सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं

सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं

अभिनव सिन्हा
संपादक, “मुक्तिकामी छात्रों युवाओं का आह्वान” 

“सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं” आलेख प्रस्‍तुत करते हुए अभिनव सिन्‍हा

“सोवियत समाजवादी प्रयोग और समाजवादी संक्रमण की समस्याएं : इतिहास और सिद्धान्त की समस्याएं” आलेख प्रस्‍तुत करते हुए अभिनव सिन्‍हा

प्रस्तावना

सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के नये सिरे से आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन पर कई लोगों को अचरज हो सकता है। उन्हें लग सकता है कि सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों के विश्लेषण का प्रश्न अब प्रासंगिक नहीं है और इस विषय पर अब तक जो आलोचनात्मक लेखन हुआ है, उसने इस प्रश्न को निर्णायक रूप से हल कर दिया है। लेकिन हमारा मानना है कि सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं का प्रश्न अभी भी कई मायनों में एक समकालीन प्रश्न है; तमाम महत्वपूर्ण परिवर्तनों के बावजूद कुछ मायनों में बोल्शेविक क्रान्ति की समकालीनता अभी जारी है। यह कहना कोई नयी बात नहीं होगी कि बोल्शेविक क्रान्ति ने मानव इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात किया। इतिहास में पहली बार सचेतन कम्युनिस्ट नेतृत्व और कार्यक्रम के तहत एक मज़दूर सत्ता की स्थापना हुई; इतिहास में पहली बार शोषकों की अल्पसंख्या पर मेहनतकशों की बहुसंख्या का अधिनायकत्व स्थापित हुआ; निश्चित तौर पर, सोवियत सत्ता भी एक राज्यसत्ता थी और इस रूप में वह भी एक दमन का उपकरण ही थी, लेकिन अगर यहाँ इस तथ्य को नज़रन्दाज़ कर दिया जाये कि किसके द्वारा किसका दमन तो फिर इस ऐतिहासिक घटना की विशिष्टता को नहीं समझा जा सकता है। लेकिन हम सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों के नये सिरे से आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन को सिर्फ़ बोल्शेविक क्रान्ति के युगान्तरकारी ऐतिहासिक महत्व की वजह से ही ज़रूरी नहीं समझते हैं। इससे पहले कि हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के क़रीब साढ़े तीन दशक के अनुभवों का एक आलोचनात्मक ब्यौरा और विश्लेषण पेश करें, हम इस पूरे विश्लेषण का औचित्य-प्रतिपादन करना चाहेंगे। किसी भी वैज्ञानिक विश्लेषण की शुरुआत हमारे विचार में उद्देश्य के कथन के साथ ही होनी चाहिए।

सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के मौजूदा विश्लेषणों को मोटे तौर पर दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है। एक हिस्सा वह है जिसे हम अस्वीकरणवादी (Rejectionist) हिस्सा कह सकते हैं। इस प्रकार के विश्लेषणों में बहुत वैविध्य है। यह हिस्सा सोवियत समाजवाद के प्रयोगों को मुख्य रूप से असफल मानता है; इसमें शामिल विश्लेषणों के मुताबिक़ सोवियत संघ में या तो समाजवाद आया ही नहीं था, या फिर समाजवादी प्रयोग कुछ ही वर्षों में मार्क्सवाद के बुनियादी सिद्धान्तों से हटकर पतित हो गया। इनके अनुसार, सोवियत संघ में पार्टी ने वर्ग को प्रतिस्थापित कर दिया और वर्ग के अधिनायकत्व की जगह पार्टी का अधिनायकत्व स्थापित हो गया; मज़दूर वर्ग का अलगाव समाप्त नहीं हो सका; ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ का उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित नहीं हो पाया; और इन प्रेक्षणों के आधार पर अस्वीकरणवादी धड़ा इस नतीजे पर पहुँचता है कि सोवियत संघ में समाजवाद स्थापित ही नहीं हो सका, या फिर स्थापित होने के कुछ समय बाद ही वह राजकीय पूँजीवाद, पार्टी की तानाशाही आदि में तब्दील हो गया। दूसरा हिस्सा वह है जिसे हम अनालोचनात्मक रक्षावादी (apologist) हिस्सा कह सकते हैं। इसका मानना है कि सोवियत समाजवादी प्रयोग में कहीं कोई बुनियादी गड़बड़ी नहीं हुई थी; ऐसा विश्लेषण सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना की कोई अर्थपूर्ण व्याख्या नहीं कर पाता है, और पूँजीवादी पुनर्स्थापना के कारणों को अन्ततः दो प्रकार के कारकों पर लाकर सीमित कर देता है: एक कारण ऐतिहासिक है जिसके मुताबिक़ चूँकि यह समाजवाद का पहला प्रयोग था और इतिहास में इस तरह के प्रयोग की पहले से कोई मिसाल मौजूद नहीं थी इसलिए ग़लतियाँ होना लाज़िमी था और उनसे बचा नहीं जा सकता था; दूसरा कारण व्यक्तियों के विश्लेषण पर सीमित होता है, जिसके अनुसार समाजवाद की असफलता को कुछ विशिष्ट व्यक्तियों या व्यक्तियों के समूहों की ग़लतियों या फिर षड्यन्त्रों का नतीजा बता दिया जाता है। अलग-अलग लोगों के लिए ये व्यक्ति या समूह अलग-अलग हो सकते हैं। ऐसा कोई भी अनालोचनात्मक विश्लेषण सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण के दौरान जारी वर्ग संघर्ष की गतिकी की पड़ताल नहीं करता और पूँजीवादी पुनर्स्थापना का उसका पूरा विश्लेषण आकस्मिकता (contingency) पर आधारित होता है, जैसे कि यदि फलाँ-फलाँ व्यक्तियों ने फलाँ-फलाँ ग़लतियाँ न की होतीं तो फिर पूँजीवादी पुनर्स्थापना न होती। ज़ाहिर है यह कोई ऐतिहासिक और द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी विश्लेषण नहीं है।

एकदम विपरीत नज़र आने के बावजूद एक बात इन दोनों प्रकार के विश्लेषणों में समान है—इन दोनों के लिए सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों के सकारात्मकों और नकारात्मकों का प्रश्न एक हल प्रश्न (settled question) है। इन दोनों प्रकार के विश्लेषणों में से किसी एक को सही मानने वालों को इस आलेख की अन्तर्वस्तु बेकार की कवायद लग सकती है, जो कि अनावश्यक है। अभी हाल ही में कुछ “नागरिक” कम्युनिस्टों ने नये सिरे से सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों पर जारी बहस को बेकार माना है और कहा है कि इस विषय पर तो लेनिन, स्तालिन और माओ ने सबकुछ बता ही दिया था, अब नये सिरे से इसके विश्लेषण की क्या आवश्यकता है! हमारे विचार में सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बारे में लेनिन, स्तालिन और माओ ने जो विश्लेषण पेश किया वह निश्चित तौर पर बेहद ज़रूरी है और उन्हीं सामान्य सूत्रीकरणों के आधार पर सोवियत समाजवाद या किसी भी देश में समाजवादी संक्रमण का अध्ययन होना चाहिए। लेकिन यह भी सच है कि सर्वहारा वर्ग के ये महान शिक्षक समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकनों से ज़्यादा मूल और मुख्य रूप से समाजवादी प्रयोगों के व्यवहार में लगे हुए थे, और उनके बारे में विश्लेषणात्मक प्रेक्षण और सूत्रीकरण उन्होंने इन प्रयोगों के दौरान और इन प्रयोगों को बेहतर बनाने के लिए किया। आज लेनिन, स्तालिन व माओ की अन्तर्दृष्टियों और शिक्षाओं के आधार पर इन प्रयोगों का पुनर्मूल्यांकन और एक आलोचनात्मक दृष्टि से सिंहावलोकन फिर से अत्यधिक समकालीन हो गया है। इसके व्यापक ऐतिहासिक कारणों पर हम आगे आएँगे, लेकिन एक तात्कालिक कारण तो यह है कि आज पूरे देश के कम्युनिस्ट आन्दोलन में, बल्कि पूरी दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलनों में इन प्रयोगों के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी प्रस्तुतिकरण और विनियोजन की एक लहर चल रही है और इन प्रस्तुतिकरणों, बल्कि कहना चाहिए कि विकृतिकरणों में आलोचना का मूल निशाना मार्क्सवाद की क्रान्तिकारी अन्तर्वस्तु है, यानी कि वर्ग, राज्य और पार्टी की अवधारणा। इतिहास के इन अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विश्लेषणों का कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक अच्छे-ख़ासे हिस्से पर और साथ ही निम्न-पूँजीवादी बौद्धिक वर्ग में ठीक-ठाक प्रभाव हो रहा है। इसके दो कारण हैं: पहला कारण है कि आन्दोलन के भीतर ही समाजवादी संक्रमण के बारे में लेनिनवादी अवस्थिति की समझदारी बेहद दरिद्र है और इस वजह से कुछ राजनीतिक नौदौलतियों का मूर्खतापूर्ण विश्लेषण भी उन्हें प्रभावी लग रहा है। दूसरा कारण यह है कि आन्दोलन जिस संकट और निराशा का शिकार है, उसमें अपने इतिहास के प्रति ही एक निषेधवादी और प्रतिक्रियावादी रवैया पैदा हुआ है। लोगों को ‘पार्टी रूपी मूल पाप’ (‘Original Sin of the Party’) के विभिन्न प्रकार के सिद्धान्त काफ़ी अपील कर रहे हैं! चूँकि इन अधकचरे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विश्लेषणों का एक प्रभाव आज आन्दोलन और क्रान्तिकारी बौद्धिक वर्ग के ऊपर है, इसलिए सोवियत संघ के समाजवादी प्रयोगों के लेनिनवादी-माओवादी अवस्थिति से नये पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरत को हम शिद्दत से महसूस करते हैं। लेकिन जैसा कि हमने कहा कि यह तात्कालिक कारण है, और इसके व्यापक ऐतिहासिक कारण भी हैं।

सोवियत समाजवादी प्रयोगों का नये सिरे से विश्लेषण क्यों?

पहला कारण है आज का वह संक्रमण काल जिससे हम गुज़र रहे हैं। 1990 में सोवियत संघ के विघटन के साथ पूँजीवादी विजयवाद (capitalist triumphalism) का जो दौर शुरू हुआ था, वह एक दशक भी नहीं चल सका और 1997 में वैश्विक पूँजीवादी संकट के साथ इस पागलपन भरे उन्माद का आकस्मिक समापन हो गया। अपने सर्वाधिक परजीवी और मरणासन्न दौर में पूँजीवाद ने जो सैद्धान्तिकियाँ रचीं, वे भी उतनी ही दीवालिया और खोखली थीं। 1989 में बर्लिन दीवार के गिरने और 1990 में सोवियत संघ के पतन के बाद बूढ़े-बीमार पूँजीवाद के भाड़े के टट्टुओं ने ‘पूँजीवाद और उदार पूँजीवादी जनवाद की अन्तिम विजय’, ‘इतिहास के अन्त’, ‘विचारधारा के अन्त’ आदि की घोषणाएँ कीं। दरअसल, अन्त के पूँजीवादी दर्शनों की शुरुआत 1960 के दशक में ही हो चुकी थीं, जिसके शुरुआती संस्करण डेनियल बेल, रोस्तोव और रेमों आरों के उत्तर-औद्योगिक समाज और ल्योतार के ‘उत्तरआधुनिक स्थिति’ के सिद्धान्त के रूप में सामने आने लगे थे, और यह कोई संयोग नहीं था। 1956 में बीसवीं कांग्रेस के साथ सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो गयी थी। 1950 के दशक के अन्त से ही ख्रुश्चेव के शान्तिपूर्ण संक्रमण, शान्तिपूर्ण प्रतियोगिता और शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व के सिद्धान्त आने लगे थे। हालाँकि, दुनिया की कई कम्युनिस्ट पार्टियों और मार्क्सवादी चिन्तकों को तत्काल पूँजीवादी पुनर्स्थापना का यथार्थ अभी दिख नहीं रहा था, और उनमें से कई ‘वास्तव में अस्तित्वमान समाजवाद’ जैसे सिद्धान्त गढ़ रहे थे, लेकिन पूँजीवादी व्यवस्था के चिन्तक-विचारक इस बात को अच्छी तरह समझ रहे थे कि सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्थापना हो चुकी है और अर्थव्यवस्था, राज्य व्यवस्था, राजनीति और संस्कृति का तेज़ी से पूँजीवादी रूपान्तरण होगा। यही वक़्त था जब एक ओर पूँजीवाद के भाड़े के कलमघसीटों ने नंगे तौर पर पूँजीवाद की अन्तिम विजय आदि की बात करनी शुरू कर दी थी, तो वहीं दूसरी ओर कई निराश टटपुँजिया बुद्धिजीवियों ने भी अपनी हताशा और संशयवाद में उत्तरआधुनिक सिद्धान्तों की रचना शुरू कर दी थी। 1960 के दशक में आये ये सिद्धान्त ही उत्तरआधुनिकतावादी विचार-सरणियों की गंगोत्री थे। 1968 में फ्रांस व कुछ अन्य यूरोपीय देशों में सोवियत साम्राज्यवाद और सामाजिक फासीवाद के कुकृत्यों के फलस्वरूप वाम बुद्धिजीवियों में जो मोहभंग पैदा हुआ, उसने एक रोगात्मक प्रतिक्रिया (pathological reaction) को जन्म दिया और सोवियत साम्राज्यवाद के कुकृत्यों को मार्क्सवाद पर आरोपित कर दिया गया। यह कहा गया कि मार्क्सवाद के वर्ग, राज्य, पार्टी और अधिनायकत्व के सिद्धान्तों में ही सोवियत संघ में समाजवादी सत्ता के पतित होने के मूल हैं! इसी के साथ, मई 1968 के भ्रमित पेरिस में तमाम उत्तरआधुनिकतावादी विचारों का जन्म होता है और इसके साथ ही उत्तरआधुनिकतावाद अपने परिपक्व रूप में सामने आता है। 1990 में फूकोयामा ने जो सिद्धान्त पेश किया वह वास्तव में उन्हीं बातों की नंगी और बेशर्म प्रस्तुति थी, जो कि तमाम उत्तरआधुनिकतावादी दार्शनिक फ्रांसीसी वाम की लच्छेदार, फैशनेबुल भाषा में पेश करते रहे थे! मिसाल के तौर पर यह कहना कि मार्क्सवाद प्रबोधन की ही परियोजना का एक हिस्सा है जो कि खण्डों का सम्मान न करके एक सार्वभौमिक तर्क को थोपता है और इसलिए यह एक ‘ग्रैण्ड थियरी’ है; ल्योतार ने ‘उत्तरआधुनिक स्थिति’ में कहा कि ऐसे महाख्यानों का दौर बीत चुका है; फूको ने कहा कि हर प्रकार की सार्वभौमिकता दमनकारी है (वैसे पूछा जा सकता है कि क्या यह स्वयं एक सार्वभौमिक तर्क नहीं है!) और इसीलिए किसी भी प्रकार की मुक्ति की सामान्य परियोजना जिसे कि सामूहिक अभिकर्ता के प्रयास से लागू किया जाये, वह भी दमनकारी होगी और सत्ता के नये रूपों को जन्म देगी! इसलिए सत्ता का प्रतिरोध व्यर्थ है क्योंकि सत्ता सर्वव्याप्त है! उसके प्रतिरोध का केवल एक ही रास्ता है कि वैयक्तिक क्षेत्र में सत्ता द्वारा स्थापित हर सार्वभौम और ‘सामान्य’ (नॉर्म) का उल्लंघन किया जाये; चूँकि यह उल्लंघन वैयक्तिक क्षेत्र में होना था इसलिए इसका प्रमुख रास्ता था ‘बॉडी पॉलिटिक’ या लैंगिक सार्वभौमिकताओं का खण्डन। यही फूको के ‘क्वियर थियरी’ का मर्म था। लेकिन अगर इन सभी सिद्धान्तों में मौजूद साझा थीम को पकड़ें तो वह क्या है? वह है मार्क्सवाद से भी ज़्यादा ‘रैडिकल’ कुछ पेश करने के दावे के तहत परिवर्तन से हर प्रकार के अभिकरण को छीनना, मुक्ति की हर परियोजना के प्रति एक संशयवाद और अप्रत्यक्ष रूप से इतिहास के अन्त और विचारधारा के अन्त की बात करना। 1990 के पूरे दशक के दौरान ऐसी उत्तरआधुनिकतावादी विचार-सरणियों और नंगे पूँजीवादी विजयवादी विचारों का बाज़ार काफ़ी गर्म रहा।

इसी दौरान उत्तरआधुनिकतावाद की राजनीतिक अभिव्यक्तियाँ भी तेज़ी से पनपीं। स्वयंसेवी संगठनों और अस्मितावादी राजनीति की शुरुआत तो 1970 के दशक के बाद से ही देखी जा सकती है, लेकिन इसका स्वर्ण युग 1980 के दशक के उत्तरार्द्ध से शुरू होता है। जहाँ पूँजीवादी विचारक दार्शनिक ‘कोई विकल्प नहीं है’ (TINA) का नारा दे रहे थे, वहीं स्वयंसेवी संगठन और अस्मितावादी राजनीति करने वाले संगठन ‘बहुत से विकल्प हैं’ (TAMA) का नारा दे रहे थे। ‘विश्व आर्थिक मंच’ (जो कि भूमण्डलीकरण और नवउदारवादी नीतियों पर आम सहमति बनाने के लिए साम्राज्यवादियों का प्रमुख मंच है) के बरक्स ‘विश्व सामाजिक मंच’ बनाया गया। इसका मक़सद था वैश्विक पूँजीवाद के संकट के विरुद्ध जनता के आन्दोलनों को सहयोजित करना। इन दोनों मंचों की द्वैधता वास्तव में एक नकली द्वैधता थी और पूँजीवादी विजयवाद के दौर के समापन के दौर में जनअसन्तोष को सहयोजित करने के लिए खड़ी की गयी थी। वास्तव में ‘टीना’ और ‘टामा’ एक ही सिक्के दो पहलू हैं; कहा जा सकता है कि वे छद्म विकल्पों का समुच्चय हैं। ‘बहुत से विकल्प हैं’ जैसी बातें खण्डों का जश्न मनाने वाली अस्मितावादी और उत्तरआधुनिकतावादी राजनीति करने वाले लोग और संगठन ही कह सकते हैं, क्योंकि विज्ञान और इतिहास में हमेशा ही एक ही सही वैज्ञानिक विकल्प मौजूद होता है। इस सही वैज्ञानिक विकल्प को ख़ारिज करने के दो तरीके हैं: या तो आप सीधे यह कह दें कि पूँजीवाद में लाख समस्याएँ हैं, लेकिन इसका कोई विकल्प नहीं है (ज़रा देखो रूस और चीन के साथ क्या हुआ!) और दूसरा रास्ता है कि कहा जाये कि ‘बहुत से विकल्प हैं’ लेकिन एक भी विकल्प के बारे में कुछ भी ठोस बताया न जाये, बस छोटे-छोटे, विखण्डित, बिखरे हुए संघर्षों का जश्न मनाया जाये, उनका महिमा-मण्डन किया जाये, और उन्हें अपने साझा दुश्मन पूँजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ने के लिए संगठित और गोलबन्द करने के सारे प्रयासों का विरोध किया जाये। ‘विश्व सामाजिक मंच’ की पूरी राजनीति यही थी। अभी हाल में कुछ लोगों ने मार्क्सवाद के फिर से बढ़ते प्रभाव और उसके प्रति बढ़ती जिज्ञासा के कारण यह नारा दिया ‘एक समाजवादी विकल्प है’ (TIASA)। लेकिन यह भी ‘टामा’ की बात करने वाले लोगों का एक संस्करण है क्योंकि यह भी वास्तव में अतीत के समाजवादी प्रयोगों को कलंकित करने और एक तथाकथित नये किस्म के समाजवाद की बात करते हैं, जिसके विस्तार में आप जाये तो आपको पता चलता है कि इसमें नाम के अतिरिक्त कुछ भी समाजवादी नहीं है। ये सारे ही सिद्धान्त और विचार-सरणियाँ पूँजीवाद के वर्चस्व की प्रणालियाँ और पद्धतियाँ हैं।

ये सारी वर्चस्वकारी प्रणालियाँ और कार्यपद्धतियाँ संकट के दौर में ख़राब होने लगती हैं और मालफंक्शन करने लगती हैं और यही आज पूँजीपति वर्ग के लिए चिन्ता का विषय है। हालाँकि विश्व पूँजीवाद 1973 के संकट के बाद से ही कभी भी किसी तेज़ी (Boom) के दौर का साक्षी नहीं रहा है, लेकिन बीच-बीच में इस दीर्घकालिक मन्दी में कुछ गम्भीर संकटों के दौर आते रहे हैं। 1960 का दशक विश्व पूँजीवाद की आख़िरी वास्तविक तेज़ी का दौर था, जब द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पुनर्निर्माण और मार्शल प्लान के बूते पर पूँजीवाद तेज़ी का एक अभूतपूर्व दौर देख रहा था। इस दौर को आज भी अमेरिका में ‘स्वर्ण युग’ के तौर पर नॉस्टैल्जिक होकर याद किया जाता है। लेकिन 1973 में डॉलर-स्वर्ण मानक के टूटने के साथ तेज़ी का यह दौर समाप्त हो गया और उसके बाद से एक मन्द मन्दी का दौर लगातार जारी रहा है, जो कि बीच-बीच में कुछ गम्भीर संकटों के भँवर से गुज़रता रहा है। 1997 के बाद से इन संकटों के बीच का अन्तराल लगातार कम होता गया है। 2007 में सबप्राइम संकट के साथ जो वैश्विक मन्दी शुरू हुई, और जो अभी भी जारी है, वह 1930 के दशक की महामन्दी के बाद सबसे भयंकर मन्दी का दौर है। लेकिन कई मायनों में यह संकट 1930 के दशक की महामन्दी से भिन्न है। 1930 के दशक की महामन्दी के बाद उबरने और फिर ‘बूम’ का जो दौर आया, जो कि 1970 के दशक की शुरुआत तक चला, वैसा कोई दौर अब नहीं आने वाला है। हम मौजूदा साम्राज्यवादी संकट के चरित्र की विशिष्टता के विषय में विस्तार में नहीं जा सकते हैं, लेकिन हम यहाँ इतना कहना चाहेंगे कि यह भूमण्डलीकरण के दौर का संकट है, जो कि साम्राज्यवाद का अन्तिम चरण है। पूँजी विश्व के कोनों-अँतरों में फैल चुकी है और अब उसके पास कोई और जगह नहीं बची है। अब विश्व पूँजीवाद अपनी उत्तरजीविता को बनाये रखने के लिए दो ही रणनीतियों को अपना सकता है। एक यह कि अभी भी विश्व के जो चन्द कोने पूँजी संचय के सन्तृप्ति बिन्दु पर नहीं पहुँचे हैं, वहाँ लूट की सघनता को और बढ़ाया जाये और दूसरी रणनीति है युद्धों और अन्य प्रकार की आपदाओं के ज़रिये उत्पादक शक्तियों का सुनियोजित ध्वंस किया जाये और अस्थायी तौर पर मन्दी की जकड़बन्दी से थोड़ी राहत प्राप्त की जाये। ज़ाहिर है, ये दोनों ही रणनीतियाँ महज़ आंशिक और लघुजीवी राहत से ज़्यादा साम्राज्यवाद को कुछ नहीं दे सकतीं। साथ ही जब-जब साम्राज्यवाद इन रणनीतियों को लागू करेगा तो विद्रोह की स्थितियाँ और यहाँ तक कि क्रान्तिकारी परिस्थितियाँ पैदा होंगी, जैसी कि मिस्र में पिछले कुछ वर्षों में पैदा होती रही हैं। लेकिन वस्तुगत तौर पर यदि स्थितियाँ पक भी जायें तो भी यह अपने आप में क्रान्ति के लिए पर्याप्त नहीं है। लेनिन ने बताया था कि बिना क्रान्तिकारी विचारधारा और संगठन के कोई क्रान्तिकारी आन्दोलन नहीं हो सकता है। और यही वह कमी है जिसके कारण वस्तुगत तौर पर साम्राज्यवाद के एक बन्द गली के अन्त में पहुँचने के बावजूद किसी देश में समाजवादी क्रान्ति नहीं हो पा रही है। लेकिन इतना स्पष्ट है कि आज का साम्राज्यवाद लेनिन के युग के साम्राज्यवाद से कहीं ज़्यादा अनुत्पादक, परजीवी, मरणासन्न, जर्जर और खोखला हो चुका है और हमेशा से ज़्यादा सिर्फ़ और सिर्फ़ अपने जड़त्व की शक्ति पर टिका हुआ है। इस असमाधेय संकट का बोझ जनता के मेहनतकश हिस्सों पर डालने के अलावा पूँजीपति वर्ग के पास कोई और रास्ता नहीं है और इसके नतीजे के तौर पर ही दक्षिणी व पूर्वी यूरोप और साथ ही अरब विश्व में रह-रहकर जन-विस्फोट हो रहे हैं। अरब जनउभार से लेकर यूनान, स्पेन, सर्बिया और इटली के मज़दूरों और नौजवानों के आन्दोलन सिर्फ़ चन्द आर्थिक माँगों पर आधारित नहीं हैं, बल्कि इस हद तक राजनीतिक हो चुके हैं कि उन्हें पूँजीवाद-विरोधी प्रतिरोध आन्दोलनों की श्रेणी में रखा जा सकता है।

लेकिन इन आन्दोलनों की सीमा इसी बात में निहित है कि सिर्फ़ पूँजीवाद-विरोध तक सीमित रहकर कोई व्यवस्थागत परिवर्तन नहीं किया जा सकता है; ज़्यादा से ज़्यादा शासन-परिवर्तन हो सकता है, जैसा कि मिस्र व ट्यूनीशिया में हुआ। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जो स्वतःस्फूर्त आन्दोलन हुए हैं उनकी राजनीति पूँजीवाद-विरोध से आगे जाकर कोई व्यावहारिक-वैज्ञानिक विकल्प नहीं दे सकी; उनके पास कोई सकारात्मक प्रस्ताव नहीं था। साथ ही, इन आन्दोलनों में कोई संगठित राजनीतिक नेतृत्व भी मौजूद नहीं था। न तो क्रान्तिकारी विचारधारा थी और न ही क्रान्तिकारी संगठन। ऐसे में, इन आन्दोलनों को अपनी तमाम आमूलगामिता के बावजूद अन्ततः असफलता में ही समाप्त होना था; हालाँकि, अभी भी मिस्र और दक्षिण यूरोप जैसे देशों में जनान्दोलन जारी हैं। लेकिन उनकी नियति भी यही होगी अगर वहाँ क्रान्तिकारी विचारधारा से लैस कोई क्रान्तिकारी संगठन नहीं पैदा होता है। ऐसे में एक विशिष्ट स्थिति पैदा हुई है। एक ओर विश्व पूँजीवाद असमाधेय संकट के अभूतपूर्व दौर से गुज़र रहा है और अगर इस संकट को अन्तकारी संकट कहा जाये तो अतिशयोक्ति नहीं होगी क्योंकि शुद्ध आर्थिक तर्क से इस बात को सिद्ध किया जा सकता है कि विश्व पूँजीवाद अब भविष्य में कोई वास्तविक आर्थिक तेज़ी का दौर नहीं देखने वाला है। लेकिन दूसरी ओर तमाम पूँजीवाद-विरोधी आन्दोलनों के बावजूद क्रान्तिकारी विचारधारा से लैस कोई राजनीतिक नेतृत्व और संगठन अभी मौजूद नहीं है, जो कि एक व्यावहारिक विकल्प न सिर्फ़ पेश कर सके बल्कि जनता के बिखरे संघर्षों को संगठित कर इस विकल्प को अमली जामा पहनाने के लिए आगे बढ़ सके। और इसी वजह से आज बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों का नये सिरे से पुनर्मूल्यांकन और उसके सकारात्मकों और नकारात्मकों की एक सन्तुलित समझदारी आज नये क्रान्तिकारी नेतृत्व और संगठन को खड़ा करने के लिए अनिवार्य और अपरिहार्य हो गयी है। इन प्रयोगों को अनालोचनात्मक तरीके से देखने और उनके अन्धपूजन से और साथ ही उनके सही आलोचनात्मक विवेचन के बिना उन्हें ख़ारिज कर देने की अनैतिहासिक प्रवृत्ति, दोनों ही आज के समय में भावी क्रान्तिकारी परियोजना के लिए अनुत्पादक और नुकसानदेह है। साथ ही, इन प्रयोगों के पहले किये गये आलोचनात्मक विवेचनों के सकारात्मकों और नकारात्मकों को समझने की भी ज़रूरत है। सोवियत समाजवाद की सैद्धान्तिक और ऐतिहासिक समकालीनता (contemporaneity) को समझे बग़ैर नयी सदी की समाजवादी परियोजनाओं का निर्माण नहीं किया जा सकता है। सोवियत समाजवाद के प्रयोगों के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरत इसलिए भी है कि कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और बाहर ऐसी प्रवृत्तियाँ मौजूद हैं जो इसके इतिहास का ग़ैर-सर्वहारा विकृतिकरण कर रही हैं, जिसका कि पस्तहिम्मती, कठमुल्लावाद और “मुक्त”-चिन्तनवाद के शिकार कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों पर गहरा असर पड़ रहा है।

वैसे तो कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी शक्तियों के बीच आज क्रान्ति के कार्यक्रम, मज़दूर वर्ग में काम के तरीके और सर्वहारा क्रान्ति की रणनीति और आम रणकौशल को लेकर भी कठमुल्लावाद और “मुक्त”-चिन्तनवाद का असर है जिसके कारण ज़्यादातर जगहों पर या तो वे निराशावाद का शिकार हैं या फिर झूठी आशा का शिकार हैं, लेकिन विचारधारा और कार्यक्रम के प्रश्न पर जिस विभ्रम का आज कम्युनिस्ट आन्दोलन शिकार है उसे दूर करने में एक प्रमुख मुद्दा बीसवीं सदी के समाजवादी प्रयोगों के पुनर्मूल्यांकन का भी है। और इन प्रयोगों में भी सोवियत समाजवाद का मुद्दा आज भारी विवाद का विषय बना हुआ है। इसका एक कारण यह है कि सोवियत समाजवाद के पूरे दौर में, यानी कि 1917 से 1953 तक, जो प्रयोग हुए वे गम्भीर विचारधारात्मक बहसों के बीच हुए। मार्क्स और एंगेल्स के दौर में समाजवादी अर्थव्यवस्था और राज्य के बारे में कुछ आम राजनीतिक प्रस्थापनाएँ पेश की गयी थीं, लेकिन ठोस तौर पर एक समाजवादी अर्थव्यवस्था किस रूप में काम करेगी, सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व किस रूप में काम करेगा, उसका ढाँचा क्या होगा, उसके तहत पार्टी और राज्य की क्या भूमिका होगी और उनके अन्तर्सम्बन्ध कैसे होंगे, पार्टी व वर्ग के बीच क्या रिश्ता होगा, इन प्रश्नों पर कोई ठोस कार्यक्रम या ‘ब्लू प्रिण्ट’ नहीं पेश किया गया था, और न ही ऐसा किया जा सकता था। मार्क्स व एंगेल्स हवा में किले बनाने के ख़िलाफ़ थे और उन्होंने भावी समाजवादी व्यवस्था के तमाम पहलुओं के ठोस प्रश्नों को भविष्य का एजेण्डा माना था। उस समय एक आम दिशा और बुनियादी सिद्धान्तों को ही सूत्रबद्ध किया जा सकता था और यह कार्य पहले समाजवादी राज्य को नेतृत्व देने वाली पार्टी और उसके नेतृत्व का था कि इस प्रश्न को एजण्डे पर ले कि इस आम दिशा और बुनियादी सिद्धातों के आधार पर समाज, अर्थव्यवस्था और संस्कृति का समाजवादी रूपान्तरण कैसे किया जाये और उसमें पार्टी की क्या भूमिका हो। इसलिए सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास का आलोचनात्मक अध्ययन वास्तव में वर्ग, राज्य, पार्टी, ट्रेड यूनियन और इन सबके आपसी सम्बन्धों आदि के प्रश्नों पर सही मार्क्सवादी अवस्थिति के निःसरण से जुड़ा हुआ है। अक्टूबर क्रान्ति के बाद सोवियत संघ में पहली बार एक सर्वहारा सत्ता के निर्माण ने इन बहसों को शुद्ध सिद्धान्त और आरम्भिक वर्ग संघर्ष के राज्य से निकालकर समकालीन इतिहास और राजनीति के राज्य में पहुँचा दिया और भावी सैद्धान्तिक विकास का भी रास्ता खोल दिया। बोल्शेविक पार्टी ने इन प्रश्नों को सैद्धान्तिक और व्यावहारिक तौर पर किस रूप में हल किया, यह सिर्फ़ सोवियत समाजवाद के मूल्यांकन के लिए नहीं बल्कि मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लिए सर्वकालिक ऐतिहासिक, सैद्धान्तिक और राजनीतिक महत्व रखता है।

दूसरी बात यह कि सोवियत समाजवाद के प्रयोगों का मूल्यांकन पार्टी, राज्य और वर्ग के मार्क्सवादी सिद्धान्त में जो इज़ाफ़ा करता है, वह केवल क्रान्ति के बाद के समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के समाधान के लिए अहमियत नहीं रखता, बल्कि पहले दिन से ही सर्वहारा वर्ग को संगठित करने, उसके संगठन के स्वरूप, उसमें पार्टी की भूमिका, ट्रेड यूनियन की भूमिका, वर्ग, पार्टी और ट्रेड यूनियन के बीच के आपसी रिश्तों के सवालों के लिए भी अहमियत रखता है। मज़दूर वर्ग, उसकी विचारधारा, आन्दोलन और संगठन के बारे में सही दृष्टिकोण पहली मंज़िल से ही ज़रूरी है। इसलिए सोवियत समाजवाद का आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन महज़ एक सैद्धान्तिक-वैचारिक कवायद नहीं है। सोवियत समाजवाद का इतिहास जो प्रश्न खड़े करता है, वह क्रान्तिकारी मार्क्सवाद की अन्तर्वस्तु के प्रश्न हैं, और उनकी एक सही समझ केवल समाजवादी निर्माण के लिए नहीं बल्कि समाजवादी क्रान्ति के लिए मज़दूर वर्ग के आन्दोलन को एक सही नेतृत्व दे पाने के सवाल से भी जुड़ा हुआ है। और जैसा कि हम ज़िक्र कर चुके हैं एक तात्कालिक कारण यह है कि पिछले दो दशकों में सोवियत समाजवादी प्रयोग के इतिहास के पुनर्लेखन के कुछ महत्वपूर्ण मार्क्सवादी प्रयास हुए हैं, कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर भी और बाहर भी। इन नयी आलोचनाओं में ज़्यादातर अलग-अलग समय पर कम्युनिस्ट आन्दोलन में पैदा हुए “वामपन्थी” रुझानों, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकावों, दक्षिणपन्थी अवसरवाद, ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवाद, काउंसिल कम्युनिज़्म, 1960 के दशक में मज़दूर आन्दोलन में पैदा हुई विजातीय प्रवृत्तियों जैसे कि मारियो ट्रॉण्टी के मज़दूरवाद (Operaismo), लाक्लाऊमाऊफ के नववामपन्थ, बेज्यू, ज़िज़ेक, नेग्रीहार्ट जैसे बहेतू व सट्टेबाज़ उत्तर-मार्क्सवादी वामपन्थी चिन्तकों के “चिन्तन” और यहाँ तक कि इतिहास की कचरा-पेटी में जा चुकी उत्तरआधुनिक विचार-सरणियों के अनर्गल प्रलापों के वैविध्यपूर्ण मिश्रण हैं। चाहे वह ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ जैसे राजनीतिक नौदौलतियों का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी चिन्तन हो, या फिर रणधीर सिंह जैसे स्थापित बुद्धिजीवियों की सोवियत समाजवाद के विषय में नयी-नवेली खोजें हों, इन्हें इसी प्रकार के दरिद्र चिन्तन की श्रेणी में रखा जा सकता है। और ये तो सिर्फ़ दो उदाहरण हैं। ऐसी एक पूरी रुझान आज कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद है, जो कि इसी प्रकार के ग़ैर-लेनिनवादी चिन्तन का शिकार है। अहम बात यह है कि लेनिन के किसी विचार के खण्डन पर कोई बौद्धिक प्रतिबन्ध नहीं है, लेकिन विज्ञान का तकाज़ा होता है कि आप किसी भी ऐसी आलोचना या खण्डन के पीछे कोई तर्क पेश करते हैं। इन सभी सैद्धान्तिकीकरणों के तर्कों में जहाँ कहीं भी कुछ नया है तो वह हास्यास्पद अज्ञान को दिखलाता है, और जो कुछ पुराना है उसका जवाब लेनिन, स्तालिन और माओ ही दे चुके हैं। लेकिन इसके बावजूद कम्युनिस्ट आन्दोलन की अपनी वैचारिक दरिद्रता के कारण इन दीवालिया आलोचनाओं का भी आन्दोलन पर कुछ असर है। इसलिए भी हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के नये सिरे से आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरत को शिद्दत से महसूस करते हैं।

इसकी शुरुआत हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के एक बेहद संक्षिप्त ऐतिहासिक ब्यौरे के साथ करेंगे ताकि आगे के विश्लेषणात्मक हिस्से बोधगम्य हों।

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के मुख्य चरण

सोवियत समाजवादी प्रयोगों को हमारे विचार से अध्ययन के लिए कुछ विशेष चरणों में बाँटा जा सकता है। पहला चरण अक्टूबर 1917 में समाजवादी क्रान्ति के साथ सोवियत सत्ता की स्थापना और उसके सुदृढ़ीकरण के साथ शुरू हुआ और सत्ता के सुदृढ़ीकरण के पूरा होने से पहले ही मई-जून 1918 में गृह युद्ध और साम्राज्यवादी हस्तक्षेप की शुरुआत के साथ ख़त्म हुआ। दूसरा चरण था “युद्ध कम्युनिज़्म” का जो कि 1918 के मध्य से 1921 के आरम्भ तक चला। तीसरा चरण था नई आर्थिक नीतियों के प्रथम दौर का जो कि 1921 में प्रारम्भ होकर 1925 के अन्त तक चला; इसी दौर में आर्थिक नियोजन की भी बाक़ायदा शुरुआत होती है। चौथा चरण 1926 से शुरू होकर 1929 तक जारी रहा जिसे हम नयी आर्थिक नीतियों के संकट का दौर कह सकते हैं। पाँचवाँ दौर स्तालिन द्वारा लागू किये गये आपातकालीन कदमों का दौर था जो कि 1929 से 1930 तक जारी रहा। और छठा दौर था सामूहिकीकरण आन्दोलन का दौर जो कि 1930 से 1936 तक जारी रहा। सोवियत समाजवादी प्रयोगों के अध्ययन के लिए 1936 के दौर तक को लेना ही ज़्यादा उपयुक्त है, क्योंकि 1930 के दशक के अन्त से सोवियत संघ आसन्न युद्ध की तैयारियों में लग गया था और इस दौर में तीव्र गति से उद्योगीकरण और युद्ध मशीनरी का निर्माण हुआ था। हालाँकि सोवियत संघ ने जर्मन नात्सी ताक़त को कैसे परास्त किया और उस पूरे दौर में सोवियत संघ में मज़दूर वर्ग ने आर्थिक और सैन्य मोर्चे पर जो बेमिसाल शौर्य प्रदर्शित किया वह भी अध्ययन का विषय है और साथ ही युद्ध ख़त्म होने के चन्द वर्षों के भीतर अपनी आबादी के क़रीब 30 प्रतिशत हिस्से को खोने और 80 फीसदी औद्योगिक शक्ति के विनाश के बावजूद सोवियत मज़दूर वर्ग ने जिस तरह फिर से सोवियत संघ को पुनर्निमित कर दुनिया की अग्रिम औद्योगिक शक्तियों की कतार में ला खड़ा किया, वह भी आश्चर्यजनक और अलग से अध्ययन की माँग करता है। लेकिन हम 1917 से लेकर 1936 के बीच के समाजवादी प्रयोगों का एक बेहद संक्षिप्त विवरण आपके समक्ष रखेंगे क्योंकि यह विवरण किसी भी मानक पाठ्य पुस्तक और बोल्शेविक पार्टी के दस्तावेज़़ों से प्राप्त किया जा सकता है और इस संक्षिप्त विवरण के बाद हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक विश्लेषण की ओर आगे बढ़ेंगे। हम पहले लेनिन की मृत्यु तक राज्यसत्ता और पार्टी में हुए परिवर्तनों की चर्चा करेंगे और फिर ऊपर बताये गये अलग-अलग चरणों की अर्थनीति का ब्यौरा पेश करेंगे।

अक्टूबर 1917 में बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में रूस के मज़दूर वर्ग ने बुर्जुआ आरज़ी सरकार की सत्ता को उखाड़ फेंका और सोवियत सत्ता की स्थापना की। मार्च 1918 तक के दौर में बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में सोवियत राज्यसत्ता के पूरे ढाँचे के निर्माण को हाथ में लिया गया। अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस को सत्ता का सर्वोच्च निकाय घोषित किया गया; इस कांग्रेस के सदस्यों की संख्या सैकड़ों में थी। इसलिए इस कांग्रेस ने एक अखिल रूसी केन्द्रीय कार्यकारी समिति (वीटीएसआईके) का चुनाव किया जो कि अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस के सत्र में न होने पर उसके सभी कार्यों को अंजाम देती। लेकिन यह भी एक विशालकाय निकाय था जिसका कम अन्तराल पर मिलना सम्भव नहीं था। इसलिए एक जन कमिसार परिषद (सोवनार्कोम) का गठन किया गया जो कि सरकार के रोज़मर्रा के कार्यों की देखरेख करती थी। वास्तविक सरकार की भूमिका इसी निकाय की बनी। सत्ताधारी निकायों के रूप में सोवियतों के कार्यकलाप शुरू के दौर से ही सही ढंग से नहीं चल पा रहे थे। कई जगहों पर किसानों की सोवियतें और यहाँ तक कि कहीं-कहीं मज़दूरों की सोवियतें भी स्वतन्त्र गणराज्य जैसा बर्ताव कर रही थीं, और पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को निगाह में रखे बग़ैर निर्णय ले रही थीं। ये सोवियतें अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस, वीटीएसआईके और सोवनार्कोम के निर्देशों की अवहेलना करते हुए संकीर्ण स्थानीय हितों को प्राथमिकता दे रही थीं। जल्द ही अलग-अलग सोवियतों की इस स्वायत्तता को समाप्त करके केन्द्रीय सत्ता के तहत लाया गया। इसी दौरान सत्ता के निकाय के तौर पर सोवियतों की भूमिका पर लेनिन का चिन्तन भी विकसित हो रहा था। लेनिन सोवियतों की सत्ता के व्यावहारिक अनुभवों से इस बात को समझ रहे थे कि सोवियतें जनता की स्वतःस्फूर्त ऊर्जा से अस्तित्व में आये निकाय हैं और अपने इस स्वतःस्फूर्त चरित्र के ही कारण वे सरकार की भूमिका पार्टी के विचारधारात्मक, राजनीतिक और संस्थाबद्ध नेतृत्व में ही निभा सकती हैं, क्योंकि मज़दूर वर्ग के हिरावल और अगुआ के तौर पर सचेतन तौर पर बनाया गया संगठन पार्टी है, सोवियतें नहीं। इस नुक्ते पर हम अपने विश्लेषणात्मक उपशीर्षक में विस्तार से चर्चा करेंगे।

