सरकार का युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध या जनता के विरुद्ध

     

सरकार का युद्ध आतंकवाद के विरुद्ध या जनता के विरुद्ध

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख

—राजकुमार, मुनीश

1.

अभी 5 जुलाई 2011 को उच्‍चतम न्यायालय ने छत्तीसगढ़ में सरकार द्वारा चलाये जा रहे सलवा जुडुम आन्दोलन को असंवैधानिक बताते हुए दिये गये एक फैसले में कहा कि सलवा जुडुम जनता के विरुद्ध छेड़ा गया एक युद्ध है। उच्‍चतम न्यायालय ने कहा कि प्रधानमंत्री और सरकार जिसे विकास का नाम दे रहे हैं वह वास्तव में जनता के साथ बलात्कार है (तहलका, 16 जून 2011)।

उच्‍चतम न्यायालय ने सलवा जुडुम के साथ एस.पी.ओ. की भर्ती को असंवैधानिक बताते हुए छत्तीसगढ़ सरकार से जवाब माँगा है, और केन्द्र सरकार द्वारा उसे मदद देने की आलोचना करते हुए सलवा जुडुम को तुरन्त रोकने का आदेश दिया है। उच्‍चतम न्यायालय ने सरकार की नव-उदारवादी नीतियों पर सवाल उठाते हुए अपने फैसले में कहा है कि माओवादी आतंकवाद के बढ़ने का मुख्य कारण सरकार द्वारा लागू की जा रही सामाजिक और आर्थिक नीतियाँ हैं, जिनके कारण समाज पहले से ही भयानक असमानता से ग्रस्त है। फैसले में आगे कहा गया है कि नैतिक, संवैधानिक और कानूनी सत्ता द्वारा माओवाद के विरुद्ध छेड़ा गया युद्ध वास्तव में जनता की भावनाओं और आत्मा के विरुद्ध चलाया जा रहा है। (द हिन्दू, 6 जुलाई 2011, पृष्ठ 1 और पृष्ठ 13)

यहाँ पर ध्यान देने वाली बात यह है कि इस फैसले से पहले ढेरों जनवादी अधिकार कर्मियों और संगठनों ने अपने वक्तव्यों और रिपोर्टों में स्पष्ट किया था कि सलवा जुडुम के तहत बस्तर जिले की आबादी के एक छोटे-से हिस्‍से को किस प्रकार हथियारबंद करके माओवादियों से लड़ने के नाम पर एक व्यापक आबादी के खिलाफ खड़ा करके पूरे क्षेत्र में एक गृहयुद्ध जैसी स्थिति पैदा कर दी गई है (तहलका 16 जून 2011)। वर्तमान परिस्थिति पर ‘मेनस्ट्रीम’ में छपी एक रिपोर्ट के अनुसार राज्य निर्देशित माओवाद-विरोधी सलवा जुडुम आन्दोलन में 2005 से लेकर अब तक 700 गाँवो में लगभग 1500 से अधिक बेगुनाह लोगों की हत्या की जा चुकी है, हजारों आदिवासी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया है, कई जगह खेतों मे खड़ी फसलों को आग लगा कर तबाह करने और गाँवो में लूटपाट करने जैसी अनेक घटनाएं हुई हैं (मेनस्ट्रीम, 17–23 जून 2011)। इसके बाद पूरे क्षेत्र की आदिवासी आबादी दो गुटों में बंट चुकी है और गृह युद्ध जैसी स्थिति‍ मौजूद है।

चिदंबरम और दिग्विजय सिंह सलवा जुडुम की जिस सच्‍चाई से इनकार करते रहे, वह सच्‍चाई उच्‍चतम न्यायालय के फैसले के बाद सबके सामने आ चुकी है, और स्पष्ट हो गया है कि सरकार देशी और विदेशी कम्पनियों के इशारे पर छत्तीसगढ़ में आदिवासियों को उनकी ज़मीन से उजाड़कर उस इलाके की अकूत खनिज संपदा पर कब्जा करने और उद्योग लगवाने के लिए फूट डालने और गृह युद्ध जैसी परिस्थितियाँ पैदा करने की कोशिश कर रही है।

‘टाइम्स आफ इण्डिया’ की एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ सरकार ने 2004 से 2010 तक देशी विदेशी उद्योगपतियों के साथ 102 सहमतिपत्रों पर हस्ताक्षर किये हैं, जिसमें लगभग 1 लाख 65 हजार करोड़ रुपयों का निवेश किया गया है। ये सभी सहमतिपत्र मुख्यत: खनन से सम्बद्ध कम्पनियों के हैं (टाइम्स आफ इण्डिया, 7 जून 2010, lite.epaper.timesofindia.com)। 2005 में टाटा एस्सार के साथ सहमतिपत्रों पर हस्ताक्षर होने के बाद इन सभी सहमतिपत्रों को अमल में लाने के लिए जिस प्रकार सरकार द्वारा पूरे छत्तीसगढ़ में माओवाद से लड़ने के नाम पर आदिवासियों को उनकी जगह और ज़मीन से उजाड़ने की मुहिम चलाई जा रही है उसकी सारी काली सच्‍चाई अब पूरी दुनिया के सामने आ चुकी है।

