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महान बहस के 50 वर्ष

मार्क्स-एंगेल्स और लेनिन से लेकर स्तालिन तथा माओ तक कम्युनिस्ट आन्दोलन का सैद्धान्तिक विकास संशोधनवाद के विरुद्ध संघर्ष करते हुए हुआ है। विकास के इस पूरे दौर में स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन और माओ कालीन चीन के महान क्रांतिकारी समाजवादी प्रयोगों ने इन सिद्धान्तों को व्यवहार में लागू किया और समाजवादी संक्रमण की विचारधारात्मक समझ को और परिपक्व बनाया। सर्वहारा क्रांतियों के विचारधारात्मक विकास की इस कड़ी में 1963-64 में माओ के नेतृत्व में चली महान बहस ने आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध विचारधारात्मक संघर्ष करते हुये समाजवादी संक्रमण के बारे में पूरी दुनिया के कम्युनिस्टों को एक सुव्यवस्थित मार्क्सवादी-लेनिनवादी सिद्धान्त से हथियारबन्द किया। इस बहस ने स्तालिन कालीन सोवियत यूनियन के अनुभवों और ख्रुश्चेव द्वारा पूँजीवाद की पुनर्स्थापना का सैद्धान्तिक निचोड़ प्रस्तुत किया जो समाजवादी संक्रमण को समझने मे एक मील के पत्थर है। इन अनुभवों के आधार पर महान बहस में माओ ने चीन में 1966 से 1976 तक चली महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की पूर्वपीठिका तैयार की।

समाजवादी संक्रमण और नेपाली क्रान्ति का सवाल

इक्किसवीं सदी के प्रारम्भिक दशकों में नेपाल के क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के द्वारा ली गई उचाइँ, वैचारिक बहस का सघनता, संविधान सभा लगायत के कुछ व्यवहारिक नऐं प्रयोगों और शान्तिपूर्ण राजनीति में प्रवेश के साथ आर्जित प्रारम्भिक लोकप्रियता छोटे समय में ही एक गम्भीर धक्के का शिकार हो गया है । बीसवीं सदी के उत्तराद्र्ध में सोभियत संघ और पूर्वी युरोप में कथित रूप से समाजवादी सत्ताओं के गिरने (विघटन) के बाद ‘समाजवाद की असफलता’, ‘इतिहास का अन्त्य’, ‘महाआख्यान का अन्त्य’ जैसे रागों के नगाडे बज रहे निराशाजनक समय में भी सगरमाथा के आधार तल से चोटी की ओर चढ रहे जनयुद्ध ने संसार का ध्यान आकृष्ट किया था । विश्व के क्रान्तिकारियों ने नेपाल की ओर आशावादी नजरों से देख रहे थे– ‘हिमालय की ओर देखो, नयाँ विश्व जन्म ले रहा है ।’ लेकिन आज दो दशक पुरे होते न होते वह आस्था डगमगा रहा है । विश्व के कई भाइचारा पार्टीयाँ निराश है । नेपाल के अन्दर भी पिछले दो दशक के माओवादी आन्दोलन का निर्मम आलोचना तथा गम्भीर समीक्षा शुरु हो चुका है और आन्दोलन नऐं शिरे से पुनर्निर्माण के तयारी में जुटा है । प्रस्तुत छलफल पत्र में समाजवादी संक्रमण को सन्दर्भ के तौर पर रखते हुए नेपाली क्रान्तिकारी आन्दोलन के सम्मुख अपने सपनों के रक्षार्थ कैसी–कैसी चुनौतीयों को सामना किया जाना है, इस विषय में कुछ सवालें को खडी की गई है ।