चूँकि बोल्शेविक पार्टी सर्वहारा सत्ता के व्यवहार में पार्टी की केन्द्रीय भूमिका के प्रति सचेत हो रही थी और व्यावहारिक अनुभव दिखला रहे थे कि पार्टी की संस्थाबद्ध अगुवाई के बिना उद्योग, कृषि, व्यापार आदि किसी भी क्षेत्र में समाजवादी रूपान्तरण सही ढंग से आगे नहीं बढ़ सकता, इसलिए एक क्रमिक प्रक्रिया में सोवनार्कोम को पार्टी के प्राधिकार के तहत लाया गया। सर्वहारा जनवाद को लागू करने का रूप क्या होगा, इसके विषय में मार्क्सवादी चिन्तन में सोवियत समाजवाद के अनुभव से पहले कुछ विशेष मौजूद नहीं था। इसलिए सोवियत सत्ता स्थापित होने के बाद बोल्शेविक पार्टी ने अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस और वीटीएसआईके से लेकर सोवनार्कोम तक में समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेंशेविकों को भी जगह दी थी। वास्तव में, लेनिन ने एक समय खुद ही कृषि मन्त्रालय एक “वामपन्थी” समाजवादी-क्रान्तिकारी कोगालाएव को सौंपा था! लेकिन सोवियत सत्ता के 3 वर्षों के अनुभव ने ही यह स्पष्ट कर दिया कि सर्वहारा जनवाद का रूप बहुपार्टी जनवाद नहीं हो सकता। आगे लेनिन ने इसे स्पष्ट किया कि सर्वहारा जनवाद और सर्वहारा अधिनायकत्व कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में ही क्यों काम कर सकता है। बुर्जुआ वर्ग के विकसित होने का बुनियादी तर्क प्रतियोगिता होता है; यह तर्क राजनीतिक क्षेत्र में बहुपार्टी जनवाद के रूप में अभिव्यक्त होता है; बुर्जुआ वर्ग को बाज़ार की औसत मुनाफ़े की दर ऐक्यबद्ध करती है, लेकिन उनके बीच कोई सामूहिकतापूर्ण राजनीतिक संगठन नहीं होता है, बल्कि एक प्रतिस्पर्द्धात्मक संगठन होता है। यही कारण है कि बुर्जुआ वर्ग अलग-अलग प्रतिस्र्द्धी धड़ों में बँटा होता है। लेकिन सर्वहारा वर्ग के संगठन का तर्क बाज़ार और पूँजी से संचालित नहीं होता है, बल्कि एक सामूहिकतापूर्ण एकता से निर्धारित होता है। एक सर्वहारा राजनीतिक संगठन का तर्क प्रतिस्पर्द्धात्मक तर्क नहीं होता है (हालाँकि, पूँजीवादी श्रम बाज़ार उन्हें भी प्रतिस्पर्द्धा को बाध्य करता है) इसलिए उनकी राजनीतिक सत्ता का स्वरूप बहुपार्टी जनवाद नहीं होता है। लेकिन यह सिद्धान्त समाजवादी प्रयोगों के व्यवहार से निःसृत हुआ न कि इसका उल्टा। व्यावहारिक तौर पर हुआ यह कि जल्द ही अन्य बुर्जुआ और निम्न-बुर्जुआ राजनीतिक पार्टियों को सत्ता से बहिष्कृत कर दिया गया।

दूसरी तरफ़, बोल्शेविक पार्टी अब क्रान्ति के लिए संघर्ष कर रही मज़दूर वर्ग की पार्टी की बजाय सत्ता में काबिज़ मज़दूर वर्ग की पार्टी बन चुकी थी। और राजनीतिक सत्ता और समूची राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने का कार्य पार्टी के भीतर भी केन्द्रीयता और अनुशासन को सख़्त बनाने की माँग करता था। इसलिए पार्टी में भी नये निकाय अस्तित्व में आये, जिन पर हम आगे बात करेंगे। ज़्यादातर सोवियत समाजवाद के अध्येता इस बात की आलोचना करते हैं कि एक ओर सोवियत राज्यसत्ता में केन्द्रीकरण होता गया और दूसरी तरफ़ पार्टी में केन्द्रीकरण होता गया; और इसके साथ ही राज्य और पार्टी का संलयन हो गया, जिससे कि सोवियत सत्ता एक सर्वसत्तावादी पार्टी की सत्ता में तब्दील हो गयी। लेकिन इन तमाम अध्ययनों की समस्या यह है कि ये बुर्जुआ जनवाद के मानकों से सर्वहारा जनवाद का अध्ययन और विश्लेषण करना चाहते हैं और यह वैसा ही होता है जैसे कि आप तराजू से शरीर का तापमान मापने की कोशिश करें! इस पर भी हम आगे विस्तार से चर्चा करेंगे। अभी हम सोवियत समाजवादी प्रयोगों के पहले दौर यानी कि गृहयुद्ध शुरू होने के पहले के दौर पर बात को आगे बढ़ाते हैं।

इस पहले दौर में ही पार्टी में पहला “वामपन्थी” विपक्षी धड़ा बुखारिन, ओसिंस्की, रादेक आदि के नेतृत्व में अस्तित्व में आया। इस धड़े को “वामपन्थी” विपक्ष के नाम से जाना गया। इसने ब्रेस्त लितोव्स्क संधि पर प्रश्न खड़ा करते हुए लेनिन पर यह आरोप लगाया कि जर्मनी से ऐसी युद्ध विराम की संधि करके वह सोवियत सत्ता की ख़ातिर विश्व सर्वहारा क्रान्ति को कुर्बान कर रहे हैं, क्योंकि इस धड़े का मानना था कि अगर सोवियत रूस जर्मनी से युद्ध जारी रखता है तो जर्मनी भी सर्वहारा क्रान्ति की कगार पर पहुँच जायेगा। इस प्रश्न के अलावा इस धड़े ने शुरुआती आर्थिक नीतियों पर भी प्रश्न उठाया जिस पर हम आगे बात करेंगे। लेनिन ने ब्रेस्त लितोव्स्क पर आपत्ति का जवाब देते हुए कहा कि रूसी जनता इस समय शान्ति चाहती है और तीन वर्ष के विनाशकारी पूँजीवादी युद्ध से पहले भी श्रान्त और क्लान्त है। दूसरी बात यह है कि जर्मनी में अभी क्रान्तिकारी परिस्थिति नहीं मौजूद है, और एक बाह्य कारक, यानी कि सोवियत रूस से युद्ध अपने आपमें जर्मन क्रान्ति की शुरुआत नहीं कर सकता है। ऐसे में, इस युद्ध में न तो जर्मन क्रान्ति की स्थितियाँ तैयार होंगी और न ही सोवियत सत्ता बच पायेगी। इसलिए पहली प्राथमिकता युद्ध को रोकना है। पार्टी में और कई लोग मध्य स्थिति अपना रहे थे, जैसे कि त्रॉत्स्की, जो कि ‘न युद्ध और न शान्ति’ का अव्यावहारिक नारा दे रहे थे। लेकिन युद्ध के दौरान सोवियत रूस जैसे-जैसे एक के बाद एक मोर्चों पर हारता गया, वैसे-वैसे लेनिन के प्रस्ताव पर पार्टी में सहमति बनी, लेकिन तब तक युद्ध-विराम की शर्तें और भी अपमानजनक हो चुकी थीं। इसके लिए लेनिन ने “वामपन्थी” विपक्ष की कठोर आलोचना की थी।

इसी बीच मार्च 1919 में पार्टी की आठवीं कांग्रेस हुई जिसमें कि पहली बार पोलित ब्यूरो, ऑर्ग ब्यूरो और केन्द्रीय कमेटी के सेक्रेटैरियट का निर्माण किया गया और 1920 में नौवीं कांग्रेस में इन्हें सुदृढ़ किया गया। एक नये “वामपन्थी” धड़े ‘डेमोक्रैटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ग्रुप ने इसका विरोध किया और इसे जनवाद का निषेध बताया। इस ग्रुप के प्रमुख सदस्य स्मिर्नोव, ओसिंस्की आदि थे। लेकिन लेनिन के नेतृत्व में पार्टी की बहुसंख्या ने इस “वामपन्थी” धड़े का विरोध किया और समाजवादी राज्यसत्ता के संचालन के लिए पार्टी में अनुशासन और केन्द्रीयता की आवश्यकता पर बल दिया। लेनिन ने स्पष्ट किया कि यह पार्टी में जनवाद का ख़ात्मा नहीं है, बल्कि उसका और उन्नत और सुदृढ़ होना है। पार्टी में प्राधिकार नीचे से ऊपर प्रवाहित होता है, जबकि अनुशासन ऊपर से नीचे प्रवाहित होता है। यदि पार्टी की संरचना इस प्रकार की जनवादी केन्द्रीयता को न लागू करती हो, तो वह पार्टी वाद-विवाद क्लब बन जायेगी। इन निकायों की शक्ति पर नियन्त्रण रखने के लिए नौवीं कांग्रेस में ही एक नियन्त्रण आयोग का गठन किया गया जो कि पार्टी के सामान्य काडरों से जीवन्त सम्पर्क रखता था।

1919 से लेकर 1920 तक त्रॉत्स्की और बुखारिन (जो कि “वामपन्थी” विचलन से दोलन करते हुए दक्षिणपन्थी विचलन की ओर जा रहे थे) के धड़े ने ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण की वकालत की और उनकी स्वायत्तता को ख़त्म करने की बात की। ग़ौरतलब है कि यह दौर “युद्ध कम्युनिज़्म” का था और इस दौर में राजनीति और अर्थव्यवस्था तक में हर मुद्दे का फ़ैसला गृहयुद्ध और विदेशी हस्तक्षेप द्वारा पैदा हुई आपात स्थितियों से हो रहा था; इस दौर पर हम आगे चर्चा करेंगे। त्रॉत्स्की व बुखारिन के प्रस्ताव का ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नामक एक नये विपक्षी धड़े ने विरोध किया और उल्टी थीसिस पेश करते हुए राज्य के ट्रेड यूनियनीकरण का नारा दिया। इन दोनों धड़ों की क्रमशः दक्षिणपन्थी और “वामपन्थी” अवस्थिति के विरुद्ध लेनिन ने पूरी बहस चलायी और 1921 में इन दोनों के ही प्रस्तावों को ख़ारिज किया और कहा कि ये दोनों ही न तो सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी संरचना को समझते हैं और न ही हिरावल पार्टी की विचारधारात्मक और राजनीतिक नेतृत्वकारी भूमिका को। 1920 में त्रॉत्स्की-बुखारिन धड़े की लेनिन ने कठोर आलोचना पेश की और 1921 में पार्टी की दसवीं कांग्रेस में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ धड़े की अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति पर भी चोट की और सर्वहारा अधिनायकत्व की संरचना और उसमें पार्टी, ट्रेडयूनियनों, सोवियतों आदि की भूमिका पर आम सूत्रीकरण पेश किया जो कि आज भी प्रासंगिक है। इस पूरी बहस पर हम आगे विस्तार से विचार करेंगे।

इसी दौर में अर्थव्यवस्था के केन्द्रीकृत संचालन के लिए सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) का निर्माण किया गया, जिसे सबसे पहले उद्योगों को संभालने की ज़िम्मेदारी दी गयी, लेकिन बाद में सर्वोच्च वित्तीय निकाय नार्कोमफिन, सर्वोच्च वितरण संस्था नार्कोमप्रॉड, व अन्य आर्थिक निकायों को भी वेसेंखा के मातहत कर दिया गया ताकि सुनियोजित रूप में सम्पूर्ण समाजवादी अर्थव्यवस्था का संचालन किया जा सके। साथ ही, इसी दौर में पार्टी ने ऐसी संस्थाएँ भी स्थापित कीं, जो कि इस बाध्यताकारी केन्द्रीकरण के कारण पैदा होने वाली नौकरशाहाना प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ एक प्रतिसन्तुलनकारी प्रणाली का काम करे, जैसे कि राबक्रिन का गठन जो कि मज़दूर-किसान निरीक्षण समितियाँ थीं, और साथ ही राज्य नियन्त्रण कमिसारियत (उच्रास्प्रेद) का भी गठन किया गया। लेकिन “युद्ध कम्युनिज़्म” और गृहयुद्ध के आपातकालीन दौर में यह प्रणालियाँ उपयुक्त रूप से काम नहीं कर सकीं और पार्टी के भीतर नौकरशाहाना प्रवृत्तियों पर उस रूप में लगाम नहीं कस सकीं जिसकी कल्पना की गयी थी। इन समस्याओं के प्रति लेनिन सचेत थे लेकिन 1917 से 1921 तक मौजूद आपातस्थितियों में कुछ किया नहीं जा सकता था। इस दौर में सोवियत सत्ता वस्तुतः अपने अस्तित्व को बचाने के लिए लड़ती रही। एक ओर क्रान्ति के तीन वर्ष पहले से जारी युद्ध में रूस की विनाशकारी भागीदारी के कारण पैदा हुआ अकाल और आर्थिक विसर्जन, और दूसरी ओर गृहयुद्ध और चौदह देशों की साम्राज्यवादी घेरेबन्दी के कारण सोवियत सत्ता समाजवादी निर्माण के कार्य को व्यवस्थित ढंग से हाथ में ले ही नहीं सकी। लेकिन जहाँ तक राज्य और पार्टी के संलयन और दोनों में केन्द्रीकरण की प्रक्रिया का प्रश्न था, तो वह सिर्फ़ आपातस्थितियों के कारण नहीं था, बल्कि लेनिन इस बात की वांछनीयता को सामान्य तौर पर देखते थे। यह ज़रूर था कि समाजवादी निर्माण की पूरी परियोजना को जिन चरणों से विकसित करने की सोच लेनिन की थी, उस रूप में आपातस्थितियों के कारण समाजवादी निर्माण हो नहीं सका। लेकिन जो भी बुर्जुआ, अराजकतावादी, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अध्येता राज्य और पार्टी के संलयन और उन दोनों में केन्द्रीकरण की प्रवृत्ति के लिए स्तालिन को ज़िम्मेदार ठहराते हुए यह आलोचना करते हैं कि सोवियत सत्ता सर्वसत्तावादी और पार्टी की सत्ता बन गयी थी, उन्हें इसके लिए वास्तव में लेनिन की आलोचना करनी चाहिए! हालाँकि, यह पूरी आलोचना ही एक विभ्रम का शिकार है; लेकिन इस पर हम आगे चर्चा करेंगे।

लेनिन के ही दौर में राष्ट्रों के आत्मनिर्णय के अधिकार को लेकर भी पार्टी में कई बहसें चलीं। पार्टी का एक हिस्सा था जिस पर कि ‘पोलिश हियरसी’ (Polish Heresy) का प्रभाव था। रोज़ा लग्ज़मबर्ग सोवियत रूस द्वारा दमित राष्ट्रीयताओं को आत्मनिर्णय के अधिकार देने के ख़िलाफ़ थीं और इस विषय पर उनके विचार को ही रूसी पार्टी में ‘पोलिश हियरसी’ नाम दिया गया था। लेकिन लेनिन का मानना था कि साम्राज्यवाद के युग में राष्ट्रों का शोषण एक यथार्थ है और किसी देश के मज़दूर वर्ग को ज़बरन समाजवादी-संघ में शामिल नहीं किया जा सकता है। स्तालिन लेनिन के दृष्टिकोण को ही मानते थे, लेकिन उनका शुरुआती दौर में ज़ोर इस बात पर था कि गृहयुद्ध के दौरान यूक्रेन आदि देशों की बुर्जुआजी इस अधिकार का इस्तेमाल सोवियत सत्ता पर हमले के लिए कर रही है, इसलिए यह अधिकार हर राष्ट्र के मज़दूर वर्ग को दिया जाना चाहिए। लेनिन का इस पर यह मानना था कि ऐसा केवल उन देशों के साथ किया जा सकता है जहाँ पर बुर्जुआ वर्ग और सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक विभेदीकरण स्पष्ट हो और सर्वहारा वर्ग स्वतन्त्र राजनीतिक अवस्थिति अपना सकता हो। बहरहाल, सोवियत रूस ने इस नीति पर ईमानदारी से अमल किया और जिन भी मामलों में सोवियत सत्ता के विरुद्ध किसी राष्ट्र के शासक वर्ग ने युद्ध नहीं छेड़ा, वहाँ आत्मनिर्णय का अधिकार दिया। 1923 आते-आते सोवियत संघ अस्तित्व में आ चुका था, जिसमें पुरानी रूसी साम्राज्य की लगभग सभी प्रमुख राष्ट्रीयताएँ शामिल हो चुकी थीं। सोवियत संघ के अस्तित्व में आने से पहले सोवियत रूस का औपचारिक नाम रूसी समाजवादी सोवियत गणराज्य संघ (आर.एस.एफ़.एस.आर.) था।

आर्थिक मोर्चे पर क्रान्ति के बाद दो प्रक्रियाएँ जारी रहीं। एक प्रक्रिया पुराने आर्थिक तन्त्र के ध्वंस की थी और दूसरी प्रक्रिया नयी आर्थिक व्यवस्था के विकास की थी। पुराने अर्थतन्त्र का ध्वंस भी दो गतियों के साथ चलाः व्यवस्थित तौर पर और स्वतःस्फूर्त व अराजक तौर पर। मिसाल के तौर पर, क्रान्ति के बाद सोवियत सत्ता ने भूमि सम्बन्धी आज्ञप्ति जारी कर भूमि का राष्ट्रीकरण कर दिया। लेकिन भूमि पर कब्ज़े का किसान समितियों का आन्दोलन कई क्षेत्रों में पहले से जारी था और वह क्रान्ति के बाद भी जारी रहा। बस सोवियत सत्ता ने इसे मान्यता दे दी। और वहीं कई अन्य इलाकों में सोवियत सत्ता ने व्यवस्थित रूप से इन सुधारों को लागू किया। उद्योगों के क्षेत्र में भी यह दोहरी प्रक्रिया देखी जा सकती है। बहुत सी जगहों पर क्रान्ति के पहले से ही कारखाना समितियाँ कारखानों पर कब्ज़ा कर मालिकों और प्रबन्धकों को बेदख़ल कर रही थीं। इन कब्ज़ों को भी बोल्शेविकों ने मान्यता दी, हालाँकि एक वर्ष के भीतर ही यह बात सामने आयी कि अधिकांश जगहों पर कारखाना समितियाँ कारखानों को चला ही नहीं पायीं; कई जगहों पर मज़दूरों ने कारखानों को फिर से मालिकों के हवाले कर दिया, कुछ अन्य जगहों पर मज़दूर कारखाने के उपकरणों को बेचकर गाँव चले गये। जो कारखाने मुश्किल से चले भी उसमें पूँजीवादी उत्पादन बन्द नहीं हुआ था, बस एक निजी पूँजीपति की जगह एक कारखाना समिति ने ले ली थी, जो कि पूरे मज़दूर वर्ग के हितों को ध्यान में रखकर उत्पादन नहीं कर रही थी, बल्कि उस विशिष्ट कारखाने के मुनाफ़े के लिए उत्पादन कर रही थी। कई जगहों पर कारखाना समितियों ने सोवियत सत्ता को अपने उत्पाद देने से इंकार कर दिया और उसे काला बाज़ार में बेचने को प्राथमिकता दी, जबकि सोवियत सत्ता को किसानों से अनाज लेने के लिए विनिमय हेतु औद्योगिक उत्पादों की सख़्त ज़रूरत थी। नतीजतन, एक अर्थवादी दृष्टिकोण कारखाना समितियों पर हावी था। जल्द ही यह आन्दोलन विफल हो गया और फिर इन कारखाना समितियों को ट्रेड यूनियनों के पूरे ढाँचे के तहत लाया गया, सभी ट्रेड यूनियनों को केन्द्रीय अखिल रूसी ट्रेड यूनियन कांग्रेस के तहत लाया गया, और इस ट्रेड यूनियन कांग्रेस को वेंसेखा के साथ तालमेल करते हुए कार्य करना था।

गृहयुद्ध शुरू होने से पहले कृषि में राष्ट्रीकरण के कार्यभार को मुख्य रूप से पूरा किया गया जो कि एक रैडिकल बुर्जुआ कार्यभार था, क्योंकि किसान आबादी अभी इसी कार्यक्रम के लिए राजनीतिक तौर पर तैयार थी और वह रूस की आबादी के अस्सी फीसदी से भी ज़्यादा थी। लेकिन साथ ही 3 से 4 प्रतिशत भूमि में राजकीय फार्म और सामूहिक फार्म भी बनाये गये। भूमि समितियों को किसान सोवियतों के तहत लाया गया। मार्च 1918 आते-आते सोवियत सत्ता कृषि का संकट झेल रही थी। धनी और उच्चमध्यम किसानों का एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा सोवियत सत्ता को अनाज देने से मना कर रहा था और उसे निजी व्यापारियों को जमाखोरी कर ऊँचे दामों पर बेच रहा था। सोवियत सत्ता ने जब उन्हें बदले में औद्योगिक वस्तुओं की पेशकश की तो पहले उसे स्वीकार किया गया, लेकिन कई जगहों पर जब औद्योगिक वस्तुओं की आपूर्ति पहुँचायी गयी तो खाते-पीते किसानों ने उसे लूट लिया और बदले में अनाज भी नहीं दिया। इसी वक़्त लेनिन ने पहली बार कहा कि अब वक़्त आ गया है कि गाँवों में निम्न और निम्न मध्यम किसानों व ग्रामीण सर्वहारा को साथ लेकर धनी किसानों और कुलकों के विरुद्ध वर्ग संघर्ष को तीव्र किया जाये। यह नीति गृहयुद्ध से पहले ही शुरू भी हो गयी थी। मार्च 1918 में पहली बार सोवियत सत्ता ने जमाखोरी करने वाले किसानों के विरुद्ध कदम उठाये। भूमि कीमतों में सट्टेबाज़ी और जमाखोरी के ख़िलाफ़ आज्ञप्ति जारी हुई। इसके बाद पार्टी ने मज़दूरों और ग़रीब किसानों की फसल प्राप्ति टोलियाँ गठित कीं। इनका कार्य शुरुआती दौर में ही काफ़ी सफल हुआ क्योंकि ये टोलियाँ सिर्फ़ जमाखोरों से फसल वसूली नहीं करती थीं, बल्कि धनी किसानों और कुलकों के ख़िलाफ़ राजनीतिक प्रचार भी करती थीं। लेकिन चूँकि इस शानदार शुरुआत को आगे बढ़ाने के लिए पार्टी गृहयुद्ध के शुरू होने के बाद निरन्तर राजनीतिक नेतृत्व नहीं दे सकी, इसलिए आगे यह प्रयास सफल नहीं हो सका।

उद्योगों के क्षेत्र में गृहयुद्ध की शुरुआत के पहले जो नीति लागू की गयी थी उसे लेनिन ने ‘समाजवाद की ओर पहले कदमों’ का नाम दिया। कारखाना समितियों के उदाहण ने दिखला दिया था कि अभी मज़दूर वर्ग पूर्ण स्वायत्त रूप से कारखानों को चलाने की स्थिति में नहीं है, और यह राजनीतिक चेतना के एक उच्च स्तर की माँग करता है। इसलिए लेनिन ने तत्काल सभी उद्योगों को सिण्डिकेटों में संगठित करने और उन सिण्डिकेटों को मज़दूर राज्यसत्ता के तहत लाने का आह्वान किया; लेनिन ने कहा कि हम समूची अर्थव्यवस्था पर मज़दूर वर्ग के राजनीतिक नियन्त्रण का समर्थन करते हैं, न कि ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधन पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ के नारे का। अभी सोवियत सत्ता का पहला लक्ष्य तत्काल मज़दूर वर्ग का प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित करना नहीं है, क्योंकि अभी यह सम्भव ही नहीं है। इसलिए पहले अर्थव्यवस्था पर मज़दूरों के राजनीतिक नियन्त्रण को लेखाकार्य और ‘बुककीपिंग’ के ज़रिये स्थापित किया जाना चाहिए। अभी पूँजीपतियों, प्रबन्धकों को बाध्य किया जाना चाहिए कि वे भागे नहीं बल्कि मज़दूर सत्ता के लिए काम करें; इसके लिए अगर उन्हें कुछ लाभांश या कुछ बुर्जुआ विशेषाधिकार देने पड़ते हैं तो भी दिये जायें, क्योंकि हमें प्रबन्धकीय, पर्यवेक्षकीय और तकनीकी क्षमता और साथ ही राजनीतिक चेतना से लैस मज़दूरों को हज़ारों बल्कि लाखों की तादाद में तैयार करने के लिए मोहलत चाहिए। दूसरी बात यह कि अभी हमारा शत्रु टटपुँजिया उत्पादन, छोटा माल उत्पादन और टटपुँजिया चेतना है। किसी भी रूप में बड़े पैमाने पर उत्पादन इनसे ज़्यादा प्रगतिशील और क्रान्तिकारी है और साथ ही यह समाजवाद की ज़रूरत है। जब लेनिन के इस पूरे प्रस्ताव को राजकीय पूँजीवाद का प्रस्ताव कहा गया, तो लेनिन ने पुरज़ोर शब्दों में कहा कि यह ‘राजकीय पूँजीवाद’ ही है, लेकिन सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत ‘राजकीय पूँजीवाद’। लेनिन का कहना था इस पूरे कार्य में सोवियत राज्य सत्ता को ट्रेड यूनियनों का सहयोग लेना चाहिए और ट्रेड यूनियनों को चाहिए कि वह श्रम अनुशासन और अर्थव्यवस्था के पुनर्गठन को अपना पहला लक्ष्य मानें क्योंकि इसके बिना सोवियत सत्ता कुछ महीने भी नहीं टिक सकती है। उस समय भी रियाज़ानोव और लोज़ोव्स्की नामक बोल्शेविक ट्रेड यूनियनों की पूर्ण स्वतन्त्रता की बात कर रहे थे, जबकि ज़िनोवियेव ट्रेड यूनियनों को राज्य के पूर्ण रूप से मातहत करने की बात कर रहे थे (यह विवाद एक प्रकार से 1920–21 में हुए ट्रेड यूनियन विवाद की प्रस्तावना था)। लेनिन ने सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के तहत ‘राजकीय पूँजीवाद’ के दौर में राज्यसत्ता और ट्रेड यूनियनों के बीच तालमेल की वकालत की। लेनिन ने तर्कों समेत स्पष्ट किया कि फिलहाल समाजवादी निर्माण की दिशा में सोवियत सत्ता के लिए पहला तार्किक कदम यही हो सकता है। बुखारिन, रादेक व ओसिंस्की के “वामपन्थी” विपक्षी धड़े ने लेनिन के प्रस्ताव का विरोध किया और कहा कि मज़दूरों के हितों को तिलांजलि देकर पूँजीपतियों को छूट दी जा रही है। लेनिन ने दो रचनाओं ‘सोवियत सत्ता के वर्तमान कार्यभार’ और ‘वामपन्थी बचकानापन और टटपुँजिया मानसिकता’ में “वामपन्थी” विपक्ष के हवाई किलों को ध्वस्त कर दिया। आने वाली आठवीं कांग्रेस में यह धड़ा निर्णायक रूप से परास्त हुआ। लेनिन ने कहा कि सबसे महत्वपूर्ण सत्ता का सर्वहारा वर्ग के हाथों में बने रहना है; अगर ‘राजकीय पूँजीवाद’ सर्वहारा वर्ग के नियन्त्रण में है तो उसका अर्थ केवल समाजवाद की दिशा में एक कदम के रूप में ही हो सकता है और बोल्शेविकों को इस ‘राजकीय पूँजीवाद’ से कतई नहीं घबराना चाहिए, जबकि आज सोवियत सत्ता का मुख्य दुश्मन टटपुँजिया मानसिकता, टटपुँजिया उत्पादन और छोटा माल उत्पादन है जो हर क्षण सोवियत सत्ता के विरोधी बुर्जुआ तत्वों को जन्म दे रहे हैं।

गृहयुद्ध के मई 1918 में शुरू होने के बाद सोवियत सत्ता उपरोक्त दिशा में कदम नहीं बढ़ा पायी और वह वक़्त से पहले उद्योगों में पूर्ण राष्ट्रीकरण करने और मँझोले किसानों तक के एक हिस्से से ज़बरन फसल वसूली के लिए मजबूर हुई। हम बता चुके हैं कि लेनिन मार्च 1918 में ही ग्रामीण क्षेत्रों में समाजवादी क्रान्ति को शुरू करने की बात कर रहे थे; ग़रीब मज़दूरों और किसानों की फसल वसूली टोलियाँ और प्रचार टोलियाँ बनायी जा रही थीं और धनी किसानों, कुलकों और उच्चमध्यम किसानों को विलगीकृत करने का काम शुरू हो चुका था। लेकिन गृहयुद्ध के शुरू होने के बाद जो आर्थिक संकट और अकाल की स्थिति शहरों और सेना के लिए पैदा हुई उसमें पार्टी को इस पूरी प्रक्रिया को असीमित रूप से बढ़ाना पड़ा और वह उसे चरणबद्ध रूप से राजनीतिक नेतृत्व देते हुए नहीं चला पायी। अब नयी ग़रीब किसान समितियाँ बनीं जिन्हें फसल वसूली का कार्य सौंपा गया। लेकिन इस पूरे कार्य में ग़रीब किसान समितियाँ कई बार निम्न मँझोले और मध्यम मँझोले किसानों से भी ज़बरन फसल वसूली करती थीं। इस वजह से यह वर्ग सोवियत सत्ता से कटता गया और कई जगह इसने धनी किसानों और कुलकों का पक्ष तक ले लिया। इसी दौर में धनी किसानों और उच्च मध्यम किसानों ने कुलकों के साथ मिलकर राजकीय खेतों और सामूहिक खेतों में जमकर तोड़-फोड़ की। नतीजतन, अन्त में सोवियत सत्ता को इनके एक हिस्से पर दमन करना पड़ा। समस्या यह थी कि इस समय चौदह देशों की घेराबन्दी और रूसी प्रतिक्रियावादी श्वेत सेनाएँ सोवियत सत्ता पर हमले पर हमले कर रही थी और सोवियत सत्ता की पहली प्राथमिकता थी इस युद्ध को जीतना। इसके लिए सेना को और शहरों में सेना के लिए उत्पादन कर रहे मज़दूरों को अनाज व अन्य कृषि उत्पादों की आवश्यकता थी। और अगर यह आवश्यकता न पूरी होती तो इसका अर्थ होता सोवियत सत्ता का पतन। इन अपवादस्वरूप स्थितियों में पार्टी का मक़सद और इरादा धनी किसानों और कुलकों से ज़बरन फसल वसूली का था लेकिन इसकी चपेट में अक्सर वे किसान वर्ग भी आ जाते थे जो कि समाजवादी क्रान्ति के मित्र या ढुलमुलयक़ीन मित्र वर्ग थे। इस कारण से सोवियत क्रान्ति का बुनियादी आधार, यानी कि मज़दूर-किसान संश्रय टूटने की कगार पर पहुँचने लगा था। इस असन्तुलन को पार्टी गृहयुद्ध के समापन के बाद नयी आर्थिक नीतियों के साथ ही ख़त्म करना शुरू कर पायी। लेकिन गृहयुद्ध का अन्त होते-होते जहाँ एक ओर सभी श्वेत सेनाएँ परास्त हो चुकी थीं, वहीं कई क्षेत्रों में छोटी-मोटी किसान बग़ावतें सोवियत सत्ता के ख़िलाफ़ हो रही थीं। इसी समय पार्टी की दसवीं कांग्रेस में लेनिन ने नयी आर्थिक नीतियों का प्रस्ताव पेश किया और पार्टी ने इसे पास किया।

उद्योगों के क्षेत्र में “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियों की पहचान सबसे पहले तीव्र गति से उद्योगों के राष्ट्रीकरण से की जा सकती है। जून 1918 में सभी बड़े उद्योगों का राष्ट्रीकरण कर दिया गया; और 1920 तक पाँच मज़दूरों और यान्त्रिक ऊर्जा से काम करने वाले सभी कारखानों को राष्ट्रीकृत कर दिया गया। यानी कि 1920 तक उद्योग जगत में निजी सम्पत्ति का पूर्ण ख़ात्मा हो चुका था। दूसरी सबसे प्रमुख अभिलाक्षिणकता थी उद्योगों और समूची राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का केन्द्रीकृत प्रबन्धन और संचालन। यह ज़िम्मेदारी वेसेंखा को सौंपी गयी थी। इस दौरान एक अतिकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति काम कर रही थी, क्योंकि सोवियत सत्ता के पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था। गृहयुद्ध के शुरु होते ही पूँजीपति वर्ग की अपने खोए हुए स्वर्ग को प्राप्त करने की आशा ज़ोर मारने लगी थी, और उसने हर प्रकार के सहकार से इंकार कर श्वेत शक्तियों की शरण ली थी। इस दौर में उद्योग में ‘एक-व्यक्ति आधारित प्रबन्धन’, बुर्जुआ विशेषाधिकारों को लागू किया गया और साथ ही कई भौतिक प्रोत्साहन दिये गये, जैसे कि पीस-रेट कार्य। लेनिन का मानना था कि जहाँ तक वेतन असमानता और भौतिक प्रोत्साहनों का प्रश्न है, अभी ऐसा हर कदम स्वीकार्य है जो कि सेना और शहरों में मज़दूर आबादी को आपूर्ति के लिए उत्पादन को बढ़ाये। जहाँ तक ‘एक व्यक्ति आधारित प्रबन्धन’ का प्रश्न है, उसमें लेनिन का मानना था कि यह आम तौर पर ग़लत सिद्धान्त नहीं है। निर्णय लेने की प्रक्रिया को कारखानों में समितियों को सौंपा जाना चाहिए। लेकिन किसी एक व्यक्ति की ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए अन्यथा ‘सामूहिक निर्णय प्रक्रिया’ के नाम पर लालफीताशाही और अकुशलता का ही प्रसार होगा। इसलिए व्यक्तिगत ज़िम्मेदारी तय होनी चाहिए। इस प्रश्न पर पार्टी में मौजूद “वामपन्थी” धड़ों और लेनिन में बहस हुई। त्रॉत्स्की ने इस बहस में लेनिन का साथ दिया लेकिन उनकी अवस्थिति भिन्न थी। त्रॉत्स्की के लिए यह नीतियाँ बाध्यता नहीं बल्कि चयन का प्रश्न थी। लेनिन के लिए यह नीतियाँ गृहयुद्ध की विशिष्ट परिस्थितियों की पैदावार थीं और जब त्रॉत्स्की ने इन नीतियों को अपनी ट्रेड यूनियन के राजकीयकरण और श्रम के सैन्यकरण की थीसिस के तहत बाद में भी लागू करने का प्रस्ताव पेश किया तो लेनिन ने इसका पुरज़ोर शब्दों में विरोध किया। गृहयुद्ध के दौर में मज़दूर वर्ग के भी एक हिस्से के साथ कुछ ज़ोर-ज़बर्दस्ती करनी पड़ी थी, विशेष तौर पर वह हिस्सा जो कि कारखानों को छोड़कर गाँवों में पलायन कर रहा था और श्रम अनुशासन को लागू नहीं कर रहा था। उनके लिए लेनिन ने अनुशासन के कामरेडाना ट्रिब्युनल बनाने का प्रस्ताव रखा जिसके सदस्य वर्ग सचेत मज़दूरों को ही बनाया जाये। त्रॉत्स्की ने ज़मीनी स्तर पर इस नीति को दूसरे छोर पर खींचते हुए यहाँ तक कहा कि हर मज़दूर एक सैनिक है और उसे राज्य के निर्देश का सैन्य अनुशासन के साथ पालन करना चाहिए। गृहयुद्ध के दौरान त्रॉत्स्की कई जगहों पर अपने कार्यभारों में इस पद्धति से सफल भी रहे, लेकिन यह पद्धति लम्बे समय तक लागू नहीं की जा सकती थी। लेकिन त्रॉत्स्की को इस बात का अहसास नहीं था। गृहयुद्ध के दौर में ही ‘कम्युनिस्ट शनिवार’ (सुब्बोतनिक) के स्वैच्छिक श्रम दान की परम्परा को मज़दूरों ने स्वतःस्फूर्त रूप से शुरू किया। लेनिन की आम नीति इस प्रकार की संस्थाओं और प्रथाओं की शुरुआत को प्रोत्साहन देने की थी। यानी कि उदाहरण के ज़रिये नेतृत्व पेश करना और ऊपर से थोपकर समाजवादी निर्माण के कार्य करने की बजाय, उन पर सहमत करके और मिसाल पेश करके इन कार्यों को अंजाम देना। गृहयुद्ध के दौरान यह नीति पूरी तरह नहीं लागू हो सकती थी। इसलिए “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर की अधिकांश ग़लतियाँ ऐसी थीं, जो कि वस्तुगत परिस्थितियों ने सोवियत राज्य और बोल्शेविक पार्टी पर थोप दी थीं। इनके कारण किसानों ने अनाज का विनिमय करने से इंकार करना शुरू कर दिया, और राज्य द्वारा बाध्य किये जाने पर वे खेती का क्षेत्रफल घटाने लगते थे; मज़दूर वर्ग बुरी तरह से श्रान्ति का शिकार था और उसका एक विचारणीय हिस्सा गाँव लौट गया था क्योंकि अनाज की उपलब्धता खेती के क्षेत्र में ज़्यादा थी और अकाल की समस्या कम थी। उद्योग और कृषि के बीच विनिमय पर बुरा असर पड़ा था और पूरी की पूरी अर्थव्यवस्था डाँवाडोल थी। इसी समय में पार्टी की केन्द्रीय कमेटी ने नयी आर्थिक नीतियों का प्रस्ताव पेश किया।

नयी आर्थिक नीतियों (नेप) के प्रस्ताव को 1921 में दसवीं पार्टी कांग्रेस में पारित किया गया। इसके तहत खेती और उद्योग के विनिमय को बढ़ावा देने के लिए सीमित तौर पर कुछ बाज़ार शक्तियों (यानी कि निजी व्यापारियों) और साथ ही किसानों को बाज़ार में अपना उत्पाद बेचने की आज़ादी दी गयी। किसानों को बदले में एक तय कर उत्पाद के रूप में देना था। उद्योगों के क्षेत्र में भी अति-केन्द्रीकरण को समाप्त किया गया और उसमें भी बाज़ार विनिमय की छूट दी गयी। राज्य अपना हिस्सा इन उद्योगों से सार्वजनिक वितरण के लिए लेता था और फिर अधिशेष के विनिमय के लिए निजी व्यापार और विनिमय की छूट दी गयी थी। इन नीतियों का नतीजा तुरन्त ही सामने आया और 1922 के बसन्त से ही उत्पादन ऊपर जाने लगा। उद्योगों में वेसेंखा के नियन्त्रण और संरक्षण को ढीला कर दिया गया। चूँकि खेती के उत्पादों के लिए बाज़ार को कुछ खुला हाथ दिया गया था, इसलिए औद्योगिक उत्पादों के विपणन के लिए भी उद्योगों की अलग-अलग शाखाओं को खुला हाथ दिया गया, क्योंकि यह दोनों पूरक प्रक्रियाएँ थीं। बाज़ार में खेती के उत्पादों का विनिमय खेती के उत्पादों से ही नहीं हो सकता था। कई छोटे उद्योग जिनके राष्ट्रीकरण का कार्य पूरा नहीं हुआ था, उन्हें सहकारी संघों, आर्टेलों आदि को सौंपा गया और या फिर निजी व्यक्तियों को लीज़ पर दिया गया; लेकिन उन्हें मालिक बनने की अनुमति नहीं दी गयी और अपनी सभी आर्थिक गतिविधियों के लिए वे राज्य के प्रति उत्तरदायी थे। लेकिन साथ ही वेसेंखा जिस प्रकार पहले उद्योगों को कच्चे मालों की आपूर्ति और अधिशेष के वितरण और विपणन ज़िम्मेदारी लेती थी, अब वह यह ज़िम्मेदारी नहीं ले रही थी। तमाम औद्योगिक शाखाओं को स्वयं उत्पादन के लिए कच्चे माल बाज़ार से ख़रीदने थे और अपने अधिशेष का इस बाज़ार में विपणन करना था। लेनिन ने यह भी कहा कि इस दौर में पहले छोटे पैमाने के उद्योगों को तत्काल विकसित किया जाये और कुछ समय के लिए उपभोक्ता सामग्री के उत्पादन पर ज़ोर बढ़ाया जाये क्योंकि कृषि क्षेत्र से विनिमय के लिए तुरन्त कुछ चाहिए, जिससे कि अनाज और साथ ही बड़े उद्योगों को फिर खड़ा करने के लिए पूँजी संचय की समस्या हल हो सके।

इन नीतियों की “वामपन्थी” विपक्ष ने फिर से आलोचना की और कहा कि इससे उद्योग और मज़दूर को नुकसान हो रहा है। किसानों को राज्य छूट दे रहा है जबकि मज़दूरों को नहीं, जिसके कारण उद्योग पीछे छूटता जायेगा। 1921 में एक ‘सिज़र्स संकट’ पैदा हुआ जिसमें कृषि उत्पादों की कीमतें बढ़ती गयीं, जबकि औद्योगिक उत्पादों की ख़तरनाक स्तर तक कम हो गयीं। लेकिन इन सभी समस्याओं के बावजूद सोवियत रूस को कई वर्षों की जारी भुखमरी और अकाल से मुक्ति मिली और रूस के मेहनतकश वर्ग को साँस लेने का अवसर मिला। लेनिन ने कहा कि निश्चित तौर पर ‘नेप’ की नीतियों से तात्कालिक तौर पर एक असन्तुलन पैदा होगा; किसानों में विभेदीकरण बढ़ेगा; धनी किसान और धनी होंगे, जबकि निम्न मँझोले और ग़रीब किसान और ग़रीब होंगे। लेकिन किसान आबादी अपने अनुभवों से ही समाजवाद की वांछनीयता को समझ सकती है। लेनिन ने माना कि नेप की नीतियाँ अर्थव्यवस्था में धनी किसानों (जिन्हें बाद में ‘नेपमैन’ की संज्ञा भी दी गयी), निजी व्यापारियों और छोटे पूँजीपतियों के तौर पर बुर्जुआ तत्वों को जन्म देगी जो कि आगे चलकर सोवियत सत्ता के लिए ख़तरा बन सकते हैं। लेकिन साथ ही लेनिन ने नेप की नीतियों की व्याख्या करते हुए उन्हें ‘रणनीतिक तौर पर पीछे कदम हटाना’ (strategic retreat) कहा; यह कदम पीछे हटाने की प्रक्रिया बहुत लम्बे समय तक नहीं चलायी जा सकती है। फरवरी 1922 में ही लेनिन ने कहा (जब उद्योग की स्थिति बिगड़ रही थी और मज़दूरों को वेतन दे पाने के लिए धन कम पड़ने लगा था) कि अब कदम पीछे हटाने का दौर ख़त्म हो रहा है। मार्च 1922 में ग्यारहवीं पार्टी कांग्रेस में फिर से लेनिन ने नेप के दौर के ख़त्म होने की ओर बढ़ने की बात की। 1922 से ही बड़े उद्योगों को खड़ा करने के लिए सिण्डिकेटों और ट्रस्टों का गठन शुरू हुआ। औद्योगिक मालों की कीमतें बढ़नी शुरू हुईं और फिर 1922 के अगस्त तक उनके बीच सन्तुलन स्थापित हो गया। लेकिन 1923 में औद्योगिक मालों की कीमतों में बेहद ज़्यादा बढ़ोत्तरी होने के कारण एक और ‘सिज़र्स संकट’ पैदा हुआ। और 1923 से ही नेप के ऊपर पार्टी में बहस की शुरुआत हो गयी। लेनिन का स्पष्ट मानना था कि नेप की नीतियों को अगर लम्बे समय तक खींचा गया तो जटिलताएँ पैदा होंगी; इस ‘रिट्रीट’ को केवल तब तक जारी रखा जाना चाहिए जब तक कि सोवियत सत्ता नये समाजवादी ‘आक्रमण’ के लिए तैयार न हो जाये। लेकिन नेप पर पार्टी में 1923 में बहस शुरू हुई और नेप की नीतियों को जल्दी वापस नहीं लिया जा सका।

नेप की नीतियों के सन्तृप्ति बिन्दु पर पहुँचने का दौर मोटे तौर पर 1925 तक जारी रहा। इस दौर में पार्टी में कई मुद्दों पर बहसें शुरू हो गयीं। एक बहस स्तालिन और त्रॉत्स्की के बीच थी, जिसका मूल मुद्दा यह था कि एक देश में समाजवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण हो सकता है या नहीं। त्रॉत्स्की का यह मानना था कि एक देश में और विशेष तौर पर पिछड़ी उत्पादक शक्ति वाले देश में समाजवाद का निर्माण नहीं हो सकता है। त्रॉत्स्की के अनुसार रूस में सर्वहारा वर्ग को सत्ता पर काबिज़ रहते हुए यूरोपीय सर्वहारा क्रान्ति का इन्तज़ार करना चाहिए। स्तालिन का स्पष्ट मानना था कि रूसी सर्वहारा वर्ग यूरोपीय क्रान्ति के इन्तज़ार में नहीं बैठा रह सकता है और उसे समाजवाद के निर्माण की ओर आगे बढ़ना चाहिए क्योंकि उसके बिना वह अपनी सत्ता भी क़ायम नहीं रख सकता है। 1925 में 14वीं पार्टी कांग्रेस में स्तालिन ने इस विषय पर अपनी पूरी सोच रखी। लेकिन उद्योगीकरण का प्रश्न एक जटिल प्रश्न था। उद्योगीकरण के लिए बड़े पैमाने पर पूँजी संचय की आवश्यकता थी। इसके दो ही स्रोत हो सकते थे: विदेशी निवेश या फिर कृषि से अधिशेष का विनियोजन। पहला स्रोत सम्भव नहीं था। प्रियोब्रेझेंस्की और त्रॉत्स्की का ज़ोर दूसरे स्रोत पर था। इस दृष्टिकोण को ‘उद्योग की तानाशाही’ और ‘आदिम समाजवादी संचय’ के सिद्धान्त के नाम से जाना गया। यह दृष्टिकोण वास्तव में “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर की नीतियों का एक दूसरे रूप में विस्तार था। इसके साथ समस्या यह थी कि अगर छोटे पैमाने के किसान उत्पादन से अधिशेष को निचोड़ा जाता है तो किसान समाजवादी सत्ता के ख़िलाफ़ चले जायेंगे और समाजवादी सत्ता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जायेगा। शुरुआती दौर में इस थीसिस का बुखारिन ने विरोध किया और नेप की नीतियों को और सघनता के साथ जारी रखने का नारा दिया। बुखारिन इस थीसिस को दक्षिणपन्थी सीमाओं तक ले गये और अन्त में उन्होंने कुलकों को ‘अमीर बनो!’ का नारा तक दिया, जिसके पीछे सोच यह थी कि इसके ज़रिये ही अधिशेष को बढ़ाया जा सकता है और उद्योगीकरण के बारे में सोचा जा सकता है। स्तालिन इन दोनों छोरों से अलग खड़े थे। उनका मानना था कि यदि उद्योगीकरण करना है तो किसी न किसी मंज़िल पर कृषि से अधिशेष को विनियोजित करना ही होगा और उद्योग के लिए पूँजी संचय इसी माध्यम से हो सकता है। लेकिन इसमें सबसे अहम बात यह थी कि इस काम को मज़दूर-किसान संश्रय को तोड़े बगै़र कैसे किया जाये। अगर प्रियोब्रेज़ेंस्की की कार्यदिशा लागू होती है तो सोवियत सत्ता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जायेगा। जबकि बुखारिन की कार्यदिशा के लागू किये जाने पर ग्रामीण क्षेत्र में सोवियत सत्ता और समाजवाद का भावी शत्रु बेहद मज़बूत हो जायेगा। इसके लिए स्तालिन क्रमिक प्रक्रिया में सहकारी संघ और फिर सामूहिक खेती की ओर जाने की वकालत कर रहे थे, क्योंकि छोटे पैमाने की किसानी के आधार पर इतना अधिशेष कभी भी नहीं आ सकता था कि उद्योगीकरण को तेज़ी से बढ़ाया जा सके। 1925 आते-आते नेप का संकट गहरा चुका था और छोटे पैमाने की किसानी आर्थिक विकास के रास्ते में एक बड़ी बाधा बन चुकी थी। 1925 के अन्त तक यह बात भी सामने आ चुकी थी कि अभी भी शहरों पर से अकाल और भुखमरी का ख़तरा पूरी तरह टला नहीं है।