यहाँ पर सवाल सिर्फ छत्तीसगढ़ की आर्थिक नीतियों को कठघरे में खड़ा करने का नहीं है। यह नवउदारवादी नीतियों की तार्किक परिणति है। इन प्रत्यक्ष जनविरोधी कार्रवाइयों के अलावा पिछले 20 साल से जारी नवउदारवादी सामाजिक-आर्थिक और राजनीतिक नीतियों को देखें तो विकास के नाम पर देश के शीर्षस्‍थ उद्योगपतियों को जिस प्रकार कौड़ियों के दाम ज़मीनें और अन्य सुविधाएं बेची जा रही हैं, जिस तरह श्रम कानूनों को ज़्यादा से ज़्यादा लचीला बनाकर उन्हें छूट दी जा रही है और जिस प्रकार तेज़ी से मज़दूरों को मिलने वाली सभी सुविधाओं का दायरा लगातार सिकुड़ता जा रहा है उसने भी सरकार द्वारा जनता पर युद्ध से कम कहर बरपा नहीं किया है। यह एक परोक्ष युद्ध के समान ही है, जो लगातार जारी है।

उच्‍चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि आधुनिक नवउदारवादी नीतियों के कारण कुछ लोगों में लोभ और बेसब्री की संस्‍कृति पैदा हुई है, जो किसी भी कीमत पर ज़्यादा मुनाफ़ा कमाने की होड़ में लगे हुए हैं (तहलका 16 जून 2011)। इन नीतियों को लागू करने में नौकरशाही का चरित्र भी ज़्यादा निरंकुश और दमनकारी हुआ है।

यहाँ पर सामाजिक विकास और सुरक्षा की सरकारी नीतियों पर एक निगाह डालें तो बात और स्‍पष्‍ट हो जाती है। पिछले दिनों उच्‍चतम न्यायालय ने केन्द्र सरकार को समुचित भण्डारण के अभाव में सड़ रहे अनाज को गरीबों में बाँटने का आदेश दिया था (द हिन्दू, नई दिल्ली, 15 मई 2011) मगर सरकार ने अनाज को ग़रीबों में बाँटने पर अपनी असहमति प्रकट की थी (एन.डी.टी.वी., 6 सितम्बर 2010)। एक ओर भूख और कुपोषण से, खाने के अभाव में हज़ारों ग़रीब बच्‍चे हर दिन मौत के शिकार होते हैं (www.guardian.co.uk, 4 October 2009), ग़रीबी और बदहाली के कारण लाखों किसान आत्महत्या कर लेते हैं (द हिन्दू, 13 मई 2010), और दूसरी ओर लाखों टन अनाज गोदामों में पड़ा सड़ता रहता है। उच्‍चतम न्यायालय के फ़ैसले के बाद पूरे देश में इसकी चर्चा होती रही मगर सरकार उस अनाज को ज़रूरतमन्द लोगों तक पहुँचाने में अपनी असहमति प्रकट करके चुप हो गई। आज़ादी के 60 साल बाद भारत में विकास के नाम पर बड़े-बड़े राजमार्ग, मॉल और रेलवे लाइनें बनाई गई हैं और आज भी बनाई जा रही हैं लेकिन अभी तक अनाज के भण्डारण की सही व्यवस्था नहीं हो पाई है और पूरे अनाज का 30 प्रतिशत हिस्सा भण्डारण के लिए गोदाम न होने के कारण आज भी नष्ट हो जाता है (द हिन्दू, नई दिल्ली, 13 जून 2011)। औद्योगिक विकास के लिए पूँजीपतियों को करोड़ों की छूट देने वाली और उनके लिए जनता के विरुद्ध हथियारबंद कार्रवाइयाँ तक करने में सैकड़ों करोड़ रुपये खर्च करने वाली सरकार पिछले 60 वर्षों में अनाज के भण्डारण के लिए गोदाम तक नहीं बना सकी है।

सिर्फ यही क्यों, पिछले 60 सालों में और मुख्यत: पिछले 20 सालों में नवउदारवादी आर्थिक-राजनीतिक और सामाजिक नीतियों के तहत आजीविका और पुनर्वास की किसी व्यवस्था के बिना जितनी बड़ी आबादी को विस्थापित करने और उसकी जगह-ज़मीन से बेदखल करने के लिए सरकार ने जो नीतियाँ अपनाई हैं वह स्वयं सरकार द्वारा जनता के विरुद्ध छेड़े गये एक गृह युद्ध के समान ही है। 31 अक्टूबर ’09 के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में कोने में प्रकाशित एक छोटे से समाचार और 13 नवम्बर ’09 के ‘हिन्दुस्तान टाइम्स’ में छपे एक लेख के अनुसार, भूमि सुधार विषयक पन्द्रह सदस्यीय सरकारी कमेटी (कमेटी ऑन स्टेट एग्रेरियन रिलेशंस एण्ड अनफिनिश्‍ड टास्क ऑफ लैण्ड रिफॉर्म्स) ने छत्तीसगढ़ के लौह अयस्क समृद्ध जिलों — बस्तर, दन्तेवाड़ा और बीजापुर में औद्योगीकरण अभियान को ‘कोलम्बस के बाद मूल निवासियों की ज़मीन हड़पने की सबसे बड़ी घटना’ की संज्ञा दी है।