नेपाली क्रान्तिः विपर्यय का दौर और भविष्य का रास्ता

अनालोचनात्मक महिमामंडन और भयंकर पस्ती और निराशा दोनों का स्रोत एक ही है और वह है मार्क्सवादी विज्ञान की समझ का अभाव और समाज को ऐतिहासिक भौतिकवादी नज़रिये से समझने की बजाय अनुभववादी और भावुकतावादी नज़रिये से देखना। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि आज जो लोग निराश और हताश होकर कोप भवन में जा चुके हैं वे वही लोग हैं जो कभी अतिउत्साहित होकर माचू पिच्चू के शिखर पर लाल झण्डा फ़हराने के ख़्याली पुलाव पका रहे थे तो कभी सगरमाथा पर लाल झण्डा फहराने को लेकर कापफ़ी जोश से भरे थे। इस क़ि‍स्म का अतिउत्साह और निराशा और हताशा दोनों ही मार्क्सवादी विज्ञान के अधकचरी समझ की ही निशानी है। मार्क्सवाद हमें विजय के दौर में भी संयम न खोने और भयंकर से भयंकर पराजय के दौर में भी निराश और हताश होने की बजाय अपनी ग़लतियों का निर्ममता से विश्लेषण कर उन्हें दुरुस्त कर संघर्ष के मोर्चे पर नये संकल्प के साथ जुट जाने की शिक्षा देता है। इसलिए नेपाली क्रान्ति के इस विपर्यय के दौर में भी ज़रूरत इस बात की है कि इसकी कमियों, कमज़ोरियों और विघटन के स्रोतों का निर्ममता से विश्लेषण किया जाये और भविष्य की राह निकाली जाये।

स्तालिन और सोवियत समाजवाद

कीचड़ उछालने और भ्रम पैदा करने के पूरे कारोबार में दो प्रकार के लोग हैं - पहले प्रकार के लोग तो मार्क्सवाद और मज़दूर-वर्गीय आन्दोलन के ऐलानिया शत्रु हैं, जबकि दूसरे प्रकार के लोग ‘‘मार्क्सवादी’’ हैं। इन मार्क्सवादियों में से कई बुर्जुआ प्रचार के असर में आए हुए साधारण लोग हैं, कई ‘‘अनुभववादी’’ क़ि‍स्म के क्रान्तिकारी हैं जो मार्क्सवाद, मज़दूर वर्गीय आन्दोलन का इतिहास और बीसवीं सदी की क्रान्तियों के समाजवादी प्रयोगों के अध्ययन के ‘‘मुश्किल’’ काम में हाथ डालने से डरते हैं या ग़ैर-ज़रूरी समझते हैं। कई अन्य हैं जो अपनी अधकचरी मार्क्सवादी समझ से विश्लेषण करते हैं और नतीजे के तौर पर ग़लत विश्लेषण करके भ्रम फैलाते हैं। कुछ अन्य ‘‘क्रान्तिकारियों’’ व ‘‘आवारा-चिन्तकों’’ को मार्क्सवाद में इज़ाफ़ा करने की जल्दी है, इस जल्दी में वे मार्क्सवाद की बुनियादी प्रस्थापनाओं को तिलांजलि दे रहे हैं और नये-नये सिद्धान्त पेश कर रहे हैं। ऐलानिया दुश्मनों और ‘‘मार्क्सवाद’’ के लबादे में छिपे हुए कुत्साप्रचार के कारण बहुत सारे ईमानदार क्रान्तिकारियों और साधारण क़तारों व जनता में भी भ्रामक स्थिति बनी हुई है। इसलिए कम्युनिस्ट आन्दोलन के आगे के विकास के लिए बीसवीं सदी की क्रान्तियों और समाजवादी प्रयोगों की सफलताओं और असफलताओं का विश्लेषण करते हुए न सिर्फ़ कुत्साप्रचार का पुख्ता जवाब देगा, बल्कि सही नतीजे निकालने और हासिल किए गए सबकों को आत्मसात करना एक महत्वपूर्ण शर्त है।