नेप के दूसरे दौर यानी कि 1926 से 1929 तक यह बात पुष्ट भी हो गयी। 1926 से लेकर 1929 तक खेती के उत्पादन में बढ़ोत्तरी होती गयी, लेकिन राज्य की खाद्यान्न प्राप्ति में लगातार गिरावट आती गयी, जो कि गाँवों में कुलकों, धनी किसानों और उच्च मध्यम किसानों द्वारा समाजवाद के विरुद्ध चलाये जा रहे वर्ग संघर्ष का ही परिणाम था। 1929 आते-आते यह गिरावट इस स्तर पर चली गयी थी कि शहरों के मज़दूरों के लिए भोजन और उद्योगों के लिए कच्चा माल प्राप्त नहीं हो पा रहा था। 1927 तक बुखारिन के दक्षिणपन्थी धड़े का समर्थन पार्टी में बेहद कम हो चुका था। स्तालिन ने अब समाजवादी रूपान्तरण के अपनी योजना को पार्टी में आगे बढ़ाया। 1928–29 के दौरान ही पहली पंचवर्षीय योजना का निर्माण हुआ। 1928 में कृषि के सामूहिकीकरण के बारे में चर्चा शुरू हो चुकी थी। 1927 में 15वीं पार्टी कांग्रेस में स्तालिन ने आर्थिक प्राथमिकताओं को पेश करते हुए कहा कि हमारी पहली प्राथमिकता है कि उद्योगों में समाजवादी विकास और रूपों के प्राप्त किये गये स्तर को बरकरार रखा जाये और निकट भविष्य में इस स्तर से आगे बढ़ा जाये और उन्नत पूँजीवादी देशों से इस मामले में आगे निकला जाये। दूसरी बात यह है कि सोवियत अर्थव्यवस्था की समस्याओं का इलाज बड़े पैमाने के उद्योगों के ज़रिये किया जाये जो कि छोटे-छोटे खेतों की व्यवस्था के आधार पर नहीं किया जा सकता है; ऐसे में, हमारे पास खेती के सामूहिकीकरण के अतिरिक्त और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन साथ ही स्तालिन ने जोड़ा कि इस काम में राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रेरण को प्राथमिकता दी जाये, न कि ज़ोर-ज़बर्दस्ती को। स्तालिन का ज़ोर अभी पूरी तरह से मँझोले किसानों को समझाने और सहमत करने का था। इस कांग्रेस के तीन महीने बाद ही स्तालिन ने कई जगहों पर राज्यसत्ता के निम्नतर निकायों द्वारा ज़बरन फसल वसूली की ग़ैर-क़ानूनी हरक़तों की कड़े शब्दों में निन्दा की। साथ ही 15वीं कांग्रेस में ही कई नये बड़े राजकीय फार्म खड़े करने की योजना को भी हाथों में लिया गया और साथ ही कई जगहों पर नये सामूहिक फार्म खड़े करने की योजना को भी लागू करने का फ़ैसला किया गया। इन कदमों से कुछ लाभ हुआ लेकिन संकट टला नहीं। 1928–29 आते-आते संकट ने विकराल रूप धारण कर लिया था। 1929 में स्तालिन ने गाँवों में वर्ग संघर्ष को सघन करने का नारा दिया और कुछ आपात कदम उठाये जिससे कि किसानों से अनाज प्राप्त करके शहरों और उद्योगों तक पहुँचाया जा सके। लेकिन ये आपात कदम व्यवस्थित तौर पर और बड़े पैमाने पर सामूहिकीकरण के शुरुआत की प्रस्तावना थे। अगले ही वर्ष सामूहिकीकरण की मुहिम की औपचारिक तौर पर शुरुआत हुई। इसमें पार्टी का ज़ोर अभी भी धनी किसानों और कुलकों के वर्ग को समाप्त करने और मँझोले किसानों को पहले सामूहिकीकरण पर सहमत करने पर था; लेकिन जिन मँझोले किसानों ने कुलकों और धनी किसानों की अवस्थिति को अपनाया उनके साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती की गयी। इस पूरी मुहिम में गाँवों के ग़रीब किसान और उज़रती मज़दूर मज़बूती के साथ सोवियत राज्यसत्ता के साथ खड़े थे, जबकि मँझोले किसानों का बड़ा हिस्सा भी सामूहिकीकरण के पक्ष में आया था। सामूहिकीकरण की मुहिम लगभग छह वर्षों तक जारी रही और 1936 में कृषि क्षेत्र से निजी सम्पत्ति का पूर्ण रूप से ख़ात्मा कर दिया गया और समूची सोवियत अर्थव्यवस्था से पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों का उन्मूलन कर दिया गया। यह समाजवादी निर्माण में एक अभूतपूर्व छलाँग थी। इस पूरी प्रक्रिया में निश्चित तौर पर किसानों के एक हिस्से के लिए सामूहिक फार्मों को बाध्यतापूर्ण भी बनाया गया। लेकिन ज़ोर-ज़बर्दस्ती का पहलू सामूहिकीकरण के आन्दोलन का प्रमुख पहलू नहीं था। और यह भी समझना ज़रूरी है कि समूची मँझोली किसानी कभी भी समाजवाद के कार्यक्रम को नहीं अपना सकती है। प्रमुख पहलू पार्टी द्वारा राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रेरणा और नेतृत्व था। साथ ही यह समझना भी ज़रूरी है कि बोल्शेविक क्रान्ति जिन अपवादस्वरूप स्थितियों में हुई, क्रान्ति के बाद जिस तरीके से समाजवादी निर्माण का कार्य गृहयुद्ध के कारण बाधित हुआ, जिस प्रकार “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर में मज़दूर-किसान संश्रय कमजोर पड़ा और जिस तरीके से नेप की नीतियाँ अपने जीवन से ज़्यादा उत्तरजीवी हो गयीं, उसमें किसान प्रश्न के समाधान की जटिलता की ही उम्मीद की जा सकती है।

जैसा कि हमने पहले ज़िक्र किया, पन्द्रहवीं पार्टी कांग्रेस में ही तेज़ी से भारी उद्योगों के विकास को प्राथमिकता माना गया था। 1929 में पहली पंचवर्षीय योजना में बड़े पैमाने पर भारी उद्योगों के विकास के लक्ष्य को तय किया गया। साथ ही यह नारा दिया गया कि पाँच वर्ष के लक्ष्य को चार वर्ष में पूरा किया जाये। वास्तव में, यह लक्ष्य चार वर्ष में पूरा भी कर लिया गया। 1930 के दशक की शुरुआत में ही पार्टी में जर्मनी और जापान से सम्भावित युद्ध पर चर्चा होने लगी थी। इसके साथ ही भारी उद्योगों के साथ रक्षा उद्योग को दूसरी प्राथमिकता बनाया गया। इस पूरी प्रक्रिया में पार्टी का ज़ोर असन्तुलित तरीके से भारी उद्योगों पर पड़ा। जब भी भारी उद्योगों के विकास के लिए संसाधनों का अभाव होता था तो उसे हल्के उद्योगों और उपभोक्ता सामग्री पैदा करने वाले उद्योगों से संसाधन स्थानान्तरित करके पूरा किया जाता था। इसकी वजह से अर्थव्यवस्था में एक असन्तुलन पैदा हुआ था। साथ ही, कृषि से अधिशेष विनियोजन की प्रक्रिया की सघनता भी काफ़ी ज़्यादा बढ़ गयी थी। लेकिन इसमें कुछ योगदान उस समय के बाह्य दबावों, यानी कि आसन्न युद्ध की तैयारी का भी था। लेकिन साथ ही इसके लिए बोल्शेविक पार्टी में उस समय उत्पादक शक्तियों के विकास पर असन्तुलित ज़ोर भी ज़िम्मेदार था, जिस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन इसके बावजूद इन पंचवर्षीय योजनाओं ने सोवियत संघ को विश्व की प्रमुख औद्योगिक शक्तियों की कतार में लाकर खड़ा कर दिया। मज़दूरों और सामूहिक फार्म के किसानों के जीवन स्तर में अभूतपूर्व बढ़ोत्तरी हुई। दूसरी पंचवर्षीय योजना भी चार वर्षों (1933–1937) में ही पूरी हो गयी। और इसके साथ ही सोवियत संघ विश्व की सबसे बड़ी औद्योगिक शक्तियों में से एक बन गया। इस दूसरी योजना के दौरान रक्षा उद्योग पर ज़ोर थोड़ा और बढ़ा क्योंकि जर्मनी का हमला अब सिर्फ़ समय की बात थी। तीसरी पंचवर्षीय योजना (1938–41) भी अपने लक्ष्यों से काफ़ी आगे चल रही थी, लेकिन तभी युद्ध की शुरुआत हो गयी। 1928 से लेकर 1941 के बीच में सोवियत संघ जिस रूपान्तरण से गुज़रा वह सम्पूर्ण देश की आबादी से ज़ोर-ज़बर्दस्ती करके नहीं हासिल किया जा सकता है। वह मज़दूर वर्ग की प्रेरणा, पहल और शौर्य से ही हासिल किया जा सकता है। युद्ध के बाद भी 2 करोड़ लोगों की कुर्बानी देने के बाद रूसी मज़दूर वर्ग ने जिस गति से देश का पुनर्निर्माण किया, उसने सभी तत्कालीन प्रेक्षकों को अचम्भित कर दिया था। आगे हम सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी से हुई ग़लतियों की भी समीक्षा करेंगे और विशेष तौर पर स्तालिन के दौर में हुई ग़लतियों की चर्चा करेंगे, लेकिन यह कतई नहीं भूला जाना चाहिए कि स्तालिन के नेतृत्व में ही रूसी जनता ने पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों का ख़ात्मा किया और समाजवादी निर्माण की दिशा में लम्बे डग भरते हुए समाजवादी रूस को न सिर्फ़ एक महाशक्ति बनाया बल्कि एक ऐसा देश बनाया जहाँ मज़दूरों, औरतों, और समूची आबादी का जीवन स्तर पूरी दुनिया के किसी भी देश से बेहतर था, सामाजिक-आर्थिक न्याय था और बराबरी थी। यह समझने के बाद ही इस प्रयोग के सीमाओं और ग़लतियों की चर्चा की जा सकती है।

सोवियत समाजवादी प्रयोगों के बेहद संक्षिप्त ब्यौरे के बाद हम विश्लेषण की ओर बढ़ सकते हैं। लेकिन विश्लेषण से पहले पहुँच और पद्धति के कुछ बुनियादी प्रश्नों पर विचार ज़रूरी है क्योंकि यदि विश्लेषण के मानक न तय हों, उसकी कसौटियाँ और पैमाने न तय हों, तो विश्लेषण भी नहीं हो सकता।

पहुँच और पद्धति के बुनियादी प्रश्न और सोवियत समाजवादी प्रयोगों के आलोचनात्मक विश्लेषण की समस्याएँ

इस आलेख का उद्देश्य है सोवियत समाजवादी प्रयोगों के सकारात्मकों और नकारात्मकों की एक सन्तुलित मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी पेश की जाये, जिससे कि समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के विषय में कुछ आम सूत्रीकरण रखे जा सकें। लेकिन ऐसा कोई भी विश्लेषण शुरू करने से पहले इस प्रश्न पर स्पष्टता होनी चाहिए कि विश्लेषण के विचारधारात्मक उपकरण क्या होंगे? इसके बुनियादी पैमाने, कसौटियाँ या मानक क्या होंगे? इसलिए सोवियत समाजवाद के आलोचनात्मक पुनर्मूल्यांकन की ज़रूरत के बारे में अपना औचित्य-प्रतिपादन आपके सामने रखने के बाद सबसे पहले सोवियत संघ में समाजवाद के विश्लेषण के बुनियादी मार्क्सवादी-लेनिनवादी अप्रोच और पद्धति के बारे में हम अपनी समझदारी आपके साथ साझा करना चाहेंगे, क्योंकि मार्क्सवाद सबसे पहले पहुँच और पद्धति के प्रश्न को उठाता है और उसके बाद इतिहास के तथ्यों और घटनाओं के ठोस विश्लेषण की ओर आगे बढ़ता है।

ऐसे किसी भी ठोस विश्लेषण के बुनियादी मुद्दे क्या हैं? हमारे विचार में सबसे अहम मुद्दा है किसी भी सामाजिक संरचना के चरित्र के निर्धारण का आधार समझना। और इसी से जुड़ा हुआ मुद्दा है किसी राज्य और किसी पार्टी के चरित्र के निर्धारण के आधार को समझना। इसी के आधार पर हम वर्ग, पार्टी, राज्य, सोवियत और ट्रेड यूनियनों के बीच के अन्तर्सम्बन्ध की एक द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी समझदारी पर पहुँच सकते हैं। इन प्रश्नों पर एक सही समझदारी के साथ ही शुरुआत की जा सकती है क्योंकि सोवियत समाजवाद की नयी आलोचनाओं के साथ जो सबसे बड़ी समस्या है वह यही है कि उनमें इन बुनियादी प्रश्नों पर एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी का अभाव है। इन आलोचनाओं में इन बुनियादी प्रश्नों पर उसी अवस्थिति को अपनाया गया है जो कि बोल्शेविक पार्टी में अलग-अलग समय पर आये “वामपन्थी” विपक्ष की थी, जैसे कि ‘डेमोक्रैटिक सेण्ट्रलिज़्म’ समूह, वर्कर्स अपोज़ीशन और बुखारिन का शुरुआती “वामपन्थी” धड़ा। साथ ही, इन नयी आलोचनाओं में त्रॉत्स्कीपन्थ से भी काफ़ी-कुछ उधार लिया गया है, मिसाल के तौर पर, 1917 से पहले त्रॉत्स्की का लेनिन के पार्टी सिद्धान्त पर विचार। एक और बात जो इन नयी आलोचनाओं की चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है वह यह है कि सोवियत संघ में हुई तमाम कथित ग़लतियों के लिए वे ज़िम्मेदार आम तौर पर स्तालिन को ठहराती हैं, लेकिन जिन “ग़लतियों” की ये बात करती हैं, उनकी शुरुआत लेनिन के ही दौर में हुई थी! लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें (जैसे कि बंगाल का ‘मज़दूर मुक्ति प्रकाशन’) तो ज़्यादातर मामलों में ये नव-आलोचक स्तालिन की आलोचना करने की आड़ में पार्टी, राज्य और वर्ग की लेनिनवादी अवधारणाओं को निशाना बनाते हैं (जैसे कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’) और लेनिन का अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी हस्तगतीकरण करने का प्रयास करते हैं। अब हम सिलसिलेवार उन बुनियादी प्रश्नों को लेंगे जिन पर इन नव-आलोचकों की अवस्थिति बिल्कुल गड़बड़झाला है।

1) समाजवाद की पहचान का बुनियादी पैमाना

समाजवाद की पहचान के बुनियादी पैमाने का सवाल सबसे महत्वपूर्ण इसलिए है कि अगर यह तय न किया जाये तो सोवियत संघ में समाजवाद के अनुभवों का कोई मूल्यांकन हो ही नहीं सकता है। मिसाल के तौर पर, अगर रणधीर सिंह की बात करें तो वह पूरी तरह से पॉल स्वीज़ी की थीसिस को स्वीकारते हैं जिसके अनुसार सोवियत संघ स्तालिन के दौर में, विशेष तौर पर 1930 के दशक से न तो पूँजीवादी था और न ही समाजवादी, बल्कि एक वर्ग-शोषण वाला समाज था, जिसमें कि राज्य में काबिज़ पार्टी और जनसमुदायों के बीच एक खाई पैदा हो गयी थी और इसने अन्ततः एक शत्रुतापूर्ण वर्गों वाले एक नये समाज को जन्म दे दिया था! रणधीर सिंह व पॉल स्वीज़ी के अनुसार यह पूँजीवाद नहीं था क्योंकि इसमें निजी पूँजीपति बाज़ार की प्रणाली द्वारा मज़दूरों द्वारा उत्पादित अधिशेष का नियोजन नहीं कर रहे थे; बल्कि बाज़ार की जगह नियोजन मौजूद था और निजी पूँजीपति अनुपस्थित थे और मज़दूरों द्वारा उत्पादित अधिशेष का विनियोजन राज्य कर रहा था। इसी प्रकार इस्तेवान मेस्ज़ारोस का मानना है कि सामाजिक-आर्थिक मेटाबॉलिज़्म को प्रबन्धित करने का सोवियत तरीका एक उत्तर-पूँजीवादी तरीका था, इसलिए 1930 के दशक को पूँजीवादी नहीं माना जायेगा लेकिन साथ ही उसे समाजवादी भी नहीं माना जायेगा क्योंकि उसमें विनिमय के लिए उत्पादन नहीं हो रहा था (ग़लत!), श्रम शक्ति माल नहीं थी, अधिशेष का विनियोजन निजी पूँजीपति वर्ग के सदस्य नहीं कर रहे थे (ग़लत पैमाना!)! इसी प्रकार चार्ल्स बेतेलहाइम सोवियत संघ को स्तालिन के दौर में ही विशेष किस्म का पूँजीवाद मानते हैं क्योंकि मज़दूरों का उत्पादन की प्रक्रिया पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण नहीं था, बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी थी, वेतन के अन्तर मौजूद थे, ‘वन-मैन मैनेजमेण्ट’ की व्यवस्था लागू थी, और राजकीय बुर्जुआजी ‘पूँजी की फंक्शनरी’ में तब्दील हो एक सामूहिक पूँजी का प्रबन्धन कर रही थी! इसी प्रकार ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के राजनीतिक नौदौलतिये मानते हैं कि समाजवाद की पहचान का पहला पैमाना प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव समाप्त होना है। अब इन सभी विश्लेषणों के (आख़िरी को छोड़कर, जिसे कि ‘विश्लेषण’ कहना ‘विश्लेषण’ शब्द के अर्थ बदलना होगा!) बीच एक चीज़ साझा है—वर्ग विश्लेषण का अनुपस्थित होना। इस तरह के विश्लेषण इस समय भारत में भी तमाम संगठन और बुद्धिजीवी पेश कर रहे हैं। ऐसे में, सबसे पहले हमें समाजवाद के पहचान की मूल कसौटी पर मार्क्सवादी-लेनिनवादी समझदारी के बारे में एक स्पष्ट समझ बनानी ज़रूरी है।

किसी भी सामाजिक-आर्थिक संरचना के चरित्र के निर्धारण की मूल कसौटी है राज्यसत्ता का चरित्र और क्रान्ति के कार्यक्रम का चरित्र। मार्क्सवाद की बुनियादी शिक्षाओं में से एक यह है कि किसी भी राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र सामाजिक संरचना के चरित्र को निर्धारित करने वाला पहला और सबसे महत्वपूर्ण पैमाना है। निश्चित तौर पर यहाँ त्रॉत्स्की और त्रॉत्स्कीपन्थी पद्धति का पालन करने वाले संगठनों (मिसाल के तौर पर एस.यू.सी.आई.) जो कि सरकार के स्वरूप और राज्यसत्ता के स्वरूप को गड्डमड्ड कर देते हैं, के बारे में एक स्पष्टीकरण देना ज़रूरी है। 1905 में लेनिन, त्रॉत्स्की और मेंशेविकों के बीच क्रान्ति की मंज़िल और उसके वर्ग संश्रय को लेकर एक बहस चली। त्रॉत्स्की का मानना था कि अगर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में क्रान्तिकारी आन्दोलन का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में है तो वह सीधे सर्वहारा अधिनायकत्व को स्थापित करेगी और क्रान्ति के बाद तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करेगी, जबकि लेनिन का मानना था कि यदि क्रान्तिकारी आन्दोलन के नेतृत्व में सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी है और क्रान्ति के बाद सरकार केवल कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में आती है, तो भी वह राज्य सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व नहीं बल्कि मज़दूरों और किसानों के जनवादी अधिनायकत्व को स्थापित करेगा और तत्काल समाजवादी कार्यक्रम को लागू करने की बजाय पहले वह बुर्जुआ क्रान्ति को सबसे आमूलगामी रूप में सम्पन्न करेगी और उसके बाद सर्वहारा वर्ग और ग्रामीण अर्द्धसर्वहारा वर्ग के वर्ग मोर्चे के आधार पर विशिष्ट स्थितियों में बिना रुके समाजवादी कार्यक्रम की ओर आगे बढ़ेगी। त्रॉत्स्की ने जब लेनिन से पूछा कि जनवादी क्रान्ति की मंज़िल में सर्वहारा वर्ग सत्ता हासिल करने के बाद क्या रैडिकल बुर्जुआ पार्टियों से सत्ता साझा करेगा? अगर नहीं, तो वह राज्य जिस पर सर्वहारा वर्ग की पार्टी काबिज़ हो वह मज़दूरों और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व कैसे होगा? लेनिन ने इसका जवाब देते हुए कहा कि सरकार अकेले कम्युनिस्ट पार्टी बना सकती है या फिर वह अन्य बुर्जुआ जनवादी पार्टियों के साथ सरकार बना सकती है, लेकिन दोनों ही सूरत में यह सर्वहारा वर्ग और किसानों का संयुक्त अधिनायकत्व ही होगा, क्योंकि क्रान्ति के जनवादी कार्यक्रम के सर्वाधिक रैडिकल तरीके से अमल से आगे जाने के लिए अभी व्यापक जनसमुदाय तैयार नहीं है और समाजवादी कार्यक्रम को ऊपर से थोपकर जनवादी क्रान्ति की मंज़िल को लाँघा नहीं जा सकता है। लेनिन ने बताया कि त्रॉत्स्की का यह भ्रम इस वजह से है क्योंकि वह राज्य के स्वरूप और सरकार के स्वरूप को एक ही वस्तु समझते हैं। भारत में त्रॉत्स्की की ही पद्धति को लागू करते हुए एस.यू.सी.आई. और उससे निकले कई ग्रुप मानते हैं कि भारत में 1947 से ही समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल है! आगे बढ़ने से पहले इस भ्रम के बारे में स्पष्टता रखना ज़रूरी है कि राज्य के चरित्र के साथ यह भी समझना ज़रूरी है कि राज्य का चरित्र सिर्फ़ इस बात से निर्धारित नहीं हो जाता है कि सरकार किस पार्टी के हाथों में है, बल्कि इस बात से निर्धारित होता है कि वर्ग संघर्ष व क्रान्ति किस मंज़िल में हैं।

बहरहाल, राज्य का वर्ग चरित्र वह पहला और सबसे अहम पैमाना है जो कि किसी सामाजिक संरचना के चरित्र को निर्धारित करता है। यानी कि अगर सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी राज्यसत्ता पर काबिज़ है और उसका इरादा समाजवादी कार्यक्रम को लागू करने का है तो यह मानना होगा कि उस सामाजिक संरचना का चरित्र समाजवादी है। समाजवादी रूपान्तरण के अन्य सभी पहलू इसके बाद आते हैं। मिसाल के तौर पर, उत्पादन के साधनों पर सामूहिक मालिकाने का स्थापित होना और निजी सम्पत्ति का उद्योग और कृषि के क्षेत्र से ख़ात्मा, प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण और मज़दूर वर्ग के हाथों में फ़ैसले की ताक़त को सौंपना राज्यसत्ता पर सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के स्थापित होने के बाद ही होगा।

2) समाजवादी संक्रमण और अलगाव का प्रश्न

‘मज़दूर मुक्ति प्रकाशन’ के गौतम सेन (जो कि त्रॉत्स्कीपन्थ, अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और रोज़ा लग्ज़मबर्ग के पुराने विचारों का एक मूर्खतापूर्ण मिश्रण बनाते हैं) से लेकर एक अलग रूप में ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के सुजीत दास तक (जो कि बोल्शेविक पार्टी के शुरुआती “वामपन्थी” विपक्ष, डेमोक्रैटिक सेण्ट्रलिज़्म ग्रुप, वर्कर्स अपोज़ीशन और आरम्भिक त्रॉत्स्कीपन्थ की अवस्थितियों की बेमेल खिचड़ी पकाते हैं) और पॉल स्वीज़ी और चार्ल्स बेतेलहाइम से लेकर रणधीर सिंह और इस्तेवान मेस्ज़ारोस तक, तमाम क्रान्तिकारी ग्रुप और बुद्धिजीवी इस सबसे बुनियादी प्रस्थापना को गोल कर जाते हैं। यह दावा किया जाता है कि चूँकि उत्पादन के साधनों और उत्पादकों के बीच अलगाव समाप्त नहीं हुआ था, इसलिए सोवियत संघ में समाजवाद की शुरुआत तो हुई लेकिन समाजवादी व्यवस्था स्थापित नहीं हो पायी। इनमें से तमाम इस अलगाव के समाप्त होने को समाजवाद का पहला सबसे प्रमुख पैमाना या मानक मानते हैं। यह लेनिन के शिक्षा के बिल्कुल विपरीत है। और अलगाव को ख़त्म करने की भी इनकी समझदारी यह है कि अगर प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण स्थापित हो गया तो अलगाव समाप्त हो जाता है! स्पष्ट है कि इन बुद्धिजीवियों की अलगाव की परिघटना की मार्क्सवादी अवधारणा के विषय में भी समझदारी अधूरी है। मार्क्स ने ‘1844 की आर्थिक व दार्शनिक पाण्डुलिपियाँ’ में लिखा था:

“मज़दूर जितनी समृद्धि पैदा करता है, जितना उसका उत्पादन अपनी शक्ति और आकार को बढ़ाता है, वह उतना ही दरिद्र होता जाता है। वह जितने माल पैदा करता है, वह उतना ही सस्ता माल बनता जाता है। मनुष्यों की दुनिया का अवमूल्यन वस्तुओं की दुनिया बढ़ते मूल्य के साथ प्रत्यक्ष समानुपात में होता है। श्रम न सिर्फ़ माल पैदा करता है, यह स्वयं को और मज़दूर को भी एक माल के रूप में पैदा करता है—और यह उसी दर से होता है जिस दर से वह आम तौर पर मालों का उत्पादन करता है।

“यह तथ्य महज़ इतना बताता है कि श्रम जिस वस्तु को पैदा करता है—श्रम का उत्पाद—वह उसके सामने एक परायी चीज़ के रूप में खड़ा हो जाता है, उत्पादक से स्वतन्त्र एक शक्ति के रूप में खड़ा हो जाता है। श्रम का उत्पाद वह श्रम है जो कि एक वस्तु में मूर्त रूप ग्रहण कर चुका है, जो भौतिक बन चुका है: यह श्रम का वस्तुकरण है। श्रम की अनुभूति इसका वस्तुकरण है। इन आर्थिक स्थितियों के तहत श्रम की यह अनुभूति मज़दूरों की लिए अनुभूति के खो जाने के रूप में प्रकट होती है; वस्तुकरण वस्तु के खो जाने और उसकी गुलामी के रूप में; हस्तगतीकरण बेगानेपन के रूप में, अलगाव के रूप में। (मार्क्स, इकोनॉमिक एण्ड फिलोसॉफिकल मैन्युस्क्रिप्ट्स ऑफ़ 1844, पाँचवाँ संशोधित अंग्रेज़ी संस्करण, 1977, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 67–68, अनुवाद हमारा)

यह अलगाव का पहला और सबसे अहम पहलू है, यानी कि एक परायी शक्ति द्वारा श्रम के उत्पाद का हस्तगतीकरण। निश्चित तौर पर इसकी एक अभिव्यक्ति पूँजीवादी समाज में यह होती है कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर कोई नियन्त्रण नहीं होता है। लेकिन अलगाव की पूरी परिघटना को नियन्त्रण के प्रश्न पर अपचयित कर देना वास्तव में रोग के मूल को रोग के लक्षण के साथ गड्डमड्ड कर देना है। पूँजीवादी समाज में मज़दूर का श्रम वस्तुकृत होकर, पूँजीपति वर्ग द्वारा विनियोजित होकर, पूँजी संचय का रूप ग्रहण करके मज़दूरों के विरुद्ध खड़ी एक शत्रुतापूर्ण शक्ति का स्वरूप ले लेता है जो कि मज़दूरों को सड़कों पर खदेड़ कर बेकारों की भीड़ में शामिल कर देता है। लेकिन इस पूरी परिघटना का मूल कारण क्या है? यह कारण है एक शत्रुतापूर्ण शक्ति यानी कि पूँजीपति वर्ग द्वारा मज़दूरों की मेहनत के उत्पाद का हस्तगतीकरण। और इसी वजह से अलगाव की अभिव्यक्ति अलगाव की परिघटना के दूसरे अहम पहलू में प्रकट होती है। मार्क्स लिखते हैं:

“…यह अलगाव केवल परिणाम में अभिव्यक्त नहीं होता बल्कि उत्पादन की कार्रवाई में, स्वयं उत्पादक गतिविधि में भी अभिव्यक्त होता है। मज़दूर अपनी गतिविधि के उत्पाद से एक अजनबी की तरह टकराये ऐसा कैसे सम्भव होगा, अगर वह उत्पादन की कार्रवाई के दौरान ही अपने आपको खुद से अलग नहीं कर रहा होगा? उत्पाद आख़िर उसकी, उत्पादन की गतिविधि का ही तो निचोड़ है। अगर फिर श्रम का उत्पाद अलगाव है, तो उत्पादन को भी सक्रिय अलगाव, गतिविधि का अलगाव और अलगाव की गतिविधि होना चाहिए।… पहली बात यह कि श्रम मज़दूर के लिए बाह्य है, यानी कि वह उससे आन्तरिक प्रकृति से नहीं जुड़ा है; कि वह अपने काम में इसीलिए, अपनी पुष्टि नहीं करता बल्कि अपना नकार करता है, सन्तुष्ट महसूस नहीं करता, बल्कि नाखुश रहता है, अपनी शारीरिक और मानसिक ऊर्जा का मुक्त विकास नहीं करता बल्कि अपने शरीर को मृत बनाता जाता है और अपने मस्तिष्क को बरबाद कर देता है। इसलिए मज़दूर अपने आपको तभी महसूस कर पाता है जब वह काम के बाहर होता है।… इसलिए उसका श्रम स्वैच्छिक नहीं बल्कि ज़बरिया श्रम है। इसलिए यह किसी आवश्यकता की पूर्ति नहीं है; यह उसके लिए बाह्य आवश्यकताओं को सन्तुष्ट करने के लिए एक माध्यम मात्र है। इसका अलगावपूर्ण चरित्र उसी समय ज़ाहिर हो जाता है कि जब कोई शारीरिक या अन्य बाध्यता नहीं होती, तो श्रम से वह वैसे ही दूर भागता है जैसे कि प्लेग से।… श्रम की यह बाह्य प्रकृति इस तथ्य में दिखती है कि यह उसका श्रम नहीं है, बल्कि किसी और का है, कि वह उसका मालिक नहीं है, और श्रम करते समय इसीलिए वह स्वयं का मालिक नहीं होता, बल्कि उसका मालिक कोई और होता है।” (वही, पृ. 70–71)

यह अलगाव की प्रक्रिया का दूसरा पहलू है और इसका बुनियादी कारण यही है वह अपने लिए नहीं बल्कि किसी और के लिए श्रम कर रहा होता है। अन्त में मार्क्स सार-संक्षेप करते हुए लिखते हैं, “हमने व्यावहारिक मानवीय गतिविधि, यानी कि श्रम के अलगाव की कार्रवाई को इसके दो पहलुओं में समझा है। (1) मज़दूर का अपने श्रम के उत्पाद से एक परायी वस्तु के तौर पर रिश्ता जो कि उस पर शासन कर रही है।… (2) श्रम का श्रम प्रक्रिया के भीतर उत्पादन की कार्रवाई से एक परायी गतिविधि के तौर पर रिश्ता, जो कि उसके लिए नहीं है।” (वही, पृ. 70–71)

मार्क्स ने अलगाव की पूरी प्रक्रिया के जिन दो पहलुओं की बात की है, जो वास्तव में एक-दूसरे से घनिष्ठता से जुड़े हुए हैं, उसी के आधार पर अलगाव को दूर करने की पूरी परियोजना के दो पहलुओं की बात की जा सकती है। इस प्रक्रिया की शुरुआत का पहला चरण सर्वहारा वर्ग द्वारा अपना अधिनायकत्व और अपना राज्य स्थापित करने और उसके साथ निजी सम्पत्ति के क़ानूनी तौर पर उन्मूलन के साथ ही शुरू हो सकता है। अक्टूबर 1917 में जो हुआ वह इसी चरण की शुरुआत थी। और यह चरण 1936 में कृषि क्षेत्र में सामूहिकीकरण की प्रक्रिया समाप्त होने के साथ पूरा हुआ। ज़ाहिर है, निजी सम्पत्ति के क़ानूनी तौर पर उन्मूलन के साथ पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्ध पूर्णतः समाप्त नहीं हो जाते। लेकिन इस चरण को पूरा किये बग़ैर आगे बढ़ने की बात सोची भी नहीं जा सकती है। सभी कारखानों, खानों-खदानों, भूमि और बैंकों के सामूहिक सम्पत्ति बने बग़ैर उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया में निहित अलगाव के स्रोतों को ख़त्म नहीं किया जा सकता है। कहा जा सकता है कि सर्वहारा सत्ता की स्थापना और फिर निजी सम्पत्ति का ख़ात्मा मज़दूर वर्ग के अलगाव को समाप्त करने की दिशा में पहले और सबसे बुनियादी ऐतिहासिक कदम होते हैं, और सोवियत संघ में लेनिन और स्तालिन के नेतृत्व में मज़दूर वर्ग ने इस काम को अंजाम दिया।

अलगाव को ख़त्म करने की कम्युनिस्ट परियोजना के दूसरे चरण की बात करने से पहले एक बात को समझ लेना ज़रूरी है। समाजवादी संक्रमण की पूरी ऐतिहासिक अवधि में उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया में निहित अलगाव पूरी तरह ख़त्म नहीं हो सकता है। क्योंकि समाजवादी संक्रमण के दौरान भी उत्पादों के हस्तगतीकरण का एक पहलू मौजूद होता है। अभी भी उज़रती श्रम मौजूद होता है; अभी हर किसी को उसके श्रम के अनुसार वेतन मिलता है; अभी ‘सभी से उनकी क्षमता के अनुसार, और सभी को उनकी आवश्यकता के अनुसार’ का कम्युनिस्ट सिद्धान्त लागू नहीं होता है। ऐसा तभी हो सकता है जब माओ के शब्दों में ‘क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखते हुए, उत्पादन को बढ़ाते जाने’ की प्रक्रिया को आगे बढ़ाया जाये, यानी कि अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति को जारी रखते हुए, बुर्जुआ वर्ग पर सर्वतोमुखी अधिनायकत्व क़ायम रखते हुए, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं (मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम, उद्योग और कृषि तथा गाँव और शहर के बीच के विभेद) को मिटाते हुए, उत्पादक शक्तियों का लगातार विकास किया जाये और उत्पादन को प्रचुरता की मंज़िल तक पहुँचाया जाये। बताने की आवश्यकता नहीं है कि यह पूरी प्रक्रिया एक देश के पैमाने पर पूरी नहीं हो सकती है। इस प्रक्रिया के पराकाष्ठा पर पहुँचने के साथ ही अलगाव का ख़ात्मा हो सकता है। यह पूरी प्रक्रिया एक वर्ग संघर्ष की प्रक्रिया होती है, जिसे कि सत्तासीन सर्वहारा वर्ग को अपनी पार्टी के नेतृत्व में चलाना होता है। अलगाव ख़त्म करने के लिए सोवियत सरकार कोई आज्ञप्ति जारी कर प्रत्यक्ष उत्पादकों को उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण नहीं सौंप सकती थी; अगर ऐसा कर भी दिया जाता तो उससे अलगाव ख़त्म नहीं हो सकता था। वास्तव में, बोल्शेविक क्रान्ति के तत्काल बाद यह हुआ भी था। फरवरी क्रान्ति के बाद से ही मज़दूरों की कारखाना समितियों ने कारखानों पर कब्ज़ा करना शुरू कर दिया था। अक्टूबर क्रान्ति के बाद भी यह प्रक्रिया जारी रही। शुरुआत में इन्हें राज्य और पार्टी द्वारा मान्यता मिली क्योंकि यह मज़दूरों की क्रान्तिकारी ऊर्जा का परिणाम था। लेकिन फैक्टरी कमेटी आन्दोलन बुरी तरह असफल हुआ। अलग-अलग कारखाने के मज़दूर महज़ अपने हितों के बारे में सोच रहे थे। एक कारखाने ने दूसरे कारखाने से विनिमय करने से कई मौकों पर इंकार कर दिया। कई कारखानों ने सोवियत सत्ता से अपने उत्पादों का विनिमय करने से इंकार कर दिया। अलग-अलग कारखाना कमेटियाँ उस समय काले बाज़ार में अपने उत्पादों को बेच रही थीं और अपने निजी हितों के बारे में सोच रही थीं। यहाँ पर स्पष्ट देखा जा सकता है कि केवल ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण स्थापित हो जाने से पूँजीवादी सम्बन्ध समाप्त नहीं हो जाते। लेनिन को इस विषय में कोई ग़लतफ़हमी नहीं थी। देखिये कि वह क्या कहते हैं: “मज़दूर कभी भी पुराने समाज से किसी चीन की दीवार से अलग नहीं किये गये थे। और उन्होंने पूँजीवादी समाज की पारम्परिक मानसिकता को काफी मात्रा में बचा रखा है। मज़दूर एक नया समाज स्वयं नये लोग बने बग़ैर बना रहे हैं, वे यह निर्माण अपने आपको पुरानी गन्दगी से मुक्त किये बिना कर रहे हैं; वे अभी भी घुटनों तक इस गन्दगी में डूबे हुए हैं।” (लेनिन, दूसरी अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में रिपोर्ट, जनवरी 1919)। यह लेनिन ठीक उसी समय कह रहे थे, जब फैक्टरी कमेटियाँ संकुचित पेशागत मानसिकता और टटपुँजिया पूँजी संचय की मानसिकता से काम कर रही थीं। फैक्टरी कमेटियों के तहत, यानी ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ के नियन्त्रण के तहत यहाँ क्या हो रहा था? यहाँ पर अभी भी पूँजीवादी उत्पादन ही हो रहा था! अब पूँजीपति की इकाई की जगह फैक्टरी कमेटी ने ले ली थी। लेकिन इन फैक्टरी कमेटियों की निगाह में पूरे मज़दूर वर्ग का हित नहीं था बल्कि अलग-अलग कारखानों के मज़दूरों का हित था। जाहिर है, ऐसी विसर्जित, विखण्डित फैक्टरी कमेटी अर्थव्यवस्था का कोई भविष्य नहीं हो सकता था। नतीजतन, अच्छी-ख़ासी संख्या में वे कारखाने बन्द हो गये जो फैक्टरी कमेटियों के नेतृत्व में थे; कई जगह मज़दूर मशीनों को बेचकर पैसे कमाकर गाँव चले गये; कई मामलों में फैक्टरी कमेटियों ने कारखानों को पुराने पूँजीपतियों के हवाले कर दिया क्योंकि उन्हें पूरी उत्पादन प्रक्रिया का प्रबन्धन नहीं आता था। रूस में 1918–19 में जो आर्थिक विघटन की प्रक्रिया चली, उसमें किसानों द्वारा की गयी तोड़-फोड़ के अलावा मज़दूरों के बीच मौजूद यह अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी रुझान भी ज़िम्मेदार था। इसके बाद, फैक्टरी कमेटियों को ट्रेड यूनियनों के अन्तर्गत किया गया। यह प्रक्रिया 1918 के दिसम्बर में पूरी हो चुकी थी। 1918 से 1920 के बीच त्रॉत्स्की की ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण की कार्यदिशा काफ़ी हद तक “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर के दबाव के कारण लागू हुई। उसके बाद लेनिन ने ट्रेड यूनियनों के राजकीयकरण और उन्हें पार्टी का जेबी माल बनाने की नीति का विरोध करते हुए ट्रेड यूनियनों के सापेक्षिक स्वायत्तता की नीति का समर्थन किया; आगे हम देखेंगे कि लेनिन ने ट्रेड यूनियनों की भी निरपेक्ष स्वायत्तता का विरोध किया और कहा कि ट्रेड यूनियनें भी पार्टी के संस्थागत नेतृत्व के तहत ही समाजवादी संक्रमण में अपनी ज़िम्मेदारियों को निभा सकती हैं, अन्यथा फैक्टरी कमेटियों के ही समान वे अन्ततः अर्थवाद के गर्त में जा गिरेंगी, बस फर्क यह होगा कि फैक्टरी कमेटियों के अर्थवाद की बुनियादी इकाई एक कारखाना था और ट्रेड यूनियनों के अर्थवाद की बुनियादी इकाई एक उद्योग या पेशा होगा। अलगाव ख़त्म होने का रिश्ता सबसे पहले एक शत्रुतापूर्ण वर्ग द्वारा मज़दूर वर्ग द्वारा उत्पादित अधिशेष के विनियोजन से है; मज़दूर वर्ग यदि राजनीतिक तौर पर तैयार नहीं है और उसे स्वतःस्फूर्त तरीके से सभी कल-कारखानों का नियन्त्रण बिना हिरावल पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व दे दिया जाये, तो वही होगा जो कि बोल्शेविक क्रान्ति के बाद फैक्टरी कमेटी आन्दोलन के साथ रूस में हुआ था। और इस पर अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और मज़दूरवादी नाराज़ भी नहीं हो सकते हैं क्योंकि फैक्टरी कमेटी आन्दोलन में कम्बख़्त हिरावल पार्टी का कोई हस्तक्षेप या योगदान नहीं था! बहरहाल, हम समाजवादी संक्रमण के दौरान अलगाव के प्रश्न पर वापस लौटते हैं।

