पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन

संगोष्ठी का का. कात्‍यायनी द्वारा विषय-प्रवर्तन

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए अरविन्द‍ स्मृति न्यास से जुड़ी प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता का. कात्यायनी

संगोष्ठी का विषय-प्रवर्तन करते हुए अरविन्द‍ स्मृति न्यास से जुड़ी प्रसिद्ध कवयित्री और सामाजिक कार्यकर्ता कात्यायनी

कामरेड्स,

अब से चौबीस वर्षों पूर्व जून 1990 में ‘मार्क्सवाद ज़िन्दाबाद मंच’ के बैनर तले गोरखपुर में एक पाँच दिवसीय सेमिनार हुआ था, जिसका विषय था ‘समाजवाद की समस्याएँ, पूँजीवादी पुनर्स्थापना और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति’। उस दौर के ऐतिहासिक ‘‘अवशेष’’ के रूप में यहाँ हम तीन (मैं, सत्यम और मीनाक्षी) मौजूद हैं। पाँच दिनों की वह बहस इतनी सघन और विस्तारित हो गयी कि निर्धारित समय-सीमा को लाँघकर रोज़ देर रात तक चलती रही। उस संगोष्ठी में उ.प्र., बिहार, दिल्ली, पंजाब, बंगाल, केरल और आन्ध्र से आये कामरेडों की व्यापक भागीदारी रही थी।

अब इतने वर्षों बाद समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर एक बार फिर आपस में विचार-विमर्श और बहस-मुबाहिसे के लिए हम यहाँ, इलाहाबाद में एकत्र हुए हैं। इस लम्बे समय के दौरान गंगा-यमुना के पानी में काफ़ी प्रदूषण घुल चुका है। समाजवाद के संक्रमण की आर्थिक गतिकी और राजनीतिक अधिरचना को लेकर अलग-अलग अवस्थितियों से कई नये प्रश्न, और नये आवरण में कई पुराने प्रश्न फिर से उठाये जा रहे हैं। समाजवाद-विषयक मार्क्स-एंगेल्स-लेनिन-स्तालिन-माओ की प्रस्थापनाओं और बीसवीं शताब्दी के समाजवादी प्रयोगों पर फिर से कुछ नये प्रश्नचिन्ह खड़े किये जा रहे हैं और सोचने-विचारने के कुछ नये आयाम भी उद्घाटित हो रहे हैं।

1990 का सेमिनार जब हुआ था तब पूर्वी यूरोप में समाजवाद नामधारी राजकीय सत्ताओं का पतन हो चुका था, सोवियत संघ का विघटन आसन्न था, चीन में ‘‘बाज़ार समाजवाद’’ का असली चेहरा नंगा हो चुका था। तिएनआनमेन चौक नरसंहार की घटना भी घट चुकी थी। चतुर्दिक ‘इतिहास के अन्त’ का शोर था और मार्क्सवाद की ‘‘शवपेटिका अन्तिम तौर पर क़ब्र में उतार दिये जाने’’ के दावे बुर्जुआ भाड़े के कलमघसीट बढ़-चढ़कर कर रहे थे। वित्तीय पूँजी की कृत्या राक्षसी का उन्मुक्त भूमण्डलीय नृत्य शुरू हो चुका था। क्रान्ति की लहर पर हावी प्रतिक्रान्ति की लहर चरमोत्कर्ष पर थी। क्रान्तिकारी कतारों में निराशा और विभ्रम का माहौल था। भावुकतावादी और जड़सूत्रवादी कम्युनिस्टों के बीच ‘‘वैराग्य’’, ‘‘धर्म-परिवर्तन’’ और ‘‘धर्म-सुधार’’ की लहर ज़ोर-शोर से चल रही थी। तब सर्वहारा क्रान्ति और मार्क्सवाद-लेनिनवाद के प्रति वैज्ञानिक निष्ठा और इतिहास-बोध-सम्पन्न दुनिया के तमाम कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों की तरह हम लोगों ने भी सोचा कि मार्क्सवाद की बुनियादी अन्तर्वस्तु पर सभी सैद्धान्तिक हमलों का तर्कसंगत उत्तर आक्रामक प्रतिरक्षा के ढंग से दिया जाना चाहिए, सर्वहारा अधिनायकत्व और समाजवादी प्रयोगों के मार्क्सवादी सिद्धान्त और व्यवहार से तथा उनके विकास की प्रक्रिया से लोगों को परिचित कराया जाना चाहिए, 1954-56 में सोवियत संघ में और 1976 में चीन में पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों, प्रक्रिया और परिणतियों से लोगों को परिचित कराया जाना चाहिए, उन्हें बताया जाना चाहिए कि 1980 के दशक के अंत में जो हो रहा है वह समाजवाद की पराजय नहीं, बल्कि समाजवादी रंग-रोगन वाले भ्रष्ट-ठहरावग्रस्त राजकीय पूँजीवाद का विघटन है, जो उसकी तार्किक परिणति थी। हमें यह स्पष्ट करना ज़रूरी लगा कि क्रान्तिकारी प्रयोगों के प्रथम चक्र की पराजय विचारधारा के ग़लत, मृत या पराजित होने का परिचायक नहीं है और समाजवाद की यह पराजय अन्तिम नहीं है, पूँजीवाद अमर नहीं है और यह ‘इतिहास का अंत’ नहीं है। इसके साथ ही, हमें यह भी लगा, कि जैसा कि हर विज्ञान की विकास-प्रक्रिया में होता है, बीसवीं शताब्दी की महान सर्वहारा क्रान्तियों के अनुभवों के नये सिरे से विश्लेषण-समाहार की ज़रूरत है, समाजवादी संक्रमण की आर्थिक गतिकी तथा राजनीतिक और पूरे अधिरचनात्मक अट्टालिका के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की तफ़सीलों को समाजवादी समाज में जारी वर्ग-संघर्ष के विविध रूपों एवं आयामों की तथा समाजवादी समाज के भीतर पैदा होने वाले नये बुर्जुआ तत्वों की ज़मीन को और गहराई में जाकर समझने की ज़रूरत है। 1990 का सेमिनार इस प्रक्रिया का एक प्रस्थान-बिन्दु था। इसके बाद भी अपनी अन्य ज़िम्मेदारियों, योजनाओं और व्यावहारिक कामों की सरगर्मियों के बीच इस दिशा में हम कुछ न कुछ करते रहे और अपनी समझ बढ़ाते रहे, लेकिन हम यह कतई नहीं मानते कि वह सन्तोषजनक था क्योंकि तमाम वस्तुगत समस्याओं के साथ ही हमारी योजनाओं और हमारी ताक़त के बीच हमेशा ही एक भारी अन्तर मौजूद रहता था।