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का दूसरा दिन

पेपर में साम्राज्यावादियों, त्रात्सीकीपंथियों और ‘’मुक्त चिंतक मार्क्सवादियों’’ द्वारा स्तालिन के ऊपर लगाये जानेवाले मिथ्या आरोपों का तथ्यों और तर्कों सहित खंडन किया। पेपर में ब्रेस्त-लितोवस्‍त संधि और गृह-युद्ध के दौरान स्तालिन की भूमिका सम्‍बन्धित झूठ, ‘’लेनिन की वसीयत’’ के मिथ्या प्रचार, एक देश में समाजवाद स्थापित करने सम्‍बन्धित विवाद, कृषि में सामूहिकीकरण और कुलक वर्ग के सफ़ाये के दौरान स्तालिन के नेतृत्व में पार्टी द्वारा उठाये गये कदमों के बारे में दुष्प्रचार, 1936-38 के मुकदमें और शुद्धीकरण की मुहिम के बारे में प्रचारित झूठों, दूसरे विश्व युद्ध के पहले सोवियत-जर्मन समझौते के बारे में इतिहास के विकृतिकरण और वैज्ञानिकों पर दमन सम्‍बन्धित झूठों का पर्दाफ़ाश किया गया। पेपर में स्तालिनकालीन सोवियत संघ में विज्ञान के प्रोत्साहन से जुड़े कुछ दिलचस्प प्रसंगों का जिक्र किया गया। इसके अतिरिक्त स्तालिन द्वारा पार्टी के भीतर नौकरशाही के खिलाफ़ और जनवाद के लिए किये गये संघर्ष का सप्रमाण ब्योरा प्रस्तुत किया गया। साथ ही साथ पेपर में स्तालिन के दौर की कुछ गंभीर विचारधारात्मक ग़लतियों को भी रेखांकित किया गया।

अन्तरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आन्दोलन की आम दिशा विषयक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी का ऐतिहासिक दस्तावेज़ः आधी सदी बाद एक विचारधारात्मक पुनर्मूल्यांकन

हमेशा की तरह आज भी कठमुल्लावाद एवं अतिवामपंथ तथा संशोधनवाद - इन दोनों सिरों के भटकाव विश्व स्तर पर और हमारे देश में भी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच मौजूद हैं। लम्बे समय तक कठमुल्लावाद की मौजूदगी या “वाम” दुस्साहसवादी लाइन का ठहराव भी अंततोगत्वा संशोधनवादी भटकाव के दूसरे छोर तक ही ले जाता है। कहा जा सकता है कि आज भी मुख्य ख़तरा भाँति-भाँति के चोले पहनकर आने वाला संशोधनवाद ही है, जिसके विरुद्ध समझौताहीन संघर्ष के बिना कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन का पुनरुत्थान कत्तई सम्भव नहीं। पर साथ ही, दूसरे छोर के भटकाव की भी अनदेखी नहीं की जा सकती। इसलिए आधी सदी बाद, आज 1963 की आम दिशा के युगांतरकारी दस्तावेज़ को और उसकी व्याख्या करने वाली नौ टिप्पणियों को, नये परिप्रेक्ष्य में, अहसास के नये धरातल के साथ, गहराई से समझने की और उसकी सारवस्तु को आत्मसात करने की ज़रूरत है।

“समाजवादी संक्रमण की समस्याएं” विषयक पाँचवीं अरविन्द स्मृति संगोष्ठी इलाहाबाद में शुरू