अलगाव के ख़त्म होने को समाजवाद की पहली कसौटी मानने वाले लोग यह भी नहीं समझते हैं कि पूँजीवादी समाज और समाजवादी समाज में जारी अलगाव के बीच एक बुनियादी फर्क होता है और उन दोनों को एक श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है। यहाँ पर भी इन बुद्धिजीवियों में हम जिस चीज़ का अभाव देखते हैं वह है वर्ग विश्लेषण। यह सच है कि जब तक मज़दूर वर्ग एक वर्ग के तौर पर उत्पादन-सम्बन्धी, श्रम प्रक्रिया-सम्बन्धी और शासन-सम्बन्धी सभी निर्णय स्वयं लेना नहीं सीख लेता है, तब तक अलगाव का एक तत्व आर्थिक तौर पर मौजूद रहता है। इस पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन जब तक मज़दूर वर्ग की हिरावल पार्टी उसे संस्थाबद्ध नेतृत्व देते हुए निर्णय लेना सिखाती है और ‘स्वयं निर्णय लेती है’, तब तक यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि यहाँ अधिशेष को विनियोजित करने वाली शक्ति कौन है? निश्चित तौर पर राज्यसत्ता और उसके निकाय। और इस राज्यसत्ता का चरित्र क्या है? इसकी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता है सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व। लेनिन के अनुसार सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण क्या है? सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी। पार्टी का सर्वहारा चरित्र किस बात से तय होता है? उसके नेतृत्व, नीतियों और काडर शक्ति (इसी क्रम में) के संघटन से। लेनिन के इस कथन पर ग़ौर करें: “…कोई पार्टी वास्तव में मज़दूरों की राजनीतिक पार्टी है या नहीं, यह बात पूरी तरह मज़दूरों की सदस्यता होने पर निर्भर नहीं करती है, बल्कि उन लोगों पर भी निर्भर करती है जो उसका नेतृत्व करते हैं, इसकी कार्रवाइयों की अन्तर्वस्तु और इसके राजनीतिक रणकौशल पर भी निर्भर करती है।” (लेनिन, ‘कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल की दूसरी कांग्रेसः ब्रिटिश लेबर पार्टी से सम्बन्ध पर भाषण’, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-31, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, 1966, पृ. 257–58)। अब अगर इन बुनियादी सूत्रों की रोशनी में हम पूछें कि 1917 से 1953 तक के सोवियत संघ में मौजूद राज्यसत्ता और पार्टी का चरित्र क्या था, तो जवाब क्या होगा? लेकिन समस्या यह है कि पॉल स्वीज़ी, रणधीर सिंह जैसे कीन्सीय पद्धति का अनुसरण करने वाले, मेस्ज़ारोस जैसी हेगेलीय मार्क्सवादी पद्धति का अनुसरण करने वाले, बेतेलहाइम जैसी “अति-माओवादी” (पढ़ें अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और प्रत्ययवादी) और ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ जैसी खुली अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति अपनाने वाले यह सवाल पूछते ही नहीं! क्योंकि उनके लिए पार्टी और राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र अहमियत रखता ही नहीं है। यही कारण है कि स्वीज़ी और रणधीर सिंह-ब्राण्ड विश्लेषण इस हास्यास्पद नतीजे पर पहुँच जाता है कि सोवियत समाज न तो पूँजीवादी समाज था और न ही समाजवादी समाज, बल्कि वह एक विशिष्ट प्रकार की उत्तर-क्रान्तिकारी सामाजिक संरचना थी जिसे वे सोवियत तन्त्र या सोवियत सामाजिक संरचना का नाम देते हैं! वर्ग विश्लेषण को पूरी तरह भूल चुका व्यक्ति ही ऐसे अर्थहीन नतीजे तक पहुँच सकता है। सच यह है कि कम्युनिस्ट समाज की मंज़िल आने से पहले समाजवादी संक्रमण की पूरी मंज़िल में अलगाव मौजूद रहेगा (क्योंकि वस्तुओं का मालों के रूप में उत्पादन अभी जारी रहता है, विनिमय सम्बन्ध बरक़रार रहते हैं, लोग अपने कार्य के अनुसार वेतन प्राप्त करते हैं, बुर्जुआ अधिकारों की मौजूदगी होती है, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ मौजूद होती हैं)। लेकिन समाजवादी समाज में अलगाव पूँजीवादी समाज में मौजूद अलगाव से भिन्न होता है क्योंकि पूँजीवादी समाज में हस्तगतीकृत अधिशेष पूँजीपति वर्ग के हाथों में संचित होता हुआ मज़दूर वर्ग के लिए एक विशाल शत्रुतापूर्ण शक्ति बन जाता है, जो उसे बाद में सड़कों पर खदेड़ देता है और उसके जीवन की बुनियादी शर्तों से भी उसे महरूम कर देता है। लेकिन समाजवादी संक्रमण काल में ऐसा नहीं होता। समाजवादी संक्रमण काल में हस्तगतीकृत अधिशेष संचित होकर वापस मज़दूर वर्ग के ही जीवन के स्तरोन्नयन और बेहतरी के लिए वापस लौटता है। 1917 से 1956 के बीच में सोवियत संघ ने समूची मेहनतकश आबादी के जीवन को अभूतपूर्व रूप से स्तरीय और उत्कृष्ट बनाया था, जिसे कि ग़ैर-मार्क्सवादी ईमानदार प्रेक्षक भी मानने को मजबूर थे। निश्चित तौर पर, अभी इस पूरी प्रक्रिया को स्वयं मज़दूर वर्ग नहीं संचालित कर रहा है बल्कि उसके उन्नत तत्व उसकी हिरावल पार्टी के नेतृत्व में संचालित कर रहे हैं। लेकिन मज़दूर वर्ग जानता है कि समाज के सभी संसाधन उसकी साझा सम्पत्ति हैं और वह एक वर्ग के तौर पर उनका मालिक है और यह भी कि अपनी हिरावल पार्टी के ज़रिये वह ही शासन कर रहा है। मार्क्स ने अलगाव के जो दो पहलू बताये थे, उनमें से पहले का कमोबेश निवारण हो चुका है, और दूसरे का निवारण होने का कार्य अभी बाकी है।

दूसरा चरण तब तक नहीं पूरा हो सकता है जब तक कि शासन-सम्बन्धी और उत्पादन-सम्बन्धी सभी कार्यों को मज़दूर वर्ग धीरे-धीरे स्वयं अपने हाथ में लेने की स्थिति में नहीं पहुँच जाता है। यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है कि सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी इस काम को किस हद तक अंजाम दे सकी। इस मुद्दे पर हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन जो भी यह समझता है कि सोवियत संघ में समाजवादी संक्रमण के दौरान अलगाव बढ़ा (जैसे कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी’) वह न तो अलगाव की पूरी परिघटना को समझता है और न ही समाजवादी संक्रमण की प्रकृति को। अगर कोई आज्ञप्ति या कार्यकारी आदेश जारी कर अलगाव को समाप्त करना सम्भव होता तो समाजवादी संक्रमण की अवधि सिर्फ़ एक दिन की होती, जिसमें कि सर्वहारा राज्य ये सारी आज्ञप्तियाँ जारी कर आत्म-विलोपन कर लेता और समाज कम्युनिज़्म की मंज़िल में प्रवेश कर जाता! पूरी कम्युनिस्ट परियोजना का मूल लक्ष्य ही अलगाव का समापन है और जो समाजवादी संक्रमण की लम्बी ऐतिहासिक अवधि में जारी वर्ग संघर्ष के चरित्र को नहीं पहचानता वही अलगाव को ख़त्म करने के लिए ऐसी बचकानी बातें कर सकता है। दूसरी बात यह कि अलगाव की पूरी परिघटना को प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधन पर नियन्त्रण पर अपचयित करना एक अर्थवादी नियतत्ववाद (economic determinism) ही है, कह सकते हैं कि एक किस्म का “वामपन्थी” अर्थवादी नियतत्ववाद।

3) कुछ प्रचलित विभ्रमों के बारे में…

कुछ प्रश्नों पर सोवियत समाजवाद के तमाम आलोचकों और अध्येताओं में पर्याप्त भ्रम है। मिसाल के तौर पर हमें सोवियत संघ के बारे में कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और बाहर लिखी गयीं तमाम ऐसी मार्क्सवादी रचनाएँ मिल जाएँगी जो कि अन्त में इस नतीजे पर पहुँचती हैं कि सोवियत संघ में सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व नहीं था, बल्कि सर्वहारा वर्ग पर अधिनायकत्व था; पार्टी ने वर्ग को प्रतिस्थापित कर दिया था; पार्टी ने वर्ग पर शासन करना शुरू कर दिया था; पार्टी और राज्य सत्ता संलयित हो गये थे; राज्य विलोपित होने की बजाय और शक्तिशाली बन गया था; सोवियतों और ट्रेड यूनियनों की स्वायत्तता को पार्टी और राज्य ने समाप्त कर दिया था; मज़दूर वर्ग राजनीतिक तौर पर सुषुप्त या निष्क्रिय हो गया था; मज़दूर वर्ग का राजनीतिक संगठन समाप्त हो गया था; किसानों से ज़बरन अधिशेष वसूली की गयी थी, वगैरह। ये विचार भी वास्तव में जिस चीज़ को दिखलाते हैं वह है वर्ग विश्लेषण का अभाव। मिसाल के तौर पर, इनमें से ज़्यादातर प्रश्नों पर प्रतिप्रश्न किये जा सकते हैं जैसे कि पार्टी की वर्ग पर तानाशाही थी, तो पार्टी किस वर्ग का प्रतिनिधित्व कर रही थी? क्या राज्य समाजवादी क्रान्ति के बाद तत्काल विलोपित होना शुरू हो जाता है? मज़दूर वर्ग का राजनीतिक संगठन समाप्त हो गया था तो पार्टी क्या थी? क्या पार्टी मज़दूर वर्ग का राजनीतिक संगठन नहीं थी? क्या समाजवादी संक्रमण की पूरी अवधि के दौरान समूचे किसान वर्ग को अविभेदीकृत रूप में देखा जा सकता है? क्या समाजवादी संक्रमण के दौरान समूची किसान आबादी समाजवादी कार्यक्रम पर सहमत हो सकती है? इसी प्रकार के और कई प्रश्न पूछे जा सकते हैं लेकिन प्रतिप्रश्नों के ज़रिये अपनी अवस्थिति साफ़ करने के बजाय हम सकारात्मक तौर पर अपनी अवस्थिति पेश करना चाहेंगे। हम आम तौर पर पार्टी, वर्ग, राज्य, ट्रेड यूनियन और किसानों के प्रश्न पर सोवियत समाजवाद की पेश की जाने वाली आलोचनाओं के बरक्स ही सिलसिलेवार अपनी बात रखेंगे।

किसान प्रश्न पर सबसे पहले। कई मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों ने सोवियत समाजवाद की आलोचना रखते हुए कहा है कि सोवियत संघ में “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर में, 1929 के आपातकालीन कदमों के दौर में और फिर 1930 से 1936 के बीच सामूहिकीकरण आन्दोलन के दौर में ज़ोर-ज़बर्दस्ती की गयी और इस चीज़ ने समाजवाद को आगे बढ़ाने की बजाय पीछे की ओर धकेला। सबसे अहम बात तो यह है कि आम तौर पर इस प्रकार की सभी आलोचनाएँ समाजवाद के दौर में समूची किसान आबादी को एक अविभेदीकृत आबादी के रूप में देखती हैं। लेनिन का स्पष्ट तौर पर मानना था कि सर्वहारा वर्ग पहले समूची किसान आबादी के साथ मिलकर निरंकुश राजतन्त्र और सामन्तवाद के विरुद्ध बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति को सबसे रैडिकल ढंग से सम्पन्न करेगा और उसके बाद, ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा (ग़रीब किसान) और निम्न मँझोले किसान वर्ग (जो उजरती श्रम का शोषण नहीं करता) के साथ मिलकर समाजवादी क्रान्ति को अंजाम देगा। लेनिन ने कहा कि कृषि में समाजवादी रूपान्तरण के लिए सर्वहारा वर्ग जिन वर्गों पर सबसे ज़्यादा निर्भर कर सकता है वह है ग्रामीण सर्वहारा और अर्द्धसर्वहारा आबादी, जबकि निम्न मँझोला किसान वर्ग समाजवादी क्रान्ति का ढुलमुलयक़ीन मित्र होगा। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी का कार्य इस दौर में मँझोले किसान आबादी को पहले जीतने का प्रयास करना, जिन्हें वह समाजवादी कार्यक्रम पर राज़ी न कर सके, उन्हें समाजवादी रूपान्तरण के ख़िलाफ़ न जाने के लिए राज़ी करना और जो फिर भी समाजवादी क्रान्ति के ख़िलाफ़ जाये, उन्हें विलग करना होगा। समाजवादी रूपान्तरण के दौरान ग्रामीण पूँजीपति वर्ग का सम्पत्ति-हरण प्रमुख कार्यभार होगा। यह बात दीगर है कि सोवियत संघ में कृषि के समाजवादी रूपान्तरण की प्रक्रिया इस वांछित कार्यक्रम के अनुसार नहीं चली और चूँकि समाजवादी क्रान्ति को कृषि क्षेत्र में पहले बुर्जुआ भूमि सुधारों को आमूलगामी ढंग से लागू करने का कार्य पूरा करना पड़ा इसलिए कई ऐसी विकृतियाँ पैदा हुईं जिसके कारण कृषि क्षेत्र में लम्बे समय तक समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना नहीं की जा सकी। साथ ही, गृहयुद्ध और साम्राज्यवादी घेरेबन्दी और हस्तक्षेप से निपटने के लिए “युद्ध कम्युनिज़्म” और जो असामान्य दौर चला, उसने तेज़ी से कृषि क्षेत्र में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के स्थापना के कार्य को दुरूह बना दिया और ‘नई आर्थिक नीतियों’ (नेप) के दौर में लम्बे समय तक मँझोले किसानों और व्यापारियों के वर्ग को खुला हाथ देना पड़ा। अगर ऐसा न किया जाता तो सोवियत सत्ता का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ जाता। इतना स्पष्ट है कि यह उन विशिष्ट परिस्थितियों के कारण हुआ था जिसमें सोवियत राज्यसत्ता और बोल्शेविक पार्टी ने अपने आप को क्रान्ति के बाद पाया। यह कृषि के समाजवादी रूपान्तरण की आम और सार्वभौमिक दिशा नहीं थी। लेनिन इस विषय में स्पष्ट थे कि समाजवादी रूपान्तरण के दौरान धनी किसानों और उच्च मध्यम किसानों और साथ ही निम्न मध्यम किसानों के भी कुछ हिस्सों के साथ ज़ोर-ज़बर्दस्ती करनी पड़ सकती है। सातवीं अखिल रूसी सोवियत कांग्रेस में लेनिन ने कहा, “बुर्जुआ वर्ग माल उत्पादन से पैदा होता है; जिस किसान के पास सैकड़ों पूड अनाज का अधिशेष है जिसकी उसे अपने और अपने परिवार के लिए ज़रूरत नहीं है और जिसे वह मज़दूरों के राज्य को भूखे मज़दूरों की सहायता के लिए ऋण के तौर पर नहीं देता, और माल उत्पादन की प्रभावी परिस्थितियों में उसके बूते पर मुनाफ़ा कमाता है—वह क्या है? क्या वह बुर्जुआ नहीं है? क्या बुर्जुआ वर्ग इसी तरीके से पैदा नहीं होता है?” लेनिन ने अन्य कई जगहों पर मँझोले किसानों के दोहरे चरित्र के बारे में बात की थी। एक तरफ़ वह अपने खून-पसीने के बूते उत्पादन करता है, वहीं दूसरी ओर वह कई बार छोटे पैमाने पर उजरती श्रम का शोषण करता है और अधिशेष विनियोजन करता है। उसके सपने कुलकों और धनी किसानों जैसा बन जाने के होते हैं। इसलिए वह समाजवादी एजेण्डे पर सघन और सचेतन राजनीतिक प्रचार के साथ ही आयेगा और हमें इस मुग़ालते में भी नहीं रहना चाहिए कि पूरी की पूरी मँझोली किसानी समाजवाद के पक्ष में आ जायेगी। वास्तव में नेप के दौर में मँझोले किसानों को अस्थायी तौर पर मुनाफ़ा कमाने की छूट देने की मजबूरी को चार्ल्स बेतेलहाइम जैसे लोगों ने आम नियम के तौर पर दिखलाने की कोशिश की है और यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि समूची मँझोली किसानी को समाजवादी कार्यक्रम पर लाया जा सकता है। और इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि बेतेलहाइम और कोस्तास मावराकिस जैसे लोगों ने इस बात को ज़बरन माओ के मुँह में डाल दिया है, जबकि ‘सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना’ में माओ स्पष्ट शब्दों में मँझोले किसानों के अलग-अलग संस्तरों की बात करते हैं और उन्हें तीन हिस्सों में बाँटते हैं, और वस्तुतः इस बात के लिए स्तालिन-कालीन सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना करते हैं कि मँझोले किसानों को एक एकाश्मी वर्ग मान लिया गया है। लेकिन लेनिन इस विषय पर स्पष्ट रूप से मानते थे कि मँझोले किसानों का एक हिस्सा अन्ततः कुलकों और धनी किसानों के साथ जाकर खड़ा होगा और अगर सक्रिय तौर पर समाजवाद के विरुद्ध नहीं भी लड़ता तो एक निष्क्रिय असहयोग की नीति पर अमल करेगा। इन हिस्सों के साथ समाजवादी राज्य को समाजवादी निर्माण की प्रक्रिया में कभी न कभी ज़ोर-ज़बर्दस्ती करनी ही होगी।

इसी प्रकार एक और विभ्रम है जिसकी नुमाइन्दगी पॉल स्वीज़ी, रणधीर सिंह और साथ ही ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ के सुजीत दास करते हैं। हम इस विभ्रम के चरित्र को दिखलाने के लिए सुजीत दास के लेख से ही एक उद्धरण पेश करेंगे। 1930 के दशक की बात करते हुए श्री दास लिखते हैं, “इस जटिल परिदृश्य को कैसे देखा जाये, इसकी व्याख्या कैसे की जाये, यह आज एक बेहद महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है। पश्चिमी विचारकों ने, जिन्होंने इस पूरे दौर को पार्टी के नेतृत्व में पूँजीवाद के आदिम संचय के दौर के तौर पर चित्रित किया है, वे श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार की अनुपस्थिति को नहीं समझा पाते, जो कि पूँजीवाद के दो बुनियादी गुण हैं। दूसरी तरफ़, रूढ़िवादी मार्क्सवादी जो यह कहना पसन्द करते हैं कि यह पूरा दौर शुद्ध ‘समाजवाद’ का दौर था, इस बात की व्याख्या नहीं कर पाते कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों से अलगाव क्रमिक प्रक्रिया में बढ़ क्यों रहा था। वास्तव में यह पूरा दौर एक ‘मिश्रित’ दौर था। इसे पूँजीवादी नहीं कहा जा सकता क्योंकि जो लोग सत्ता में थे, वे न तो पूँजीवादी थे और न ही पूँजीवादी पथगामी। उनका राजनीतिक लक्ष्य था समाजवाद का निर्माण करना, सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना करना। हम इस दौर को उसी रूप में समाजवादी कह सकते हैं जिस तौर पर लेनिन ने 1918 या 1921 के सोवियत गणराज्य को समाजवादी कहा था।” (मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन, फरवरी 2008, पृ. 83–84)

यह एक विचित्र कथन है। पहली बात तो इसमें तथ्यतः बहुत सी भूलें हैं, लेकिन अभी हम उनका ज़िक्र न करके अवधारणात्मक भूलों पर अपनी चर्चा को केन्द्रित करेंगे। पहली बात, मार्क्स और लेनिन का यह स्पष्ट विचार था कि पूँजीवाद की मौजूदगी श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार की औपचारिक मौजूदगी के बग़ैर भी हो सकती है। लेनिन ने कहा था कि पूँजी एक सामाजिक सम्बन्ध है। यह सामाजिक सम्बन्ध उत्पादन और उसके उत्पादों के हस्तगतीकरण की सामाजिक प्रक्रिया से तय होता है। इस पूरी प्रक्रिया का वर्ग चरित्र इस बात से तय होता है कि जो हस्तगतीकरण कर रहा है उसकी वर्ग पहचान क्या है। जहाँ तक श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार का सम्बन्ध है तो वह सोवियत संघ में 1956 के बाद भी तत्काल नहीं पैदा हो गया था और उसमें दशकों लगे थे। तो क्या 1956 के बाद के सोवियत संघ को समाजवादी माना जाये? इस बात की ताईद एंगेल्स ने भी की थी कि पूँजीवाद निजी सम्पत्ति की वैधिक-न्यायिक मौजूदगी, और श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार की औपचारिक मौजूदगी के बिना भी अस्तित्वमान रह सकता है। पॉल स्वीज़ी ने भी “बाज़ार” के ज़रिये अर्थव्यवस्था के विनियमन और “योजना” के ज़रिये अर्थव्यवस्था के विनियमन की एक बाइनरी पेश की थी। उनके अनुसार बाज़ार की मौजूदगी पूँजीवाद की एक बुनियादी पूर्वशर्त है, इसलिए वह मानते थे कि 1956 के बाद भी सोवियत संघ में पूँजीवाद नहीं मौजूद था। यहाँ पर हम जो बात पूरे विश्लेषण में देख सकते हैं वह है राजनीति की बजाय अर्थशास्त्र को कमान में रखना। इन सभी विश्लेषणों की जो बात साझा है वह है एक भोण्डे किस्म का अर्थवाद। सुजीत दास जैसे लोग इसी अर्थवाद को कमान में रखने के कारण यह नहीं समझ पाते हैं कि 1930 के दशक के सोवियत समाजवाद और 1918 से 1921 के सोवियत गणराज्य (वैसे, उस दौर में सोवियत गणराज्य अस्तित्व में नहीं आया था बल्कि ‘रशियन सोशलिस्ट फेडरेशन ऑफ़ सोवियत रिपब्लिक्स’ मौजूद था! लेकिन ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ जैसे राजनीतिक नवधनाढ्यों से तथ्यात्मक सटीकता की उम्मीद करना व्यर्थ है) में मौजूद अर्थव्यवस्था से कोई तुलना नहीं की जा सकती है। यानी कि सुजीत दास को मई–जून 1918 (यानी कि “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौर के शुरू होने के पहले) तक और मार्च, 1921 के बाद अस्तित्वमान स्थिति (यानी नेप का दौर जिसकी चारित्रिक अभिलाक्षणिकता थी सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत राजकीय पूँजीवाद) और 1930 के दशक के सोवियत संघ में कोई अन्तर नज़र नहीं आता है! यह विचित्र बात है क्योंकि सामूहिकीकरण के बाद कृषि क्षेत्र में समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्धों की स्थापना हो चुकी थी, और इस रूप में यह दौर सोवियत समाजवाद के पहले के दौर से बिल्कुल भिन्न था। सामूहिकीकरण के बाद पहली बार सोवियत संघ में सम्पत्ति सम्बन्धों के धरातल पर पूँजीवादी सम्बन्धों का उन्मूलन हो चुका था। यहाँ यह दुहराने की ज़रूरत नहीं है कि सम्पत्ति सम्बन्ध ही सम्पूर्ण उत्पादन सम्बन्ध नहीं होते। लेकिन यह भी सच है कि उत्पादन सम्बन्धों के रूपान्तरण का कार्य सम्पत्ति सम्बन्धों के रूपान्तरण से ही शुरू होता है। सुजीत दास उपरोक्त कथन में किसी ‘शुद्ध समाजवाद’ की बात करते हैं! यह ‘शुद्ध समाजवाद’ क्या होता है यह तो सुजीत दास ही बता सकते हैं! लेकिन उनके पूरे कथन से लगता है कि वह स्वयं किसी प्रकार के “शुद्ध समाजवाद” के अनुयायी है! उनके लिए समाजवाद की शुद्धता इस बात में निहित है कि ‘प्रत्यक्ष उत्पादक’ उत्पादन के साधनों का नियन्त्रण करे! अब चूँकि श्री दास को अपना वाला “शुद्ध” समाजवाद स्तालिन के दौर के सोवियत संघ में नहीं नज़र आता है, और चूँकि श्री दास स्तालिन को संशोधनवादी या पूँजीवादी पथगामी क़रार देने से भी बचना चाहते हैं, इसलिए उन्होंने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं की सैद्धान्तिकी में एक नया आँखें चुँधिया देने वाला खुलासा किया है। वे इस दौर को न तो पूँजीवादी मानते हैं और न ही समाजवादी (जैसा कि पॉल स्वीज़ी और रणधीर सिंह मानते हैं, हालाँकि वे इसे ‘मिश्रित’ दौर भी नहीं कहते बल्कि ‘उत्तर-क्रान्तिकारी’ समाज की संज्ञा देते हैं!)। वह इसे एक ‘मिश्रित’ दौर मानते हैं! क्योंकि सर्वहारा अधिनायकत्व के साथ-साथ उत्पादन सम्बन्ध मूलतः पूँजीवादी बने हुए थे (हालाँकि ऐसा नहीं था; अगर मूल और मुख्य पहलू की बात की जाये तो उत्पादन सम्बन्ध समाजवादी थे) और इस दौर की तुलना उन्होंने राजकीय पूँजीवाद के दौर से की है। हम पहले ही दिखला चुके हैं कि इन दोनों दौरों की कोई तुलना नहीं की जा सकती है। लेकिन अगर सुजीत दास और एक अलग अर्थ में पॉल स्वीज़ी और रणधीर सिंह जैसे लोग समाजवादी और पूँजीवादी दोनों तत्वों की मौजूदगी के कारण इस दौर को न तो समाजवादी कहना चाहते हैं और न ही पूँजीवादी तो पता नहीं वह किस चीज़ को क्या कहना चाहते हैं! क्योंकि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर की यह ख़ासियत तो रहेगी ही कि इसमें पूँजीवादी और समाजवादी तत्वों का मिश्रण होगा और सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व क़ायम होगा। समाजवादी संक्रमण के दौर की ख़ासियत ही यही है कि इस दौर में राज्यसत्ता सर्वहारा वर्ग के हाथ में होती है और साथ में पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण का कार्य जारी रहता है। इस मायने में समाजवादी क्रान्तियाँ बुर्जुआ क्रान्तियों से भिन्न होती हैं। इस बारे में ग्यॉर्गी लूकाच ने लेनिन की अवस्थिति को बहुत सटीक तरीके से संक्षेप में रखा है। लूकाच कहते हैं:

“क्योंकि समाजवाद कभी ‘अपने से’ नहीं आ सकता है, और न ही किसी अपरिहार्य प्राकृतिक आर्थिक विकास के तौर पर आ सकता है। पूँजीवाद के प्राकृतिक नियम निश्चित तौर पर उसे उसके अन्तिम संकट की तरफ़ ले जाते हैं, लेकिन इसकी राह के अन्त में समस्त सभ्यता का ध्वंस और एक नयी बर्बरता होगी।

“यही वह चीज़ है जो बुर्जुआ और सर्वहारा क्रान्तियों के बीच सबसे गम्भीर अन्तर का कारण है। बुर्जुआ क्रान्तियों की इतनी शानदार जीवन्तता (ब्रिलियण्ट इलान) के साथ आगे बढ़ने की क्षमता के सामाजिक कारण हैं, और वे इस तथ्य में निहित हैं कि वे एक लगभग पूर्ण हो चुकी आर्थिक और सामाजिक प्रक्रिया के परिणामों को एक ऐसे समाज में आगे बढ़ा रहे हैं, जहाँ पूँजीवाद के सशक्त उभार के कारण सामन्ती और निरंकुश ढाँचा राजनीतिक, शासनात्मक, क़ानूनी, आदि तौर पर पहले ही गहराई से कमजोर हो चुका है। वास्तविक क्रान्तिकारी तत्व यहाँ पर सामन्ती उत्पादन व्यवस्था का पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था में रूपान्तरण है और इसलिए सैद्धान्तिक तौर पर इस प्रक्रिया का बिना किसी बुर्जुआ क्रान्ति, बिना क्रान्तिकारी बुर्जुआजी द्वारा किसी राजनीतिक उथल-पुथल के द्वारा ही पूरा होना सम्भव होगा। उस सूरत में सामन्ती और निरंकुश अधिरचना के वे हिस्से जो ‘ऊपर से हुई क्रान्ति’ के ज़रिये ख़त्म नहीं किये गये हैं, वे पूँजीवाद के पूर्ण रूप से विकसित होने पर स्वयं ही ढह जाएँगे (जर्मन स्थिति इस पैटर्न में बिल्कुल सटीक बैठती है)।

“निस्सन्देह, किसी सर्वहारा क्रान्ति के बारे में सोचा भी नहीं जा सकता, अगर उसके आर्थिक आधार और पूर्वशर्तें पूँजीवादी समाज के गर्भ में ही पूँजीवादी उत्पादन व्यवस्था के उद्भव के साथ पोषित न हुई हों। लेकिन इन दोनों प्रकार की प्रक्रियाओं के बीच विशाल अन्तर इस तथ्य में निहित है कि पूँजीवाद सामन्तवाद के भीतर पहले ही विकसित हो गया था, जो कि अन्त में इसके विघटन को अवश्यम्भावी बना देता है। इसके विपरीत, यह सोचना एक यूटोपियाई फन्तासी होगा कि समाजवाद की ओर अग्रसर कोई भी चीज़ पूँजीवाद के भीतर पैदा हो सकती है, सिवाय इसके कि इसे एक सम्भावना बनाने वाले वस्तुगत आर्थिक आधार निर्मित हो गये हैं, जो कि समाजवादी उत्पादन व्यवस्था के वास्तविक तत्वों में तभी रूपान्तरित हो सकते हैं, जब पूँजीवाद ढह चुका हो और उसके परिणाम सामने आ चुके हों।” (ग्यार्गी लूकाच, ‘क्रिटिकल ऑब्ज़र्वेशंस ऑन रोज़ा लक्ज़ेमबर्ग्स “क्रिटीक ऑफ़ दि रशियन रिवोल्यूशन”’, हिस्ट्री एण्ड क्लास कांशसनेस, मर्लिन प्रेस, 1967)।

स्पष्ट है कि समाजवादी क्रान्ति के इस विशिष्ट चरित्र के कारण समाजवादी संक्रमण कोई सुगम-सरल दौर नहीं होता, जो पूँजीवादी संक्रमण जितना छोटा और अबाधित हो। पूँजीवादी संक्रमण दीर्घकालिक नहीं होता और कलम की नोक से पूँजीवादी राज्यसत्ता इसे बहुत छोटे से दौर में पूर्णता पर पहुँचा देती है। लेकिन समाजवादी क्रान्ति और समाजवादी रूपान्तरण मानव इतिहास की पहली क्रान्ति है जिसमें एक शोषक वर्ग दूसरे शोषक वर्ग की जगह नहीं लेने वाला है, बल्कि इतिहास का सबसे क्रान्तिकारी वर्ग, यानी सर्वहारा वर्ग अपने हिरावल के नेतृत्व में अपनी राज्यसत्ता स्थापित करने वाला है। समाजवादी निर्माण एक सतत् और सघन संघर्ष की प्रक्रिया है जिसमें सर्वहारा वर्ग को अपने अधिनायकत्व के तहत एक-एक करके बुर्जुआ वर्ग से अर्थजगत और राजनीति के बुर्ज़ फतह करने होते हैं। यह दौर हमेशा ही एक ऐसा दौर होगा जिसमें आर्थिक आधार और सम्बन्धों में समाजवाद और पूँजीवाद के तत्व ‘मिश्रित’ होंगे।

अगर इस आधार पर इस सामाजिक संरचना को ही ‘मिश्रित’ कहा जाये, तो दुनिया में किसी भी दौर में किसी भी देश में क्या कभी समाजवाद था? असल चीज़ इस प्रकार के विश्लेषणों की निगाह से ओझल हो गयी है—राज्यसत्ता का चरित्र। इसके अलावा, समाजवादी संक्रमण के अलग-अलग चरणों में भी ऐसे विश्लेषण फर्क नहीं कर पाते हैं। सोवियत समाजवादी संक्रमण का पहला चरण सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना और सुदृढ़ीकरण के साथ 1921 में गृहयुद्ध की समाप्ति और सोवियत सत्ता के निर्णायक तौर पर स्थापना के साथ पूरा हुआ। दूसरा चरण नेप के दौर के ख़त्म होने के साथ पूरा हुआ जब सोवियत सत्ता ने टूटते मज़दूर-किसान संश्रय को बचाने के लिए कुछ कदम पीछे हटाये और समाजवादी रूपान्तरण के काम को सीमित और एक हद तक स्थगित किया क्योंकि यही संश्रय सोवियत सत्ता का सामाजिक आधार था; यह दूसरा चरण अपने जीवन से ज़्यादा उत्तरजीवी हो गया जिसके कारण 1927 से 1929 के दौर में सोवियत सत्ता को भयंकर आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा; इसे दूर करने के शुरुआती कदम के तौर पर समाजवादी संक्रमण का तीसरा चरण, यानी सामूहिकीकरण शुरू हुआ, जब सम्पत्ति सम्बन्धों के धरातल पर पूँजीवादी सम्पत्ति का अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र से ख़ात्मा किया गया, और समाजवादी सम्पत्ति सम्बन्ध पूर्ण रूप से स्थापित हुए। ये चरण ही वास्तव में अलगाव की परिघटना को कदम-दर-कदम ख़त्म करने, या समाजवादी निर्माण या समाजवादी संक्रमण (आप जो भी बोलना चाहें!) के कदम थे और यह पूरी प्रक्रिया ऐतिहासिक तौर पर दीर्घकालिक, जटिल, संघर्ष और अन्तरविरोधों से भरी हुई ही हो सकती थी। जो इस बात को नहीं समझता वह मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों को भी नहीं समझता।

4) सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की संरचना

इन विभ्रमों की चर्चा के बाद, अब हम उस सबसे अहम प्रश्न पर आते हैं जिसे लेकर सोवियत समाजवाद के उपरोक्त किस्म के आलोचक बुरी तरह से भ्रमित हैं। यह प्रश्न है सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी व्यवस्था की संरचना का सवाल। सर्वहारा अधिनायकत्व की संरचना से हमारा अर्थ है कि सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण कौन-सी संस्था होगी; वर्ग, पार्टी, राज्यसत्ता, सोवियतों, ट्रेड यूनियनों आदि के बीच आपसी रिश्ते क्या होंगे? सोवियतों और ट्रेड यूनियनों, पार्टी की भूमिका, राज्यसत्ता और पार्टी के रिश्ते, वर्ग और पार्टी के रिश्ते को लेकर जो आम तौर पर इन आलोचकों द्वारा सोवियत समाजवाद की जो आलोचनाएँ पेश की गयी हैं वे वास्तव में कोई भी नयी बात नहीं कहतीं। वे बोल्शेविक पार्टी के भीतर अलग-अलग समय पर आये “वामपन्थी” विपक्षी धड़ों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी विचलनों का ही एक विचित्र मिश्रण पेश करती हैं। लेनिन ने सर्वहारा अधिनायकत्व के पूरे तन्त्र की एक स्पष्ट समझदारी पेश की थी और सबसे पहले उसे समझना ज़रूरी है। इसे समझने के लिए बोल्शेविक पार्टी में चली ‘ट्रेड यूनियन विवाद’ पर एक निगाह डालना सबसे प्रासंगिक होगा।

1919 से 1921 के बीच बोल्शेविक पार्टी के भीतर ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर एक बहस जारी थी। इस बहस ने दरअसल अन्त में पूरे सर्वहारा अधिनायकत्व के स्वरूप और ढाँचे पर बहस का रूप ले लिया था। 1919 से 1921 के बीच ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर दो विरोधी स्थितियाँ पार्टी में मौजूद थीं। एक रुझान, जिसका प्रतिनिधित्व मुख्य तौर पर त्रॉत्स्की और बुखारिन कर रहे थे, उसका मानना था कि ट्रेड यूनियनों का “राजकीयकरण” कर दिया जाना चाहिए। उनके अनुसार ट्रेड यूनियनों को पूरी तरह राज्य के अधीन कर दिया जाना चाहिए। उन्हें राज्य के अधीन करने के साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और शासन के कार्यों की मुख्य तौर पर ज़िम्मेदारी सौंप दी जानी चाहिए, लेकिन इस प्रक्रिया में उन्हें पूरी तरह से राज्य और पार्टी के अधीन होना चाहिए। ट्रेड यूनियनों को राज्य के अधीन कर दिये जाने की त्रॉत्स्की व बुखारिन की थीसिस का पार्टी में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नाम के धड़े ने पुरज़ोर विरोध किया। इस धड़े का प्रतिनिधित्व मुख्य तौर पर अलेक्ज़ैण्डर श्ल्याप्निकोव तथा अलेक्ज़ैण्ड्रा कोलोन्ताई कर रही थीं। कोलोन्ताई ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नामक एक पुस्तिका लिखकर अपने धड़े की पूरी अवस्थिति को पार्टी के बीच प्रसारित भी किया। फिर इन दोनों दस्तावेज़़ों पर एक बहस शुरू हुई। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था कि ट्रेड यूनियनों का “राजकीयकरण” नहीं किया जाना चाहिए, उल्टे राज्य का “ट्रेड यूनियनीकरण” कर दिया जाना चाहिए। उनका मानना था कि ट्रेड यूनियनें पूर्णतः स्वतन्त्र रहनी चाहिए और उन्हें राज्य के सभी कार्य सौंप दिये जाने चाहिए, मतलब कि राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन से लेकर शासन-प्रशासन के अन्य कार्य और पार्टी और राज्य को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का कहना था कि ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को समेटती हैं और इसलिए प्रत्यक्ष उत्पादन और शासन के नियन्त्रण को यदि प्रत्यक्ष उत्पादक वर्ग को सौंपना है, सर्वहारा वर्ग को सौंपना है, तो ट्रेड यूनियनों को स्वतन्त्र होना चाहिए और शासन-प्रशासन के काम उनके हाथों में सौंप दिये जाने चाहिए।लेनिन ने इन दोनों छोरों की निर्मम आलोचना करते हुए ट्रेड यूनियनों की भूमिका के बारे में जो कुछ कहा, वह आज मार्क्सवाद-लेनिनवाद के लिए हर मायने में बेहद महत्वपूर्ण बन गया है। यह न सिर्फ ट्रेड यूनियन के सवाल पर लेनिनवादी अवस्थिति का स्रोत बना, बल्कि समाजवादी संक्रमण के दौरान सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की प्रकृति और चरित्र, उसमें पार्टी की भूमिका, पार्टी से सोवियतों और ट्रेड यूनियनों के आपसी रिश्ते और पार्टी और राज्य के रिश्तों पर एक सामान्य मार्क्सवाद-लेनिनवादी अवस्थिति का स्रोत बन गया।

सबसे पहले हम 1920 के ट्रेड यूनियन सम्मेलन से लेकर 1921 की दसवीं पार्टी कांग्रेस के दौरान जो प्रमुख धड़े (फैक्शन) मौजूद थे, और जो इस पूरी बहस में हिस्सेदारी कर रहे थे, उनके बारे में बता दें।

पहला समूह वह था जिसके नेतृत्व में ओसिंस्की, स्मिर्नोव और साप्रोनोव थे, और इस समूह को ‘डेमोक्रैटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े के नाम से जाना जाता था। यह समूह वास्तव में 1919 में आठवीं पार्टी कांग्रेस के समय में ही अस्तित्व में आने लगा था। इनका कहना था कि सोवियतों को महज़ “रबर स्टैम्प्स” में बदल दिया गया है, जबकि हमारा पुराना नारा था ‘सारी सत्ता सोवियतों को’; उनका कहना था कि सोवियतों का काम यह हो गया है कि वे पार्टी के निर्णयों को पुष्ट करें; इसके अलावा उनका कहना था कि पार्टी के भीतर पोलित ब्यूरो में शक्ति केन्द्रित हो गयी है; यहाँ ग़ौरतलब है कि इस धड़े के अधिकांश नेता व सदस्य 1917–18 में बुखारिन के नेतृत्व में अस्तित्व में आये “वामपन्थी” कम्युनिस्ट विपक्षी धड़े के साथ रह चुके थे। यह बात अलग थी कि अब बुखारिन स्वयं इस पूरी थीसिस के ठीक विपरीत त्रॉत्स्की के क़रीब खड़े थे। लेकिन 1918 में पार्टी की सातवीं कांग्रेस में ओसिंस्की ने कहा था, “हम मज़दूरों की वर्ग रचनात्मकता द्वारा सर्वहारा समाज के निर्माण के पक्षधर हैं, न कि उद्योग के कप्तानों की आज्ञप्तियों के द्वारा…अगर सर्वहारा वर्ग स्वयं नहीं जानता कि श्रम के समाजवादी संगठन की पूर्वशर्तें कैसे पूरी करनी है, तो उसकी ओर से कोई और यह काम नहीं कर सकता…समाजवाद और समाजवादी संगठन या तो स्वयं सर्वहारा वर्ग द्वारा स्थापित किया जायेगा, या फिर वह स्थापित ही नहीं किया जायेगा।” (ओसिंस्की, ‘ऑन दि बिल्डिंग ऑफ़ सोशलिज़्म’, दि कम्युनिस्ट, सं.-2, (अप्रैल, 1918), पृ.5, रूसी संस्करण) लेनिन ने इस पूरी सोच को अपने लेख ‘वामपन्थी बचकानापन और निम्न पूँजीवादी मानसिकता’ में निशाने पर रखा था और कहा था कि यह पूरी सोच स्वतःस्फूर्ततावादी, लोकरंजकतावादी और हिरावल की भूमिका का निषेध करती है और पार्टी को वर्ग के विरुद्ध खड़ा करती है।

दूसरा प्रमुख समूह था त्रॉत्स्की का जिसके समर्थन में मुख्य रूप से राइकोव, क्रेस्टिंस्की, आन्द्रियेव और राडेक थे। त्रॉत्स्की ने ट्रेड यूनियनों की स्वायत्तता पर हमले की शुरुआत बड़े पैमाने पर 1920 में मास्को में हुए एक अखिल रूसी ट्रेड यूनियन सम्मेलन (कांग्रेस नहीं, सम्मेलन) में की। त्रॉत्स्की ने ट्रेड यूनियनों के पूरे ढाँचे को अन्दर से “झकझोर देने” की बात की। त्रॉत्स्की ने कहा कि समूचे मज़दूर वर्ग के अराजकतापूर्ण ढंग से बदलते मिजाज़ों पर सर्वहारा अधिनायकत्व को नहीं छोड़ा जा सकता है। सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी के बारे में त्रॉत्स्की ने एक ऐसी समझ रखी, जिसके मुताबिक़ पार्टी कभी ग़लती नहीं कर सकती है, और अचूक और अमोघ है। इसलिए सर्वहारा वर्ग अपनी पार्टी के द्वारा अपने ऊपर “स्व-अनुशासन” लागू करता है। त्रॉत्स्की इस सोच का समर्थन करते हुए कहाँ तक चले गये यह त्रॉत्स्की के इस कथन से साफ़ हो जाता है: “क्या यह सच है कि बाध्यतापूर्ण श्रम हमेशा अनुत्पादक होता है?…यह सबसे निन्दनीय और दयनीय उदारवादी पूर्वाग्रह है: चैटेल गुलामी भी उत्पादक थी…बाध्यताकारी दास श्रम… अपने समय में एक प्रगतिशील परिघटना थी।” (तृतीय अखिल रूसी ट्रेड यूनियन कांग्रेस, स्टेनोग्राफिक रिपोर्ट, मास्को, 1920, रूसी संस्करण) निश्चित तौर पर, हम यह नहीं कह रहे हैं कि त्रॉत्स्की की पूरी सोच इसी कथन से स्पष्ट हो जाती है क्योंकि ऐसा दावा करना त्रॉत्स्की के साथ नाइंसाफ़ी होगी। लेकिन इससे त्रॉत्स्की की पहुँच और पद्धति के बारे में बहुत कुछ पता चलता है। यह बात सच है, और ऐसा लेनिन का भी मानना था, कि पार्टी के हिरावल होने के अर्थ में यह शामिल है कि सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदायों की हर राय या मिजाज़ का वह सम्मान नहीं कर सकती। यह भी सच है कि पार्टी को कई बार संकटपूर्ण परिस्थितियों में मज़दूर वर्ग के पिछड़े हुए, निम्नपूँजीवादी चेतना के शिकार हिस्से की इच्छाओं के विपरीत भी कई कार्य करने पड़ते हैं। निश्चित तौर पर, मज़दूर वर्ग स्वतःस्फूर्त रूप से जो चेतना पैदा करता है वह आर्थिक माँगों से आगे नहीं जाती और वह अपने आप में सर्वहारा चेतना नहीं होती। अगर इसी स्वतःस्फूर्ततावाद की सोच को आगे बढ़ा दिया जाये तो वह ट्रेड यूनियनवाद, अराजकतावाद, अर्थवाद और संघाधिपत्यवाद तक चली जाती है। लेनिन स्वयं इन रुझानों के सख़्त आलोचक थे और इसीलिए क्रान्ति से पहले मज़दूर वर्ग के आन्दोलन में भी और क्रान्ति के बाद मज़दूर वर्ग की तानाशाही में भी वह क्रान्तिकारी पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को अपरिहार्य मानते थे। लेकिन त्रॉत्स्की और लेनिन की अवस्थितियों में दो बुनियादी फर्क थे। एक, लेनिन पार्टी को हर स्थिति में अचूक और अमोघ नहीं मानते थे, जैसा कि त्रॉत्स्की की उस समय की अवस्थिति में निहित है। वह मानते थे कि पार्टी को जनसमुदायों के प्रति अपनी नेतृत्वकारी भूमिका को बनाये रहते हुए, जनसमुदायों से एक जीवन्त रिश्ता भी बनाये रखना होगा और उनसे सीखना भी होगा। यही पार्टी के नेतृत्व और नीतियों के सर्वहारा चरित्र को बनाये रख सकता है। एक दूसरे अर्थ में भी लेनिन की अवस्थिति त्रॉत्स्की से बिल्कुल भिन्न थी। त्रॉत्स्की “युद्ध कम्युनिज़्म” की नीतियों, जैसे कि ज़बरन कृषि अधिशेष वसूली, श्रम के सैन्यकरण, ट्रेड यूनियनों को राज्य के मातहत रखने और श्रम के अनुशासनीकरण, को एक विशेष आपातकालीन और अपवादस्वरूप दौर का बाध्यताकारी उत्पाद नहीं मानते थे। वह मानते थे कि इन नीतियों के ज़रिये “सीधे कम्युनिज़्म में प्रयाण” किया जा सकता है। बुखारिन और प्रियोब्रेज़ेंस्की जब पूरी तरह त्रॉत्स्की की तरफ़ झुक गये थे, तो उन्होंने तो यहाँ तक कह दिया था कि तीन वर्षों में पूरी सोवियत अर्थव्यवस्था का कम्युनिस्ट रूपान्तरण इन नीतियों के ज़रिये किया जा सकता है! लेकिन लेनिन की अवस्थिति यह थी कि “युद्ध कम्युनिज़्म” की ये नीतियाँ गृहयुद्ध के दौर में मूल और मुख्य तौर पर सही थीं; इनमें से कुछ नीतियाँ ऐसी थीं जो कि बाद के दौर के लिए भी उपयोगी थीं। लेकिन कुल मिलाकर दो प्रमुख नीतियाँ, यानी कि कृषि अधिशेष की ज़बरन वसूली और दूसरी श्रम के सैन्यकरण और ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी के पूरी तरह से अधीन किये जाने की नीतियों को केवल आपातकालीन और अपवादस्वरूप दौर में ही सही ठहराया जा सकता है। चूँकि लेनिन का एक दौर में इन नीतियों को सशर्त समर्थन था और एक दूसरे दौर में सशर्त विरोध इसलिए कई अकादमिकों को यह दृष्टिभ्रम हो जाता है कि लेनिन त्रॉत्स्की की अवस्थिति पर थे, और जब वे मौखिक तौर पर त्रॉत्स्की का विरोध कर रहे थे, तब भी व्यवहार में वे त्रॉत्स्की की ही नीतियों को लागू कर रहे थे। ऐसे अकादमिकों में ख़ास तौर पर त्रॉत्स्कीपन्थी या त्रॉत्स्की के प्रति हमदर्दी रखने वाले बुद्धिजीवी शामिल हैं, जैसे कि इज़ाक डॉइशर, एडवर्ड हैलेट कार, हॉल ड्रेपर आदि। लेकिन अगर स्वयं पार्टी, ट्रेड यूनियन और सोवियतों के दस्तावेज़़ों में बहस और पिछले कार्यकाल की गतिविधियों की रिपोर्टों को देखें तो लेनिन और त्रॉत्स्की की अवस्थिति का फर्क साफ़ हो जाता है। बहरहाल, त्रॉत्स्की की पूरी अवस्थिति को इसी वाक्यांश के ज़रिये सटीकता से अभिव्यक्त किया जा सकता है—ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी का दासवत उपकरण बना देना, उनका “राजकीयकरण” कर देना।