दमन की कुछ बड़ी घटनाओं को छोड़ दें तो रोज़मर्रा के सामाजिक जीवन में सत्ता द्वारा जनता का दमन ज़्यादा मुखर होता हुआ दिखता है। पूरे सत्ता-तंत्र की खुली प्रत्यक्ष हिंसा के अतिरिक्त उसके रोज़मर्रा के कार्यों में जो संरचनागत हिंसा निहित है वह और ज़्यादा सघन और सुव्यवस्थित हुई है। यह विषय अपने आप में अलग से एक पूरे आलेख की माँग करता है, इसलिए यहाँ पर इसकी चर्चा के विस्तार में हम नहीं जायेंगे।

2.

अब सरकार द्वारा जनता के प्रत्यक्ष हथियारबंद दमन की चर्चा पर वापस लौटें। छत्तीसगढ़ में जब सलवा जुडुम, एस.पी.ओ. और कोया कमाण्डो अपने उद्देश्यों में सफल होते हुए नहीं दिखे तो 2009 में आपरेशन ग्रीन हंट के नाम पर अर्द्धसैनिक बलों का एक सघन अभियान छत्तीसगढ़, आन्ध्र प्रदेश, झारखण्ड से लेकर उड़ीसा तक शुरू किया गया। इस सैन्य अभियान के तहत क्षेत्र के स्कूलों से लेकर सरकारी इमारतों तक को सेना की छावनियों में तब्दील कर दिया गया। आपरेशन ग्रीन हंट के तहत सी.आर.पी.एफ., कोबरा बटालियन और बी.एस.एफ. जैसे अति-आधुनिक हथियारों और प्रशिक्षण से लैस दो लाख पुलिस फोर्स विशेष रूप से जन आन्दोलनों को कुचलने के लिए लगायी गयी थी। आपरेशन ग्रीन हंट में काउण्टर-इन्सर्जेन्सी (विद्रोह-प्रतिरोध) के तहत माओवादियों के नाम पर आम जनता पर जिस प्रकार कहर बरपा किया गया है उसका ज़ि‍क्र रिपोर्टों और अखबारों में बहुत कम मिलता है। कुछ जनवादी अधिकार संगठनों के वक्तव्यों और रिपोर्टों को देखने पर ही ज़मीनी हकीकत का पता लग पाता है (www.antiimperialista.org, 13 May 2011)।

सरकार इन बातों से लगातार इनकार करती रही है लेकिन अब सारी सच्‍चाई सामने आ चुकी है और उच्‍चतम न्यायालय के फैसले के बाद यह स्पष्ट हो गया है कि इस पूरी सैन्य कार्रवाई का खाका देशी और विदेशी कम्पनियों के साथ साइन किये गये अनुबन्धों के दबाब में अयस्कों की खानों और अकूत प्राकृतिक संपदा से परिपूर्ण ज़मीन को आदिवासियों से खाली करवाने के लिए उन्हें उजाड़ने के लिए बनाया गया है। पूरे नक्सलवाद प्रभावित क्षेत्रों में देशी और विदेशी कम्पनियों द्वारा लगभग 6.6 लाख करोड़ का निवेश किया जा चुका है (आउटलुक, 26 अक्टूबर 2009), और इस पूरे क्षेत्र का पर्यवेक्षण करें तो अकेले उड़ीसा में 2.7 अरब डालर की कीमत के बाक्साइट का भण्डार मौजूद है (आउटलुक, 9 नबम्बर 2009)। और इसके साथ ही रावघाट की पहाड़ियों में कुल 7.4 अरब टन सबसे उन्नत लौह अयस्क मौजूद है (मेनस्ट्रीम, 17-23 जून 2011)। सारी कम्पनियाँ इस प्राकृतिक सम्पदा पर नज़र गड़ाये बैठी हैं।

