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“समाजवादी संक्रमण की समस्याएं” विषयक पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी इलाहाबाद में शुरू

संगोष्ठी में पहला आलेख “मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान” पत्रिका के संपादक अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था “सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्यायें : इतिहास और सिद्धान्त की समस्यायें”। इस आलेख में सोवियत संघ में 1917-1930 के दशक के दौरान किये गये समाजवादी प्रयोगों का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। आलेख के अनुसार सोवियत संघ में समाजवादी क्रान्ति अपवादस्वरूप जटिल परिस्थितियों में संपन्न हुई और बोल्शेविक पार्टी ने निहायत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में सर्वहारा सत्ता को क़ायम करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली। सर्वहारा सत्ता के सुदृ‍ढ़ीकरण के बाद समाजवादी निर्माण के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने की चुनौती विश्व इतिहास में पहली बार उभर कर आयी। आलेख में सोवियत समाज के प्रयोगों का चरणबद्ध ब्यौरा प्रस्तुत किया गया और प्रत्येक दौर में बॉल्शेविक पार्टी के समक्ष उपस्थित बाह्य और आन्तरिक चुनौतियों समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त इस दौर में पार्टी द्वारा की गयी विचारधारत्मक, रणकौशलात्मक और रणकौशलात्मक गलतियों का भी विश्लेषण किया गया। साथ ही साथ आलेख में यह भी स्पष्ट किया गया कि आम तौर पर जिन-जिन बिन्दुओं पर सोवियत समाज की आलोचना आम तौर पर पेश की जाती है उन बिन्दुओं पर वस्तुत: उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। साथ ही सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की मौजूदा व्याख्याओं-आलोचनाओं की आलोचना प्रस्तुत करते हुए प्रदर्शित किया गया कि इन आलोचनाओं में कुछ भी नया नहीं है और अधिकांश तर्कों का जवाब लेनिन और स्तालिन के ही दौर में दिया जा चुका था।

रिपोर्ट – चतुर्थ अरविन्द स्मृति संगोष्ठी (12-16 मार्च, 2013), चण्डीगढ़

मज़दूर आन्दोलन से लेकर छात्र-युवा आन्दोलनों तक में सक्रिय हर राजनीतिक व सामाजिक कार्यकर्ता इस बात से अच्छी तरह से वाकिफ़ है कि जाति का सवाल आज मज़दूरों और आम मेहनतकश जनता समेत छात्रों-युवाओं तक को संगठित करने में सबसे महत्वपूर्ण बाधाओं में से एक है। और ऐसा महज़ आज से नहीं बल्कि कई दशकों से है। देश की करीब 17 करोड़ दलित आबादी का बहुलांश मेहनतकश लोग हैं, जो कि भयंकर आर्थिक उत्पीड़न के साथ बर्बर जातिगत उत्पीड़न के भी शिकार हैं। हरियाणा, उत्तर प्रदेश और राजस्थान से लेकर तमिलनाडु और कर्नाटक तक मेहनतकश दलित आबादी के साथ आये दिन बर्बर और अमानवीय कृत्यों की ख़बरें आती रहती हैं। यह दलित मेहनतकश आबादी भारत के मज़दूर वर्ग का सबसे पीड़ित और साथ ही सबसे जुझारू हिस्सा है। यही कारण है कि इस दलित आबादी को मज़दूर वर्ग से अलग रखने के लिए जातिवादी अस्मितावादी राजनीति का जाल शासक वर्ग और उसके टट्टुओं द्वारा बिछाया गया है। चुनावी और ग़ैर-चुनावी अस्मितावादी दलित राजनीति करने वाले संगठन इस आबादी को एक राजनीतिक पार्थक्य में रखते हैं और उनके हितों के अकेले पहरेदार होने का दावा करते हैं। वहीं दूसरी ओर मज़दूर वर्ग की नुमाइन्दगी करने वाला कम्युनिस्ट आन्दोलन दलित आबादी के संघर्षों में कन्धे से कन्धा मिलाकर लड़ने और बेमिसाल कुर्बानियाँ देने के बावजूद, दलित प्रश्न को सही ढंग से समझने में नाकाम रहा। दलित आबादी के बीच कम्युनिज़्म को बदनाम करने में संसदवादी संशोधनवादी कम्युनिस्टों की बड़ी भूमिका रही है, जिन्होंने अपने जीवन में सवर्णवादी मूल्यों-मान्यताओं पर अमल करते हुए लाल झण्डे पर धब्बा लगाने का काम किया। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट अपने जीवन में जाति व्यवस्था को ख़ारिज करने के बावजूद जाति की सामाजिक समस्या के ऐतिहासिक मूल और समाधान के बारे में कोई विस्तृत योजना पेश न कर सके। लेकिन इन सबके बावजूद यह आज का सच है कि सर्वहारा क्रान्ति और समाजवाद के बिना, बुर्जुआ व्यवस्था के दायरे के भीतर दलित आबादी की मुक्ति सम्भव नहीं है; साथ ही, यह भी उतना ही बड़ा सच है कि व्यापक मेहनतकश दलित आबादी की भागीदारी और उसकी बाकी मज़दूर आबादी के साथ फौलादी एकजुटता के बिना ऐसी कोई क्रान्ति सम्भव ही नहीं है। यह एकता कैसे…