आज जब हम एक बार फिर समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर केन्द्रित संगोष्ठी में मिल रहे हैं तो हमारे सामने विश्व रंगमंच पर जारी महाकाव्यात्मक त्रसदी का एक नया अंक है। नयी सहस्राब्दी में असाध्य ढाँचागत संकट से ग्रस्त पूँजीवाद ने मंदी के जिस नये दौर में प्रवेश किया, उसने सात वर्षों पहले एक दुश्चक्रीय निराशा का विकट रूप ले लिया ओर अब किसी नये ‘बूम’ की दूर-दूर तक कोई सम्भावना नहीं दिखती। दूसरी ओर विश्व स्तर पर जन-उभारों और मज़दूर संघर्षों की लहर एक बार फिर उभार पर है। सन्नाटा टूट चुका है। बौद्धिक-अकादमिक दुनिया में भी तमाम उत्तर-आधुनिक विचार-सरणियों के चटख रंग वाले फैशनेबल कपड़े चीथड़े हो गये हैं और मेकअप उतर चुके हैं। जिस मार्क्सवाद की बौद्धिक विमर्श के दायरे में ज़बर्दस्त ‘‘वापसी’’ हुई है, वह भले ही मार्क्सवाद-लेनिनवाद का क्रान्तिकारी विज्ञान न हो, पर यह ‘‘वापसी’’ प्रतीकात्मक तौर पर यह तो दर्शाती ही है कि मार्क्सवाद की प्रासंगिकता को आज व्यापक स्वीकार्यता मिलने लगी है। इक्कीसवीं सदी की जिन ‘‘नयी समाजवादी परियोजनाओं’’ पर लगातार जो चिन्तन-विमर्श हो रहे हैं वे सर्वहारा अवस्थिति से भले ही अवैज्ञानिक, अनैतिहासिक और अव्यावहारिक हों, पर इतना तो मानना ही होगा कि समाजवादी मुक्ति-स्वप्नों की वापसी हुई है। सैद्धान्तिक-राजनीतिक-आर्थिक बहस-विमर्श का एजेण्डा बदला है। एक तरह का, ‘पैराडाइम शिफ्ट’ हुआ है। बौद्धिक हलकों के साथ ही क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर भी सोवियत संघ और चीन में समाजवादी संक्रमण के अलग-अलग दौरों और विशिष्टताओं की तफ़सीलों और समस्याओं पर अध्ययन-मनन का सिलसिला शुरू हुआ है। 1960 और 1970 के दशक में समाजवादी संक्रमण को लेकर मार्क्सवादी बौद्धिक दायरे और आन्दोलन के भीतर चली बहसों के मुद्दे नये परिप्रेक्ष्य और अहसास की नयी गहराई के साथ एक बार फिर एजेण्डे पर हैं। सोवियत संघ और चीन के समाजवादी प्रयोगों पर और इक्कीसवीं शताब्दी की समाजवादी परियोजना पर हाल के वर्षों में दर्जनों पुस्तकें आई हैं। बेशक पानी को मथ देने से काफी गँदलापन भी आ गया है, जिसके थिराने और तल तक की पारदर्शिता की स्थिति आने में समय लगेगा। बहुत सारे विभ्रम भी फैल गये हैं और बहुत सारे विजातीय विचार भी चलन में आये हैं जो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी आन्दोलन पर भी प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रभाव डाल रहे हैं और ‘‘मुक्त चिन्तन’’, स्वयंस्फूर्ततावाद, ग़ैरपार्टी क्रान्तिवाद और अराजकतावादी संघाधिपत्यवाद के नानाविध भटकावों को जन्म दे रहे हैं। कई सारे लोग सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा और समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी की हरावल भूमिका पर ही प्रश्नचिन्ह खड़ा कर रहे हैं। कुछ लोग लेनिन पर ही प्रतिस्थापनवाद (सबस्टीट्यूशनिज़्म) का और वर्ग के नाम पर पार्टी अधिनायकत्व स्थापित करने का आरोप लगा रहे हैं। कुछ माओ और महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति की शिक्षाओं को अपने चिन्तन में इस प्रकार विनियोजित कर रहे हैं मानो माओ पार्टी और सर्वहारा राज्यसत्ता के विरुद्ध ही जन विद्रोह का आह्वान करने वाले अराजकतावादी क्रान्तिकारी हों। माओ पर ‘‘किसानवादी’’ और ‘‘राष्ट्रवादी’’ होने के पुराने आरोप भी कुछ हलकों में फिर से चलन में हैं। अनवर होजा के जड़सूत्रवादी संशोधनवाद के साथ ही त्रात्स्कीपंथी प्रेतात्माएँ भी बौद्धिक हलकों में ख़ूब मटरगश्ती कर रही है। कुछ नवमार्क्सवादी, उत्तर मार्क्सवादी चिन्तक यहाँ तक सोचने लगे हैं कि बीसवीं सदी में लेनिन-स्तालिनकालीन रूस और माओकालीन चीन में जो था, वह समाजवाद था भी या नहीं। कुछ उत्तर-मार्क्सवादी तो बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को ‘‘महाविपदा’’ बताकर खारिज तक करने लगे हैं। इक्कीसवीं सदी की नयी समाजवादी परियोजना के अकादमिक प्रस्तोता-पैरोकार सर्वहारा अधिनायकत्व की राज्य-संरचना और बोल्शेविक साँचे-खाँचे की हरावल पार्टी की अवधारणा को खारिज करते हुए एक ऐसे ‘‘समाजवाद’’ की अतिशय आशावादी तस्वीर प्रस्तुत कर रहे हैं जो बहुदलीय संसदीय प्रणाली वाले कल्याणकारी बुर्जुआ राज्य से सारतः बहुत अधिक भिन्न नहीं है। इन सभी धाराओं के बरक्स एक जड़सूत्रवादी अवस्थिति यह भी है कि अतीत के समाजवादी प्रयोगों पर सोचने-विचारने की कोई ज़रूरत नहीं है और किसी भी मायने में कुछ आलोचनात्मक रवैया अपनाना तो ‘‘महापाप’’ है। इन सबके बीच, एक उल्लेखनीय तथ्य यह भी है कि रूसी अभिलेखागार खुलने के बाद गत लगभग डेढ़ दशक के दौरान सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों और स्तालिन की भूमिका के बारे में ढेरों नये तथ्य प्रकाश में आये हैं जो चीज़ों को समझने में काफी सहायक सिद्ध हो रहे हैं। कई इतिहासकार इन पर काम कर रहे हैं।