अब तीसरे समूह पर आते हैं जिसे “बफ़र ग्रुप” कहा गया, और जो कि 1920 में अस्तित्व में आया। दिसम्बर 1920 में केन्द्रीय कमेटी की एक बैठक में ज़िनोवियेव ने त्रॉत्स्की की अवस्थिति का विरोध किया और लेनिन की अवस्थिति के समर्थन में बात रखी। लेकिन यह बात इस तरीके से रखी गयी, जिससे कि केन्द्रीय कमेटी का बड़ा हिस्सा त्रॉत्स्की और ज़िनोवियेव, दोनों के ही ख़िलाफ़ हो गया। इस मौके पर बुखारिन ने एक मध्यमार्ग अपनाया और त्रॉत्स्की और ज़िनोवियेव दोनों की ही कुछ बातों का समर्थन करते हुए यह तर्क रखा कि फिलहाल दोनों मतों में एक आरज़ी समझौता किया जाये और इस मसले पर 1921 में होने वाली दसवीं पार्टी कांग्रेस में विचार किया जाये। बुखारिन का प्रस्ताव एक वोट से विजयी हुआ। उस समय बुखारिन के साथ मध्यमार्ग अपनाने वाले इस “बफ़र ग्रुप” में प्रियोब्रेजे़ंस्की, सेरेब्राइकोव, सोकोलनिकोव और लारिन शामिल थे। 1920 के अन्तिम माह से लेकर मार्च 1921 में पार्टी कांग्रेस के शुरू होने तक यह “बफ़र ग्रुप” ज़्यादा से ज़्यादा त्रॉत्स्की की तरफ़ झुकता गया और कांग्रेस आते-आते त्रॉत्स्की और बुखारिन ने ज़र्जेंस्की, आन्द्रियेव, प्रियोब्रेज़ेंस्की, रैकोव्स्की और सेरेब्राइकोव के साथ मिलकर ट्रेडयूनियनों की भूमिका के सवाल पर त्रॉत्स्की की सोच का समर्थन करते हुए एक प्रस्ताव रखा जिसे ‘प्लेटफॉर्म ऑफ़ दि एट’ कहा गया।

एक चौथा समूह 1920 के ही उत्तरार्द्ध से अस्तित्व में आने लगा था। यह समूह वास्तव में पुराने ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े के कुछ लोगों के एक अनौपचारिक ट्रेड यूनियन धड़े के साथ संलयन के साथ अस्तित्व में आया, जिसके प्रमुख सदस्य थे, श्ल्याप्निकोव और कोलोन्ताई। इन दोनों धड़ों के साथ आने के साथ जो ग्रुप अस्तित्व में आया उसे ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के नाम से जाना गया। इसकी ज़्यादातर अवस्थितियाँ त्रॉत्स्कीपन्थियों के ठीक विपरीत थीं, जैसा कि हम ऊपर ज़िक्र कर चुके हैं। ये सारी अवस्थितियाँ वास्तव में अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की अवस्थितियाँ थीं। इसका एक कारण यह भी था कि इस समूह के नेतृत्व के लोग अधिकांशतः पुराने ट्रेड यूनियनवादी थे। इस कांग्रेस में श्ल्याप्निकोव ने भाषण दिया। उन्होंने एंगेल्स को उद्धृत करते हुए कहा कि आने वाला समाज “उद्योग को सभी उत्पादकों के स्वतन्त्र और समान साहचर्य के आधार पर संगठित करेगा।” और इसी से श्ल्याप्निकोव ने यह नतीजा निकाला कि प्रत्यक्ष उत्पादकों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण स्थापित करने के लिए ट्रेड यूनियनों को राज्य और पार्टी से बिल्कुल स्वतन्त्र करके राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और शासन-प्रशासन संभालने का काम उन्हें दे दिया जाना चाहिए। लेनिन ने श्ल्याप्निकोव को याद दिलाया कि जब एंगेल्स ने ये शब्द लिखे थे तो वह समाजवादी संक्रमण के दौर की बात नहीं कर रहे थे, बल्कि कम्युनिस्ट समाज की बात कर रहे थे और यह कि उस सिद्धान्त को लागू करने का रिश्ता समाज में वर्ग संघर्ष के स्तर से जुड़ा हुआ है और विशेषकर सर्वहारा वर्ग के व्यापक जन-समुदायों की राजनीतिक चेतना से जुड़ा हुआ है। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था कि चूँकि ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदायों को अपने भीतर समेटती हैं, इसलिए उनके ऊपर किसी किस्म का कोई प्राधिकार नहीं होना चाहिए। केन्द्रीय स्तर पर एक अखिल रूसी उत्पादक कांग्रेस होनी चाहिए जिसका काम ट्रेड यूनियनों के बीच समन्वय का होना चाहिए। लेनिन ने इस प्रस्ताव की खिल्ली उड़ाते हुए कहा था कि ‘उत्पादक कांग्रेस’ की परिकल्पना वर्ग विश्लेषण का निषेध है। ऐसी किसी भी कांग्रेस को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था की बागडोर सौंपने का अर्थ होगा, टटपुँजिया उत्पादकों के हाथ में पूरी सोवियत व्यवस्था को सौंप देना, और एक प्रकार से सर्वहारा अधिनायकत्व का बुर्जुआजी के सामने समर्पण कर देना। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का यह भी विचार था कि सोवियतों को एक क्रमिक प्रक्रिया में विलोप की तरफ़ ले जाया जाना चाहिए, और शासन-प्रशासन के समस्य कार्य स्वतन्त्र ट्रेड यूनियनों को सौंप दिया जाना चाहिए, जिनमें पार्टी का कोई भी हस्तक्षेप न हो। ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के नेता किसानों को किसी भी किस्म की रियायत देने के ख़िलाफ़ थे। वे औद्योगिक मज़दूरों के मुद्दों को छोड़ दें तो “युद्ध कम्युनिज़्म” की अधिकांश नीतियों का समर्थन ही कर रहे थे। सोवियत राज्य के सामाजिक आधार के तौर पर मज़दूर-किसान संश्रय के विषय पर उनकी कोई समझदारी नहीं थी, और वे मज़दूरों, यानी कि अलग-अलग कारखानों, अलग-अलग उद्योगों, अलग-अलग पेशों के मज़दूरों के विशिष्ट हितों से आगे कुछ भी नहीं सोच पा रहे थे। यहाँ पर ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ धड़े की अवस्थिति से एक ही फर्क था—‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ मज़दूर वर्ग की राजनीतिक शक्ति का प्रमुख केन्द्र ट्रेड यूनियन को मान रहा था जबकि ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ ने इसका आधार फैक्टरी कमेटियों को माना था। यानी कि एक के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद की बुनियादी राजनीतिक इकाई कारखाना थी, तो दूसरे की पेशा या उद्योग, क्योंकि ट्रेड यूनियनें पेशों और उद्योगों के आधार पर बँटी हुईं थीं।

अब हम बात करेंगे आखि़री प्रमुख धड़े पर जिसका नेतृत्व लेनिन कर रहे थे। त्रॉत्स्कीपन्थी ‘प्लेटफॉर्म ऑफ़ एट’ और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस के बरक्स लेनिन ने स्तालिन, ज़िनोवियेव, टॉम्स्की, रुत्जुताक, कालिनिन, कामेनेव, लोज़ोव्स्की, पेत्रेव्स्की और आर्तेम के साथ मिलकर ‘प्लेटफॉर्म ऑफ़ दि टेन’ बनाया और अपना समानान्तर प्रस्ताव रखा। यह प्रस्ताव वास्तव में उसी प्रस्ताव का एक विकसित रूप था जो कि रुत्जुताक ने ट्रेड यूनियन सम्मेलन के मंच पर त्रॉत्स्की के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ रखा था; वह प्रस्ताव भी लेनिन के निर्देशन में ही बना था। उस प्रस्ताव को उस सम्मेलन में विजय मिली थी। और दसवीं कांग्रेस में भी लेनिन का प्रस्ताव भारी मतों से विजयी हुआ। दसवीं कांग्रेस में जो तीन प्रमुख धड़े बन चुके थे (1. ट्राट्स्की+बुखारिन 2. वर्कर्स अपोज़ीशन (डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म+कोलोन्ताई व श्ल्याप्निकोव), तथा, 3. लेनिन व स्तालिन) उसमें से त्रॉत्स्कीपन्थियों के धड़े को 50 वोट मिले, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ को मात्र 8 वोट मिले और लेनिन के धड़े को 336 वोट मिले। लेनिन ने त्रॉत्स्की और बुखारिन की राजनीतिक आलोचना इस कांग्रेस से पहले ही रख दी थी, और इस धड़े के प्रस्ताव का हारना तय था क्योंकि 1920 से 1921 के बीच लेनिन और त्रॉत्स्की की बार-बार जो तमाम मंचों पर बहस हुई (जिनका ‘प्राव्दा’ में लगातार प्रकाशन हुआ) उसके ज़रिये त्रॉत्स्की का धड़ा कांग्रेस के शुरू होने से पहले ही वास्तव में परास्त हो चुका था। लेकिन लेनिन ने अभी तक ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की कहीं-कहीं प्रसंगवश आलोचना करने के अलावा, विधिवत आलोचना नहीं की थी। दसवीं कांग्रेस वास्तव में ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी पहुँच और पद्धति पर चोट करने और उसे बेनक़ाब करने का मंच बना, हालाँकि इस कांग्रेस की प्रमुख उपलब्धि था नेप की नीतियों का सूत्रीकरण। लेनिन ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के ‘प्रत्यक्ष उत्पादक’ के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण के लिए अखिल रूसी उत्पादक कांग्रेस बनाने और ट्रेड यूनियनों को पूर्णतः स्वतन्त्र बनाकर शासन के कार्य सौंपने के प्रस्ताव का पुरज़ोर विरोध किया। उन्होंने कहा कि ऐसी किसी भी कांग्रेस में आज के दौर में ग़ैर-पार्टी लोगों की बहुतायत होगी और हम जानते हैं कि इस समय समाजवादी-क्रान्तिकारियों और मेंशेविकों का एक प्रमुख मुखौटा ग़ैर-पार्टी व्यक्ति होना ही है। ऐसे में, ऐसी कोई भी कांग्रेस सर्वहारा दृष्टिकोण से निर्णय लेने या काम करने के कार्यभार को नहीं पूरा कर सकती। इसमें निम्नपूँजीवादी विचारों, पेशावादी संकीर्ण सोच और अर्थवाद का बोलबाला होगा, क्योंकि रूस के मज़दूर वर्ग का भी एक अच्छा-ख़ासा हिस्सा लेनिन के शब्दों में, “घुटनों तक टटपुँजिया राजनीतिक चेतना के दलदल में डूबा हुआ है।” लेनिन ने मज़दूरी और वेतन में मौजूद फर्क को ख़त्म करने की ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की माँग को एक दूरगामी लक्ष्य के तौर पर स्वीकार करते हुए कहा कि यह तात्कालिक लक्ष्य नहीं हो सकता है। आगे लेनिन कहते हैं कि ट्रेडयूनियनों को अभी श्रम के अनुशासन को बढ़ाने और उत्पादकता को बढ़ाने के लिए काम करना चाहिए। इसके लिए बोनस और पीस वर्क की व्यवस्था को भी अभी लागू करने में कोई हर्ज़ नहीं है। लेनिन ने आगे कहा कि ट्रेड यूनियनों को अनुशासन लागू करना होगा और काम छोड़ कर जाने की और अनुपस्थित रहने की प्रवृत्ति पर काबू पाने के लिए “अनुशासन के कामरेडाना ट्रिब्युनल” बनाने होंगे। यहाँ यह बताना भी आवश्यक है कि ऐसे ट्रिब्यूनलों के सदस्यों का चुनाव भी स्वयं मज़दूर ही करते थे।

लेनिन ने कहा कि वास्तव में त्रॉत्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस में बहुत-सी चीज़ें समान हैं और उसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि दोनों ही सत्ता के प्रश्न को नहीं समझते हैं। एक तरफ़ त्रॉत्स्की सर्वहारा अधिनायकत्व के सवाल को नौकरशाहाना तरीके से हल करना चाहते हैं, तो दूसरी ओर ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ इसे औपचारिक जनवाद के ज़रिये हल करना चाहता है। यह दोनों ही राजनीति को कमान में रखने की बजाय अर्थवाद को कमान में रखते हैं। ‘एक बार फिर से ट्रेड यूनियनों के प्रश्न परः त्रॉत्स्की और बुखारिन की ग़लतियाँ’ में लेनिन ने ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ पर चोट करते हुए कहा कि क्रान्तिकारी हित को औपचारिक जनवाद के मातहत नहीं किया जाना चाहिए बल्कि जनवाद के प्रश्न को क्रान्तिकारी हित के मातहत किया जाना चाहिए, अन्यथा वह बुर्जुआ जनवाद की ओर ले जायेगा। लेनिन ने लिखा: “रूसी कम्युनिस्ट पार्टी बिना किसी शर्त अपने केन्द्रीय और स्थानीय संगठनों के जरिये ट्रेड यूनियन कार्य के सभी विचारधारात्मक पक्षों का निर्देशन करना जारी रखेगी…ट्रेड यूनियन आन्दोलन के नेतृत्वकारी कार्यकर्ताओं का चुनाव पार्टी के मार्गदर्शनात्मक निर्देशन में होना चाहिए।” (दसवीं कांग्रेस द्वारा ट्रेड यूनियनों की भूमिका और कार्यभारों पर अपनाये गये प्रस्ताव का सातवाँ बिन्दु)। हम लेनिन के कुछ उद्धरणों को यहाँ पेश कर रहे हैं जिससे त्रॉत्स्कीपन्थियों के दक्षिणपन्थी भटकाव और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकाव के बरक्स लेनिनवादी अवस्थिति स्पष्ट हो जायेगी। ‘ट्रेड यूनियनें, मौजूदा स्थिति और त्रॉत्स्की की ग़लतियाँ’ में लेनिन लिखते हैं:

“ट्रेड यूनियनें न सिर्फ़ ऐतिहासिक तौर पर ज़रूरी हैं, बल्कि वे औद्योगिक सर्वहारा वर्ग के संगठन के तौर पर ऐतिहासिक तौर पर अपरिहार्य हैं, और, सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व के तहत उन्हें समूचे सर्वहारा वर्ग को अपने में समेटना चाहिए।…एक तरफ़ ट्रेड यूनियनें, जो सभी औद्योगिक मज़दूरों को अपने में समेटती हैं, शासक, प्रभावी, और सरकार चला रहे वर्ग का संगठन हैं, जिस वर्ग ने अपनी तानाशाही क़ायम की है और राज्यसत्ता के ज़रिये वह ज़ोर-ज़बर्दस्ती का भी इस्तेमाल कर रहा है। लेकिन यह कोई राजकीय संगठन नहीं है; न ही यह ज़ोर-ज़बर्दस्ती के लिए बनाया गया है, यह तो शिक्षण के लिए बनाया गया है। यह संगठन अपने में वर्ग को शामिल करने और उसे प्रशिक्षित करने के लिए है; वास्तव में, यह एक स्कूल है: प्रशासन का स्कूल, आर्थिक प्रबन्धन का स्कूल, कम्युनिज़्म का स्कूल। यह एक बहुत ही असामान्य किस्म का स्कूल है, क्योंकि यहाँ कोई शिक्षक और विद्यार्थी नहीं है; यह उन चीज़ों का एक बेहद असामान्य मिश्रण है, जो कि हमें अनिवार्य तौर पर पूँजीवाद से विरासत में मिली हैं, और जो हमें उन्नत क्रान्तिकारी दस्ते की कतारों से मिला है, जिन्हें आप सर्वहारा वर्ग का क्रान्तिकारी हिरावल कह सकते हैं। इन सच्चाइयों पर ध्यान दिये बग़ैर ट्रेड यूनियनों के बारे में बात करने का अर्थ है सीधे कई ग़लतियों के गड्ढे में जाकर गिरना।” (लेनिन, ‘ऑन ट्रेड यूनियंस’, छठा मुद्रण, 1986, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृ. 370–71) यहाँ लेनिन ने त्रॉत्स्की की ट्रेड यूनियनों के सवाल पर अवस्थिति पर चोट की है और बताया है कि ट्रेड यूनियनों को कभी भी राज्यसत्ता के मातहत नहीं किया जा सकता है। पार्टी और ट्रेड यूनियन के रिश्तों का न तो “वामपन्थी” बचकाना सरलीकरण किया जा सकता है, जैसा कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ ने किया है और न ही दक्षिणपन्थी नौकरशाहाना विकृतिकरण किया जा सकता है, जैसा कि त्रॉत्स्की और बुखारिन ने किया। आगे लेनिन के इस लम्बे उद्धरण से ट्रेड यूनियनों, पार्टी, राज्यसत्ता और वर्ग के बीच के रिश्तों और सर्वहारा अधिनायकत्व के पूरे ढाँचे के बारे में एक सही समझदारी को निःसृत करना आसान होगा:

“सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की पूरी व्यवस्था में, ट्रेड यूनियनें पार्टी और सरकार के बीच में खड़ी हैं। समाजवाद की ओर संक्रमण में सर्वहारा वर्ग की तानाशाही अपरिहार्य है, लेकिन यह किसी ऐसे संगठन के ज़रिये लागू नहीं की जा सकती है, जो कि समूचे औद्योगिक मज़दूरों को अपने में समेटता हो। क्यों नहीं?…दरअसल होता यह है कि पार्टी, हम कह सकते हैं कि, सर्वहारा वर्ग के हिरावल को अपने में आत्मसात करती है, और यह हिरावल सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू करता है। इस तानाशाही को या सरकार के कार्यों को ट्रेड यूनियन जैसे आधार के बिना नहीं लागू किया जा सकता है। लेकिन, इन कार्यों को एक विशेष संस्था के माध्यम से किया जाना होता है, जिसे हम सोवियत कहते हैं। इस विशिष्ट स्थिति से क्या व्यावहारिक नतीजे निकाले जा सकते हैं? एक तरफ़ तो इसका यह अर्थ है कि ट्रेड यूनियनें हिरावल और जनसमुदायों के बीच की कड़ी हैं, और अपने रोज़मर्रा के कामों के ज़रिये वे जनसमुदायों में, यानी उस वर्ग के जनसमुदायों में, जो कि हमें पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक ले जाने में सक्षम एकमात्र वर्ग है, दृढ़ विश्वास पैदा करता है। दूसरी तरफ़, ट्रेड यूनियनें राज्यसत्ता का “संचित भण्डार” होती हैं। पूँजीवाद से कम्युनिज़्म के पूरे संक्रमणकाल में ट्रेड यूनियनें यही तो होती हैं। सामान्य अर्थों में, यह संक्रमण उस वर्ग के नेतृत्व के बिना पूरा नहीं किया जा सकता है, जो कि पूँजीवाद द्वारा बड़े पैमाने के उद्योगों के लिए प्रशिक्षित एकमात्र वर्ग है और जो अकेला वर्ग है जो कि टटपुँजिया मालिक के हितों से अलग है। लेकिन सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को किसी ऐसे संगठन के द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है जो कि इस पूरे वर्ग को समेटता हो, क्योंकि सभी पूँजीवादी देशों में सर्वहारा वर्ग अभी भी इतना विभाजित, इतना विकृत, और कई हिस्सों में इतना भ्रष्ट (कुछ देशों में साम्राज्यवाद के द्वारा) है कि सम्पूर्ण सर्वहारा वर्ग को समेटने वाला कोई भी संगठन सीधे सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को लागू नहीं कर सकता है। यह केवल एक हिरावल के ज़रिये लागू किया जा सकता है, जिसने कि पूरे वर्ग की क्रान्तिकारी ऊर्जा को आत्मसात किया हो। यह सबकुछ एक दन्त-चक्रों की व्यवस्था के समान है। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही की बुनियादी प्रणाली और पूँजीवाद से कम्युनिज़्म में संक्रमण का बुनियादी आधार ऐसा ही होता है। इतने से ही यह देखा जा सकता है कि कॉमरेड त्रॉत्स्की जब अपनी पहली थीसिस में यह बताते हैं कि एक “विचारधारात्मक विभ्रम” है और एक संकट की बात करते हैं जो विशेष और विशिष्ट तौर पर ट्रेड यूनियनों में है, तो इस पूरी बात में बुनियादी तौर पर कुछ गड़बड़ है…यह त्रॉत्स्की हैं जो कि “विचारधारात्मक विभ्रम” के शिकार हैं क्योंकि पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक संक्रमण के दौर में ट्रेड यूनियनों की भूमिका के इस कुंजीभूत प्रश्न में वह इस तथ्य को नज़रअन्दाज़ कर बैठे हैं कि यहाँ हमारे सामने दन्तचक्रों की एक जटिल व्यवस्था है; क्योंकि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को किसी सर्वहारा जनसंगठन के ज़रिये नहीं लागू किया जा सकता है। यह कई “संचरण पट्टियों” के बिना काम नहीं कर सकती, जो कि हिरावल से उन्नत वर्ग तक, और उन्नत वर्ग से मेहनतकश जनता के जनसमुदायों तक जाती हों।” (वही, पृ. 371–72)

यहाँ पर लेनिन वास्तव में सिर्फ़ त्रॉत्स्की पर हमला नहीं कर रहे हैं, बल्कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की थीसिस पर भी हमला कर रहे हैं, और इस मायने में यह हमला ‘मार्क्सिस्ट इण्टेलेक्शन’ जैसे सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों पर है। यहाँ हम यह याद दिलाना चाहेंगे कि त्रॉत्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’, दोनों ही ट्रेड यूनियनों को शासन के कार्य सौंपने की वकालत कर रहे थे। बस फर्क यह था कि त्रॉत्स्की ट्रेड यूनियनों को यह कार्य राज्य के मातहत करके करवाना चाहते थे, और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ यह काम राज्य और पार्टी से स्वतन्त्र तौर पर ट्रेड यूनियनों को देना चाहता था, जिसका अर्थ वास्तव में समाजवादी संक्रमण और सर्वहारा अधिनायकत्व के तहत वर्ग संघर्ष के दौर में, राज्यसत्ता और पार्टी की ज़रूरत को नकारना है। आगे के उद्धरणों में भी पहले हम लेनिन द्वारा त्रॉत्स्की की आलोचना-सम्बन्धी उद्धरणों को पेश करेंगे और उसके बाद लेनिन द्वारा ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ के अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की आलोचना पर आएँगे। लेकिन त्रॉत्स्की की ग़लतियों के बारे में लेनिन द्वारा कही गयी हर सामान्य बात, जो कि त्रॉत्स्की की पहुँच और पद्धति की आलोचना करती है, प्रकारान्तर से ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ पर भी लागू होती है। और ऐसा होना लाज़िमी है क्योंकि त्रॉत्स्की और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की अवस्थितियाँ वास्तव में एक-दूसरे की ‘मिरर इमेज’ ही हैं, ठीक उसी प्रकार जैसे कि टटपुँजिया “वामपन्थी” बचकानापन और दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव भी एक-दूसरे की ‘मिरर इमेज’ होते हैं। इन सबका सामान्य आधार होता है राजनीति को कमान में न रखना और अर्थवाद को कमान में रखना। देखें कि आगे लेनिन क्या कहते हैं:

“ऐसा जनसमुदायों के प्रति हमारी (यानी कि लेनिन और त्रॉत्स्की की – अनु.) भिन्न पहुँच के कारण, उन्हें जीतने और उनसे सम्पर्क क़ायम रखने के अलग तरीकों के कारण है। यही पूरा मामला है। और यह ट्रेड यूनियनों को एक बेहद ख़ास संस्था बना देता है, जो कि पूँजीवाद के तहत बनी थीं, जो पूँजीवाद से कम्युनिज़्म तक संक्रमण में अपरिहार्य रूप में बनी रहती हैं, और जिनके पूरे भविष्य पर एक प्रश्न चिन्ह है…अब जिस चीज़ से फर्क पड़ता है वह यह है कि जनता के प्रति किस प्रकार की पहुँच रखें और उन्हें कैसे जीतें, और किस तरह से संचरण की जटिल व्यवस्था को स्थापित करें (यानी सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को किस प्रकार संचालित करें)।” (वही, पृ. 373-74) आगे लेनिन इस पूरे विचार को और विस्तार देते हैं, “हमारा पार्टी कार्यक्रम…दिखलाता है कि हमारा राज्य एक मज़दूर राज्य है, लेकिन नौकरशाहाना घुमाव के साथ…. तो, क्या यह कहना सही है कि व्यवहार में इस रूप में आकार ग्रहण करने वाले राज्य के तहत ट्रेड यूनियनों के पास रक्षा करने के लिए कोई चीज़ नहीं है, या कि हम एक बेहद संगठित सर्वहारा वर्ग के भौतिक और आत्मिक हितों की रक्षा करने का काम उनके बिना भी कर सकते हैं? नहीं, यह तर्कप्रणाली सैद्धान्तिक तौर पर ग़लत है…हमारे पास अब एक ऐसी राज्यसत्ता है जिसके तहत अपने आपको सुरक्षित करना एक बेहद संगठित सर्वहारा वर्ग का काम है, जबकि हम, अपनी तरफ़ से, मज़दूरों को उनकी ही राज्यसत्ता से सुरक्षित रखने के काम में, और हमारी राज्यसत्ता को सुरक्षित रखने के काम में, इन मज़दूर संगठनों का इस्तेमाल करेंगे। (वही, पृ. 375–376) यहाँ लेनिन अपने सर्वश्रेष्ठ द्वन्द्वात्मक रूप में हैं। त्रॉत्स्की और बुखारिन की आलोचना के अन्त में लेनिन कहते हैं कि वास्तव में उनके पूरे प्रस्ताव को लागू करने का अर्थ होगा ट्रेड यूनियनों को नौकरशाही के हाथों प्रताड़ित करवाना।

अब देखते हैं कि लेनिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ की पूरी थीसिस के बारे में क्या कहते हैं, साथ ही यह भी ग़ौर करें कि लेनिन जिस-जिस नुक्ते पर उनकी आलोचना कर रहे हैं, क्या ठीक-ठीक उन्हीं नुक्तों पर सोवियत संघ के तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और “वामपन्थी” आलोचकों की आलोचना नहीं की जा सकती है?

“यह कम्युनिज़्म से सीधे तौर पर रिश्ता तोड़ना है और संघाधिपत्यवाद की ओर संक्रमण है। सारतः, यह श्ल्याप्निकोव के उसी नारे “राज्य का यूनियनीकरण कर दो” का दुहराव है, और इसका अर्थ है टुकड़े-टुकड़े में सर्वोच्च आर्थिक परिषद (वेसेंखा) के पूरे ढाँचे को सम्बन्धित ट्रेड यूनियनों के हवाले कर देना…

“कम्युनिज़्म कहता है: कम्युनिस्ट पार्टी सर्वहारा वर्ग की हिरावल है, वह ग़ैर-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों का नेतृत्व करती है, शिक्षित करते, तैयार करते, ज्ञान और प्रशिक्षण देते हुए जनसमुदायों को—पहले मज़दूरों और फिर किसानों को—नेतृत्व देती है, ताकि वह उन्हें पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रशासन को अपने हाथ में केन्द्रित करने के योग्य बना सके।

“संघाधिपत्यवाद उद्योगों में विखण्डित गैर-पार्टी मज़दूर जनसमुदायों को उनके उद्योगों के प्रबन्धन का काम सौंप देता है, और इस प्रकार पार्टी को ग़ैर-ज़रूरी बना देता है, और इस प्रक्रिया में वह जनसमुदायों को प्रशिक्षित करने का कोई लम्बा अभियान चला पाने में भी असफल हो जाता है, और वास्तव में उनके हाथों में पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को केन्द्रित कर पाने में भी असफल हो जाता है।” (लेनिन, दि पार्टी क्राइसिस, ‘ऑन ट्रेड यूनियंस’, छठा मुद्रण, 1986, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, पृ. 399–400) आगे देखें, “अगर औद्योगिक प्रबन्धन के लोगों को ट्रेड यूनियनों के ही द्वारा, जिनके हर दस सदस्यों में से नौ ग़ैर-पार्टी मज़दूर हैं, नियुक्त करना है (“बाध्यताकारी नामांकन”), तो पार्टी की क्या ज़रूरत है?” (वही, पृ. 400)

लेनिन मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता पर अनालोचनात्मक तरीके से जश्न मनाने वाली इस प्रवृत्ति के बारे में क्या कहते हैं:

“इस भटकाव की सैद्धान्तिक रूप से सबसे पूर्ण और स्पष्ट रूप से परिभाषित अभिव्यक्ति तथाकथित ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ ग्रुप की थीसिसें और साहित्यिक उत्पाद हैं। मिसाल के तौर पर, इसको इस ग्रुप द्वारा प्रतिपादित निम्न थीसिस पर्याप्त साफ तरीके से चित्रित कर देती है: “राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के प्रबन्धन को संगठित करने का काम एक अखिल-रूसी उत्पादक कांग्रेस का है जो कि औद्योगिक यूनियनों में संगठित होगी, जो कि वास्तव में गणराज्य की राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था को संचालित करने के लिए एक केन्द्रीय निकाय का चुनाव करेंगी।” इस और कई ऐसे ही कथनों की बुनियाद में जो विचार हैं वे सिद्धान्ततः मूल रूप में ग़लत हैं, और वास्तव में वे मार्क्सवाद और कम्युनिज़्म से एक सम्पूर्ण विच्छेद को दिखलाते हैं…

“मार्क्सवाद बताता है…कि केवल मज़दूर वर्ग की राजनीतिक पार्टी, यानी कम्युनिस्ट पार्टी ही सर्वहारा वर्ग के हिरावल और साथ ही समूची मेहनतकश आबादी को एकजुट करने, प्रशिक्षित करने और संगठित करने में सक्षम है, जो कि एकमात्र शक्ति है जो इस जनसमुदाय के अपरिहार्य टटपुँजिया दोलनों और सर्वहारा वर्ग के भीतर मौजूद संकीर्ण पेशा-केन्द्रित यूनियनवाद या पेशागत पूर्वाग्रहों का प्रतिरोध करने, और साथ ही समूचे सर्वहारा वर्ग की एकजुट गतिविधियों को निर्देशित करने में सक्षम होगी, यानी कि उसे राजनीतिक रूप से नेतृत्व देने, और इसके जरिये समूची मेहनतकश आबादी के सभी जनसमुदायों को नेतृत्व देने में सक्षम होगी। इसके बिना सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व असम्भव है।

“ग़ैर-पार्टी सर्वहारा के सम्बन्ध में कम्युनिस्ट पार्टी की भूमिका के बारे में, और मेहनतकश आबादी की समस्त जनसमुदायों से इन दोनों कारकों के सम्बन्ध के बारे में यह ग़लत समझदारी, कम्युनिज़्म से एक आमूलगामी सैद्धान्तिक प्रस्थान है और संघाधिपत्यवाद और अराजकतावाद की ओर विचलन है, और यह विचलन वर्कर्स अपोज़ीशन के सभी दृष्टिकोणों के पोर-पोर में समाया हुआ है।” (लेनिन, प्रिलिमिनरी ड्राफ्रट रिज़ोल्यूशन ऑफ़ दि टेन्थ कांग्रेस ऑफ़ आर.सी.पी. ऑन दि सिंडिकलिस्ट एंड एनार्किस्ट डेवियेशन इन अवर पार्टी, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठा मुद्रण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, 1986, पृ. 458–59) इसके कुछ ही आगे लेनिन लिखते हैं, “…संघाधिपत्यवादी और अराजकतावादी एक तात्कालिक नारे के तौर पर कहते हैं “उत्पादकों की कांग्रेस या कांग्रेसें” जो कि आर्थिक प्रबन्धन के निकायों का “चुनाव करें”। इस प्रकार, सर्वहारा वर्ग की ट्रेड यूनियनों के सम्बन्ध में, ट्रेड यूनियनों के मेहनतकश जनता के अर्द्ध-टटपुँजिया या यहाँ तक कि पूरी तरह से टटपुँजिया जनसमुदायों से सम्बन्ध में, पार्टी की शिक्षणात्मक और संगठनात्मक भूमिका को पूरी तरह से गोल कर दिया गया है, ख़त्म कर दिया गया है, और अर्थव्यवस्था के नये रूपों के निर्माण के उस व्यावहारिक कार्य को जारी रखने और उसे सही करने की बजाय, जिसे कि सोवियत राज्यसत्ता ने पहले से ही शुरू कर दिया है, हमें इस काम में टटपुँजिया अराजकतावादी विघ्न मिलता है, जो कि केवल बुर्जुआ प्रतिक्रान्ति की तरफ़ ही ले जा सकता है।” (वही, पृ. 460)

इसी मसौदा प्रस्ताव में एक जगह लेनिन लिखते हैं: “पहली बात तो यह कि “उत्पादक” की अवधारणा सर्वहाराओं को अर्द्धसर्वहाराओं और छोटे माल उत्पादकों के साथ मिश्रित कर देती है, जो कि वर्ग संघर्ष की अवधारणा से आमूलगामी प्रस्थान है और साथ ही इस बुनियादी माँग से भी प्रस्थान है कि वर्गों के बीच सटीक तौर पर फर्क किया जाये।

“दूसरी बात यह है कि गैर-पार्टी जनसमुदायों को निमन्त्रण या उसके साथ खिलवाड़, जिसे कि ऊपर उद्धृत थीसिस में अभिव्यक्त किया गया है, वह भी मार्क्सवाद से उतना ही आमूलगामी प्रस्थान है।” (वही, पृ. 458)

हमने विस्तार से यहाँ लेनिन को इसलिए उद्धृत किया ताकि यह समझा जा सके कि लेनिन की ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण’ के बारे में क्या अवस्थिति थी। हम देख सकते हैं कि तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आलोचनाओं का जवाब मार्क्सवाद-लेनिनवाद ने समाजवाद के ठोस अनुभवों के आधार पर बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में ही दे दिया था। आज ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ और ‘मज़दूर मुक्ति प्रकाशन’ जैसे राजनीतिक नवधनाढ्य जो आलोचना पेश कर रहे हैं, वह इन्हीं पुरानी “वामपन्थी” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आलोचनाओं का नये शब्दों में प्रस्तुत मिश्रण है। साथ ही, लेनिन की इस पूरी अवस्थिति में पॉल स्वीज़ी, इस्तेवान मेस्ज़ारोस, चार्ल्स बेतेलहाइम और रणधीर सिंह की अवस्थितियों की भी एक आलोचना मिलती है।

लेनिन ट्रेड यूनियनों के कार्यभार के तौर पर बताते हुए कहते हैं कि ट्रेड यूनियनों को मज़दूरों के बीच से हर प्रकार के संकीर्ण विचारों को हटाना चाहिए और उन्हें समझाना चाहिए कि उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण का अर्थ अलग-अलग कारखानों या अलग-अलग उद्योगों में मज़दूरों का उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण नहीं, बल्कि पूरी राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के नियोजन में मज़दूर वर्ग की राज्यसत्ता और पार्टी के ज़रिये मज़दूर वर्ग का नियन्त्रण है। ट्रेड यूनियन और पार्टी के रिश्तों के बारे में, ट्रेड यूनियनों की सर्वहारा अधिनायकत्व के दौर में भूमिका के बारे में और साथ ही पार्टी द्वारा ट्रेड यूनियनों के नेतृत्व के बारे में लेनिन की रचनाओं से ऐसे दर्जनों और उद्धरण दिये जा सकते हैं। लेकिन हमें लगता है कि उपरोक्त उद्धरणों से अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भटकाव और त्रॉत्स्की-बुखारिन धड़े के दक्षिणपन्थी भटकावों की इन बुनियादी सवालों पर ग़लतियों के विषय पर लेनिन की अवस्थिति पर्याप्त साफ़ हो चुकी है। उपरोक्त उद्धरणों में लेनिन राज्य और सोवियत, पार्टी और सोवियत, राज्य और ट्रेड यूनियन, पार्टी और ट्रेड यूनियन के आपसी सम्बन्धों बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें कहते हैं। इससे पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका हर जगह पर स्पष्ट है; चाहे वह सोवियतें हों या ट्रेड यूनियनें। अब यह समझना भी ज़रूरी है कि पार्टी को यह नेतृत्वकारी भूमिका लेनिन क्यों सौंपते हैं। इसके लिए पार्टी की मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा पर विचार करना ज़रूरी है।

5) पार्टी की मार्क्सवादी-लेनिनवादी अवधारणा और सोवियत समाजवाद की कुछ आरम्भिक आलोचनाएँ

पार्टी आखि़र होती क्या है? पार्टी की लेनिनवादी समझदारी क्या है? सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व और सर्वहारा वर्ग के राज्य में पार्टी की भूमिका और स्थान क्या है? कुछ बातें ऊपर आयीं हैं जिससे लेनिन का यह विचार हमें पहले ही पता चल चुका है कि सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण सर्वहारा वर्ग की पार्टी होती है और सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने का काम पार्टी करती है। लेकिन इस विषय पर और स्पष्टता की ज़रूरत है।

हमने सोवियत समाजवाद की जिन आलोचनाओं का ऊपर ज़िक्र किया है उसमें जो एक चीज़ साझा है वह है पार्टी को वर्ग के विरुद्ध खड़ा करना। इन आलोचनाओं में पार्टी एक ऐसी ताक़त के रूप में आती है, जो वर्ग को सत्ता से वंचित कर देती है; जो मज़दूर वर्ग के राजनीतिक केन्द्रों और सत्ता के केन्द्रों को निष्प्रभावी बनाती जाती है, यानी कि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें; जो ऐसा करते हुए उत्पादन के साधनों पर राजकीय मालिकाना क़ायम कर लेती है और ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों’ को इससे अलगावग्रस्त कर देती है; उत्पादन के साधनों के समाजीकरण में पार्टी ऐसा करके बाधा डालती है; सर्वहारा अधिनायकत्व को पार्टी लागू करने लगती है; पार्टी एक समूह थी जिसने वर्ग की नुमाइन्दगी का दावा किया और सत्ता निगल गयी!