पूरे छत्तीसगढ़ और आस-पास के आदिवासी इलाकों में सरकार की नवउदारवादी आर्थिक-सामाजिक नीतियों के चलते प्राकृतिक सम्पदा को हथियाने के लिए भूमि अधिग्रहण करके अनेक आदिवासियों को बेरहमी से बिना किसी सामाजिक सुरक्षा और पुनर्वास के उनकी ज़मीन से उजाड़ा जा रहा है। बेदखली की इस पूरी प्रक्रिया के विरोध में होने वाले हर जन आन्दोलन को सरकार द्वारा बलपूर्वक कुचला जाता रहा है। छत्तीसगढ़ की स्थानीय आदिवासी जनता के ऊपर सरकार की आर्थिक नीतियों से जो दबाव बनाया गया है उसके विरुद्ध अपने जीवन और मृत्यु की लड़ाई लड़ रहे आदिवासियों को माओवादी राजनीतिक धारा का समर्थन मिला है, और सरकारी नीतियों के शिकार इन अदिवासियों के संघर्ष में माओवादी उनका साथ दे रहे हैं। भारतीय क्रांति की आम राजनीतिक दिशा और रणनीति को लेकर माओवादी राजनीतिक धारा के साथ किसी का मतभेद हो सकता है, उनकी कई कार्रवाइयों से भी असहमति हो सकती है, लेकिन इस पूरे क्षेत्र की जो ज़मीनी हकीकत है, जहाँ लाखों आदिवासियों द्वारा अपनी माँगों को लेकर किये जा रहे हर जन आन्दोलन के जबाब में सरकार द्वारा माओवादियों का लेबल लगाकर उनका दमन किया जा रहा है, वह एक प्रत्यक्ष युद्ध है जो माओवादी राजनीतिक धारा के विरुद्ध ही नहीं बल्कि आम आदिवासी जनता के विरुद्ध चलाया जा रहा है।

जनता के विरुद्ध इस युद्ध का दायरा विस्तारित होकर आगे बढ़ा है तो जो कोई भी आदिवासी आबादी को उजाड़े जाने का विरोध करता है उसे भी माओवादी घोषित कर दिया जाता है। छत्तीसगढ़ सरकार ने 2005 में छत्तीसगढ़ विशेष जन सुरक्षा क़ानून 2005 पारित किया जिसके तहत किसी भी जगह किसी भी व्यक्ति को माओवादियों से सहानुभूति रखने के जुर्म में गिरफ्तार किया जा सकता है। इसी के तहत 2007 में डा. विनायक सेन के साथ पीयूष गुहा व अन्‍य को गिरफ्तार किया गया और फिर दिसम्बर 2010 में जिला न्यायालय ने तीनों को देशद्रोह के आरोप में उम्र कैद की सज़ा सुनाई, जिसके विरोध में उच्‍चतम न्यायालय में दायर याचिका पर फैसला देते हुए न्यायमूर्ति एच.एस. बेदी और सी.के. प्रसाद ने अप्रैल 2011 में डा. विनायक सेन को देशद्रोह के आरोप से बरी कर दिया। उच्‍चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा है कि हम एक जनतन्त्र के नागरिक हैं और कोई भी किसी विचारधारा से सहानुभूति रख सकता है। यदि किसी के पास महात्मा गांधी की अत्मकथा मिलती है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि वह व्यक्ति गाँधीवादी है। किसी राजनीतिक विचारधारा से सम्बन्धित किताबें रखना या यहां तक कि किसी प्रतिबंधित संगठन से सहानुभूति रखना अथवा उसका सदस्‍य तक होना किसी भी प्रकार से संविधान का उल्लंघन या देशद्रोह नहीं है, जब तक कि व्यक्ति प्रत्यक्ष रूप से आतंकी कार्रवाई या राज्‍य के विरुद्ध युद्ध में शामिल नहीं होता (फ्रंटलाइन, 15 अप्रैल 2011)। उच्‍चतम न्यायालय के इस फैसले के बाद जिस प्रकार पूँजीवादी जनतंत्र की सच्‍चाई पूरी दुनिया के सामने उजागर हुई है और इसके चेहरे पर जो कालिख पुती है वह आज किसी से छुपी नहीं है।