संगोष्ठी में पहला आलेख “मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान” पत्रिका के संपादक अभिनव सिन्हा ने प्रस्तुत किया जिसका शीर्षक था “सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्यायें : इतिहास और सिद्धान्त की समस्यायें”। इस आलेख में सोवियत संघ में 1917-1930 के दशक के दौरान किये गये समाजवादी प्रयोगों का आलोचनात्मक विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। आलेख के अनुसार सोवियत संघ में समाजवादी क्रान्ति अपवादस्वरूप जटिल परिस्थितियों में संपन्न हुई और बोल्शेविक पार्टी ने निहायत ही प्रतिकूल परिस्थितियों में सर्वहारा सत्ता को क़ायम करने की जिम्मेदारी अपने हाथों में ली। सर्वहारा सत्ता के सुदृ‍ढ़ीकरण के बाद समाजवादी निर्माण के ऐतिहासिक कार्यभारों को पूरा करने की चुनौती विश्व इतिहास में पहली बार उभर कर आयी। आलेख में सोवियत समाज के प्रयोगों का चरणबद्ध ब्यौरा प्रस्तुत किया गया और प्रत्येक दौर में बॉल्शेविक पार्टी के समक्ष उपस्थित बाह्य और आन्तरिक चुनौतियों समस्याओं का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया। इसके अतिरिक्त इस दौर में पार्टी द्वारा की गयी विचारधारत्मक, रणकौशलात्मक और रणकौशलात्मक गलतियों का भी विश्लेषण किया गया। साथ ही साथ आलेख में यह भी स्पष्ट किया गया कि आम तौर पर जिन-जिन बिन्दुओं पर सोवियत समाज की आलोचना आम तौर पर पेश की जाती है उन बिन्दुओं पर वस्तुत: उनकी प्रशंसा की जानी चाहिए। साथ ही सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की मौजूदा व्याख्याओं-आलोचनाओं की आलोचना प्रस्तुत करते हुए प्रदर्शित किया गया कि इन आलोचनाओं में कुछ भी नया नहीं है और अधिकांश तर्कों का जवाब लेनिन और स्तालिन के ही दौर में दिया जा चुका था।

सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं

विचारधारा और कार्यक्रम के प्रश्न पर जिस विभ्रम का आज कम्युनिस्ट आन्दोलन शिकार है उसे दूर करने में एक प्रमुख मुद्दा बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पुनर्मूल्यांकन का भी है। और इन प्रयोगों में भी सोवियत समाजवाद का मुद्दा आज भारी विवाद का विषय बना हुआ है। इसका एक कारण यह है कि सोवियत समाजवाद के पूरे दौर में, यानी कि 1917 से 1953 तक, जो प्रयोग हुए वे गम्भीर विचारधारात्मक बहसों के बीच हुए। मार्क्स और एंगेल्स के दौर में समाजवादी अर्थव्यवस्था और राज्य के बारे में कुछ आम राजनीतिक प्रस्थापनाएँ पेश की गयी थीं, लेकिन ठोस तौर पर एक समाजवादी अर्थव्यवस्था किस रूप में काम करेगी, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व किस रूप में काम करेगा, उसका ढाँचा क्या होगा, उसके तहत पार्टी और राज्य की क्या भूमिका होगी और उनके अन्तर्सम्बन्ध कैसे होंगे, पार्टी व वर्ग के बीच क्या रिश्ता होगा, इन प्रश्नों पर कोई ठोस कार्यक्रम या ‘ब्लू प्रिण्ट’ नहीं पेश किया गया था, और न ही ऐसा किया जा सकता था। मार्क्स व एंगेल्स हवा में किले बनाने के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने भावी समाजवादी व्यवस्था के तमाम पहलुओं के ठोस प्रश्नों को भविष्य का एजेण्डा माना था। उस समय एक आम दिशा और बुनियादी सिद्धान्तों को ही सूत्रबद्ध किया जा सकता था और यह कार्य पहले समाजवादी राज्य को नेतृत्व देने वाली पार्टी और उसके नेतृत्व का था कि इस प्रश्न को एजण्डे पर ले कि इस आम दिशा और बुनियादी सिद्धातों के आधार पर समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का समाजवादी रूपान्तरण कैसे किया जाये और उसमें पार्टी की क्या भूमिका हो। इसलिए सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन वास्तव में वर्ग, राज्य, पार्टी, ट्रेड यूनियन और इन सबके आपसी सम्बन्धों आदि के प्रश्नों पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति के निःसरण से जुड़ा हुआ है। अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में पहली बार एक सर्वहारा सत्ता के निर्माण ने इन बहसों को शुद्ध सिद्धान्त और आरम्भिक वर्ग संघर्ष के राज्य से निकालकर समकालीन इतिहास और राजनीति के राज्य में पहुँचा दिया और भावी सैद्धान्तिक विकास का भी रास्ता खोल दिया। बोल्शेविक पार्टी ने इन प्रश्नों को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक तौर पर किस रूप में हल किया, यह…