वास्तव में, सोवियत समाजवाद की इस प्रकार की आलोचनाएँ कोई नयी नहीं हैं। हम सोवियत समाजवाद के कुछ शुरुआती आलोचकों और बोल्शेविक पार्टी के बीच हुई कुछ बेहद अहम सैद्धान्तिक बहसों का संक्षिप्त ब्यौरा देंगे और दिखलाएँगे कि इनमें से अधिकांश आलोचनाओं की अवस्थिति न सिर्फ़ अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों की अवस्थिति है, बल्कि उस पर काऊत्स्की जैसे संशोधनवादियों, ऑस्ट्रेलियाई त्रॉत्स्कीपन्थी वॉरेल, सिमोन वील और रिज़्ज़ी जैसे मार्क्सवाद के सचेतन विरोधियों आदि जैसे लोगों का भी गहरा प्रभाव है। उसके बाद हम पार्टी और वर्ग व पार्टी और राज्यसत्ता के रिश्तों के बारे में लेनिन, स्तालिन और माओ के विचारों को आपके सामने रखेंगे।

बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में अक्टूबर क्रान्ति के बाद जो सर्वहारा सत्ता अस्तित्व में आयी उसके प्रमुख शुरुआती आलोचकों में द्वितीय इण्टरनेशनल और जर्मन सामाजिक-जनवादी पार्टी के नेता कार्ल काऊत्स्की प्रमुख थे। काऊत्स्की अपने पतन से पहले विश्व कम्युनिस्ट आन्दोलन के एक निर्विवाद नेता थे और कृषि प्रश्न समेत कई अहम मुद्दों पर उन्होंने मार्क्सवादी सिद्धान्त में महत्वपूर्ण इज़ाफ़े भी किये। लेकिन साम्राज्यवाद के दौर में पहले बड़े युद्ध, यानी, प्रथम विश्वयुद्ध के साथ, इस पीढ़ी के उन सामाजिक-जनवादियों का पतन उभर कर सतह पर आ गया, जो कि उन्नत देशों में मज़दूर आन्दोलनों के एक हिस्से के पतन को अभिव्यक्त कर रहे थे। इसके बाद से काऊत्स्की ने सतत् लेनिन, बोल्शेविक पार्टी और रूस में समाजवादी प्रयोग को अपना निशाना बनाया।

काऊत्स्की ने दो प्रमुख सवालों पर बोल्शेविक पार्टी और विशेष तौर पर लेनिन की आलोचना की। एक सवाल तो यह था कि बोल्शेविक पार्टी ने एक अपरिपक्व क्रान्ति कर दी है क्योंकि समाजवादी क्रान्ति एक उन्नत पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों वाले देश में ही हो सकती है और काऊत्स्की का मानना है कि बोल्शेविक एक ऐसे घोड़े पर सवार हो गये हैं जिसकी सवारी उन्हें नहीं आती है; और यह कि बोल्शेविक इस क्रान्ति के समाजवादी होने का कितना भी दावा करें, यह क्रान्ति एक बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति ही है। हम इस प्रश्न पर यहाँ चर्चा नहीं करेंगे क्योंकि यहाँ अभी इसकी कोई प्रासंगिकता नहीं है और इसके सटीक जवाब के लिए हम पाठकों से लेनिन द्वारा लिखित ‘सर्वहारा क्रान्ति और ग़द्दार काऊत्स्की’ का सन्दर्भ देखने का आग्रह करेंगे। लेकिन काऊत्स्की ने जो दूसरा सवाल उठाया वह हूबहू वही सवाल है जो कि आज की तमाम नव-“वामपन्थी” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आलोचनाएँ उठा रही हैं। यह दूसरा सवाल यह था कि सोवियत संघ में एक प्रबन्धकीय कुलीन वर्ग पैदा हो गया है जिसने सर्वहारा वर्ग को सत्ता से अपदस्थ कर दिया है। यह प्रबन्धकीय कुलीन वर्ग जो कि वास्तव में नौकरशाही ही है, राज्यसत्ता पर आसीन हो गया है तथा पार्टी और राज्यसत्ता वर्ग के नाम पर शासन कर रहे हैं। (काऊत्स्की, टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म, 1919, पृ. 21) काऊत्स्की इस नये शासक वर्ग को पूँजीवादी कहने से सफ़ाई से बच निकले थे, क्योंकि काऊत्स्की को भी पता था कि ऐसा कहकर वह बेहद असुविधाजनक विरोधाभासों के गड्ढे में गिर जायेंगे। काऊत्स्की की यह बात सही थी कि रूस का मज़दूर वर्ग बेहद पिछड़ा हुआ है और वह अपने से उद्योगों के प्रबन्धन और राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के संचालन का कार्य नहीं कर पायेगा। ऐसे में पार्टी और राज्य पर एक प्रबन्धक नौकरशाही का कब्ज़ा हो जायेगा जो मज़दूर वर्ग के नाम पर शासन करेगी। ऐसा नहीं था कि रूस में समाजवादी क्रान्ति और मज़दूर वर्ग की सीमाओं को लेनिन नहीं समझते थे। इस बारे में लेनिन ने स्पष्ट किया कि रूसी क्रान्ति बेहद अपवादस्वरूप स्थितियों में हुई थी। बोल्शेविकों के पास क्रान्ति का वक़्त चुनने का सुविधाजनक विशेषाधिकार नहीं था। जाहिर था, कि प्रथम विश्वयुद्ध, गृहयुद्ध, मज़दूरों और किसानों के क्रान्तिकारी आन्दोलन और स्वतःस्फूर्त तरीके से सोवियतों के अस्तित्व में आने के कारण बोल्शेविक पार्टी को 1917 में जनता के आन्दोलनों की बागडोर अपने हाथ में लेकर उसे समाजवादी क्रान्ति की मंज़िल तक पहुँचाना पड़ा, क्योंकि तब आंशिक बुर्जुआ क्रान्ति को भी पूर्णता की मंज़िल तक पहुँचाने के लिए समाजवादी क्रान्ति अनिवार्य हो गयी थी। लेनिन जानते थे कि रूस का मज़दूर वर्ग काऊत्स्की के शब्दों में घुड़सवारी सीखने से पहले ही घोड़े पर सवार हो गया है! लेनिन यह भी जानते थे कि बुर्जुआ जनवादी क्रान्ति के कुछ अहम छूटे हुए कार्यभारों को भी समाजवादी क्रान्ति को पूरा करना है और इसलिए यह दृष्टि-भ्रम पैदा हो सकता है कि बोल्शेविक क्रान्ति एक जनवादी क्रान्ति है।

1920 में, जब अभी त्रॉत्स्की अपेक्षाकृत सही अवस्थिति पर थे जो कि लेनिन की अवस्थिति के क़रीब थी, तो उन्होंने काऊत्स्की को अच्छा उत्तर दिया था। 1920 में त्रॉत्स्की ने काऊत्स्की की पुस्तिका के शीर्षक को अपनाते हुए अपनी पुस्तिका टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म निकाली। इसमें त्रॉत्स्की ने काऊत्स्की को यह उत्तर दिया:

“ठीक उतने ही मज़बूत आधार पर आप पूछ सकते हैं, ‘क्या काऊत्स्की जीन पर ढंग से बैठना सीखे बगैर पशु को उसके रास्ते पर संचालित कर सकते हैं? हमारे पास यह मानने के पर्याप्त आधार हैं कि काऊत्स्की ऐसे ख़तरनाक, शुद्ध रूप से बोल्शेविक प्रयोग के लिए अपने आपको तैयार नहीं कर पाएँगे। दूसरी तरफ़, हमें यह डर है कि काऊत्स्की को घोड़े की पीठ पर चढ़ने का जोखिम उठाये बग़ैर, घुड़सवारी के राज़ जानने में पर्याप्त कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। क्योंकि बुनियादी बोल्शेविक पूर्वाग्रह यही है कि: आप घोड़े पर बैठकर ही घुड़सवारी सीख सकते हैं।

“इसके अतिरिक्त, रूसी मज़दूर वर्ग को इस घोड़े पर बैठना पड़ा, अन्यथा उसे समूचे युग के ऐतिहासिक मंच से बाहर फेंक दिया जाता। और, एक बार जब इसने सत्ता हासिल कर ली, और अब इसकी बागडोर संभाल ली है, तो बाकी चीज़ें अपने आप ही होती जाएँगी…‘जीन पर सवार होने के बाद घुड़सवार घोड़े को निर्देशित करने के लिए बाध्य होता है’ — चाहे उसमें उसकी गर्दन टूट जाने का ख़तरा ही क्यों न हो।” (टेररिज़्म एण्ड कम्युनिज़्म, त्रॉत्स्की, 1920 अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 102)

जाहिर है बोल्शेविक पार्टी इस बात को समझ रही थी कि उसे मज़दूर वर्ग को लम्बे समय तक संस्थाबद्ध नेतृत्व देना होगा। काऊत्स्की का मानना था कि इसके ज़रिये पार्टी वर्ग को अपदस्थ कर देगी; नौकरशाही सर्वहारा वर्ग से सत्ता छीन लेगी और सर्वहारा अधिनायकत्व केवल कागज़ी यथार्थ रह जायेगा। अभी बोल्शेविक पार्टी की तरफ़ से काऊत्स्की का इस मुद्दे पर सबसे सशक्त जवाब आना था और यह ज़िम्मेदारी पूरी की निकोलाई बुखारिन ने, जो अभी हाल ही में अपने “वामपन्थी” भटकाव को और उसके बाद ट्रेड यूनियनों के प्रश्न पर दक्षिणपन्थी भटकाव को छोड़कर लेनिनवादी अवस्थिति पर आये थे (बताने की ज़रूरत नहीं है कि बुखारिन का आगे भी भटकावों के इन दोनों छोरों के बीच दोलन जारी रहा था। लेकिन काऊत्स्की का जवाब देने के मुद्दे पर बुखारिन बिल्कुल सही थे।)

काऊत्स्की ने बोल्शेविक पार्टी पर अपना हमला जारी रखते हुए लिखा कि सोवियत सरकार “दुनिया में सर्वहारा वर्ग के आगे बढ़ने में सबसे बड़ी बाधा है — हंगरी के हॉर्थी शासन या इटली में मुसोलिनी के शासन से भी बुरी बाधा, जबकि मुसोलिनी के शासन ने हर विपक्षी आन्दोलन को सोवियत संघ की तरह पूरी तरह से असम्भव भी नहीं बनाया है।” (काऊत्स्की, डाई इण्टरनेशनाली उण्ड सोवियेतरुसलैण्ड, बर्लिन, 1925, जेएचडब्ल्यू डियेट्ज़ नाख़्ट, पृ. 11) आगे काऊत्स्की ने लिखा कि बोल्शेविक “आज ऐसी स्थिति में हैं जिसमें वे सर्वहारा वर्ग पर प्रभुत्व स्थापित करके और उनका शोषण करके अपना अस्तित्व क़ायम रखते हैं। लेकिन वे एक पूँजीवादी वर्ग की तरह काम नहीं करना चाहते। इसलिए वे सर्वहारा और पूँजी दोनों के ही ऊपर खड़े हैं और उन्हें उपकरण की तरह इस्तेमाल करते हैं।” (वही, पृ. 25) क्या रणधीर सिंह लगभग यही बात नहीं कह रहे हैं? बस रणधीर सिंह इस आरोप को 1930 के दशक में ले गये हैं, जबकि काऊत्स्की 1920 के दशक की शुरुआत के दौर के लिए ही यह आलोचना पेश कर रहे थे।

बुखारिन ने अपनी लम्बी पुस्तिका कार्ल काऊत्स्की एण्ड सोवियत रशिया में काऊत्स्की के तर्क को छिन्न-भिन्न कर दिया। बुखारिन ने पूछा कि आखिर सोवियत राज्यसत्ता का वर्ग चरित्र क्या था और इसी से जुड़ा हुआ सवाल यह था कि सोवियत संघ किस प्रकार की सामाजिक-आर्थिक संरचना थी? या तो काऊत्स्की यह कहें कि बोल्शेविक पार्टी नयी बुर्जुआजी का प्रतिनिधित्व करती है, लेकिन काऊत्स्की यह नहीं कह पा रहे थे। नौकरशाही को नया वर्ग कहना मार्क्सवादी दृष्टिकोण से अव्वल दर्जे की मूर्खता होती, और काऊत्स्की संशोधनवादी होने के बावजूद मार्क्सवादी अर्थशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। इसलिए ऐसा वह कह नहीं सकते थे। नतीजतन, काऊत्स्की निरुत्तर थे। और यहीं पर बुखारिन ने उन्हें पकड़ा। बुखारिन लिखते हैं:

“शासक वर्ग की पहचान हमेशा इस बात से होती है कि उनके पास उत्पादन के साधनों का एकाधिकार होता है, या कम-से-कम एक निश्चित वर्ग व्यवस्था में सबसे महत्वपूर्ण उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है। अगर लोगों का कोई समूह वह वर्ग है, तो इसका अर्थ होगा कि यह समूह सम्पत्ति के तौर पर उत्पादन के ‘राष्ट्रीकृत’ साधनों का मालिक होगा। दूसरे शब्दों में, काऊत्स्की के नज़रिये से यह नतीजा निकलता है कि पोलित ब्यूरो के सदस्य, जिसमें कि मैं भी — कितना अभागा हूँ मैं! — शामिल हूँ समूचे बड़े पैमाने के उद्योग के मालिक और शोषक, यानी कि वित्तीय-पूँजीवादी अल्पतन्त्र हैं, जो कि इससे मुनाफ़े का हस्तगतीकरण करते हैं…” (बुखारिन, काऊत्स्की उण्ड सोवियेतलैण्ड, वियेना, वरलैग फुर लिटरेटूर उण्ड पोलेटिक, पृ. 34–35)।

आगे बुखारिन काऊत्स्की को जवाब देते हैं, “अगर बोल्शेविक लोग कोई वर्ग नहीं हैं, तो इसका अर्थ है कि वे किसी वर्ग की नुमाइन्दगी करते हैं। यह वर्ग बड़े भूस्वामियों का नहीं है (जैसा कि काऊत्स्की भी मानते हैं, उनका सम्पत्ति-हरण हो चुका है)। यह वर्ग पूँजीपति वर्ग भी नहीं है (यह भी काऊत्स्की मानते हैं)। यह वर्ग किसान या बुद्धिजीवी (जिन्हें तो सही रूप में वर्ग कहा भी नहीं जा सकता है) भी नहीं हैं। तो बचता क्या है? सर्वहारा वर्ग।” (वही, पृ.35)

लेनिन, त्रॉत्स्की व बुखारिन की सशक्त आलोचनाओं के बाद भी काऊत्स्की बोल्शेविक पार्टी और सोवियत समाजवाद की आलोचनाएँ लिखते रहे, लेकिन स्पष्ट तौर पर काऊत्स्की का बुनियादी तर्क खण्डित हो चुका था और काऊत्स्की का चरित्र भी जर्मनी में क्रान्तिकारी परिस्थिति तैयार होने के दौरान एक धुर संशोधनवादी और सुधारवादी के तौर पर सामने आने लगा था। इसके साथ ही क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट दायरों में काऊत्स्की की आलोचनाओं का वह स्थान और विश्वस्नीयता नहीं रही थी। लेकिन मूल बात यह थी कि काऊत्स्की के तर्कों के ग़ैर-मार्क्सवादी चरित्र को बोल्शेविक पार्टी की ओर से पेश की गयी आलोचनाओं में अनावृत्त कर दिया गया था।

शुरुआती आलोचनाओं में पॉल लेवी और शुरुआती दौर की रोज़ा लग्ज़मबर्ग की आलोचनाएँ भी महत्वपूर्ण हैं क्योंकि आज भी सोवियत संघ की तमाम “आलोचनाओं” पर इनका प्रभाव देखा जा सकता है। पॉल लेवी, रोज़ा लग्ज़मबर्ग और कार्ल लीब्कनेख़्त की शहादत के बाद जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख नेता थे। बाद में 1921 में उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी से निकाल दिया गया था, जिसका कारण दक्षिणपन्थी अवसरवादी भटकाव था। पॉल लेवी ने बोल्शेविक पार्टी की आलोचना रोज़ा लग्ज़मबर्ग की रचनाओं के संकलन की अपनी प्रस्तावना में की और यह भी साबित करने की कोशिश की कि रोज़ा लग्ज़मबर्ग अन्त तक बोल्शेविज़्म की कटु आलोचक थीं, और उसका एक विकल्प पेश करती थीं। हालाँकि बाद में एडोल्फ वाज़ार्व्स्की और क्लारा ज़ेटकिन द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों से पता चला कि जिन तीन प्रश्नों पर रोज़ा लग्ज़मबर्ग बोल्शेविक पार्टी की नीतियों की आलोचना करती थीं, उनमें से एक पर वह लेनिन से पूरी तरह सहमत हो चुकी थीं, दूसरे पर वह मान चुकी थीं कि बोल्शेविक पार्टी ने जो कदम उठाया उसके अलावा कोई और रास्ता नहीं था, और तीसरे सवाल पर उनकी असहमति बनी हुई थी। लेकिन रोज़ा लग्ज़मबर्ग के शुरुआती दृष्टिकोण पर हम बाद में आते हैं।

पॉल लेवी ने लिखा कि बोल्शेविक पार्टी सर्वहारा वर्ग के नाम पर शासन कर रही थी और लेनिन की सोच ही ऐसी थी। लेवी यह भी कहते हैं कि लेनिन ‘सरकार के रूप’ और ‘राज्यसत्ता के रूप’ में फर्क नहीं करते थे और इसीलिए एक पार्टी के शासन को वह सर्वहारा शासन से गड्ड-मड्ड कर बैठे हैं, जबकि सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य का रूप बहुपार्टी जनवाद भी हो सकता है! यहाँ थोड़ा प्रसंगातर करते हुए बता दें कि ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’ समूह की भी बहुपार्टी जनवाद के बारे में ऐसी ही सोच है, हालाँकि वे इसका निहायत हास्यास्पद कारण बताते हैं; उनके अनुसार अगर सोवियत संघ में बोल्शेविक पार्टी ने बहुपार्टी जनवाद लागू किया होता तो तमाम विजातीय बुर्जुआ प्रवृत्तियों को अपनी अभिव्यक्ति के लिए बुर्जुआ मंच मिल गये होते और वे सर्वहारा वर्ग की पार्टी में घुसपैठ न करतीं, लेकिन ऐसा न होने के कारण ये प्रवृत्तियाँ भेस बदलकर बोल्शेविक पार्टी के भीतर घुस गयीं। लेकिन इतना कहा जा सकता है कि बोल्शेविक पार्टी के भीतर बुर्जुआ प्रवृत्तियों के घुसने का कारण यह नहीं था कि उन्हें घुसपैठ के लिए कोई और पार्टी नहीं मिली! इस हास्यास्पद तर्क पर यही कहा जा सकता है कि बोल्शेविक पार्टी के भीतर जो दो लाइनों का संघर्ष बुर्जुआ और सर्वहारा लाइन के बीच चल रहा था, वह समाज में जारी वर्ग संघर्ष का प्रतिबिम्बन था, न कि अनाथ, बेघर, बेसहारा बुर्जुआ प्रवृत्तियों के बोल्शेविक पार्टी में आसरा ढूँढने के कारण। खै़र, हम पॉल लेवी द्वारा सोवियत समाजवाद की आलोचना पर आते हैं। पॉल लेवी लिखते हैं, “एक सच्ची माँ की तरह, हिरावल ने सोवियत तन्त्र को बनाने में एक कमीज़ तैयार की है, और अब वह — धैर्यपूर्वक या अधैर्यपूर्वक — उस समय का इन्तज़ार कर रही है जब बच्चा उस कमीज़ को पहनने लायक हो जायेगा। जब तक ऐसा नहीं होता तब तक, माँ माँ ही रहती है, कमीज़ कमीज़ रहती है, हिरावल हिरावल रहता है, और सोवियत तन्त्र सोवियत तन्त्र ही रहता है।” (पॉल लेवी, 1922, ‘आइनलीटंग’, रोज़ा लग्ज़मबर्ग की पुस्तक डाई रुसिश्चे रिवोल्यूशन आइन क्रिटिश वूर्डिगुंग में संकलित, बर्लिन: जेसेलशाफ्ट उण्ड एर्ज़ीहुंग, पृ. 29) आगे लेवी कहते हैं कि पार्टी ने वर्ग की जगह शासन करना शुरू कर दिया। सर्वहारा वर्ग को उत्पादन के साधनों पर प्रत्यक्ष नियन्त्रण मिलता, तो वह फलता-फूलता और अपने भविष्य पर नियन्त्रण स्थापित करता (वही, पृ. 50–51)। बोल्शेविकों ने अपनी इस नीति के कारण अपने आपको मज़दूर वर्ग से काट लिया और केवल अपनी सांगठनिक शक्ति के बूते सत्ता में बने रहे (वही, पृ. 47) और अन्त में लेवी इस नतीजे पर पहुँचते हैं, “तो “सर्वहारा वर्ग की तानाशाही” का क्या बचा? कुछ भी नहीं। न तो कोई वस्तुपरक क्षण और न ही आत्मपरक।” (वही, पृ. 51) यहाँ पर भी हम देख सकते हैं कि पार्टी के वर्ग चरित्र का सवाल ग़ायब है। यही वह बुनियादी सवाल है जिससे सभी “वामपन्थी” और दक्षिणपन्थी आलोचक बच निकलते हैं, क्योंकि 1953 तक बोल्शेविक पार्टी के वर्ग चरित्र की बात करना उनके लिए राजनीतिक हाराकीरी के समान होगा।

रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने शुरुआती दौर में बोल्शेविक क्रान्ति की तीन प्रश्नों पर आलोचना की। पहला सवाल तो बोल्शेविकों द्वारा क्रान्ति के तुरन्त बाद जारी भूमि-सम्बन्धी आज्ञप्ति पर था। रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने भूमि सुधारों के पूँजीवादी चरित्र पर सवाल खड़ा करते हुए पूछा था कि कोई समाजवादी राज्य छोटे पैमाने का किसानी मालिकाना क्यों पैदा करेगा? लग्ज़मबर्ग की दलील थी कि इस कदम के साथ सोवियत सत्ता ने अपना एक भावी शत्रु पैदा कर लिया है: छोटा और मँझोला किसान। लेनिन इस बात को समझते थे। लेकिन उन्होंने इसका जवाब देते हुए बताया कि आर्थिक रूप से किसानों के बीच वर्ग विभाजन और कृषि क्षेत्र में पूँजीवाद का विकास होने के बावजूद किसान आबादी राजनीतिक तौर पर अभी भी टटपुँजिया ज़मीन पर खड़ी है। इसके दो कारण हैं, एक तो रूस में जो भूमि सुधार क्रान्ति के पहले क्रमिक प्रक्रिया में हुए थे, वे प्रशियाई पथ से हुए थे, अधूरे थे और उन्होंने ज़मीन की भूख को ख़त्म नहीं किया था। कृषि में पूँजीवाद और किसानों में विभेदीकरण के विकास के बावजूद किसानों में अभी ज़मीन की भूख बनी हुई थी और वे रैडिकल जनवादी भूमि कार्यक्रम तक ही सहमत थे; ऐसे में, तीन-चौथाई आबादी पर समाजवाद को ऊपर से थोपा नहीं जा सकता है और उन्हें अपने अनुभव से सीखने दिया जाना चाहिए। दूसरा अहम कारक यह था कि अक्टूबर क्रान्ति तक भी किसानों में बोल्शेविकों का राजनीतिक प्रभाव बेहद कम था, जबकि समाजवादी-क्रान्तिकारी किसानों की प्रमुख पार्टी बने रहे थे। यही कारण था कि किसान आबादी को राजनीतिक तौर पर समाजवादी कार्यक्रम पर लाने का कार्य पूरा नहीं किया जा सका। तीसरा कारक था बोल्शेविक क्रान्ति का एक बेहद अपवादस्वरूप पैदा हुई परिस्थितियों में रूस में होना। बाद में रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने अपनी इस आलोचना को वापस लेते हुए लिखा था कि महानतम क्रान्तियाँ भी इतिहास द्वारा प्रस्तुत सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकतीं। क्रान्तिकारी स्वयं क्रान्ति की परिस्थितियाँ नहीं चुनते। यह सच है कि किसान प्रश्न रूसी क्रान्ति का ‘चोट का बिन्दु’ (wounded point) था, लेकिन इसका इलाज यूरोप में क्रान्ति के ज़रिये जल्दी हो सकता था।

रोज़ा लग्ज़मबर्ग की दूसरी आलोचना राष्ट्रीय प्रश्न पर बोल्शेविक पार्टी की आत्मनिर्णय के अधिकार की नीति की थी। उन्होंने कहा कि कम्युनिस्ट पार्टी अन्तरराष्ट्रीयतावादी होती है और राष्ट्रों को आत्मनिर्णय का अधिकार देना वास्तव में हर राष्ट्र की बुर्जुआजी को आत्मनिर्णय का अधिकार देना होगा। वास्तव में, इस नीति से सोवियत राज्य ने अपना दूसरा भावी शत्रु पैदा कर लिया है, जो कि अलग-अलग राष्ट्रों की बुर्जुआजी है। लेनिन ने स्पष्ट किया कि यह एक यान्त्रिक दृष्टिकोण है। वास्तव में, जिन देशों में सर्वहारा वर्ग राजनीतिक चेतना की कमी और किसी अन्य प्रभुत्वशाली राष्ट्र द्वारा राष्ट्रीय शोषण और उत्पीड़न का शिकार होने के कारण अपने देश के रैडिकल राष्ट्रीय बुर्जुआ के साथ खड़ा है, उस पर आप अन्तरराष्ट्रीयतावादी राजनीतिक सर्वहारा चेतना थोप नहीं सकते; यह तो सर्वहारा वर्ग समेत उस राष्ट्र की पूरी जनता के बीच में कम्युनिज़्म के प्रति अविश्वास को पैदा करेगा। जिन देशों में सर्वहारा वर्ग अपनी राजनीतिक स्वायत्तता को हासिल कर चुका है और कम्युनिस्ट पार्टी के झण्डे तले खड़ा है, वहाँ निश्चित तौर पर आत्मनिर्णय का यह अधिकार उस राष्ट्र की मेहनतकश आबादी को मिलेगा, उस राष्ट्र की बुर्जुआजी को नहीं। लेकिन रोज़ा लग्ज़मबर्ग अन्त तक इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुई थीं।

लेकिन रोज़ा लग्ज़मबर्ग की जो तीसरी आलोचना थी, वह तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों और “वामपन्थी” आलोचकों ने उधार ली है। रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने जनवाद और अधिनायकत्व के प्रश्न को उठाते हुए बोल्शेविक पार्टी पर प्रतिस्थापनवाद की तरफ़ जाने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि बोल्शेविक पार्टी ने रूसी सर्वहारा वर्ग और मेहनतकश आबादी के राजनीतिक जीवन और राजनीतिक संगठन को तहस-नहस कर दिया था। इस आलोचना को बाद में रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने स्वयं ही ठुकरा दिया था। रोज़ा लग्ज़मबर्ग ने लिखा था, “केवल सरकार के समर्थकों के लिए, केवल एक पार्टी के सदस्यों के लिए आज़ादी — चाहे वे कितने ज़्यादा भी क्यों न हों — वास्तव में कोई आज़ादी नहीं है। आज़ादी हमेशा और विशेष तौर पर उस व्यक्ति के लिए आज़ादी है जो कि अलग सोचता है। ‘न्याय’ की किसी कट्टरतावादी अवधारणा के कारण नहीं, बल्कि ऐसा इसलिए है क्योंकि राजनीतिक आज़ादी में जो भी निर्देशात्मक, पूर्ण और शुद्ध करने वाला है वह इसकी मूल चारित्रिक विशेषताओं पर निर्भर करता है, और इसकी प्रभाविता उस समय ख़त्म हो जाती है जब ‘आज़ादी’ एक विशेषाधिकार बन जाती है।” (रोज़ा लग्ज़मबर्ग, ‘दि रशियन रिवोल्यूशन’, रोज़ा लग्ज़मबर्ग स्पीक्स, न्यूयॉर्क, पाथफाइण्डर प्रेस, 1970, पृ. 389–90) यहाँ पर रोज़ा लग्ज़मबर्ग यह नहीं समझ पायी हैं कि सर्वहारा राज्यसत्ता भी वास्तव में एक दमन का उपकरण ही है और समाजवादी संक्रमण के ऐतिहासिक काल में कभी-कभी व्यापक मेहनतकश जनता के कुछ हिस्से भी इसके प्रभाव क्षेत्र में आ सकते हैं। लेनिन ने क्रोंस्टाट विद्रोह के बारे में कहा था कि यह सच है कि इसमें मज़दूर, आम किसान आबादी और आम सैनिक शामिल थे। लेकिन ग़ैर-सर्वहारा चेतना के कारण वे सर्वहारा वर्ग की सत्ता पर ही हमला कर रहे थे। नतीजतन, सवर्हारा राज्यसत्ता उनका दमन ही कर सकती है। यह एक विभ्रम है कि सर्वहारा राज्यसत्ता समाजवादी संक्रमण के दौर में मेहनतकश जनता के उन हिस्सों पर कुछ दमनात्मक कदम नहीं उठा सकती जो कि सचेतन तौर पर सर्वहारा अवस्थिति से प्रस्थान कर प्रतिक्रान्तिकारी अवस्थिति पर जाकर खड़े होते हैं। इस विषय-वस्तु पर हम आगे लौटेंगे। रोज़ा लग्ज़मबर्ग के एक अन्य उद्धरण को देखते हैं, “अक्षय ऊर्जा और असीमित आदर्शवाद वाले कुछ दर्जन पार्टी नेता निर्देशन करते हैं और शासन करते हैं। उनके बीच, वास्तव में केवल एक दर्जन श्रेष्ठतम दिमाग वाले लोग नेतृत्व करते हैं और मज़दूर वर्ग के एक कुलीन हिस्से को वक़्त-वक़्त पर मीटिंगों में बुलाया जाता है, जहाँ उन्हें नेताओं के भाषणों पर तालियाँ बजानी होती हैं, और प्रस्तावित प्रस्तावों को एकमत से अनुमोदित करना होता है — मूल तौर पर, फिर यह एक गिरोह का मामला बन जाता है — एक तानाशाही, और निश्चित तौर पर सर्वहारा वर्ग की तानाशाही नहीं, यद्यपि केवल मुट्ठी भर राजनीतिज्ञों की तानाशाही, यानी बुर्जुआ अर्थों में एक तानाशाही, जैकोबिनों के शासन के अर्थ में एक तानाशाही।” (वही, पृ. 391)।

लेनिन ने रोज़ा लग्ज़मबर्ग के पार्टी, वर्ग, जनवाद और तानाशाही के बारे में विचारों की आलोचना करते हुए कहा था कि इन विचारों पर उदार बुर्जुआ जनवाद के विचारों का ज़बर्दस्त प्रभाव है। इस आलोचना के बाद, जैसा कि अलेक्ज़ैण्डर वाज़ार्व्स्की और क्लारा जे़टकिन ने बताया, रोज़ा लग्ज़मबर्ग अपनी शहादत से पहले इस सवाल पर मोटे तौर पर लेनिन से सहमत हो चुकी थीं। रोज़ा लग्ज़मबर्ग के इन शुरुआती तर्कों की लेनिनवादी अवस्थिति से सबसे सटीक आलोचना हंगरी के प्रसिद्ध मार्क्सवादी चिन्तक ग्यॉर्गी लूकाच ने रखी और उस पर यहाँ विचार करना तमाम ग़ैर-पार्टी क्रान्तिवादी और संघाधिपत्यवादी आलोचकों की स्वतःस्फूर्तता-अन्धभक्ति (spontaneity-fetishism) का पर्दाफाश करने और सही लेनिनवादी अवस्थिति को समझने के लिए काफ़ी उपयोगी होगा। 1923 में लूकाच ने ‘इतिहास और वर्ग चेतना’ नामक अपनी प्रसिद्ध रचना में रोज़ा लग्ज़मबर्ग की भूल के बारे में लिखते हुए कहा कि रोज़ा का रुख़ यहाँ “क्रान्ति की स्वतःस्फूर्त तात्विक शक्तियों के, सबसे अधिक उस वर्ग के जिसे इतिहास ने क्रान्ति का नेतृत्व करने का ज़िम्मा सौंपा था, अतिरेकपूर्ण मूल्यांकन से निर्धारित हुआ था।” (ग्यॉर्गी लूकाच, 1971, हिस्ट्री एण्ड क्लास कॉन्शसनेस, मर्लिन प्रेस, लन्दन, पृ. 279)। लूकाच के अनुसार, “(लग्ज़मबर्ग) बोल्शेविकों द्वारा मज़दूरों के आन्दोलन में क्रान्ति की स्पिरिट की गारण्टी के तौर पर संगठन के प्रश्न को केन्द्रीय भूमिका प्रदान करने को अतिरंजित समझती हैं। वह इसके उलट विचार रखती हैं कि वास्तविक क्रान्तिकारी स्पिरिट सिर्फ़ और सिर्फ़ जनता की तात्विक स्वतःस्फूर्तता में खोजी और पायी जा सकती है।” (वही, पृ. 284) लेकिन लूकाच अपना तर्क सबसे पूर्णता में यहाँ रखते हैं: “किसी आन्दोलन की स्वतःस्फूर्तता…विशुद्ध आर्थिक नियमों द्वारा इसके निर्धारण की सिर्फ़ एक सचेतन, जन-मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्ति है…ऐसे उभार उतने ही स्वतःस्फूर्त ढंग से ठण्डे भी पड़ जाते हैं, ज्यों ही उनके तात्कालिक लक्ष्य हासिल हो जाते हैं या हासिल होने योग्य महसूस होते हैं, वैसे ही उनका क्षरण हो जाता है।” (वही, पृ. 307) यह बात मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्तता पर जितनी क्रान्ति के पहले के दौर की लिए लागू होती है, उतनी ही क्रान्ति के बाद के दौर के लिए भी लागू होती है। फैक्टरी कमेटियों के आन्दोलन की असफलता को इसकी रोशनी में विश्लेषित किया जा सकता है। स्वतःस्फूर्त रूप से मज़दूर वर्ग या कम-से-कम उसका एक हिस्सा पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान भी तब तक आर्थिक तर्क (pecuniary logic) से ही चलेगा जब तक कि बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ नहीं दिया जाये और सर्वहारा वर्ग की विचारधारा (कम्युनिस्ट पार्टी जिसका मूर्त रूप होती है) के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर स्थापित न कर दिया जाये। आगे लूकाच कहते हैं, “(इसलिए) ज़रूरी है कि… स्वतःस्फूर्तता और सचेत नियन्त्रण के बीच अन्तरक्रिया हो…कम्युनिस्ट पार्टियों के गठन में जो चीज़ अनूठी थी वह थी स्वतःस्फूर्त कार्रवाई और सचेत, सैद्धान्तिक दूरदर्शिता के बीच नया सम्बन्ध, यह बुर्जुआ वर्ग की सिर्फ़ ‘चिन्तनशील’, कार्यरूप में परकीकृत (रीइफाइड) चेतना की विशुद्ध पोस्ट फेस्टम संरचना पर स्थायी आक्रमण और धीरे-धीरे उसका लुप्त होना था।” (वही, पृ. 317) यहाँ पर लूकाच अपने श्रेष्ठतम लेनिनवादी रूप में हैं जब वह लिखते हैं कि यह अनिवार्य है कि “सर्वहारा वर्ग राज्यसत्ता को सभी परिस्थितियों में अपने हाथ में रखने के लिए अपने पास मौजूद सभी साधनों का इस्तेमाल करे। विजयी सर्वहारा वर्ग को आर्थिक या विचारधारात्मक तौर पर अपनी नीति को पहले से ही कठमुल्ला तरीके से सूत्रबद्ध करने की भूल नहीं करनी चाहिए। वर्गों का जिस रूप में पुनर्स्तरीकरण हुआ है और साथ ही अधिनायकत्व के लिए मज़दूरों के निश्चित समूहों को किस प्रकार अपने पक्ष में करना या कम-से-कम उन्हें अपनी तटस्थता बनाये रखने तक लाना सम्भव और अनिवार्य है, इस पर निर्भर रहते हुए सर्वहारा वर्ग को अपनी आर्थिक नीति (समाजीकरण, छूटें, आदि) में पूरी आज़ादी के साथ दाँव-पेच करने में सक्षम होना चाहिए। उसी प्रकार, उसे स्वतन्त्रता के जटिल मुद्दे पर अपने आपको कभी भी ज़बरन बाध्य किये जाने की आज्ञा नहीं देनी चाहिए…स्वतन्त्रता अपने आपमें (समाजीकरण से ज़्यादा) किसी मूल्य का प्रतिनिधित्व नहीं करती। स्वतन्त्रता को हर स्थिति में सर्वहारा वर्ग के शासन की सेवा करनी चाहिए, न कि इसका उल्टा।” (वही, पृ. 292) यहाँ लूकाच ने लेनिन की पूरी अवस्थिति को सटीकता के साथ पेश किया है।

लेकिन मौजूदा “वामपन्थी” और संघाधिपत्यवादी आलोचकों के ज़्यादा क़रीबी पुरखों की धारा है डच “वामपन्थी” धारा और जर्मन कम्युनिस्ट आन्दोलन में मौजूद “वामपन्थी” भटकाव की धारा। इन धाराओं के प्रमुख प्रतिनिधि पान्नेकोएक (यह वही हॉर्नर हैं जिनकी लेनिन ने ‘“वामपन्थी” कम्युनिज़्म: एक बचकाना मर्ज़’ में आलोचना की थी), रूले और गॉर्टर थे। इसमें आगे कार्ल कोर्श भी शामिल हुए, जो कि फ्रैंकफर्ट स्कूल के पुरोधाओं के दार्शनिक प्रेरणा-स्रोतों में से एक थे। इन “वामपन्थी” भटकावग्रस्त बुद्धिजीवियों के वैचारिक विकास की शुरुआत इस विचार से हुई कि रूस की विशिष्ट परिस्थितियों के कारण वहाँ समाजवादी सत्ता के विकास होने की सम्भावना ज़्यादा है लेकिन समाजवादी व्यवस्था के विकास की सम्भावनाएँ क्षीण हैं (गॉर्टर व पान्नेकोएक) जबकि कोर्श व रूले का विचार यह था कि समाजवादी सत्ता स्थापित ही नहीं हो सकी। लेकिन इन सबका अन्त काउंसिल कम्युनिज़्म के विचार पर हुआ। पान्नेकोएक और गॉर्टर का शुरू में मानना था कि रूस में जो पिछड़ा और अर्द्धविकसित पूँजीवाद था उसके कारण वहाँ बुर्जुआ विचारधारा का प्रभाव सर्वहारा वर्ग पर कम था और उसे कम्युनिज़्म के पक्ष में जीतना आसान था। लेकिन यही पिछड़ापन एक बाधा भी पैदा करता था। चूँकि, पान्नेकोएक और गॉर्टर के अनुसार, समाजवादी व्यवस्था के विकास के लिए एक उन्नत पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों और उत्पादक शक्तियों वाली सामाजिक संरचना की ज़रूरत होती है, इसलिए एक पिछड़ी उत्पादक शक्तियों वाले देश में समाजवादी व्यवस्था का उत्तरोत्तर विकास सम्भव नहीं है। ऐसे में, पार्टी हिरावलपन्थी हो जायेगी और वर्ग पर अपनी इच्छा को थोपने लगेगी। यही कारण था कि रूसी पार्टी बेहद केन्द्रीकृत थी और यही कारण था कि उसने वर्ग को शासन से अपदस्थ कर सत्ता अपने हाथों मे केन्द्रित कर ली थी। अन्त में गॉर्टर और पान्नेकोएक इस राय पर पहुँच गये कि मज़दूर सत्ता को लागू करने का उपकरण सर्वहारा वर्ग की पार्टी नहीं बल्कि मज़दूर परिषदें होंगी। और इसी नतीजे पर पहुँचे थे जर्मन कम्युनिस्ट पार्टी के “वामपन्थी” भटकाव से ग्रस्त धड़े के सदस्य ओटो रूले और कार्ल कोर्श, हालाँकि वे दोनों अलग-अलग रास्तों से इस नतीजे पर पहुँचे थे। ओटो रूले ने इस धारा के भटकाव को सबसे सक्षम अभिव्यक्ति दी थी, “केन्द्रीयतावाद बुर्जुआ-पूँजीवादी युग का संगठनात्मक सिद्धान्त है। यह एक बुर्जुआ राज्य और पूँजीवादी अर्थव्यवस्था का निर्माण करता है। सर्वहारा राज्य और समाजवादी अर्थव्यवस्था का नहीं। इनके लिए तो काउंसिल व्यवस्था की ज़रूरत होती है।” (ओटो रूले, 1920, ‘बेरिख़्ट उबेर मोस्काऊ’, डाई एक्टियन, एक्स, 39–40) एक अन्य स्थान पर रूले लिखते हैं, “बिना आर्थिक आधार (यानी ‘प्रत्यक्ष उत्पादकों के उत्पादन के साधनों पर नियन्त्रण’ – अनु.) के राजनीतिक समाजवाद। एक सैद्धान्तिक निर्मिति। एक नौकरशाहाना शासन। कागज़ी आज्ञप्तियों का एक संग्रह। एक उद्वेलनात्मक जुमला। एक भयंकर निराशा।” (ओटो रूले, 1920, ‘मोस्काओ उण्ड वॉर’, डाई एक्टियन, एक्स, 37–38)। 1923–24 तक डच “वामपन्थी” धारा और ओटो रूले एक ही अवस्थिति पर आ चुके थे। कार्ल कोर्श भी थोड़ी देर से 1927 में इसी नतीजे पर पहुँच गये थे। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है। सभी “वामपन्थी” कम्युनिस्ट और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कुछ बुनियादी धारणाएँ शेयर करते हैं और इसलिए अक्सर देर-सबेर वे मिलते-जुलते नतीजों पर पहुँचते हैं, और वे धारणाएँ अर्थवाद (राजनीति पर आर्थिक कारकों को प्रधानता देना), मज़दूरवाद (सर्वहारा चेतना को हिरावल के अभिकरण द्वारा सचेतन तौर पर निःसृत की जाने वाली चेतना की बजाय मज़दूर वर्ग की स्वतःस्फूर्त चेतना समझना) और कार्यकारी निर्णयों (executive decisions) द्वारा अलगाव को समाप्त करने की सोच रखना है (मिसाल के तौर पर, नौकरशाही ख़त्म करने के लिए सोवियत राज्य और पार्टी को फलाँ-फलाँ कदम उठा देने चाहिए थे, वगैरह)। बस ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’, ‘मज़दूर मुक्ति प्रकाशन’, आदि जैसे अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों के लिए एक मज़ाकिया अफ़सोस की बात यह है कि वे इस नतीजे पर 90 वर्ष देर से पहुँचे हैं! और इससे भी मज़ेदार बात यह है कि उन्हें पता ही नहीं है कि उन्हें कुछ ज़्यादा देर हो गयी है! और सबसे मज़ेदार बात यह है कि वह तर्जनी उठाकर बार-बार देश और दुनिया के कम्युनिस्ट आन्दोलन को अपनी “नयी-नवेली” वैचारिक खोजों के बारे में बता रहे हैं। लेकिन पाठक देख सकते हैं कि इनमें कुछ भी नया नहीं है।

अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी अवस्थिति की एक और काफ़ी उद्धृत की जाने वाली अभिव्यक्ति गावरिल मियास्निकोव की थी, जो कि एक मज़दूर था और शुरुआती दौर में ‘डेमोक्रेटिक सेण्ट्रलिज़्म’ और ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ जैसे “वामपन्थी” भटकावों से सहमति रखता था। 1928 में मियास्निकोव सोवियत संघ से भागकर फ्रांस चला गया था। उसकी 1931 में एक पुस्तिका दि करेण्ट डिसेप्शन प्रकाशित हुई, जिसे डच “वामपन्थियों” ने अपनी पत्रिका में छापा भी था। मियास्निकोव का मानना है कि सोवियत संघ में प्रतिक्रान्ति की प्रक्रिया तभी शुरू हो गयी थी जब मज़दूर फैक्टरी काउंसिलों के हाथ से उत्पादन के साधनों का प्रत्यक्ष नियन्त्रण ले लिया गया था, “उद्योग अश्मीभूत हो गया था, मज़दूर विसंगठित हो गये थे और इसलिए मज़दूर परिषदें नष्ट हो गयी थीं। सवर्हारा अब शासक वर्ग नहीं रह गया था, जिसके पास राजनीतिक और आर्थिक वर्चस्व हो…।” (मियास्निकोव, 1931, ‘डे ग्राण्डस्लैगेन वॉन डेन रुसिस्चेन सोवजेट-स्टाट’, डे न्यूवे वेग, संख्या-7, पेरिस) आगे मियास्निकोव कहते हैं, “सोवियत संघ की पूरी राजकीय अर्थव्यवस्था ऐसी है जैसे कि एक विशाल कारखाना, जिसमें अलग-अलग कार्यस्थलों के बीच एक व्यवस्थित सहकार और श्रम विभाजन है।” (वही) यह तथ्य कि मियास्निकोव धातु उद्योग में काम करने वाला एक मज़दूर था, बताता है कि मज़दूर वर्ग की चेतना हर-हमेशा और स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारा नहीं होती। वह अराजकतावादी भी हो सकती है।

इस प्रकार के दज़र्नों और आलोचक हैं जो कि 1930 के दशक के अन्त तक सोवियत समाजवाद की आलोचना पेश करते रहे। इन सभी सिद्धान्तों का बहुत क़रीबी से विश्लेषण करने का यहाँ हमारे पास स्थान नहीं है। वास्तव में इसकी ज़रूरत भी नहीं है। यहाँ हम इन “वामपन्थी” कम्युनिस्ट, अराजकतावादी, और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी व्याख्याओं की चर्चा सिर्फ़ दो कारणों से कर रहे थे। पहला कारण यह कि आप इन सभी व्याख्याओं में बिल्कुल साफ़ तौर पर एक साझा थीम देख सकते हैं। वह साझा थीम है परिघटना (फेनॉमेना) के स्तर पर विकासों और परिवर्तनों की सूची तैयार करने और उनके सारतत्व (एसेंस) का विश्लेषण नहीं करने की। लेनिन और स्तालिन ने बार-बार बताया था कि सोवियत संघ का समाजवादी राज्य कोई अमोघ-अचूक समाजवादी राज्य नहीं है और उसमें नौकरशाहाना विकृतियाँ और बुर्जुआ विरूपताएँ मौजूद हैं और सच तो यह है कि कोई समाजवादी राज्यसत्ता अचूक और अमोघ हो ही नहीं सकती। जो यह बुनियादी बात नहीं समझता वह यह भूल जाता है कि समूचा समाजवादी संक्रमण बेहद तीव्र और जटिल वर्ग संघर्ष की एक प्रक्रिया है; अभी समाज में पूँजीवाद के तत्व मौजूद हैं और बुर्जुआ वर्ग परास्त हुआ है, किन्तु ख़त्म नहीं। ऐसे में, समाज में उत्पादन, विचारधारा, संस्कृति, शिक्षा, राजनीति और मनोविज्ञान के धरातलों पर जो वर्ग संघर्ष चलेगा उसका प्रतिबिम्बन कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर दो लाइनों के संघर्ष के रूप में, नौकरशाही के ख़िलाफ़ और अन्य विजातीय गैर-सर्वहारा प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष के रूप में दिखलायी पड़ेगा और इस वर्ग संघर्ष का प्रतिबिम्बन राज्यसत्ता में मौजूद संघर्ष के रूप में भी दिखलायी पड़ेगा। लेकिन उपरोक्त सभी धाराएँ एक बुनियादी मार्क्सवादी सबक को भूलने के चलते सोवियत समाजवाद के अध्ययन में मतिभ्रम और दृष्टिभ्रम का शिकार हो गयी हैं — यानी, वर्ग विश्लेषण। किसी सामाजिक संरचना का वर्ग विश्लेषण, किसी राज्यसत्ता का वर्ग विश्लेषण, पार्टी का वर्ग विश्लेषण और किसी भी राजनीतिक निकाय का वर्ग विश्लेषण। अगर इन बुनियादी चीज़ों को भूल जायें तो यह मानना होगा कि दुनिया में कभी कहीं समाजवादी व्यवस्था मौजूद नहीं थी। उपरोक्त तमाम धाराओं का यहाँ ज़िक्र और संक्षिप्त विश्लेषण का दूसरा कारण यह है कि 1917 से लेकर 1953 तक सोवियत समाजवाद के जो भी आलोचक इन धाराओं से आये थे, उनकी आलोचनाओं का पूरा प्रभाव आज की उन अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आलोचनाओं में दिखता है, जो चलन में हैं और जो अक्सर अपने आपको मार्क्सवादी-लेनिनवादी क़रार देती हैं। वास्तव में, इनका जवाब क़रीब 8 दशक पहले ही दिया जा चुका है। उन जवाबों का जवाब देने की बजाय नयी “वामपन्थी” लहर अपने पुरखों की कब्र से वही पुराने जुमले और तर्क उधार लेकर उन्हें नयी चाशनी के साथ परोस रही है। रणधीर सिंह, इस्तेवान मेस्ज़ारोस, आदि जैसे स्थापित मार्क्सवादी बुद्धिजीवियों से लेकर ‘मार्क्सिस्ट इण्टलेक्शन’, ‘मज़दूर मुक्ति प्रकाशन’ जैसे राजनीतिक नौदौलतिए तक इसी नयी “वामपन्थी” लहर के वैविध्यपूर्ण शेडों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