यहाँ हम प्रसंगवश मुख्य रूप से छत्तीसगढ़ की चर्चा कर रहे हैं लेकिन इस प्रकार का अभियान बंगाल के जंगल महल से लेकर उड़ीसा, झारखण्ड और बिहार के कुछ क्षेत्रों तक में चलाया जा रहा है। इसी प्रकार की जन विरोधी कार्रवाई के तहत 2010 में भा.क.पा. (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी के सदस्य आज़ाद के साथ पत्रकार हेमचन्द पाण्डे की एक फ़र्ज़ी एनकाउंटर में हत्या कर दी गई। एक अन्य खबर के अनुसार पश्चिम बंगाल में पी.सी.पी.ए. के सदस्य लाल मोहन तुडु, उमाकान्त महतो और सिद्धू सोरेन की भी सी.आर.पी.एफ. ने फ़र्ज़ी एनकाउंटर में हत्या कर दी थी और इस पूरे क्षेत्र में धारा 144 लगाकर जनता के जनवादी अधिकारों पर बंदिशें लगा दी गई थीं (www.antiimperialista.org, 13 May 2011)। इन सभी घटनाओं में जन आन्दोलनों के दमन से लेकर जनता का नेतृत्व कर रहे कार्यकर्ताओं और जनवादी संगठनों को निशाना बनाया जा रहा है। इन क्षेत्रों में सिर्फ संदेह के आधार पर गिरफ्तार किये जाने वाले बन्दियों को राजनीतिक बन्दी के कोई अधिकार नहीं दिये जाते, और आज भी हजारों निर्दोष ग़रीब आदिवासी, किसान, मज़दूर और सामाजिक कार्यकर्ता अनेक झूठे आरोपों में, बिना किसी सुनवाई के सालों से जेल में पड़े हुए हैं (द हिन्दू, 5 मार्च 2011, इकनॉमिक टाइम्स, 12 मार्च 2011)। विनायक सेन और पीयूष गुहा जैसे लोगों की ज़मानत के बावजूद सीमा आज़ाद, प्रशांत राही, सुधीर ढवले आदि अनेकश: वाम बुद्धिजीवी लेखक-पत्रकार राजद्रोह और आतंकवाद के अभियोग में जेलों में बंद हैं। वयोवृद्ध नारायण सान्‍याल और कोबाड गांधी माओवादी नेता भले हों, उन पर किसी आतंकवादी कार्रवाई में लिप्‍त होने का प्रमाण नहीं है। उच्‍चतम न्‍यायालय भी जनवादी अधिकार के जिन मानकों को स्‍वीकार करता है, उनके तहत इन्‍हें अविलंब रिहा किया जाना चाहिए।

इन सभी तथ्‍यों से स्पष्ट पता चलता है कि देशद्रोह और माओवाद का ठप्पा लगाकर जनता के ख़ि‍लाफ़ इस्तेमाल किये जा रहे औपनिवेशिक क़ानून न्याय के लिए उठने वाली हर माँग और सरकार द्वारा जनता पर किये जा रहे अत्याचारों के विरुद्ध उठने वाली हर आवाज़ को दबाने और कुचलने का एक निरंकुश साधन बन चुके हैं। भारत के संवैधानिक क़ानूनों के तहत कार्य कर रही न्यायपालिका में दायर की जाने वाली अनेक जनहित याचिकाएं सालों से लम्बित पड़ी हैं। न्‍यायपालिका का हाल महाभारत के भीष्म की तरह हो चुका है जो पूँजीवाद की सारी जन-विरोधी सच्‍चाई को जानते हुए भी जनता के हित में कुछ नहीं कर सकता।

3.

पहले आपरेशन ग्रीन हंट की असफलता और अब सलवा जुडुम पर उच्‍चतम न्यायालय द्वारा प्रतिबंध लगाना पूँजीपतियों और सरकार के लिए ज़्यादा चिंता का विषय नहीं है क्योंकि पूँजीपतियों और सरकार के बीच सहमतिपत्रों पर जो हस्ताक्षर हो चुके हैं उनके तहत ज़मीन पर कब्ज़ा करने और जनता को उजाड़ने के लिए लिखे गये कथानक को अमल में लाने की सरकारी कार्रवाई शुरू हो चुकी है। इस प्रकार की कार्रवाइयों की सच्‍चाई को देखें तो सी.पी. जोशी के नेतृत्व में बनाई गई केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्रालय की 15 सदस्यीय कमेटी (‘राज्य कृषि सम्बन्ध एवं अधूरे भूमि सुधार सम्बन्धी कार्यों’ के लिए कमेटी) द्वारा जनवरी 2008 में सरकार को सौंपी गई एक रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडुम के लिए कई निजी कम्पनियों ने सरकार को वित्तीय सहयता दी थी और सरकार और टाटा के बीच बस्तर में प्लांट लगाने के लिए समझौता होने के तुरंत बाद इसकी शुरुआत की गई थी। ‘फ्रंटलाइन’ की एक रिपोर्ट के अनुसार सलवा जुडुम के लिए सबसे पहले सरकार को वित्तीय सहायता भी टाटा ने दी थी (फ्रंटलाइन, 27 फरवरी-12 मार्च 2010)।