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन

आज जब हम एक बार फिर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर केन्द्रित संगोष्ठी में मिल रहे हैं तो हमारे सामने विश्व रंगमंच पर जारी महाकाव्यात्मक त्रसदी का एक नया अंक है। नयी सहस्राब्दी में असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद ने मंदी के जिस नये दौर में प्रवेश किया, उसने सात वर्षों पहले एक दुश्चक्रीय निराशा का विकट रूप ले लिया ओर अब किसी नये ‘बूम’ की दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं दिखती। दूसरी ओर विश्व स्तर पर जन-उभारों और मज़दूर संघर्षों की लहर एक बार फिर उभार पर है। सन्नाटा टूट चुका है। बौद्धिक-अकादमिक दुनिया में भी तमाम उत्तर-आधुनिक विचार-सरणियों के चटख रंग वाले फैशनेबल कपड़े चीथड़े हो गये हैं और मेकअप उतर चुके हैं। जिस मार्क्सवाद की बौद्धिक विमर्श के दायरे में ज़बर्दस्त ‘‘वापसी’’ हुई है, वह भले ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद का क्रान्तिकारी विज्ञान न हो, पर यह ‘‘वापसी’’ प्रतीकात्मक तौर पर यह तो दर्शाती ही है कि मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को आज व्यापक स्वीकार्यता मिलने लगी है। इक्कीसवीं सदी की जिन ‘‘नयी समाजवादी परियोजनाओं’’ पर लगातार जो चिन्तन-विमर्श हो रहे हैं वे सर्वहारा अवस्थिति से भले ही अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक और अव्यावहारिक हों, पर इतना तो मानना ही होगा कि समाजवादी मुक्ति-स्वप्नों की वापसी हुई है। सैद्धान्तिक-राजनीतिक-आर्थिक बहस-विमर्श का एजेण्डा बदला है। एक तरह का, ‘पैराडाइम शिफ्ट’ हुआ है।

संगोष्ठी में प्रतिनिधियों का स्वागत करते हुए मुख्‍य न्‍यासी का. मीनाक्षी का वक्तव्य

‘अरविन्द स्मृति न्यास’ की स्थापना वर्ष 2009 में की गयी। आज न्यास का अपना मुख्य कार्यालय, पुस्तकालय, अभिलेखागार लखनऊ में है। पुस्तकालय, अभिलेखागार के विस्तार और सुव्यवस्था के लिए अभी काफ़ी कुछ करना है और वह कुछ समय ज़रूर लेगा क्योंकि हम लोगों को सब कुछ कामरेडों की मदद और जनसहयोग से ही करना है। ‘कोई संस्थागत अनुदान नहीं, कोई वेतनभोगी कर्मचारी नहीं’ के जिस सिद्धान्त को हम लोग अपनी अन्य संस्थाओं पर लागू करते हैं, उसे ही दृढ़तापूर्वक ‘अरविन्द स्मृति न्यास’ पर भी लागू करना हमारा संकल्प है। न्यास का घोषित सर्वोपरि काम मार्क्सवादी विचारधारा और सर्वहारा क्रान्ति की सभी समस्याओं पर शोध-अध्ययन के अतिरिक्त युवा कार्यकर्ताओं की नयी पीढ़ी को क्रान्ति के विज्ञान की सुव्यवस्थित शिक्षा देने के लिए ‘अरविन्द मार्क्सवादी अध्ययन संस्थान’ की स्थापना करना है।