Category Archives: समाजवादी संक्रमण

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का दूसरा दिन

पेपर में साम्राज्यावादियों, त्रात्सीकीपंथियों और ‘’मुक्त चिंतक मार्क्सवादियों’’ द्वारा स्तालिन के ऊपर लगाये जानेवाले मिथ्या आरोपों का तथ्यों और तर्कों सहित खंडन किया। पेपर में ब्रेस्त-लितोवस्‍त संधि और गृह-युद्ध के दौरान स्तालिन की भूमिका सम्‍बन्धित झूठ, ‘’लेनिन की वसीयत’’ के मिथ्या प्रचार, एक देश में समाजवाद स्थापित करने सम्‍बन्धित विवाद, कृषि में सामूहिकीकरण और कुलक वर्ग के सफ़ाये के दौरान स्तालिन के नेतृत्व में पार्टी द्वारा उठाये गये कदमों के बारे में दुष्प्रचार, 1936-38 के मुकदमें और शुद्धीकरण की मुहिम के बारे में प्रचारित झूठों, दूसरे विश्व युद्ध के पहले सोवियत-जर्मन समझौते के बारे में इतिहास के विकृतिकरण और वैज्ञानिकों पर दमन सम्‍बन्धित झूठों का पर्दाफ़ाश किया गया। पेपर में स्तालिनकालीन सोवियत संघ में विज्ञान के प्रोत्साहन से जुड़े कुछ दिलचस्प प्रसंगों का जिक्र किया गया। इसके अतिरिक्त स्तालिन द्वारा पार्टी के भीतर नौकरशाही के खिलाफ़ और जनवाद के लिए किये गये संघर्ष का सप्रमाण ब्योरा प्रस्तुत किया गया। साथ ही साथ पेपर में स्तालिन के दौर की कुछ गंभीर विचारधारात्मक ग़लतियों को भी रेखांकित किया गया।

अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम दिशा विषयक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का ऐतिहासिक दस्तावेज़ः आधी सदी बाद एक विचारधारात्मक पुनर्मूल्यांकन

हमेशा की तरह आज भी कठमुल्लावाद एवं अतिवामपंथ तथा संशोधनवाद - इन दोनों सिरों के भटकाव विश्व स्तर पर और हमारे देश में भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच मौजूद हैं। लम्बे समय तक कठमुल्लावाद की मौजूदगी या “वाम” दुस्साहसवादी लाइन का ठहराव भी अंततोगत्वा संशोधनवादी भटकाव के दूसरे छोर तक ही ले जाता है। कहा जा सकता है कि आज भी मुख्य ख़तरा भाँति-भाँति के चोले पहनकर आने वाला संशोधनवाद ही है, जिसके विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष के बिना कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का पुनरुत्थान कत्तई सम्भव नहीं। पर साथ ही, दूसरे छोर के भटकाव की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसलिए आधी सदी बाद, आज 1963 की आम दिशा के युगांतरकारी दस्तावेज़ को और उसकी व्याख्या करने वाली नौ टिप्पणियों को, नये परिप्रेक्ष्य में, अहसास के नये धरातल के साथ, गहराई से समझने की और उसकी सारवस्तु को आत्मसात करने की ज़रूरत है।

“समाजवादी संक्रमण की समस्याएं” विषयक पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी इलाहाबाद में शुरू

संगोष्ठी में पहला आलेख “मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान” पत्रिका के संपादक अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था “सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्यायें : इतिहास और सिद्धान्त की समस्यायें”। इस आलेख में सोवियत संघ में 1917-1930 के दशक के दौरान किये गये समाजवादी प्रयोगों का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। आलेख के अनुसार सोवियत संघ में समाजवादी क्रान्ति अपवादस्वरूप जटिल परिस्थितियों में संपन्न हुई और बोल्शेविक पार्टी ने निहायत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में सर्वहारा सत्ता को क़ायम करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली। सर्वहारा सत्ता के सुदृ‍ढ़ीकरण के बाद समाजवादी निर्माण के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने की चुनौती विश्व इतिहास में पहली बार उभर कर आयी। आलेख में सोवियत समाज के प्रयोगों का चरणबद्ध ब्यौरा प्रस्तुत किया गया और प्रत्येक दौर में बॉल्शेविक पार्टी के समक्ष उपस्थित बाह्य और आन्तरिक चुनौतियों समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त इस दौर में पार्टी द्वारा की गयी विचारधारत्मक, रणकौशलात्मक और रणकौशलात्मक गलतियों का भी विश्लेषण किया गया। साथ ही साथ आलेख में यह भी स्पष्ट किया गया कि आम तौर पर जिन-जिन बिन्दुओं पर सोवियत समाज की आलोचना आम तौर पर पेश की जाती है उन बिन्दुओं पर वस्तुत: उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। साथ ही सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की मौजूदा व्याख्याओं-आलोचनाओं की आलोचना प्रस्तुत करते हुए प्रदर्शित किया गया कि इन आलोचनाओं में कुछ भी नया नहीं है और अधिकांश तर्कों का जवाब लेनिन और स्तालिन के ही दौर में दिया जा चुका था।

सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं

विचारधारा और कार्यक्रम के प्रश्न पर जिस विभ्रम का आज कम्युनिस्ट आन्दोलन शिकार है उसे दूर करने में एक प्रमुख मुद्दा बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पुनर्मूल्यांकन का भी है। और इन प्रयोगों में भी सोवियत समाजवाद का मुद्दा आज भारी विवाद का विषय बना हुआ है। इसका एक कारण यह है कि सोवियत समाजवाद के पूरे दौर में, यानी कि 1917 से 1953 तक, जो प्रयोग हुए वे गम्भीर विचारधारात्मक बहसों के बीच हुए। मार्क्स और एंगेल्स के दौर में समाजवादी अर्थव्यवस्था और राज्य के बारे में कुछ आम राजनीतिक प्रस्थापनाएँ पेश की गयी थीं, लेकिन ठोस तौर पर एक समाजवादी अर्थव्यवस्था किस रूप में काम करेगी, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व किस रूप में काम करेगा, उसका ढाँचा क्या होगा, उसके तहत पार्टी और राज्य की क्या भूमिका होगी और उनके अन्तर्सम्बन्ध कैसे होंगे, पार्टी व वर्ग के बीच क्या रिश्ता होगा, इन प्रश्नों पर कोई ठोस कार्यक्रम या ‘ब्लू प्रिण्ट’ नहीं पेश किया गया था, और न ही ऐसा किया जा सकता था। मार्क्स व एंगेल्स हवा में किले बनाने के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने भावी समाजवादी व्यवस्था के तमाम पहलुओं के ठोस प्रश्नों को भविष्य का एजेण्डा माना था। उस समय एक आम दिशा और बुनियादी सिद्धान्तों को ही सूत्रबद्ध किया जा सकता था और यह कार्य पहले समाजवादी राज्य को नेतृत्व देने वाली पार्टी और उसके नेतृत्व का था कि इस प्रश्न को एजण्डे पर ले कि इस आम दिशा और बुनियादी सिद्धातों के आधार पर समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का समाजवादी रूपान्तरण कैसे किया जाये और उसमें पार्टी की क्या भूमिका हो। इसलिए सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन वास्तव में वर्ग, राज्य, पार्टी, ट्रेड यूनियन और इन सबके आपसी सम्बन्धों आदि के प्रश्नों पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति के निःसरण से जुड़ा हुआ है। अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में पहली बार एक सर्वहारा सत्ता के निर्माण ने इन बहसों को शुद्ध सिद्धान्त और आरम्भिक वर्ग संघर्ष के राज्य से निकालकर समकालीन इतिहास और राजनीति के राज्य में पहुँचा दिया और भावी सैद्धान्तिक विकास का भी रास्ता खोल दिया। बोल्शेविक पार्टी ने इन प्रश्नों को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक तौर पर किस रूप में हल किया, यह…

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन

आज जब हम एक बार फिर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर केन्द्रित संगोष्ठी में मिल रहे हैं तो हमारे सामने विश्व रंगमंच पर जारी महाकाव्यात्मक त्रसदी का एक नया अंक है। नयी सहस्राब्दी में असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद ने मंदी के जिस नये दौर में प्रवेश किया, उसने सात वर्षों पहले एक दुश्चक्रीय निराशा का विकट रूप ले लिया ओर अब किसी नये ‘बूम’ की दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं दिखती। दूसरी ओर विश्व स्तर पर जन-उभारों और मज़दूर संघर्षों की लहर एक बार फिर उभार पर है। सन्नाटा टूट चुका है। बौद्धिक-अकादमिक दुनिया में भी तमाम उत्तर-आधुनिक विचार-सरणियों के चटख रंग वाले फैशनेबल कपड़े चीथड़े हो गये हैं और मेकअप उतर चुके हैं। जिस मार्क्सवाद की बौद्धिक विमर्श के दायरे में ज़बर्दस्त ‘‘वापसी’’ हुई है, वह भले ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद का क्रान्तिकारी विज्ञान न हो, पर यह ‘‘वापसी’’ प्रतीकात्मक तौर पर यह तो दर्शाती ही है कि मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को आज व्यापक स्वीकार्यता मिलने लगी है। इक्कीसवीं सदी की जिन ‘‘नयी समाजवादी परियोजनाओं’’ पर लगातार जो चिन्तन-विमर्श हो रहे हैं वे सर्वहारा अवस्थिति से भले ही अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक और अव्यावहारिक हों, पर इतना तो मानना ही होगा कि समाजवादी मुक्ति-स्वप्नों की वापसी हुई है। सैद्धान्तिक-राजनीतिक-आर्थिक बहस-विमर्श का एजेण्डा बदला है। एक तरह का, ‘पैराडाइम शिफ्ट’ हुआ है।

संगोष्ठी में प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुए मुख्‍य न्‍यासी का. मीनाक्षी का वक्तव्य

‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की स्थापना वर्ष 2009 में की गयी। आज न्यास का अपना मुख्य कार्यालय, पुस्तकालय, अभिलेखागार लखनऊ में है। पुस्तकालय, अभिलेखागार के विस्तार और सुव्यवस्था के लिए अभी काफ़ी कुछ करना है और वह कुछ समय ज़रूर लेगा क्योंकि हम लोगों को सब कुछ कामरेडों की मदद और जनसहयोग से ही करना है। ‘कोई संस्थागत अनुदान नहीं, कोई वेतनभोगी कर्मचारी नहीं’ के जिस सिद्धान्त को हम लोग अपनी अन्य संस्थाओं पर लागू करते हैं, उसे ही दृढ़तापूर्वक ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ पर भी लागू करना हमारा संकल्प है। न्यास का घोषित सर्वोपरि काम मार्क्सवादी विचारधारा और सर्वहारा क्रान्ति की सभी समस्याओं पर शोध-अध्ययन के अतिरिक्त युवा कार्यकर्ताओं की नयी पीढ़ी को क्रान्ति के विज्ञान की सुव्यवस्थित शिक्षा देने के लिए ‘अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान’ की स्थापना करना है।