छत्तीसगढ़ की वर्तमान परिस्थिति के बारे में ‘द हिन्दू’ में प्रकाशित अमन सेठी की एक रिपोर्ट के अनुसार छत्तीसगढ़ में काउण्टर-इन्सर्जेन्सी (जंगल वारफ़ेयर) प्रशिक्षण के लिए ज़मीन अधिग्रहण करने से पहले सेना ने ज़मीनी निरीक्षण आरम्भ कर दिया है। ‘मेनस्ट्रीम’ की एक रिपोर्ट के अनुसार रावघाट इलाके में लोहे की खानें नारायणपुर (माड क्षेत्र) से मात्र 25 किलोमीटर दूर स्थित हैं, जहाँ छत्तीसगढ़ सरकार ने सेना को 750 वर्ग किलोमीटर ज़मीन अधिग्रहण की अनुमति दी है (द हिन्दू, 10 जनवरी 2011)। इस पूरी योजना के तहत सेना का एक प्रशिक्षण-कैम्प छत्तीसगढ़ के रायगढ़ में बनाया जा रहा है जो उत्तर-पूर्वी इलाके में उड़ीसा सीमा पर स्थित है, और दूसरा प्रशिक्षण-कैम्प दक्षिण-पश्चिमी इलाके में महाराष्ट्र सीमा पर स्थित नारायणपुर में बनाया जा रहा है। इसके साथ ही सेना का एक छोटा हेडक्‍वार्टर नारायणपुर में भी बनाया जा रहा है (मेनस्ट्रीम, 17-23 जून 2011)। लेकिन सरकार प्रशिक्षण का हबाला देकर इस भोले-भाले और भोंड़े तर्क से किसे उल्लू बनाना चाहती है? द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान बनाये गये चाँदमारी के कई इलाक़े देश के कई इलाक़ों में पहले से मौजूद हैं, सेना के पास युद्धाभ्‍यास के लिए कई-कई विशाल बीहड़ जंगली, रेगिस्‍तानी व पठारी इलाक़े पहले से मौजूद हैं फिर भी सेना को कैम्प बनाने के लिए रायगढ़ का आदिवासी इलाक़ा (माड क्षेत्र) ही क्यों मिला, जो कि अपार खनिज सम्पदा का भण्डार है, जिसके लिए सरकार और देशी विदेशी कम्पनियों के बीच अनुबंधों पर हस्ताक्षर किये गये हैं, जिसकी चर्चा हम पहले कर चुके हैं। सरकार ने ‘काउंटर-इन्‍सर्जेंसी ट्रेनिंग’ के लिए सेना को आख़िर उसी इलाक़े में विशाल जगह क्‍यों दी जहां वह बरसों से माओवाद के नाम पर समूची आदिवासी जनता के विरुद्ध विनाशकारी युद्ध और उजाड़ मुहिम चलाती रही है?

रावघाट में खनन आरम्भ करने के लिए सरकार इस परियोजना के समर्थन में इस प्रकार का प्रचार कर रही है कि यदि यहाँ खनन शुरू न किया गया तो भिलाई स्टील प्लांट (बी.एस.पी.) में लौह अयस्क की आपूर्ति नहीं हो सकेगी और इसको बन्द करना पड़ सकता है, जिससे हज़ारों मज़दूरों का भविष्य ख़तरे में पड़ जायेगा। लेकिन यहाँ पर आश्चर्यजनक तरीक़े से ध्यान देने की बात यह है कि यदि मौजूदा खानों से अयस्क की आपूर्ति नहीं हो पा रही है, तो सरकार बैलाडिला खानों के अयस्क का निर्यात जापानी, चीनी, और कोरियाई कम्पनियों को क्यों कर रही है? ‘मेनस्ट्रीम’ के अनुसार सरकार टाटा, एस्सार, जिंदल और नीको जैसे बड़ी-बड़ी कम्पनियों के इशारे पर सिर्फ रावघाट की खानें ही नहीं बल्कि सेल और बी.एस.पी. को भी निजी कम्पनियों को बेचने की योजना बना रही है (मेनस्ट्रीम, 17-23 जून 2011)। प्रसंगवश यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि यहाँ पर सवाल बी.एस.पी. में अयस्क की आपूर्ति की कमी का नहीं है, बल्कि देशी और विदेशी कम्पनियों के साथ सरकार द्वारा किये गये सौदों का है, जिन्हें पूरा करने के लिए रावघाट में एक सैन्य अभियान की योजना के तहत सेना के कैम्प लगाये जा रहे हैं। इस क्षेत्र में खानों और ज़मीन का अधिग्रहण करने के लिए स्थानीय आबादी को उजाड़ना आवश्यक है, जिसके विरोध में होने वाले हर जन-आन्दोलन को कुचलने के लिए सरकार अपने आप को पहले से तैयार कर रही है और जनता के विरुद्ध एक सैन्य युद्ध की पूरी तैयारी कर लेना चाहती है। जिस प्रकार उद्योगपति इस पूरे क्षेत्र की प्राकृतिक सम्पदा पर गिद्धों की तरह नज़र लगाये हुए हैं, और जनता को उजाड़ने के लिए पूरे योजनाबद्ध तरीक़े से जुटे हुए हैं, उसे देखकर लगता है कि सरकार ज़रूरत पड़ने पर इस पूरे क्षेत्र में कभी भी पूर्वोत्तर और जम्‍मू-कश्मीर की तरह ए.एफ.एस.पी.ए. के तहत सैन्य शासन लागू कर सकती है।

4.