अब लेनिन द्वारा इन तर्कों की आलोचना पर थोड़ा क़रीबी से ग़ौर करते हैं। हम जानते हैं कि लेनिन ने त्रॉत्स्की के इस प्रस्ताव की सख़्त आलोचना 1919–20 के दौरान की थी कि ट्रेड यूनियनों को पूरी तरह राज्य का उपकरण बना दिया जाना चाहिए, उनकी किसी भी प्रकार की सापेक्षिक स्वायत्तता भी नहीं रहने दी जानी चाहिए, और उन्हें शासन के कार्य सौंप दिये जाने चाहिए। लेनिन का मानना था कि मज़दूर वर्ग को सजातीय या एकाश्मी श्रेणी नहीं माना जा सकता है। यह विभाजित है, इसके व्यापक हिस्से टटपुँजिया चेतना से भ्रष्ट हैं। ट्रेड यूनियनें इस समूची आबादी को समेटती हैं, और इसलिए अगर उनका राजकीयकरण किया गया तो यह सर्वहारा राज्य को भी भ्रष्ट कर देगा और ट्रेड यूनियनों को भी। लेनिन का विचार था कि ट्रेड यूनियनों को हिरावल और मज़दूर वर्ग को जोड़ने वाली कड़ी का काम करना चाहिए। ट्रेड यूनियनों को सापेक्षिक स्वायत्ता दी जानी चाहिए, ताकि वे मज़दूर वर्ग के हितों की उन सूरतों में हिफ़ाज़त कर सकें, जब बुर्जुआ और नौकरशाह विकृतियों और विरूपताओं से प्रभावित सर्वहारा राज्यसत्ता उसके हितों के विपरीत कदम उठाये, और साथ ही तभी वे सर्वहारा राज्यसत्ता की भी रक्षा कर पायेंगी, जब वे राज्यसत्ता से सापेक्षिक तौर पर स्वायत्त होंगी। लेनिन ने यहीं से अपने हमले का निशाना दूसरे छोर, यानी कि “वामपन्थी” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी छोर के भटकाव पर केन्द्रित किया। लेनिन का मानना था कि अगर ट्रेड यूनियनों का राजकीयकरण नहीं किया जा सकता तो राज्य का भी ट्रेड यूनियनीकरण नहीं किया जा सकता, जैसा कि ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ का मानना था। इस धड़े का भी यही मानना था कि ट्रेड यूनियनों को सरकार चलाने के कार्य दे दिये जाने चाहिए। लेकिन वे इसमें पार्टी की कोई भूमिका नहीं चाहते थे। वे पार्टी को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के प्रधान उपकरण के रूप में स्वीकार नहीं करते थे और मानते थे कि ट्रेड यूनियनों में पार्टी का कोई हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। लेनिन का मानना था कि यह पूरी थीसिस पार्टी को वर्ग के विपरीत खड़ा कर देती है, मानो कि दोनों शत्रुतापूर्ण शक्तियाँ हों। यह वास्तव में पार्टी की ज़रूरत को नकारने के समान था, और इसीलिए लेनिन ने इस धड़े को अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद का शिकार क़रार दिया। इसके नेता कोलोन्ताई और श्ल्याप्निकोव पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका को नहीं समझते थे। ट्रेड यूनियनों को पूर्ण रूप से स्वतन्त्र बनाकर सरकार के काम सौंपने का अर्थ होगा मज़दूर वर्ग के राजनीतिक हितों और सत्ता के ऊपर उसके आर्थिक हितों को प्रधानता देना। ऐसे में मज़दूर वर्ग समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में अपने सामाजिक आधार, यानी कि अपने मित्र वर्गों से रिश्ता तोड़ बैठेगा, और यह सर्वहारा अधिनायकत्व के पतन की ओर ले जायेगा। यह क्रान्ति में हिरावल वर्ग के तौर पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व को खण्डित कर देगा क्योंकि ट्रेड यूनियनें नैसर्गिक तौर पर मज़दूर वर्ग के हितों को ही प्रधानता देंगी। वास्तव में, ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ नेप की और किसानों को रियायतें दिये जाने की मजबूरी को नहीं समझ रहा था और उसका विरोध कर रहा था और लेनिन “युद्ध कम्युनिज़्म” के बाध्यताकारी कदमों से मज़दूर-किसान संश्रय के बेहद कमजोर हो जाने के ख़तरे को समझ रहे थे और यह भी समझ रहे थे कि अभी पूँजीवादी तत्वों को छूट देकर रणनीतिक तौर पर कदम पीछे हटाये बग़ैर सर्वहारा सत्ता को बचाया नहीं जा सकेगा। लेकिन ‘वर्कर्स अपोज़ीशन’ सर्वहारा वर्ग की नेतृत्वकारी भूमिका को बनाये रखने की इस मजबूरी को नहीं समझता था। अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी यह नहीं समझते हैं कि सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के पूरे ऐतिहासिक दौर में सर्वहारा वर्ग को कई बार अपने मित्र वर्गों के हितों के आगे अपने तात्कालिक हितों को त्यागना पड़ता है, ताकि सर्वहारा वर्ग के राजनीतिक नेतृत्व को क़ायम रखा जा सके।

लेनिन का मानना है कि समाजवाद के अन्तर्गत ट्रेड यूनियनें ‘कम्युनिज़्म का स्कूल’ और ‘प्रबन्धन का स्कूल’ होंगी। इसका अर्थ यह है कि यह सर्वहारा अधिनायकत्व के राज्य की मशीनरी के लिए कम्युनिज़्म की स्पिरिट और विश्व दृष्टिकोण को आत्मसात कर चुके मज़दूर कार्यकर्ताओं, प्रबन्धकों और कमिसारों को तैयार करेगी। इसीलिए लेनिन ने आगे इसे सर्वहारा वर्ग की ‘राज्यसत्ता का आरक्षित संचित भण्डार’ कहा। और इसीलिए लेनिन ने कहा कि ट्रेड यूनियनें सर्वहारा वर्ग को उसके उन्नत दस्ते, उसके हिरावल यानी कि पार्टी से जोड़ने वाली कड़ी है और समाजवादी संक्रमण के दौर में उसकी यह भूमिका प्रमुख है, और यह भूमिका समाजवादी संक्रमण की मंज़िल के अनुसार अलग-अलग रूप धारण कर सकती है। अगर ट्रेड यूनियनों को पूर्णतः स्वतन्त्र और स्वायत्त बनाकर जनवाद की किसी बुर्जुआ अवधारणा को हम सर्वहारा जनवाद समझ बैठते हैं, तो इसका अर्थ होगा ट्रेड यूनियनों को समस्त मज़दूर आबादी की अचेत सामूहिक स्वतःस्फूर्तता पर छोड़ देना। यह एक तरह से अपने हाथों से पहल को टटपुँजिया वर्ग के हाथों में सौंपने के समान होगा, और चूँकि टटपुँजिया वर्ग की अपनी कोई विचारधारा नहीं होती, और वह बुर्जुआ विचारधारा का ही पुच्छल तारा होता है, इसलिए इसका अर्थ असल में समूची पहल को बुर्जुआजी के हाथ में सौंपना होगा। सर्वहारा वर्ग पूँजीवाद के पूरे दौर में टटपुँजिया विचारों का बुरी तरह से शिकार होता है। किसी भी देश में क्रान्ति से पहले हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के बेहद छोटे, सबसे उन्नत और सबसे जुझारू हिस्से को ही समेट सकती है। वास्तव में, समाजवादी क्रान्ति से पहले उन्नत से उन्नत देश में ट्रेड यूनियनें तक कुल सर्वहारा आबादी के महज 15 से 30 प्रतिशत आबादी को समेट पाती हैं। रूस में तो यह आँकड़ा और भी कम था।

चूँकि ट्रेड यूनियनों को स्वायत्त और स्वतन्त्र तरीके से राज्यसत्ता के काम नहीं दिये जा सकते हैं, इसलिए वे सर्वहारा अधिनायकत्व को लागू करने की प्रमुख उपकरण नहीं हो सकतीं। लेनिन ने ज़ोर देकर कहा कि सर्वहारा अधिनायकत्व को केवल सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी ही लागू कर सकती है। मज़दूर वर्ग समूचे वर्ग के तौर पर नहीं जानता है कि शासन करने का क्या अर्थ है। यह मज़दूर वर्ग का उन्नत दस्ता जानता है, जिसने सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण और विचारधारा को लम्बे वर्ग संघर्षों में जुझारू हिस्सेदारी करते हुए निःसृत और आत्मसात किया है। और लेनिन आगे किसी भी भ्रम की सम्भावना को ख़त्म करते हुए कहते हैं कि पार्टी की यह नेतृत्वकारी भूमिका केवल “विचारधारात्मक मार्गदर्शक” की नहीं होगी, जैसा कि कई गै़र-पार्टीवादी और विसर्जनवादी आज भी सोचते हैं। ऐसा सोचना पार्टी को प्रवचन देने वाले बुद्धिजीवियों का गिरोह बना देगा, जिसकी आँखों के सामने और प्रवचनों के दौरान सर्वहारा सत्ता विखण्डित हो जायेगी। इसीलिए लेनिन ने कहा कि पार्टी को प्रबन्धन, शासन और उत्पादन के कार्यों में ‘उदाहरण पेश करके नेतृत्व देना होगा’; उन्होंने स्पष्ट कहा कि पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका विचारधारात्मक, राजनीतिक और सांस्कृतिक ही नहीं होगी, बल्कि यह आर्थिक प्रबन्धन, तकनीकी कार्यों और उत्पादन सम्बन्धी अन्य सभी कार्यों में ‘संस्थाबद्ध नेतृत्व’ के रूप में सामने आयेगी। सर्वहारा अधिनायकत्व की संरचना के बारे में लेनिन की समझदारी में ट्रेड यूनियनें मज़दूर वर्ग और मज़दूर वर्ग के उन्नत दस्ते के बीच की कड़ी हैं। पार्टी के सक्रिय और संस्थाबद्ध नेतृत्व के तहत वे सर्वहारा अधिनायकत्व के कार्यभारों को पूरा करती हैं, लेकिन सरकार के कार्य ट्रेड यूनियनों को नहीं सौंपे जा सकते हैं, और इसके लिए एक विशेष संस्था, यानी कि सोवियतों की ज़रूरत होगी। इसका कारण यह है कि सोवियतें सिर्फ़ मज़दूर वर्ग के जनसमुदायों को नहीं समेटती हैं, बल्कि समूचे मेहनतकश जनसमुदायों को समेटती हैं। लेकिन सोवियतें भी यह कार्य पार्टी के संस्थागत नेतृत्व के तहत ही कर सकती हैं। 1917 से 1919 तक के दो वर्षों के सोवियतों के शासन के अनुभव का समाहार करते हुए लेनिन ने इण्टरनेशनल में कहा कि ‘राज्य और क्रान्ति’ की थीसिस में परिवर्तन की ज़रूरत है; पेरिस कम्यून मॉडल तुरन्त लागू नहीं किया जा सकता है। लेनिन ने बताया कि रूस में पार्टी ने दो वर्षों के सोवियतों के शासन का समाहार करते हुए पाया है कि सोवियतों को स्वायत्त रूप से शासन के कार्य आने वाले लम्बे समय तक नहीं सौंपे जा सकते हैं। यह काम पार्टी के ज़रिये ही हो सकता है और पार्टी को लम्बे समय तक सोवियतों के भीतर सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को क़ायम करने और बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ने के लिए राजनीतिक कार्य करना होगा। इस पार्टी कार्य की सफलता या असफलता पर ही यह निर्भर करेगा कि सोवियतें मेहनतकश जनता की सच्ची सत्ता की संस्था के रूप में सर्वहारा अधिनायकत्व के शासनात्मक कार्यों को अंजाम देने की स्थिति में कब पहुँचती हैं। लेनिन ने बताया कि समाजवादी संक्रमण के दौरान यदि ट्रेड यूनियन का काम सर्वहारा वर्ग और सर्वहारा वर्ग के उन्नत दस्ते, यानी पार्टी, के बीच की कड़ी का काम करना है, तो सोवियतों का काम है सर्वहारा अधिनायकत्व को तृणमूल धरातल तक ले जाना। यानी कि सोवियतों का कार्य है सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को समूची मेहनतकश जनता के जनसमुदायों तक ले जाना। लेकिन सोवियतें यह कार्य पार्टी के सक्रिय और संस्थागत नेतृत्व के तहत ही कर सकती हैं।

यहाँ ग़ौर करने की बात यह है कि लेनिन ट्रेड यूनियनों और सोवियतों को कोई आद्यरूपीय (archetypal) संगठन नहीं मानते थे जो एक बार बन जाने के बाद तय भूमिकाओं को निभाते चले जाते हैं। वह इन निकायों को निरन्तर बेहद तीव्र और जटिल वर्ग संघर्ष का मंच मानते हैं। समाजवादी संक्रमण के दौर में इन मंचों पर जारी तीखे वर्ग संघर्ष को सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के तहत संचालित करना होगा। और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण पार्टी है। पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी ही सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण बनी रहेगी, और अगर यह क्रान्ति रूस जैसे पिछड़े पूँजीवादी समाज में हुई है तब तो यह अवधि और भी ज़्यादा लम्बी होगी। इस लम्बी अवधि के दौरान सोवियतों को शासन की ज़िम्मेदारी पार्टी धीरे-धीरे स्वायत्त तौर पर सौंपेगी। इस पूरे दौर में पार्टी सोवियतों में जारी वर्ग संघर्ष में सर्वहारा वर्ग की विचारधारा के वर्चस्व को स्थापित करेगी और बुर्जुआ विचारों के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त करेगी। जिस हद तक कम्युनिस्ट विचारधारा सोवियतों में संगठित मेहनतकश आबादी के लिए प्राधिकार बनती जायेगी, उस हद तक पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व की भूमिका कम होती जायेगी। मज़दूर वर्ग के जनवाद को किसी क़ानून और निर्णय को पास करके नहीं लागू किया जा सकता है। यह पूरे वर्ग के राजनीतिक तौर पर एक वर्ग के रूप में संगठित होने, उसके द्वारा क्रान्तिकारी सर्वहारा अवस्थिति को अपनाने पर निर्भर करता है, और ये सारी चीज़ें वर्ग संघर्ष का मसला हैं, पार्टी द्वारा पास किये जाने वाले प्रस्तावों और निर्णयों का नहीं। इसीलिए लेनिन ने कहा कि अगर सोवियतों को पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व के बिना आर्थिक नियोजन और शासन-सम्बन्धी निर्णय लेने की ज़िम्मेदारी दे दी गयी तो जनता की सोवियतों के बुर्जुआ सोवियतों में तब्दील होने में ज़्यादा वक़्त नहीं लगेगा। बुर्जुआ वर्ग मेहनतकश जनता के बीच मौजूद अपने विचारधारात्मक प्रभाव के बूते अपने पक्ष में राय तैयार करने में सफल हो जायेगा। और इसके लिए बुर्जुआजी को किसी पार्टी की आवश्यकता नहीं है। इसका कारण यह है कि बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा, मूल्यों-मान्यताओं, आदतों और यहाँ तक कि चार हज़ार वर्षों के समूचे वर्ग समाज के इतिहास में पैदा हुई आदतों, मूल्यों और मान्यताओं का असर लम्बे समय तक समाजवादी संक्रमण के दौरान जनता के मस्तिष्क पर बना रहता है। क्रान्ति हो जाने के बाद भी जनता के बीच मौजूद इस विचारधारात्मक प्रभाव का बुर्जुआजी को फायदा मिलता है और उसके आवाहनों की अनुगूँज जन-मनोविज्ञान में तत्काल ही और आसानी से सुनायी पड़ती है। इसलिए विचारधारात्मक वर्ग संघर्ष में अभी भी सर्वहारा वर्ग का पलड़ा हल्का होता है और बुर्जुआजी का पलड़ा भारी। इस स्थिति को एक ही सूरत में बदला जा सकता है, और वह है सर्वहारा वर्ग के सर्वतोमुखी अधिनायकत्व को बुर्जुआजी पर लागू करके और अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति करके। और इस ऐतिहासिक कार्यभार को पूरा करने का काम समूचा सर्वहारा वर्ग एक साथ नहीं करता, बल्कि अपने उन्नत तत्वों के दस्ते के ज़रिये करता है। और यही कारण है कि जब तक यह कार्यभार पूरा नहीं हो जाता, यानी कि बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त नहीं कर दिया जाता, तब तक सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को लागू करने में पार्टी को संस्थाबद्ध नेतृत्व की भूमिका निभानी ही होगी। मेहनतकश जनता की स्वतःस्फूर्तता सर्वहारा होती, तो फिर इतिहास में क्रान्ति के पहले या क्रान्ति के बाद भी पार्टी की ज़रूरत ही क्यों होती? लेनिन ने लगातार इस स्वतःस्फूर्ततवाद के ख़िलाफ़ संघर्ष किया जिसकी छूत सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों को लगी होती है। एक लम्बे कालखण्ड में जब कई सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा आन्दोलनों के ज़रिये पार्टी वर्ग संघर्ष को सचेतन तौर पर सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में चलाती है, और साथ ही उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण और उत्पादक शक्तियों के तीव्र विकास के काम को जारी रखती है, केवल तभी बुर्जुआ वर्ग के विचारधारात्मक वर्चस्व को निर्णायक तौर पर तोड़ा जा सकता है, केवल तभी उत्पादक वर्ग के उत्पादन के साधनों से अलगाव, और साथ ही आम तौर पर उसके अलगाव का क्रमिक प्रक्रिया में विलोपन (elimination) हो सकता है। अलगाव का किसी निर्णय या क़ानून के ज़रिये नाश या अन्त (abolition) नहीं किया जा सकता है, जैसा कि तमाम “वामपन्थी” आलोचक सोचते हैं।

एक अन्य रुझान जो “वामपन्थी” और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी आलोचनाओं में दिखलायी देती है वह यह है कि उनके लिए सर्वहारा वर्ग के शुद्ध मंच या संस्थाएँ सोवियतें, कारखाना समितियाँ और ट्रेड यूनियनें हैं; पार्टी तो ऊपर से थोपी गयी एक परायी चीज़ है! क्या पार्टी वर्ग का राजनीतिक संगठन नहीं है? लेनिन का दृष्टिकोण इस पर एकदम स्पष्ट है। उनके अनुसार अगर वर्ग के राजनीतिक केन्द्र की बात करें तो वह हिरावल पार्टी ही हो सकती है, सोवियतें या ट्रेड यूनियनें नहीं। दूसरी बात, ट्रेड यूनियनें वर्ग की व्यापक आबादी को समटने वाले जनसंगठन हैं, जबकि पार्टी वर्ग के उन्नत तत्वों को आत्मसात करने वाला संगठन है। दोनों ही सर्वहारा वर्ग के विशिष्ट किस्म के संगठन हैं, और दोनों की ही भूमिकाएँ अलग और विशिष्ट हैं। यह कहना कि ट्रेड यूनियनें वर्ग का संगठन हैं, और पार्टी नहीं, एक मूर्खतापूर्ण बात है जो न तो ट्रेड यूनियन की ही भूमिका को समझती है और न ही पार्टी की।

अभी तक की हमारी अवस्थिति का एक सार-संक्षेप करके आगे बढ़ना उपयोगी होगा। हमारा मानना है कि सर्वहारा अधिनायकत्व की शुरुआती मंज़िलों में सोवियतों और ट्रेड यूनियनों की पूर्ण स्वतन्त्रता की बात करना या उन्हें सर्वहारा सत्ता का शुद्ध उपकरण मानना सम्भव नहीं है। ये निकाय सर्वहारा सत्ता का उपकरण केवल पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व के तहत ही बन सकते हैं। इस पूरे दौर में लेनिन के शब्दों में सर्वहारा अधिनायकत्व की पूरी मशीनरी की तुलना दन्तचक्रों और संचरण पट्टियों के एक जटिल ताने-बाने से की जा सकती है, जो कि पार्टी से मेहनतकश जनसमुदाय तक जाती हैं। सर्वहारा वर्ग का राजनीतिक केन्द्र और सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रधान उपकरण पार्टी है, और पार्टी के नेतृत्व में ही सोवियतें और ट्रेड यूनियनें इस मशीनरी में कोई भूमिका निभाती हैं। इस पूरे संक्रमण के शुरू होते ही अगर कोई पार्टी की भूमिका को कम या कमजोर करने की बात करता है, तो वह अराजकतावाद, विसर्जनवाद, संघाधिपत्यवाद और “वामपन्थी” बचकानेपन के पक्ष में खड़ा है, मार्क्सवाद के पक्ष में नहीं। शुरुआती लम्बे दौर तक ‘अराज्य’ का पहलू मज़बूत नहीं होता और न ही पार्टी की भूमिका कमजोर होती है। इस समझदारी को लेनिन ने सोवियत सत्ता के दो वर्षों के अनुभव के बाद संशोधित और उन्नत बनाया। लेनिन ने स्पष्ट किया कि सर्वहारा अधिनायकत्व की स्थापना के बाद एक लम्बे ऐतिहासिक कालखण्ड में सर्वहारा वर्ग के राज्य में ‘अराज्य’ का पहलू हावी नहीं होता, बल्कि सर्वहारा राज्य और ज़्यादा मज़बूत बनाया जाता है और पार्टी के नेतृत्व में सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को और ज़्यादा मज़बूत बनाया जाता है। जब तक बुर्जुआ वर्ग की विचारधारा के समाज में वर्चस्व को निर्णायक तौर पर ध्वस्त नहीं किया जाता, जब तक जनता की स्वतःस्फूर्त चेतना और पहलकदमी का सर्वहाराकरण एक मुकम्मिल मंज़िल तक नहीं पहुँचता, तब तक पार्टी और राज्य की भूमिका कम या कमजोर नहीं होती, बल्कि बढ़ती और मज़बूत होती है। जिस हद तक यह सर्वहाराकरण उन्नत होता है, उसी हद तक पार्टी और राज्य की भूमिका कम हो सकती है। इसके अलावा किसी भी चीज़ की कल्पना करना “वामपन्थी” कल्पनालोक में विचरण करना है।

6) पार्टी और विचारधारा का प्रश्न

पार्टी की इस भूमिका को समझने के लिए विचारधारा की भूमिका को समझना ज़रूरी है। लेनिन ने पूछा कि पार्टी क्या है? और इसका जवाब उन्होंने इस प्रकार दिया: पार्टी सर्वहारा वर्ग के विश्व-दृष्टिकोण और विचारधारा का मूर्त रूप है; पार्टी सर्वहारा वर्ग का अगुआ दस्ता है। इसका अर्थ यह है कि पार्टी ने सर्वहारा वर्ग के सबसे उन्नत और जुझारू तत्वों को आत्मसात किया है। सर्वहारा वर्ग के उन्नत दस्ते और सर्वहारा वर्ग के व्यापक जनसमुदाय तथा पूरे सर्वहारा वर्ग और व्यापक मेहनतकश जनता के जनसमुदायों के बीच एक अन्तर मौजूद रहता है। यह अन्तर किसी क़ानून या आज्ञप्ति से नहीं ख़त्म हो सकता, बल्कि उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण (यानी कि तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को मिटाने) और उत्पादक शक्तियों के द्रुत विकास के साथ ही ख़त्म हो सकता है। कहने की ज़रूरत नहीं कि यह पूरी प्रक्रिया भी अविरत वर्ग संघर्ष और राजनीतिक-विचारधारात्मक संघर्ष की प्रक्रिया होती है। सोवियतों, ट्रेड यूनियनों, कम्यूनों या क्रान्तिकारी कमेटियों में जारी वर्ग संघर्ष पर सर्वहारा विचारधारा के वर्चस्व को स्थापित करने का उपकरण पार्टी ही हो सकती है। इन सभी निकायों में पार्टी के राजनीतिक और आर्थिक कार्यभार और कुछ नहीं बल्कि क्रान्तिकारी जनदिशा को लागू करना है। सोवियतें या कम्यून जनता की क्रान्तिकारी ऊर्जा के फलस्वरूप अस्तित्व में आये निकाय थे और उनका चरित्र विचारधारात्मक तौर पर क्षणभंगुर और अस्थिर होता है। इसलिए सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व के लिए एक सचेतन, विशिष्ट रूप से सर्वहारा विचारधारात्मक और राजनीतिक संरचना की ज़रूरत होती है। यही भूमिका पार्टी अदा करती है। पार्टी की इस भूमिका को नकारना वास्तव में पार्टी की ज़रूरत को नकारना है। इसका अर्थ होगा जनता की स्वतःस्फूर्तता की अनालोचनात्मक पूजा या अन्धभक्ति (fetish), लोकरंजकतावाद, मज़दूरवाद और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवाद। वास्तव में, ऐसी बात करने वाले सभी लोग यह समझते हैं कि क्रान्ति के अगले दिन से ही पेरिस कम्यून मॉडल लागू किया जा सकता है, या कम्युनिज़्म में सीधे छलाँग लगायी जा सकती है। अगर ऐसा सम्भव होता तो न तो समाजवादी संक्रमण की दीर्घकालिक अवधि की, और न ही इस अवधि में पार्टी के संस्थाबद्ध नेतृत्व की अनिवार्यता की बात लेनिन, स्तालिन और माओ ने की होती। पार्टी सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख और प्राथमिक उपकरण होती है और सर्वहारा वर्ग अपने हिरावल के ज़रिये अपना अधिनायकत्व लागू करता है और शासन करता है; इसका अर्थ यह नहीं है कि सर्वहारा वर्ग नहीं बल्कि पार्टी शासन कर रही है।

इसको समझने के लिए यह समझना ज़रूरी है कि समाजवादी संक्रमण के दौर में सर्वहारा वर्ग के नेतृत्व में आम मेहनतकश जनता का शासन वास्तविक होता है, लेकिन निरपेक्ष नहीं। यह सापेक्षिक होता है, और इसके भीतर अन्तरविरोध मौजूद होते हैं। यह शासन सर्वप्रथम पार्टी और राज्य द्वारा मीडियेट होता है। इसका यह अर्थ नहीं है कि यह पार्टी का शासन है। इसका अर्थ सिर्फ़ इतना होता है कि वर्ग अपने शासन को अपने हिरावल के नेतृत्व में ही लागू करता है। वास्तव में इसके अलावा और कुछ हो भी नहीं सकता है। यह संघाधिपत्यवादी रुझान है जो कि पार्टी के नेतृत्व और वर्ग की तानाशाही के बीच की एकता को नहीं देख पाता है। लेनिन ने कहा था, “पार्टी हिरावल को आत्मसात करती है और यह हिरावल सर्वहारा तानाशाही को लागू करता है।” यह एक शानदार उद्धरण है जो पार्टी और वर्ग के सम्बन्ध को स्पष्ट करता है। स्तालिन ने एक जगह लिखा कि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें पार्टी के नेतृत्व के तहत निर्णय लेंगी। स्तालिन कहते हैं कि दिखने में ऐसा लग सकता है कि पार्टी की तानाशाही लागू हो गयी है। लेकिन यह सिर्फ़ आभासी यथार्थ है। स्तालिन चेतावनी देते हैं कि पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका और सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को एक ही चीज़ नहीं समझ लिया जाना चाहिए। पार्टी अपने नेतृत्व को स्थापित करने और उसे लागू करने में सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व देती है। स्तालिन कहते हैं कि अगर पार्टी जनता के साथ एक जीवन्त रिश्ता क़ायम रखती है, तो एक सही लाइन पर बने रहते हुए वह इस काम को अंजाम दे सकती है। माओ ने भी इसी बात को दुहराया है। वे कहते हैं कि सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख और प्रधान उपकरण पार्टी है और यह बात समाजवाद के समूचे संक्रमणकाल पर लागू होती है। लेनिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी की इस समझदारी को कुछ महत्वपूर्ण उद्धरणों के माध्यम से देखा जा सकता है। मार्च 1919 में आठवीं पार्टी कांग्रेस में पार्टी का जो इस बारे में नज़रिया था वह और भी साफ़ था:

“कम्युनिस्ट पार्टी वह संगठन है जो अपनी कतारों में सिर्फ़ सर्वहारा वर्ग और निर्धनतम किसान आबादी के हिरावल को एकजुट करता है — इन वर्गों के वे हिस्से जो सचेतन तौर पर कम्युनिस्ट कार्यक्रम को व्यवहार में एक असलियत में तब्दील करने के लिए संघर्ष करते हैं।

“कम्युनिस्ट पार्टी मज़दूरों के सभी संगठनों: ट्रेड यूनियनों, सहकारी संघों में, गाँव के कम्यूनों आदि में, निर्णायक प्रभाव और पूर्ण नेतृत्व स्थापित करने को अपना लक्ष्य बनाती है। कम्युनिस्ट पार्टी विशेष तौर पर अपने कार्यक्रम और पूर्ण नेतृत्व को समकालीन राज्य संगठनों, यानी कि सोवियतों, में स्थापित करने के लिए संघर्ष करती है।

“…रूसी कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियतों में अविभाजित राजनीतिक प्रभुत्व हासिल करना ही होगा और इसके सभी कार्यों पर व्यावहारिक नियन्त्रण क़ायम करना ही होगा।” (मार्च, 1919, आठवीं पार्टी कांग्रेस के दस्तावेज़, ई.एच. कार द्वारा ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन 1917–1923’ के पहले खण्ड में उद्धृत, पृ. 219) जो अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी सोवियतों और ट्रेड यूनियनों में पार्टी के “हस्तक्षेप” से नाराज़ रहते हैं उन्हें इस कथन पर विचार करना चाहिए। त्रॉत्स्की ने 1920 में कोमिण्टर्न की दूसरी कांग्रेस को बोल्शेविक पार्टी की तरफ से बताया:

“आज हमें पोलिश सरकार की ओर से शान्ति समझौता करने के प्रस्ताव प्राप्त हुए हैं। इस प्रश्न पर कौन फ़ैसला लेगा? हमारे पास सोवनार्कोम है, लेकिन इसे किसी न किसी नियन्त्रण के अधीन होना चाहिए। किस नियन्त्रण के? क्या मज़दूर वर्ग के एक बिना किसी आकृति वाले और अराजकतापूर्ण जनसमुदाय के नियंत्रण के तहत? नहीं। पार्टी की केन्द्रीय कमेटी को इस प्रस्ताव पर विचार करने और इस पर विचार करने कि इसका जवाब दिया जाये या नहीं, के लिए बुलाया गया है।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 220)। नवीं पार्टी कांग्रेस में कामनेव ने भी पार्टी की इस समझदारी को फिर से रेखांकित किया, “रूस में व्यवस्था को हम चलाते हैं, और कम्युनिस्टों के ज़रिये ही हम इस काम को कर सकते हैं।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 222)। आठवीं कांग्रेस में कहा गया कि यह पार्टी का कर्तव्य है कि वह “सोवियतों की गतिविधि की अगुवाई करे, लेकिन यह उनकी जगह नहीं ले सकती।” (वही, पृ. 222–3)। लेनिन ने भी एक अन्य स्थान पर स्पष्ट किया, “शासक पार्टी के तौर पर, हम सोवियत ‘प्राधिकारी संस्थाओं’ को पार्टी ‘प्राधिकारों’ से मिलाने से नहीं बच सकते — वे हमारे साथ संलयित हैं, और ऐसा तो होगा ही।” (वही, पृ. 223)

1919 में लेनिन ने उन सभी लोगों की सख़्त आलोचना की जो रूस में पार्टी की तानाशाही की बात कर रहे थे (जैसा कि आज भारत में सुजीत दास और उनके जैसे तमाम अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी कर रहे हैं)। उन्होंने लिखा: “हाँ, एक पार्टी की तानाशाही! हम इस पर क़ायम हैं और इससे हट नहीं सकते, क्योंकि यह पार्टी ही है जिसने कई दशकों में समूचे कारखाना और औद्योगिक सर्वहारा के हिरावल की स्थिति को हासिल किया है।” (वही, पृ. 230)। उन्होंने आगे कहा कि “मज़दूर वर्ग की तानाशाही को बोल्शेविकों की पार्टी के ज़रिये प्रभाव में लाया जाता है, जो कि 1905 से या उससे भी पहले से समूचे क्रान्तिकारी सर्वहाराओं के साथ एकजुट हो चुकी है।” (वही, पृ. 230)। इसी विषय में एक अन्य स्थान पर लेनिन लिखते हैं: “इस सवाल — “पार्टी की तानाशाही या वर्ग की तानाशाही, नेताओं की तानाशाही (पार्टी) या जनसमुदायों की तानाशाही (पार्टी)?” — को पेश करना ही सबसे अविश्वस्नीय और हताशापूर्ण दिमाग़ी वहम का सबूत है। लोग साधारण चीज़ों में से ही कुछ आविष्कार करने के लिए एड़ी-चोटी का पसीना एक कर देते हैं, और समझदार बनने के प्रयास में वे हास्यास्पद बन जाते हैं। हर कोई जानता है कि जनसमुदाय वर्गों में विभाजित हैं; कि जनसमुदायों का वर्गों से अन्तर आम तौर पर व्यापक बहुसंख्या का, उत्पादन के सामाजिक तन्त्र में उनकी अवस्थिति के अनुसार विभाजित किये बग़ैर, उन श्रेणियों से अन्तर बताकर ही किया जा सकता है, जो कि उत्पादन की सामाजिक व्यवस्था में एक निश्चित अवस्थिति पर काबिज़ होते हैं; कि आम तौर पर, अधिकांश मामलों में, कम-से-कम आधुनिक सभ्य समाजों में, वर्गों का नेतृत्व राजनीतिक पार्टियों द्वारा किया जाता है; कि राजनीतिक पार्टियाँ एक सामान्य नियम के रूप में सबसे प्राधिकार-सम्पन्न, प्रभावशाली और अनुभवी सदस्यों के कमोबेश स्थायी समूहों द्वारा निर्देशित होती हैं, जिनका सबसे ज़िम्मेदार पदों पर चुनाव होता है और जिन्हें नेता कहा जाता है। यह सब ‘क ख ग’ के समान है। यह सब एकदम सरल और स्पष्ट है।” (लेनिन, लेनिन एण्ड स्तालिन ऑन दि पार्टी में उद्धृत, राहुल फाउण्डेशन, 2008, पृ. 30) इसी बात को स्पष्ट करते हुए लेनिन आगे लिखते हैं: “दूसरी तरफ, हम यहाँ अब “फैशनेबल” शब्दों जैसे “जनता” और “नेता” का बिना सोचे-समझे किया जाने वाला और बेमेल इस्तेमाल देखते हैं। लोगों ने “नेताओं” पर ऐसे हमलों के बारे में काफी सुना है और अब वे उसके आदी हो गये हैं, जिसमें उन्हें “जनता” के विरोध में खड़ा कर दिया जाता है; लेकिन ऐसी बातें करने वाले लोग यह सोचने और अपने आपको ही यह समझा पाने में असफल थे कि इस सबका मतलब क्या है।” (वही, पृ. 31) सातवीं पार्टी कांग्रेस में, जो कि 1918 में हुई थी, लेनिन ने कहा: “वर्तमान रूप में हम बिना शर्त एक राज्यसत्ता के पक्ष में हैं; और जहाँ तक उन्नत रूप में समाजवाद के वर्णन दिये जाने का सवाल है, जिसमें कोई राज्य नहीं होगा—उसके बारे में सिवाय इस बात के और कुछ भी कल्पना नहीं की जा सकती कि तब “सभी से उनकी क्षमता के अनुसार और सभी को उनकी आवश्यकता के अनुरूप” का सिद्धान्त एक हक़ीक़त बन चुका होगा। लेकिन अभी हम उस मंज़िल से बहुत दूर हैं…उससे पहले राज्य के ख़त्म होते जाने की बात करना ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य का उल्लंघन होगा।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 246) आगे लेनिन इसी बात को और खोलकर कहते हैं, “क्या हर मज़दूर जानता है कि राज्य का संचालन कैसे करना है? व्यावहारिक लोग जानते हैं कि यह बस एक परिकथा है…ट्रेड यूनियनें कम्युनिज़्म और प्रशासन का स्कूल हैं। जब वे (यानी मज़दूर) इस स्कूल में कई वर्ष बिताएँगे, तो ही वे सीखेंगे, लेकिन यह सब कुछ बहुत धीमे-धीमे होता है…कितने मज़दूर अभी प्रशासन के कामों में लगे हैं? पूरे रूस में कुछ हज़ार, इससे ज़्यादा नहीं।” (कार के ‘दि बोल्शेविक रिवोल्यूशन’, खण्ड-1 में उद्धृत, पृ. 247) 1921 में दसवीं पार्टी कांग्रेस में वह कहते हैं, “सोवियत सत्ता के ढाई वर्षों के बाद हम कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल में आये और हमने दुनिया को बताया कि सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व पार्टी के ज़रिये न लागू किया जाये तो वह काम ही नहीं करेगा।” (लेनिन, संग्रहीत रचनाएँ, खण्ड-32, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रगति प्रकाशन, मॉस्को, पृ. 199)।

लेनिन निश्चित तौर पर पार्टी को अचूक और अमोघ नहीं मानते थे। उनका मानना था कि पार्टी वर्ग की सामूहिक इच्छा के प्रतिनिधित्व का दावा तभी कर सकती है जबकि वह सर्वहारा वर्ग के सबसे उन्नत और जुझारू तत्वों को अपने में शामिल करती हो, जब वह सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण (यानी, मार्क्सवाद के बुनियादी उसूलों) को आत्मसात करती हो, उसका मूर्त रूप हो, और जब वह आम मेहनतकश जनता से एक जीवन्त रिश्ता बरकरार रखती हो। इसीलिए अपनी प्रसिद्ध रचना ‘पार्टी का शुद्धीकरण’ में वह लिखते हैं, “…पार्टी को उन लोगों से शुद्ध कर दिया जाना चाहिए जो जनसमुदायों से सम्पर्क खो चुके हों…स्वाभाविक है, कि हम हर उस बात को नहीं मानेंगे जोकि जनता कहती है, क्योंकि जनता भी — खास तौर पर अपवादस्वरूप थकान और श्रान्ति की अवधियों में, जो कि अत्यधिक कठिनाइयों और तकलीफ़ों से पैदा होती है — ऐसी भावनाओं के सामने समर्पण कर देती है, जो कि किसी भी रूप में उन्नत नहीं होतीं।” (लेनिन, ‘पर्जिंग दि पार्टी’, कलेक्टेड वर्क्स, दूसरा अंग्रेज़ी संस्करण, खण्ड-33, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को, पृ. 39–41)। स्तालिन ने इसी सोच के सिरे को आगे बढ़ाते हुए लिखा है कि सोवियत संघ में ट्रेड यूनियनें और सोवियतें ही निर्णय लेती थीं, लेकिन ऐसा वह पार्टी के नेतृत्व में करती थीं। इस रूप में देखा जाये तो सर्वहारा वर्ग की तानाशाही वास्तव में पार्टी की तानाशाही दिख सकती है। लेकिन यह वास्तव में पार्टी की नेतृत्वकारी भूमिका है और इस नेतृत्वकारी भूमिका के बिना सर्वहारा अधिनायकत्व की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, हालाँकि दोनों के बीच ‘बराबर’ का चिन्ह कभी नहीं लगाया जा सकता है। स्तालिन कहते हैं कि मूल समस्या यह है कि पार्टी अपने सर्वहारा चरित्र को क़ायम रखने के लिए मार्क्सवाद-लेनिनवाद को अपना मार्गदर्शक सिद्धान्त बनाये और जनसमुदायों के साथ क़रीबी रिश्ता बनाये रखे। वास्तव में, स्तालिन ने इसके लिए पार्टी में लगातार नौकरशाही के विरुद्ध संघर्ष किया और कई बार वह सफल नहीं हो पाये। लेकिन स्वयं स्तालिन का दृष्टिकोण इस सवाल पर बिल्कुल साफ़ था। देखिये स्तालिन क्या लिखते हैं:

“…पार्टी को क़रीबी से जनता की आवाज़ पर ध्यान देना चाहिए; इसे जनसमुदायों के क्रान्तिकारी स्वभाव पर ध्यान देना चाहिए; इसे जनसमुदायों के संघर्ष के व्यवहार का अध्ययन करना चाहिए और इस आधार पर अपनी नीति के सहीपन की जाँच करनी चाहिए; और परिणामतः इसे केवल जनता को सिखाना ही नहीं चाहिए बल्कि उससे सीखना भी चाहिए।” (स्तालिन, ‘लेनिनवाद के सवालों के विषय में’, ‘वर्क्स’, खण्ड-8, फॉरेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, मॉस्को, 1954, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 46)। एक अन्य स्थान पर स्तालिन लिखते हैं, “क्या पार्टी के नेतृत्व को वर्ग के ऊपर बलपूर्वक स्थापित किया जा सकता है? नहीं, ऐसा नहीं हो सकता। किसी भी सूरत में, ऐसा नेतृत्व टिकाऊ बिल्कुल नहीं हो सकता। अगर पार्टी सर्वहारा वर्ग की पार्टी बने रहना चाहती है, तो इसे यह समझना होगा कि वह प्राथमिक और प्रमुख तौर पर, मज़दूर वर्ग की मार्गदर्शक, नेता, और शिक्षक है…क्या कोई पार्टी को वर्ग का वास्तविक नेता मान सकता है, अगर उसकी नीति ग़लत है, अगर उसकी नीति वर्ग के हितों के साथ टकराती है? जाहिरा तौर पर नहीं। किसी भी सूरत में अगर पार्टी को नेता बने रहना है, तो इसे अपनी नीति पर पुनर्विचार करना चाहिए, उसे सही करना चाहिए और अपनी ग़लती मानकर उसे सही करना चाहिए।” (वही, पृ. 52–53)। ‘लेनिनवाद के मूलभूत सिद्धान्त’ में स्तालिन पार्टी के बारे में लिखते हैं: “पार्टी मज़दूर वर्ग की हिरावल होती है…पार्टी मज़दूर वर्ग का उन्नत संगठित दस्ता होती है। पार्टी सर्वहारा वर्ग के वर्ग संगठन का उन्नततम रूप होती है। पार्टी मज़दूर वर्ग की राजनीतिक नेता है।…(पार्टी) सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को हासिल करने, और (समाजवाद की विजय के बाद) सर्वहारा अधिनायकत्व के सुदृढ़ीकरण और विस्तार करने के लिए सर्वहारा वर्ग का उपकरण है।” (स्तालिन, ‘फाउण्डेशंस ऑफ़ लेनिनिज़्म’, ‘वर्क्स’, खण्ड-6, फॉरेन लैंग्वेजेज़ प्रेस, मॉस्को, 1953, अंग्रेज़ी संस्करण, पृ. 177–89)।

पार्टी के चरित्र और प्रकृति को लेकर सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी भयंकर विभ्रमों के शिकार होते हैं। उनकी यह आम प्रवृत्ति होती है कि वे पार्टी और वर्ग को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ खड़ा कर देते हैं। इस विभ्रम के बारे में लेनिन ने बार-बार लिखा और ‘क्या करें?’ और ‘एक कदम आगे, दो कदम पीछे’ उनके इस विषय में विचारों को देखने के लिए सर्वश्रेष्ठ स्रोत हैं। लेनिन लिखते हैं, “मज़दूर वर्ग के हिरावल के तौर पर पार्टी को कभी भी समूचे वर्ग के साथ गड्ड-मड्ड नहीं किया जाना चाहिए…ठीक इसलिए चूँकि गतिविधि के स्तरों में फर्क हैं, पार्टी से क़रीबी के स्तर में एक फर्क किया जाना चाहिए। हम एक वर्ग की पार्टी हैं, और इसलिए लगभग समूचे वर्ग को (और युद्ध के दौर में, गृहयुद्ध के दौर में, पूरे वर्ग को) पार्टी के नेतृत्व के तहत काम करना चाहिए, हमारी पार्टी के साथ निकटतम सम्भव तरीके से जुड़ जाना चाहिए।” (लेनिन, एक कदम आगे, दो कदम पीछे, मॉस्को, 1969, पृ. 122–23)।

सर्वहारा वर्ग की हिरावल पार्टी सर्वहारा वर्ग के सर्वश्रेष्ठ तत्वों को अपने में शामिल करती है, सर्वहारा वर्ग के संघर्षों में सतत् भागीदारी करती है, मार्क्सवाद को अपने मार्गदर्शक सिद्धान्त के तौर पर अपनाती है और सर्वहारा वर्ग के विश्व दृष्टिकोण का मूर्त रूप होती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि पार्टी सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करती है। निश्चित तौर पर, क्रान्ति से पूर्व पार्टी में सर्वहारा वर्ग का एक बेहद छोटा हिस्सा शामिल होता है, जो कि सर्वहारा वर्ग का सबसे वर्ग सचेत, उन्नत और जुझारू हिस्सा है। लेकिन ठीक इसी कारण से यह उन्नत दस्ता सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व कर सकता है। इसके अलावा आप और किसी भी रूप में क्रान्तिकारी राजनीति की कल्पना नहीं कर सकते।

