, तो उसके अन्त की परियोजनाओं पर भी ज़्यादा अर्थपूर्ण ढंग से सोचा जा सकता है। बिना इसे इसकी ऐतिहासिकता में समझे, या तो हम पराजयवाद और निराशावाद के शिकार हो सकते हैं, या फिर एक छद्म आशावाद के, जो कि हमेशा ही निराशावाद से ज़्यादा ख़तरनाक होता है। हमारे इस आलेख का यही मकसद था कि जाति-व्यवस्था की एक ऐतिहासिक समझदारी को विनम्रतापूर्वक आपके सामने पेश किया जाय, और अगर हम एक धुँधली तस्वीर भी पेश कर पायें हों, तो अपने आपको सफल मानेंगे।
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