यदि हम इतिहास में पीछे की तरफ जायें तो पायेंगे कि आज भारतीय राज्‍य द्वारा जो भी दमन और उत्‍पीड़न की काली कार्रवाइयां भारत के मध्‍य क्षेत्र में की जा रही हैं उसमें कुछ भी नया नहीं है। पहले भी “दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र” कहे जाने वाले भारत में सरकार जनांदोलनों से लाठी-गोली के दम पर निपटती रही है और इसकी शुरुआत तो आज़ादी मिलने के साथ ही शुरू हो गयी थी। आज़ादी मिलने के तुरन्‍त बाद नेहरू सरकार ने तेलंगाना में सेना भेजकर किसान संघर्ष का बर्बर दमन करवाया था। 1958 में ‘सशस्त्र बल (विशेष अधिकार) क़ानून – 1958’ (ए.एफ.एस.पी.ए.) असम और मणिपुर के पूर्वोत्तर राज्यों के लिए बनाया गया और 1972 में इसे संशोधित करके पूर्वोत्तर के सभी सात राज्यों — असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिज़ोरम और नगालैण्ड में लागू करने की घोषणा की गयी। फिर 1990 में एक संशोधन के बाद इसे जम्मू-कश्मीर में भी लागू कर दिया गया। सिर्फ़ यही नहीं बल्कि 1966-67 के नक्‍सलबाड़ी के किसान उभार के बाद दस वर्षों तक पूरे देश में ऐतिहासिक दमनचक्र चलाया गया और लगभग दस हज़ार नौजवानों को फ़र्जी मुठभेड़ों में क़त्‍ल कर दिया गया। दरअसल आज़ादी के बाद कांग्रेस सरकार की ग़लत आर्थिक नीतियों के फलस्‍वरुप जनता में जो व्‍यापक मोहभंग और निराशा की स्थिति पैदा हुई उसी के चलते नानाविध रूपों में सामाजिक असंतोष राजनीतिक-सामाजिक क्षितिज पर प्रकट होते चले गये जिसका एक रूप नक्‍सलबाड़ी से शुरू हुआ आन्‍दोलन भी था। इसी क्रम में 1974 की ज़बरदस्‍त रेल हड़ताल हुई और उसे भी उसी प्रकार राजसत्‍ता का कोपभाजन होना पड़ा। आपातकाल के उन भयानक अंधकारमय वर्षों के फ़ासिस्‍टी ज़ुल्‍मों को भला कौन भुला सकता है जब पूरा भारतीय राज्‍य एक पुलिस स्‍टेट में तब्‍दील हो गया था। इसके अलावा बेलछी, बेलाडीला, पन्‍तनगर, नारायणपुर, शेरपुर, स्‍वदेशी-काटन मिल, डाला-चुर्क, मुज़फ़्फ़रनगर आदि सत्‍ता-प्रायोजित नरसंहारों का एक लम्‍बा सिलसिला है।

इस प्रकार जनता के ये छिटपुट अलग-अलग संघर्ष विभिन्‍न मोड़ों, घुमावों, मुक़ामों से होते हुए 1990-1991 की विनाशकारी नवउदारवादी नीतियों के शुरू होने के बाद नयी शक्‍़ल में घनीभूत होते जा रहे हैं जिसका एक संकेत हमें बस्‍तर में मिल रहा है। आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक स्तर पर जो युद्ध जारी है उस युद्ध का सामरिक रूप धारण कर लेना भी स्वाभाविक आन्तरिक गति का ही परिणाम है जो इस सच्‍चाई को सिद्ध करती है कि राजनीति आर्थिक नीतियों की घनीभूत अभिव्यक्ति होती है और युद्ध राजनीति का विस्तार होता है।

यदि हम ग़ौर करें तो पायेंगे कि इससे पहले भी कश्‍मीर और उत्‍तर-पूर्व में वहां की जनता आज़ादी के बाद से ही अपनी जायज़ मांगों को लेकर संघर्षरत रही है पर वहां प्रश्‍न आत्‍मनिर्णय के अधिकार और राष्‍ट्रीयताओं के उत्‍पीड़न का था और वे संघर्ष मुख्‍यत: मुल्‍क़ की परिधि तक ही सीमित थे, पर आज छत्‍तीसगढ़, झारखण्‍ड, आदि राज्‍यों में जो कुछ हो रहा है वह इन अर्थों में भिन्‍न है कि संघर्ष का केन्‍द्र खिसककर अब देश के मध्‍य में आ गया है जहां राज्‍य चंद देशी-विदेशी घरानों को फ़ायदा पहुंचाने कि लिए सम्‍पूर्ण जनता के खिलाफ़ युद्ध छेड़े हुए है।