जाहिर तौर पर, ऐसी सूरत में पार्टी में जो नौकरशाही प्रवृत्तियाँ पैदा होंगी, उनके ख़ात्मे का सवाल पार्टी द्वारा किसी कार्यकारी निर्णय का सवाल नहीं है। पार्टी निर्णय पास करके या प्रस्ताव पास करके इन विकृतियों को दूर नहीं कर सकती है। क्योंकि उसने निर्णय पास करके इन विकृतियों को पालना भी नहीं शुरू किया था। यह समाज में जनता के उन्नत और पिछड़े हिस्सों के बीच मौजूद अन्तर का ही एक प्रतिबिम्बन होता है। यह अन्तर वर्ग समाज के भीतर ख़त्म हो ही नहीं सकता। समाजवादी संक्रमण के दौरान यह तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं के दूर होने के साथ ही क्रमिक प्रक्रिया में विलोपित हो सकता है। इसके पूरे विलोपन की मंज़िल कम्युनिस्ट समाज में ही आ सकती है। लेकिन तब न तो पार्टी की ज़रूरत होगी और न ही राज्य की! इसलिए एक वर्ग समाज (जिसमें कि समाजवादी संक्रमणशील समाज शामिल है) के रहते हुए अगुआ और पिछड़े के बीच का फर्क, आम जनसमुदायों और नेतृत्व के बीच का फर्क और हिरावल और वर्ग के पिछड़े हिस्सों के बीच का फर्क मौजूद रहेगा। और यदि अन्तर मौजूद होगा तो निश्चित तौर पर दोनों के बीच एक सम्बन्ध स्थापित होगा। दोनों के बीच अन्तरविरोध का भी एक तत्व ऐतिहासिक-दार्शनिक तौर पर मौजूद होगा। जाहिर तौर पर, समूचा वर्ग यदि स्वतःस्फूर्त रूप से सर्वहारा अवस्थिति पर पहुँच जाता तो, क्रान्ति के पहले और बाद में भी पार्टी की कोई आवश्यकता नहीं होती। और चूँकि पार्टी या हिरावल सर्वहारा विश्व दृष्टिकोण का मूर्त रूप है और सर्वहारा वर्ग का उन्नत दस्ता है, इसलिए सर्वहारा वर्ग की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करने के कार्य पर उसका दावा ऐतिहासिक और राजनीतिक तौर पर पूर्णतः वैध है। इस दावे पर मज़दूर वर्ग को अपने आपमें कोई असुविधा या आपत्ति नहीं होती है, न कभी हुई है! इस पर दिक्कत होती है ट्रेड यूनियनवादियों, अराजकतावादियों और अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी टटपुँजिया बुद्धिजीवियों को। ऐसे लोग ही मज़दूर वर्ग में यह प्रदूषण फैलाते हैं, और जो ऐतिहासिक तौर पर वैध और नैसर्गिक ही नहीं बल्कि अनिवार्य है, उसे अवैध और अनैसर्गिक बना देते हैं। निश्चित तौर पर, सर्वहारा वर्ग के हिरावल के लिए अपनी इस विशिष्ट ज़िम्मेदारी और कार्य के कारण अपने भीतर पैदा होने वाली नौकरशाहाना विकृति से संघर्ष करना एक गम्भीर मुद्दा है, जिसे जनसमुदायों से जीवन्त रिश्ता बनाये रखकर और उससे सीखते हुए उन्हें सिखाने के दृष्टिकोण को अपनाकर ही हल किया जा सकता है। यह एक सतत् विचारधारात्मक और राजनीतिक संघर्ष का मसला है। जिन्होंने इन्हें आनन-फानन में दूर कर देने का दावा किया उनकी लेनिन ने खूब खिल्ली उड़ाई:

“हमारे 1919 के कार्यक्रम में हमने लिखा था कि नौकरशाहाना प्रथाएँ मौजूद हैं। जो भी आता है और इन नौकरशाहाना प्रवृत्तियों पर रोक लगाने की माँग करता है, वह जनोत्तेजक नेता बन रहा है। जब आपने “नौकरशाही प्रथाओं पर रोक लगाने” का आह्नान किया, तो वास्तव में यह जनोत्तेजक भाषणबाज़ी थी। हम आने वाले कई वर्षों तक नौकरशाही की बुराइयों के ख़िलाफ़ लड़ते रहेंगे, और जो कोई भी कुछ और सोचता है वह जनोत्तेजक नेता बन रहा है और धोखा दे रहा है, क्योंकि नौकरशाही की बुराइयों को दूर करने के लिए सैकड़ों कदमों की आवश्यकता होगी, पूर्ण साक्षरता और संस्कृति और मज़दूर-किसान जाँच समितियों की गतिविधियों में भागीदारी की ज़रूरत होगी। श्ल्याप्निकोव उद्योग व व्यापार के जनकमिसार और श्रम के जनकमिसार रहे हैं। क्या उन्होंने नौकरशाहाना प्रथाओं पर रोक लगा दी है?” (लेनिन, ‘दि सेकेण्ड ऑल रशिया कांग्रेस ऑफ़ माइनर्स’, ऑन ट्रेड यूनियंस, छठाँ मुद्रण, अंग्रेज़ी संस्करण, प्रोग्रेस पब्लिशर्स, मॉस्को)। लेनिन ने अन्य जगहों पर स्पष्ट लिखा है कि जब तक व्यापक मेहनतकश जनता का सांस्कृतिक स्तर और राजनीतिक चेतना का स्तर नीचे रहेगा तब तक क़ानून या आज्ञप्तियों को पास करके नौकरशाहाना विकृतियों और बुर्जुआ विरूपताओं को दूर कर देने की बात करना कोरी बकवास है। जब तक मानसिक और शारीरिक श्रम, गाँव और शहर और उद्योग और कृषि का विभेद क़ायम रहेगा, तब तक यह सम्भव ही नहीं है। तब तक पार्टी के ज़रिये ही सर्वहारा वर्ग का अधिनायकत्व लागू हो सकता है, और अन्य किसी भी चीज़ की बात करना अनर्गल बकबक है, जो कि सभी अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी लगातार ही करते रहते हैं। और जब ये विभेद मिट जायेंगे, पूँजीवादी श्रम विभाजन, बुर्जुआ विशेषाधिकार, विनिमय सम्बन्ध आदि ख़त्म हो जायेंगे तो वर्ग विभेद भी ख़त्म हो चुके होंगे, और किसी राज्य या तानाशाही की आवश्कयता नहीं होगी। इसलिए कहा जा सकता है कि पूरे समाजवादी संक्रमण के दौरान पार्टी के नेतृत्व में ही सोवियतें (या उनके जैसा कोई भी निकाय) सर्वहारा सत्ता का उपकरण बन सकता है और सर्वहारा अधिनायकत्व का प्रमुख उपकरण पार्टी ही रहेगी। जैसा कि हमने पहले भी लिखा है, जैसे-जैसे सर्वहारा वर्ग की राजनीतिक चेतना उन्नत होगी, जैसे-जैसे व्यापक मेहनतकश जनता के बीच सर्वहारा विचारधारा का वर्चस्व निर्णायक रूप में स्थापित होगा वैसे-वैसे पार्टी की संस्थागत नेतृत्व की भूमिका कम होती जायेगी, और पार्टी अधिक से अधिक विचारधारात्मक मार्गदर्शक की भूमिका में आती जायेगी। लेकिन बुर्जुआ विचारधारा के वर्चस्व के निर्णायक रूप से टूटे बगैर जो भी पार्टी की भूमिका के वज़न को कम करने की कोशिश करता है, वह वास्तव में सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की जड़ें खोदने का काम कर रहा है।

माओ त्से तुंग ने भी इस सवाल को स्पष्ट दृष्टि से देखा और लेनिन और स्तालिन की पार्टी-विषयक समझदारी को ही आगे बढ़ाया। माओ लिखते हैं: “सोवियत राजनीतिक सत्ता के रूप के बारे में, जैसे ही वह असलियत में आयी, लेनिन प्रफुल्लित हुए और उसे मज़दूरों, किसानों और सैनिकों की एक विलक्षण रचना माना, और साथ ही सर्वहारा अधिनायकत्व का एक नया रूप माना। लेकिन फिर भी लेनिन ने तब इस बात का पूर्वानुमान नहीं लगाया था कि हालाँकि मज़दूर, किसान और सैनिक राजनीतिक सत्ता के इस रूप का इस्तेमाल कर सकते हैं, लेकिन इसका बुर्जुआजी और ख्रुश्चेव जैसे लोगों द्वारा भी इस्तेमाल किया जा सकता है।” (माओ त्से तुंग, माओ मिसलेनी, खण्ड-2, पृ. 452) ‘सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना’ में माओ लिखते हैं, “(सत्ता के) उपकरणों और उद्यमों के नियन्त्रण में कौन लोग हैं इसका जनता के अधिकारों को सुनिश्चित करने पर ज़बर्दस्त प्रभाव पड़ता है। अगर मार्क्सवादी-लेनिनवादी इनके नियन्त्रण में हैं, तो व्यापक बहुसंख्या के अधिकारों को सुनिश्चित किया जा सकता है। अगर दक्षिणपन्थी या दक्षिणपन्थी अवसरवादी नियन्त्रण में हैं, तो ये उपकरण और उद्यम गुणात्मक रूप से बदल सकते हैं, और उनके सम्बन्ध में जनता के अधिकारों को सुनिश्चित नहीं किया जा सकता है। संक्षेप में, लोगों को अधिकार होना चाहिए कि वे अधिरचना को प्रबन्धित करें।” (माओ, सोवियत अर्थशास्त्र की आलोचना, न्यूयॉर्कः मन्थली रिव्यू प्रेस, 1977, पृ. 61, अंग्रेज़ी संस्करण)। यहाँ स्पष्ट देखा जा सकता है कि माओ जन संस्थाओं जैसे कि सोवियतों के दोनों ही पहलुओं को देख रहे हैं और समझ रहे हैं कि उनकी स्वतःस्फूर्तता का स्वागत किया जाना चाहिए, लेकिन उसका जश्न नहीं मनाया जा सकता है। बिना क्रान्तिकारी राजनीतिक नेतृत्व के ऐसी जनसंस्थाओं का चरित्र बदलते देर नहीं लगती। यह नेतृत्व पार्टी ही दे सकती है और इसलिए राज्यसत्ता और अर्थव्यवस्था का नियन्त्रण पार्टी के हाथ होना चाहिए, हालाँकि शासन और उत्पादन के निर्णयों को लागू करने का ठोस कार्य पार्टी नहीं करती और सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को पार्टी से आम मेहनतकश जनसमुदायों तक पहुँचाने की पूरी व्यवस्था ट्रेड यूनियनों और सोवियतों के ज़रिये ही काम कर सकती है। सत्ता के चरित्र का प्रश्न इस बात से हल होता है कि कौन लोग उसका नियन्त्रण कर रहे हैं। और यहाँ माओ स्पष्ट हैं कि उनका अर्थ पार्टी से ही है। माओ पार्टी और जनता को एक-दूसरे के ख़िलाफ़ नहीं खड़ा करते, बल्कि पार्टी को मेहनतकश जनसमुदायों की सामूहिक इच्छा का प्रतिनिधित्व करने वाली शक्ति मानते हैं।

स्तालिन के दौर की समस्याएँ और बोल्शेविक पार्टी की विचारधारात्मक ग़लतियाँ

हमारा मानना है कि तमाम समस्याओं और दिक्कतों के बावजूद स्तालिन के नेतृत्व में सोवियत राज्य एक सर्वहारा राज्य था जिसकी पहचान सर्वहारा वर्ग की तानाशाही से होती है। हमारा यह मानना कतई नहीं है कि इस दौर में कोई समस्या या दिक्कत नहीं थी। उल्टे हमारा मानना है कि इस दौर में कुछ गम्भीर विचारधारात्मक भूलें हुईं और इन तमाम समस्याओं पर भी एक संक्षिप्त चर्चा ज़रूरी है।

स्तालिन काल में बोल्शेविक पार्टी द्वारा जिन दो प्रमुख ग़लतियों की हम पहचान कर सकते हैं, उनमें से पहली वास्तव में बोल्शेविक पार्टी का आविष्कार या नवोन्मेष नहीं थी, बल्कि यह ग़लती यूरोप के मज़दूर आन्दोलन और कम्युनिस्ट आन्दोलन में पहले से मौजूद थी और लेनिन ने काऊत्स्की की आलोचना करते हुए मूलतः इसी ग़लती पर चोट की थी। इस ग़लती के मूल में मार्क्स के ‘राजनीतिक अर्थशास्त्र की समालोचना में योगदान’ के एक पैराग्राफ़ की ग़लत व्याख्या मौजूद थी। मार्क्स ने अपनी उक्त रचना में एक जगह लिखा है कि सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियाँ जिसमें सबसे प्रमुख उत्पादन की स्थितियाँ हैं, मनुष्य की चेतना का निर्माण करती हैं; किसी भी समाज में मनुष्य अपनी इच्छा से स्वतन्त्र उत्पादन में सहकार करते हुए कुछ निश्चित उत्पादन सम्बन्ध स्थापित करते हैं; इन उत्पादक सम्बन्धों का कुल योग समाज का आर्थिक आधार होता है; हर आर्थिक आधार अपनी सेवा करने वाली अधिरचना का निर्माण करता है; उत्पादक शक्तियों का विकास जब पुराने आर्थिक आधार में अवरुद्ध होने लगता है तो क्रान्तिकारी स्थिति पैदा होती है। यह एक प्रसिद्ध उद्धरण है, जो अब तक पाठक के दिमाग़ में आ चुका होगा। विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रमों से लेकर अकादमिकों के लेखन तक में यह मार्क्स के सबसे ज़्यादा उद्धृत किये जाने वाले कथनों में से एक है। इस कथन की तमाम लोगों ने इस तरह से व्याख्या की है कि मानो मार्क्स का यह मानना था कि आर्थिक कारक अन्य सभी चीज़ों को निर्धारित कर देते हैं; कि उत्पादक शक्तियाँ इतिहास की प्राथमिक ‘प्राइम मूवर’ होती हैं और जब उनका विकास दिये गये उत्पादन सम्बन्धों के ढाँचे में बाधित होने लगता है तो वे उत्पादन सम्बन्धों के उस ढाँचे को तोड़कर नये उत्पादन सम्बन्धों की स्थापना कर देती हैं जो कि उनके लिए अनुकूल हों; उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच का अन्तरविरोध समाज में वर्ग संघर्ष के रूप में प्रकट होता है, जिसमें कि क्रान्तिकारी वर्ग उन्नत उत्पादन शक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शासक वर्ग पिछड़े हुए उत्पादन सम्बन्धों का प्रतिनिधित्व करते हैं। यह व्याख्या अधूरी है और सत्य के केवल एक पहलू को देखती है। मार्क्स के उक्त उद्धरण का यह पूर्ण अर्थ भी नहीं है। यह बात उनके कथन में अन्तर्निहित है कि उत्पादक शक्तियाँ भी तभी सही ढंग से विकसित हो सकती हैं, जब उत्पादन सम्बन्ध उनके लिए सापेक्षिक रूप से अनुकूल हों। लेकिन इस कथन की आम तौर पर जो व्याख्या की जाती है वह इस बात को भूल जाती है कि उत्पादक शक्तियों का विकास तब तक नहीं हो सकता जब तक कि उसके विकास के अनुकूल उत्पादन सम्बन्ध न मौजूद हों और इसीलिए समाजवादी क्रान्ति के बाद उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण का पहलू प्रमुखता ग्रहण कर लेता है। यह सच है कि जब तक उत्पादक शक्तियों का विकास प्रचुरता की मंज़िल तक न हो जाये, तब तक कम्युनिज़्म की कल्पना करना व्यर्थ है, क्योंकि तब तक ‘सभी को उनकी ज़रूरत के अनुसार और सभी से उनकी क्षमता के अनुसार’ का कम्युनिस्ट सिद्धान्त लागू नहीं हो सकता। लेकिन प्रचुरता की मंज़िल तक उत्पादक शक्तियों का विकास कोई एकरेखीय प्रक्रिया नहीं है। जब तक कि उत्पादन सम्बन्धों का निरन्तर और सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण नहीं होगा तब तक कम्युनिज़्म की दिशा में उत्पादक शक्तियों का प्रचुरता की मंज़िल तक विकास नहीं हो सकता। उत्पादन सम्बन्धों के इस सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण के बिना अगर उत्पादक शक्तियों के विकास पर एकतरफ़ा तरीके से बल दिया गया तो यह समाज में पूँजीवादी विकास को जन्म देगा और तमाम बुर्जुआ अधिकारों और असमानताओं को जन्म देगा। इसलिए पूरे इतिहास में उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों का द्वन्द्व मौजूद रहता है जिसमें कभी एक पहलू प्रधान होता है तो कभी दूसरा; सच है कि आम तौर पर अगर पूरे मानव इतिहास की बात करें तो उत्पादक शक्तियाँ अधिक गतिमान कारक की नुमाइन्दगी करती हैं, लेकिन क्रान्ति के बाद के दौरों में उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का पहलू प्रधान हो जाता है और समाजवादी क्रान्ति के बारे में यह बात विशेष तौर पर कही जा सकती है; क्योंकि सामन्तवाद के गर्भ में ही पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के विकसित हो जाने के विपरीत समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध पूँजीवादी समाज में ही विकसित नहीं होते; पूँजीवादी समाज के अन्तरविरोध समाजवाद की पूर्वशर्तों को पैदा कर देते हैं, लेकिन उसके गर्भ में ही समाजवादी उत्पादन सम्बन्ध नहीं विकसित हो जाते। इसीलिए समाजवादी क्रान्ति के बाद के दौर में उत्पादन सम्बन्धों के सतत् क्रान्तिकारी रूपान्तरण का प्रश्न उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए भी विशेष रूप से महत्वपूर्ण हो जाता है।

निजी सम्पत्ति के उन्मूलन के साथ उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण की पहली मंज़िल पूरी होती है, यानी सम्पत्ति सम्बन्धों का समाजवादी रूपान्तरण। लेकिन सम्पत्ति सम्बन्ध ही उत्पादन सम्बन्ध नहीं होते हैं। उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण का अर्थ है वितरण के सम्बन्धों, पूँजीवादी श्रम विभाजन, उत्पादन प्रक्रिया और श्रम प्रक्रिया का क्रान्तिकारी रूपान्तरण। जब तक, माओ के शब्दों में, तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताएँ, यानी कि मानसिक श्रम और शारीरिक श्रम, गाँव और शहर और उद्योग और कृषि के बीच की असमानताएँ नहीं मिटतीं, तब तक पूँजीवादी श्रम विभाजन की ज़मीन मौजूद रहेगी। जब तक पूँजीवादी श्रम विभाजन मौजूद रहेगा, तब तक विनिमय सम्बन्ध बने रहेंगे; जब तक विनिमय सम्बन्ध बने रहेंगे तब तक वस्तु का विनिमय मूल्य बना रहेगा; जब तक वस्तु का विनिमय मूल्य बना रहेगा तब तक उसका माल के रूप में अस्तित्व बना रहेगा; जब तक वस्तु का माल के रूप में अस्तित्व बना रहेगा, तब तक माल उत्पादन भी जारी रहेगा और उजरती श्रम के तत्व भी बने रहेंगे; जब तक उजरती श्रम क़ायम रहेगा तब तक अधिशेष के हस्तगतीकरण के तत्व भी बने रहेंगे; और जब तक हस्तगतीकरण के तत्व बरकरार रहेंगे तब तक अलगाव की परिघटना के शत्रुतापूर्ण रूप को खत्म करने के बावजूद एक आर्थिक परिघटना के तौर पर उसका अस्तित्व बना रहेगा। और यह शत्रुतापूर्ण अलगाव दोबारा पैदा हो सकता है अगर पार्टी और राज्य का चरित्र बुर्जुआ हो जाता है।

माओ से ज़्यादा “माओवादी” बनने के प्रयास में चार्ल्स बेतेलहाइम माओ का ही हेगेलवादी प्रत्ययवादी विनियोजन करते हैं। बेतेलहाइम ने ग़ैर-द्वन्द्वात्मक तरीके से इस पूरी सोच को एक दूसरे छोर पर खींच दिया है और उत्पादन सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण को महज़ राजनीतिक और विचारधारात्मक प्रचार का मसला बना दिया है। इस क्रान्तिकारी रूपान्तरण का एक दूसरा पहलू यह भी है कि अगर पूँजीवादी श्रम विभाजन को ख़त्म करना है तो राजनीतिक, सांस्कृतिक, शिक्षणात्मक और विचारधारात्मक प्रचार के अलावा लगातार उत्पादक शक्तियों का भी गुणात्मक तौर पर विकास करना पड़ेगा। मिसाल के तौर पर, जब तक छोटे पैमाने का माल उत्पादन जारी रहेगा तब तक उसमें लगी हुई मज़दूर आबादी के बीच से पूँजीवादी श्रम विभाजन को महज़ राजनीतिक प्रचार से नहीं ख़त्म किया जा सकता है। यही कारण था कि लेनिन ने भारी उद्योग को समाजवाद की पूर्वशर्तों में से एक बताया था। सिर्फ राजनीतिक और सांस्कृतिक प्रचार पूँजीवादी श्रम विभाजन को ख़त्म नहीं कर सकते हैं। ऐसा दावा करना एक हेगेलवादी प्रत्ययवादी सोच का नतीजा होगा। मार्क्सवाद बताता है कि श्रम विभाजन भी उत्पादन के विकास की एक निश्चित मंज़िल में पैदा होता है और इसका विलोप भी उत्पादन के विकास की एक विशिष्ट मंज़िल में ही होगा। हाँ, यह ज़रूर है कि उत्पादन के विकास की यह मंज़िल केवल उत्पादक शक्तियों का विकास करके नहीं हासिल की जा सकती है। इसीलिए माओ ने सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान नारा दिया कि “क्रान्ति पर पकड़ बनाये रखो और उत्पादन को आगे बढ़ाओ”। यह एक सटीक द्वन्द्ववादी अवस्थिति है। इसलिए, बेतेलहाइम के जैसा “माओवाद” हमें नहीं चाहिए जो क्रमिक प्रक्रिया में हेगेलवादी प्रत्ययवाद के गड्ढे में गिर जाता है। ऐसा “माओवाद” माओ की युगान्तरकारी शिक्षाओं को माओ के विरोधियों से ज़्यादा नुकसान पहुँचाता है। श्रम विभाजन को क्रमिक प्रक्रिया में ख़त्म करने का प्रश्न सतत् सांस्कृतिक-विचारधारात्मक संघर्ष और क्रान्ति का प्रश्न भी है, और साथ ही उत्पादक शक्तियों के विकास का प्रश्न भी है। ये दोनों हर मौके पर एक-दूसरे से अन्तर्गुन्थित होते हैं। किसी क्षण पर कोई पहलू प्रधान होता है, तो किसी क्षण पर कोई पहलू। लेनिन एक ऐसे सर्वहारा राजनीतिज्ञ थे जो इस द्वन्द्वात्मकता को सबसे अधिक सटीकता के साथ समझते थे। इसीलिए हमें लेनिन यह कहते हुए भी मिलेंगे कि विद्युतीकरण और भारी उद्योग के बिना समाजवादी समाज और अर्थव्यवस्था की कल्पना करना व्यर्थ है और यह भी कहते हुए मिलेंगे कि समाजवादी रूपान्तरण का प्रश्न महज़ उत्पादक शक्तियों के विकास का प्रश्न नहीं बल्कि सांस्कृतिक क्रान्ति का प्रश्न भी है। एक जगह लेनिन लिखते हैं कि नौकरशाही के पैदा होने का एक कारण वास्तव में सर्वहारा वर्ग के बीच उन्नत संस्कृति का अभाव भी है। ऐसे में, सर्वहारा वर्ग की चेतना के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के लिए सांस्कृतिक क्रान्तियों और समाजवादी शिक्षा तन्त्र की आवश्यकता है। अगर ऐसा न किया जाये तो समाज में वर्ग संघर्ष एक ग़लत दिशा में जायेगा और उसका प्रतिबिम्बन पार्टी में भी होगा। अगर इन दोनों पहलुओं पर द्वन्द्वात्मक ज़ोर नहीं दिया जायेगा, तो पार्टी में एक बुर्जुआजी पैदा होगी और उस सूरत में, बिना निजी पूँजी, बिना पारम्परिक पूँजीवादी श्रम बाज़ार और पूँजी बाज़ार के पूँजीवादी सम्बन्धों की पुनर्स्थापना हो जायेगी, और इन पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के शीर्ष पर निजी पूँजीपति वर्ग नहीं बल्कि राजकीय पूँजीपति वर्ग होगा।

उत्पादक शक्तियों की प्रमुखता के पूरे सिद्धान्त का प्रभाव बोल्शेविक पार्टी के भीतर भी शुरू से ही मौजूद था और लेनिन ने इसके ख़िलाफ़ सतत् संघर्ष चलाया था। यही समझदारी बुखारिन और प्रियोब्रेज़ेंस्की ने “युद्ध कम्युनिज़्म” के दौरान पेश की थी और तब भी लेनिन ने इन दोनों की रचनाओं के कुछ सकारात्मकों की चर्चा के बावजूद, इनकी मूल ग़लतियों की तरफ़ इशारा किया था। यहाँ पर यह ज़िक्र करना भी ज़रूरी है उत्पादक शक्तियों को परिभाषित करने के बारे में भी स्तालिन के दौर में पार्टी की समझदारी असन्तुलित थी। उत्पादक शक्ति के अंग के तौर पर तकनोलॉजी और यंत्रों पर ज़ोर था लेकिन उसके सबसे केन्द्रीय और कुंजीभूत हिस्से पर ध्यान नहीं था, यानी कि स्वयं मनुष्य। मनुष्य उत्पादक शक्तियों का केन्द्रीय संघटक अंग होता है और यह मनुष्य ही उत्पादन सम्बन्धों में बँधा होता है। ऐसे में, उत्पादक शक्तियों और उत्पादन सम्बन्धों के बीच एक जटिल द्वन्द्वात्मकता का होना लाज़िमी है और साथ ही समाजवादी संक्रमण के दौर में उत्पादक शक्तियों के विकास और उत्पादक सम्बन्धों के क्रान्तिकारी रूपान्तरण के कार्य को यान्त्रिक रूप से अलग करके देखने की ग़लती या तो स्तालिन के दौर में बोल्शेविक पार्टी के उत्पादक शक्तियों के विकास पर असन्तुलित ज़ोर की ओर ले जायेगी या फिर बेतेलहाइम जैसे हेगेलीय प्रत्ययवादी दृष्टिकोण की ओर, जिसमें उत्पादन सम्बन्धों और उनके क्रान्तिकारी रूपान्तरण को हेगेलीय ‘परम विचार’ की सत्ता का रूप दे दिया जाता है।

लेनिन की मृत्यु के बाद अर्थवाद और एक किस्म के ‘उत्पादक शक्ति-वाद’ के ख़िलाफ बोल्शेविक पार्टी में जारी संघर्ष एक प्रकार से थम गया। इसका प्रमुख कारण यह था कि उस समय का बोल्शेविक पार्टी का नेतृत्व स्वयं इस अर्थवाद का शिकार था। 1920 के दशक में प्रियोब्रेज़ेंस्की द्वारा पेश और त्रॉत्स्की द्वारा समर्थित ‘आदिम समाजवादी संचय’ की सोच इसी अर्थवाद की एक अभिव्यक्ति था। स्तालिन ‘आदिम समाजवादी संचय’ के भोण्डे अर्थवादी सिद्धान्त से सहमति नहीं रखते थे, लेकिन उनके चिन्तन पर भी अर्थवाद का असर स्पष्ट रूप में मौजूद था। यही कारण था कि बाद में सम्पत्ति सम्बन्धों को उत्पादन सम्बन्धों के साथ गड्ड-मड्ड कर दिया गया और पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के हर रूप के अर्थव्यवस्था के हर क्षेत्र से सामूहिकीकरण के पूरे होने के साथ समाप्ति के बाद 1936 में स्तालिन ने यह घोषणा की कि सोवियत संघ में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं। यह अप्रत्यक्ष रूप में समाजवादी संक्रमण के दौर में वर्ग संघर्ष के निषेध के समान था। क्योंकि यह मान लिया गया था कि पूँजीवादी सम्पत्ति सम्बन्धों के रूपान्तरण के साथ पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों के समाजवादी रूपान्तरण का कार्यभार पूरा हो चुका है, और अब मज़दूरों, किसानों और बुद्धिजीवियों को समाजवाद की तरक्की के लिए मिलकर काम करना है। यानी कि उत्पादकता और उत्पादन का विकास करते जाना है; इसी के ज़रिये प्रचुरता की मंज़िल आयेगी और इसी के ज़रिये कम्युनिस्ट समाज में संक्रमण की पूर्वशर्तें पूरी होंगी।

ऐसा नहीं था कि स्तालिन काल में बोल्शेविक पार्टी अलगाव की समस्या के ख़ात्मे के प्रति सचेत नहीं थी। लेकिन पार्टी का मानना था कि उत्पादक शक्तियों के लगातार और द्रुत विकास के ज़रिये ही प्रचुरता की मंज़िल आयेगी और तभी ‘सभी से सबकी क्षमता के अनुसार, और सभी को उनकी ज़रूरत के अनुसार’ के कम्युनिस्ट सिद्धान्त को लागू किया जा पायेगा, और तभी अलगाव समाप्त होगा। यह बोल्शेविक पार्टी की पहली बड़ी भूल थी: अर्थवाद का प्रभाव। स्तालिन एक क्रमिक प्रक्रिया में इस कमी को समझने की तरफ़ आगे बढ़ रहे थे और उनके आखि़री लेखनों से ऐसा लगता है, कि वह समस्या के मूल के काफ़ी क़रीब थे। लेकिन मानवीय जीवन की एक भौतिक-जैविक सीमा होती है। स्तालिन का पूरा दौर सोवियत संघ के लिए निहायत गम्भीर आन्तरिक समस्याओं और बाह्य दबावों का दौर था। उस दौर ने बिरले ही स्तालिन को कभी गम्भीरता से इन सवालों पर सोचने का मौका दिया। इसके बावजूद आनुभविक तौर पर इस अर्थवाद के परिणाम के तौर पर पैदा होने वाले लक्षणों पर स्तालिन हमला करते थे। मिसाल के तौर पर, स्तालिन 1924 से 1953 तक के पूरे दौर में पार्टी के भीतर जो नौकरशाही मौजूद थी उसके ख़िलाफ़ लड़ते रहे। लेकिन चूँकि वह बुनियादी समस्या के मूल तक नहीं पहुँच सके थे, इसलिए इन समस्याओं का उनका उपचार लाक्षणिक ही बना रहा, मूल तक पहुँचकर उसका निवारण नहीं कर सका।

उत्पादक शक्तियों के विकास पर ग़ैर-द्वन्द्वात्मक ज़ोर की इसी कमी से ही बोल्शेविक पार्टी की दूसरी बड़ी ग़लती निकलती है। यह ग़लती थी स्तालिन और बोल्शेविक पार्टी द्वारा यह नहीं समझ पाना कि समाजवादी संक्रमण के पूरे दौर में भी वर्ग संघर्ष ही कुंजीभूत कड़ी और सामाजिक विकास का मूल कारक होता है। जैसा कि हमने पहले बताया, यही कारण था कि 1936 में स्तालिन ने सामूहिकीकरण के अभियान के ख़त्म होने के साथ यह एलान किया कि अब सोवियत संघ में शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं हैं; केवल मज़दूर, किसान और बुद्धिजीवी हैं, जिन्हें समाजवाद के विकास के लिए काम करना है। लेकिन अगर शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं थे, तो सोवियत संघ को एक विराट राज्य व्यवस्था के ताने-बाने की ज़रूरत क्यों थी? यह सिर्फ़ विदेशी साम्राज्यवादी षड्यन्त्रों का मुकाबला करने के लिए नहीं था। वास्तव में, स्तालिन आनुभविक तौर पर वर्ग संघर्ष को समझ भी रहे थे, और उसमें हिस्सा भी ले रहे थे। वह प्रतिक्रियावादियों और प्रतिक्रान्तिकारी शक्तियों के ख़िलाफ़ दमन की मुहिम भी चला रहे थे (जिसकी चपेट में पार्टी में मौजूद नौकरशाही के कारण कई बार बेगुनाह भी आ गये), लेकिन अवधारणात्मक धरातल पर वर्ग संघर्ष की कुंजीभूत कड़ी को भूलने का पार्टी को भारी नुकसान उठाना पड़ा। क्योंकि जब आप यह बात कहते हैं कि अब कोई शत्रुतापूर्ण वर्ग नहीं है, और आपका समूची जनता के बीच ज़बर्दस्त प्राधिकार हो, तो फिर पार्टी कतारें और जनता, दोनों ही उस क्रान्तिकारी चौकसी को खो बैठते हैं जिसकी ज़रूरत समूचे समाजवादी संक्रमण के दौरान होती है। क्योंकि समूचे समाजवादी संक्रमण के दौरान पूँजीवादी पुनर्स्थापना का ख़तरा मौजूद रहता है, जिसके कारणों की चर्चा हम ऊपर कर आये हैं। ऐसे में, ऐसी कोई भी घोषणा और वह भी मेहनतकश जनता के ऐसे निर्विवाद और प्राधिकार-सम्पन्न नेता की तरफ़ से जनता को राजनीतिक और विचारधारात्मक तौर पर निःशस्त्र कर देती है।

ऐसे में चूँकि पार्टी का पूरा ज़ोर उत्पादक शक्तियों के तीव्रतम सम्भव विकास पर था इसलिए समाजवादी आर्थिक नियोजन को एक विशिष्ट ज़ोर के साथ लागू किया गया, और उसमें समस्याएँ थीं। और ट्रेड यूनियनें और सोवियतें निश्चित तौर पर इसके कारण राजनीतिक रूप से आंशिक तौर पर निष्क्रिय हुईं; वे मृत या राज्य की गुलाम नहीं बनीं, बल्कि वे वर्ग संघर्ष और राजनीतिक और विचारधारात्मक संघर्ष का वैसा जीवन्त मंच नहीं रह गयीं, जैसा कि विशेष तौर पर उन्हें समाजवादी संक्रमण के दौर में होना चाहिए। यह वर्ग संघर्ष सोवियतों और ट्रेड यूनियनों में ठीक इसी कारण से नहीं चल पाया क्योंकि पार्टी अपने नेतृत्वकारी काम को उस तरीके से करने में असफल रही जिस तरीके से उसे किया जाना चाहिए था, जैसा कि लेनिन ने सुझाया था और बाद में माओ ने भी बताया। पार्टी का नेतृत्व राजनीतिक नेतृत्व से ज़्यादा आर्थिक नियोजन में नेतृत्व में तब्दील हो गया। इससे जो दिक्कतें पैदा हो रही थीं, उनमें विशेष तौर पर राज्य और पार्टी में नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग की गहरी होती जड़ें थीं; स्तालिन की मृत्यु के ठीक पहले भी स्तालिन ने इस नौकरशाही के ख़िलाफ़ एक तीखा संघर्ष छेड़ रखा था। लेकिन यह लाक्षणिक धरातल पर ज़्यादा था, और अवधारणात्मक धरातल पर कम। नतीजतन, पार्टी सोवियतों में और ट्रेड यूनियनों में क्रमिक प्रक्रिया में अपना राजनीतिक और विचारधारात्मक नेतृत्व खोती गयी। इस ख़ाली होती जगह को भरने का काम पार्टी के नाम पर नौकरशाही कर रही थी। इसलिए सोवियतें और ट्रेड यूनियनें बोल्शेविक पार्टी के प्रति दासवत नहीं बनीं, और न ही उनकी उपकरण बनीं; कहना यह चाहिए कि पार्टी और सोवियतों और साथ ही पार्टी और ट्रेड यूनियनों के बीच का सम्बन्ध गतिमान रहने की बजाय स्थैतिक बन गया और पार्टी का राजनीतिक नेतृत्व उसमें कमजोर होता गया। राजनीतिक नेतृत्व की अनुपस्थिति की क्षतिपूर्ति नौकरशाहाना फरमानशाही से हुई, जो कि वास्तव में क्षतिपूर्ति नहीं बल्कि स्वयं एक क्षति था।

इन कमज़ोरियों के ही चलते स्तालिन के नेतृत्व में बोल्शेविक पार्टी सांस्कृतिक क्रान्ति के सिद्धान्त तक भी नहीं पहुँच सकी। इसके कारण पार्टी कभी भी अधिरचना के धरातल पर सतत् क्रान्ति के दीर्घकालिक कार्यक्रम को नहीं ले सकी; न ही पार्टी तीन महान अन्तरवैयक्तिक असमानताओं को समाप्त करने में उत्पादक शक्तियों के विकास को तेज़ करने के साथ-ही-साथ सचेतन राजनीतिक और विचारधारात्मक कार्य की ज़रूरत को समझ पायी। यह मान लिया गया कि उत्पादक शक्तियों के विकास के साथ जब प्रचुरता की मंज़िल आ जायेगी तो ये सामाजिक और आर्थिक असमानताएँ खुद-ब-खुद मिट जायेंगी। लेकिन ऐसा न तो होना था और न ही हुआ। और ये असमानताएँ बढ़ती गयीं, जिसने समाज में नौकरशाह बुर्जुआ वर्ग और बुर्जुआ विचारधारा की पकड़ को और मज़बूत किया। चूँकि स्तालिन मृत्यु तक इन तमाम विकृतियों, विरूपताओं और विजातीय प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ अपने सर्वहारा स्वभाव के कारण आनुभविक तरीके से संघर्ष चलाते रहे, और चूँकि पार्टी की कतारें उनके साथ खड़ी थीं, इसलिए पार्टी और राज्य में पैदा हो चुकी बुर्जुआजी के लिए यह सम्भव नहीं था कि वह पार्टी में नेतृत्व का तख़्तापलट कर समाजवादी नीतियों का त्याग कर दे और पूँजीवादी रास्ते को अपना ले। लेकिन पार्टी में मौजूद यह नौकरशाही भी अपनी अवस्थिति बाँधकर पार्टी के भीतर बैठी रही और इन्तज़ार करती रही। स्तालिन उनके लिए एक प्रकार से आखि़री बाधा थे। और स्तालिन की मृत्यु के साथ ही पार्टी के भीतर मौजूद पूँजीवादी पथगामियों ने अपने कुकृत्यों का ठीकरा स्तालिन के सिर फोड़कर, अपने द्वारा पैदा की गयी ग़ैर-जनवादी प्रवृत्तियों की ज़िम्मेदारी स्तालिन पर डालकर “लोकतान्त्रीकरण”, “शान्तिपूर्ण सहअस्तित्व” आदि जैसी लफ्फाज़ियाँ करनी शुरू कर दीं। बीसवीं कांग्रेस में यही प्रक्रिया अपनी पराकाष्ठा पर पहुँची, जब संशोधनवादियों ने अपने सारे कुकर्मों को स्तालिन के सिर मढ़कर, अपने आपको उदार और लोकतान्त्रिक प्रदर्शित किया। चूँकि सोवियतें और ट्रेड यूनियनें उस प्रकार के जीवन्त राजनीतिक निकाय नहीं रह गये थे, जिसकी कल्पना लेनिन ने की थी, इसलिए उनमें संगठित जनता, जो कुछ हो रहा था उसे जल्दी समझ नहीं पायी और इस पूरे प्रतिक्रियावादी परिवर्तन की निष्क्रिय दर्शक बनी रही। और जब तक वह समझ पाती तब तक वह प्रक्रिया इतनी आगे बढ़ चुकी थी, कि अब उसे उल्टी दिशा में नहीं मोड़ा जा सकता था।

स्तालिन के दौर में बोल्शेविक पार्टी की ग़लतियों के इस आलोचनात्मक विवेचन के अन्त में पहुँचने से पहले हम दो बातों की ओर पाठकों का ध्यान खींचना चाहेंगे।

पहली बात, सोवियत संघ समाजवादी सत्ता और समाजवादी संक्रमण का पहला प्रयोग था। इसके पास कोई उदाहरण मौजूद नहीं था, जिसका वह अनुसरण करता या जिसकी ग़लतियों और सफलताओं से वह सीख पाता। बोल्शेविक पार्टी पहली बार एक ऐसा प्रयोग कर रही थी, जो कि इतिहास में पैमाने में और गुणवत्ता में अद्वितीय था। और यह प्रयोग भी वह सोवियत संघ जैसे विशाल और वैविध्यपूर्ण देश में कर रही थी। ऐसे में, सोवियत संघ ने 35 वर्षों में जो कुछ हासिल किया, मज़दूर वर्ग के जीवन को जहाँ तक पहुँचा दिया, पूरे देश को मध्ययुगीन बर्बरता से निकालकर जहाँ पहुँचा दिया, वह आज भी अचम्भित कर देता है। यह केवल किसी दमनकारी पार्टी की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से नहीं हो सकता है, न ही उसके द्वारा किये गये सामूहिक सम्मोहन से हो सकता है। यह मज़दूर वर्ग और आम मेहनतकश जनता की रचनात्मक ऊर्जा और पहल पर ही हो सकता है। अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादियों का यह दावा कि मज़दूर वर्ग एक वर्ग के रूप में विसंगठित हो गया, पार्टी पर से उसका भरोसा उठ गया, उसकी कोई पहलकदमी नहीं रही, पार्टी की ज़ोर-ज़बर्दस्ती से ज़्यादा काम हुए और राजनीतिक-विचारधारात्मक प्रेरणा से कम, नेशनल जियोग्राफिक, डिस्कवरी चैनल या हिस्टरी चैनल और रॉय मेदवेदेव और मार्क फेरो आदि जैसे लोगों द्वारा किया जाने वाला प्रचार ज़्यादा लगता है।

एक अन्य कारक भी है जिसकी ओर ज़रूर ध्यान दिया जाना चाहिए और वह यह है कि स्तालिन के पूरे जीवनकाल में सोवियत संघ कभी भी आन्तरिक संकटों और बाह्य दबावों से मुक्त नहीं था। इसलिए हमारा मानना है कि स्तालिन काल और विशेष तौर पर 1930 के दशक में हुई जिन-जिन चीज़ों के लिए स्तालिन और बोल्शेविक पार्टी की आलोचना आम तौर पर अराजकतावादी-संघाधिपत्यवादी और “वामपन्थी” दृष्टिकोण से की जाती है, ठीक उन्हीं चीज़ों के लिए स्तालिन की प्रशंसा की जानी चाहिए और माना जाना चाहिए कि इस मामले में स्तालिन लेनिन की विरासत के सच्चे वाहक थे। वास्तव में, जो वास्तविक कमियाँ थीं, उन्हें समझने और उनके सन्दर्भों को समझने में ये आलोचनाएँ बुरी तरह असफल होती हैं। स्तालिन के दौर में ग़लती यह नहीं थी कि पार्टी का हस्तक्षेप ज़्यादा था। कहना यह चाहिए कि सच्चाई इसके ठीक विपरीत है। पार्टी का जितना और जैसा हस्तक्षेप होना चाहिए था वैसा स्तालिन काल में पार्टी नहीं कर पायी और इसके कारणों की हम ऊपर चर्चा कर चुके हैं।

अन्त में यह टिप्पणी जोड़ना भी आवश्यक है कि समाजवादी संक्रमण के विषय में स्तालिन का पूरा चिन्तन स्थैतिक नहीं था बल्कि लगातार विकसित हो रहा था। मिसाल के तौर पर, 1936 में शत्रुतापूर्ण वर्गों के न होने की बात कहने के बाद स्तालिन का चिन्तन इस विषय पर बदल रहा था। 1943 में स्तालिन सोवियत संघ में मूल्य के नियम के लागू होने की बात करते हैं; 1952 में सोवियत संघ में माल उत्पादन की बात करते हैं। सम्भव है कि जीवन ने स्तालिन को मौका दिया होता तो वह समाजवादी संक्रमण के विषय में उत्पादक शक्तियों के विकास पर असन्तुलित ज़ोर के विचलन का खण्डन पेश करते। लेकिन ऐसे प्रतितथ्यात्मक इतिहास में न भी जायें तो स्तालिन के चिन्तन की दिशा स्पष्ट तौर पर सही थी और वह अन्त तक समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर गहन चिन्तन-मनन करते रहे थे।

लेकिन इन सबके बावजूद इतना तय है कि स्तालिन काल तक बोल्शेविक पार्टी एक कम्युनिस्ट पार्टी बनी रही और सोवियत राज्य सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व को अभिव्यक्त करता रहा। पार्टी के वर्ग चरित्र का फ़ैसला सर्वप्रथम उसके नेतृत्व और नीतियों से होता है और राज्यसत्ता के वर्ग चरित्र का फ़ैसला उस पर काबिज़ पार्टी के वर्ग चरित्र से होता है। अगर मार्क्सवाद की इन बुनियादी शिक्षाओं को मानें तो स्तालिन काल में सोवियत समाजवाद की सफलताओं और असफलताओं, दोनों को ही समझा जा सकता है।

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