समाजवादी संक्रमण को लेकर इन तमाम अवस्थितियों और विवादों के चलते फिलहाल जो विभ्रम का माहौल है, उसका मुख्य पहलू सकारात्मक है क्योंकि ये तमाम प्रश्न ऐसे समय में उठ खड़े हुए हैं जब स्थितियाँ विश्व-सर्वहारा की दीर्घ शीतनिद्रा टूटने के पूर्व संकेत देने लगी हैं। निश्चय ही यह समय हरावल शक्तियों के फिर से संगठित होने की विचारधारात्मक-राजनीतिक तैयारी का समय है, नयी विश्व-परिस्थितियों के अनुरूप क्रान्ति की रणनीति एवं आम रणकौशल को नये सिरे से निर्धारित करने का समय है और अतीत के अनुभवों के आधार पर समाजवाद की परियोजना के  पुनर्गठन का समय है – एक नया ‘विजन’ विकसित करने का समय है। अध्ययन कक्ष के शूरवीरों के लिए यह महज़ बौद्धिक मशक्कत और बतगुज्जन का मसाला हो सकता है, पर कामकाजू, व्यावहारिक क्रान्तिकारी कम्युनिस्टों के लिए एक ज़िन्दा सवाल है, प्लेखानोव से उधार लिये शब्दों में कहें, तो हम ज़िन्दा लोगों के रूप में ज़िन्दा सवालों पर सोचना और बहस करना चाहते हैं। रूस और चीन के समाजवादी प्रयोगों की तफ़सीलों पर विचार-विमर्श के साथ ही हाल के नेपाल जैसे अनुभवों और बोलिवारियन प्रयोगों पर और इन सभी प्रश्नों पर अब तक सामने आयी स्थापनाओं पर पूरी बहस के दौरान जो भी मुद्दे उभरेंगे, उन पर आगे अध्ययन-विश्लेशण-बहस का सिलसिला जारी रहेगा, पर अभी तक दुनिया भर में चल रही बहसों का यदि कोई निष्कर्ष निकाला जाये तो प्राथमिकता क्रम में अवक्षेपित होकर सर्वोपरि तौर पर जो मुद्दा सामने आ रहा है, वह है समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा वर्ग, उसकी हिरावल पार्टी और सर्वहारा राज्यसत्ता के बीच के अन्तर्सम्बन्ध। फिर समाजवादी समाज में उत्पादन-सम्बन्ध और उत्पादक शक्तियों के अन्तरविरोध, वर्ग संघर्ष के स्वरूप और क्रमशः उन्नततर अवस्थाओं में संक्रमण से जुड़े सभी प्रश्नों पर अतीत के अनुभवों के सन्दर्भ में हमें बहस में उतरना होगा। हर विज्ञान की तरह मार्क्सवाद भी सुदीर्घ बहसों में विजातीय प्रवृत्तियों-रुझानों पर विजय प्राप्त करके ही अपना प्राधिकार स्थापित करता रहा है। और फिर यह तो सर्वमान्य बात है कि अन्तिम परीक्षा, निर्णायक सत्यापन और उत्तरवर्ती विकास तो वर्ग संघर्ष की समरभूमि में ही होता है।