अन्‍त में हम संक्षिप्‍त चर्चा उन चुनौतियों और कार्यभारों की करना चाहते हैं जिनका सामना आज की तारीख़ में तमाम जनवादी अधिकारकर्मियों को करना पड़ रहा है। हमारा स्‍पष्‍ट म‍त है कि राज्‍य मशीनरी की निरंकुशशाही और सर्वसत्‍ताधारी राज्य का मुकाबला केवल व्‍यापक जनसमुदाय को जागृत और गोलबंद करके ही किया जा सकता है। जनवादी-अधिकारकर्मियों के कंधों पर जो बहुत बड़ी जिम्‍मेदारी है वह यह है कि कैसे अलग-अलग तरीक़ों का इस्‍तेमाल करके जनता को अपने जनवादी अधिकारों के प्रति सचेत बनायें और उसे उनके लिए लड़ना और संघर्ष करना सिखायें। वे जनता को बतायें कि प्रश्‍न केवल अबूझमाड़ का या दण्‍डकारण्‍य का नही है बल्कि असल सवाल आज की तारीख़ में लागू की जा रही उदारीकरण-भूमण्‍डलीकरण-निजीकरण की उन नीतियों का है जिनके फलस्‍वरुप मेहनतकश जनता का एक बड़ा हिस्‍सा तबाह और बर्बाद होकर नारकीय जीवन जी रहा है। पूंजीपतियों की मैनेजिंग कमेटी के रूप में काम करती हुई जो सरकार छत्तीसगढ़ की अकूत सामाजिक सम्‍पदा की लूट के लिए हर क़ीमत पर लाखों आदिवासियों को उजाड़ने पर आमादा है, उसीकी नीतियां प्रतिवर्ष करोड़ों छोटे मालिक किसानों को उजाड़ रही हैं, उसी की नीतियां अपने निहायत नाक़ाफ़ी श्रम क़ानूनों को भी एकदम निष्‍प्रभावी बनाकर करोड़ों मेहनतकशों को नर्क की ग़ुलामी के लिए विवश कर रही हैं। ये नवउदारवाद की नीतियां हैं जो नर्क के अंधेरे में जगमगाते स्‍वर्ग रच रही हैं। राज्‍यसत्ता की प्रत्‍यक्ष हिंसा को निरन्‍तर जारी संरचनागत हिंसा से जोड़कर देखना होगा। सामरिक दमन को राजनीति के विस्‍तार और राजनीति को आर्थिक नीतियों की घनीभूत अभिव्‍यक्ति के रूप में देखना होगा।

जनवादी अधिकार आन्‍दोलन ने सलवा जुडुम, ऑपरेशन ग्रीन हण्‍ट और भावी सैन्‍य दमन अभियानों की असलियत उजागर करने में महत्‍वपूर्ण काम किया है। क़ानूनी मोर्चे और मीडिया के प्रचार मोर्चे पर काम ज़रूरी है, पर काफ़ी नहीं। तमाम काले क़ानूनों के विरुद्ध देशव्‍यापी स्‍तर पर जनमानस तैयार करना होगा। छत्तीसगढ़ में सैन्‍य दमन की तैयारियों को देशव्‍यापी बहस और प्रतिरोध का मसला बनाना होगा। सरकारी विकास नीति (जो जनता के लिए विनाश नीति) और ढकोसलापूर्ण पुनर्वास नीति को भी स्‍थानीय चौहद्दियों से बाहर लाकर व्‍यापक जनान्‍दोलन का मसला बनाने के बारे में संजीदगी से सोचना होगा। राज्‍य मशीनरी के बढ़ते दमनकारी चरित्र का प्रभावी ढंग से मुक़ाबला करने के लिए व्‍यापक जनसमुदाय को जागृत करना ही होगा। हमारा विनम्र विचार है कि इसी बुनियाद पर भारत के जनवादी अधिकार आन्‍दोलन को आज नये सिरे से खड़ा करने की कठिन चुनौती हमारे सामने है।

सन्‍दर्भ सूची

तहलका, 16 जून 2011

द हिन्दू, 6 जुलाई 2011, पृष्ठ 1 और पृष्ठ 13

मेनस्ट्रीम, 17-23 जून 2011

टाइम्स आफ इण्डिया, 7 जून 2010,

द हिन्दू, नई दिल्ली, 15 मई 2011

एन. डी. टी. वी., 6 सितम्बर 2010

द हिन्दू, 13 मई 2010

द हिन्दू, नई दिल्ली,  13 जून 2011

हिन्‍दुस्‍तान टाइम्‍स, 31 अक्टूबर 2009

हिन्दुस्तान टाइम्स, 13 नबम्बर 2009

आउटलुक, 26 अक्टूबर 2009

आउटलुक, 9 नबम्बर 2009

फ्रंटलाइन, 15 अप्रैल 2011

टाइम्स आफ इण्डिया, 30 जनवरी 2011

द हिन्दू, 5 मार्च 2011

इकोनॉमिक टाइम्स, 12 मार्च 2011

फ्रंटलाइन, 27 फरवरी-12 मार्च 2010

द हिन्दू, 10 जनवरी 2011

राज्य कृषि सम्बन्ध एवं अधूरे भूमि सुधार सम्बन्धी कार्यों पर कमेटी

lite.epaper.timesofindia.com

www.guardian.co.uk, 4 October 2009

www.antiimperialista.org, 13 May 2011

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

ten − two =