कहने की आवश्यकता नहीं कि यह संगोष्ठी हम निर्णायक समाधान पर पहुँचने के उद्देश्य से नहीं कर रहे हैं। यह कहना विनम्रता नहीं बल्कि एक वस्तुगत सच्चाई है कि समाजवादी संक्रमण के पूरे इतिहास के विस्तृत अध्ययन की हमारी यात्रा को अभी काफी दूरी तय करनी है। हम इन प्रश्नों पर दृढ़ता से अपनी बात रखते हुए बेलागलपेट सरगर्म बहस करेंगे, लेकिन हमारा मूल उद्देश्य फिलहाल परस्पर अवस्थितियों से सीखना और चिन्तन प्रक्रियाओं से सोचने के नये बिन्दु और नया उत्प्रेरण हासिल करना है। हम एक साथ मिल बैठने के इस दुर्लभ अवसर का हर मिनट इस्तेमाल करेंगे और आलेखों से उभरे मुद्दों के अतिरिक्त मूल विषय से जुड़े हुए उठाये गये किसी भी प्रश्न को बहस में समाहित करने की कोशिश करेंगे। हमारी यह बहस आगे पत्र-पत्रिकाओं में लेखन के जरिए जारी रहेगी और कोशिश की जायेगी कि इस मूल विचारधारात्मक प्रश्न को और गहराई में, और कुछ और छूटे हुए पहलुओं को लेकर, कुछ वर्षों बाद फिर एक लम्बी संगोष्ठी में जुटा जाये और अधिक उच्चतर धरातल पर, सापेक्षतः अधिक निर्णायक ढंग से राजनीतिक वाद-विवाद किया जाये तथा अहसास के गहरे धरातल के साथ आम सहमति के कुछ आधारभूत निष्कर्षों तक पहुँचा जा सके।

अन्त में, साथियों को शायद याद हो कि हम समाजवाद की संक्रमण की समस्याओं पर यह संगोष्ठी एक ख़ास समय पर कर रहे हैं। 2013-14 में ख्रुश्चेवी संशोधनवाद के विरुद्ध माओ त्से-तुङ के नेतृत्व में चलायी गयी ‘महान बहस’ के महाकाव्यात्मक संघर्ष की पचासवीं वर्षगाँठ है। आधुनिक संशोधनवाद के विरुद्ध उस शानदार, ऐतिहासिक विचारधारात्मक संघर्ष की मशाल दुनिया भर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को हमेशा प्रेरणा देती रहेगी, हमेशा उन्हें राह दिखाती रहेगी।

10-3-2014

 

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