अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति

     

अम्बेडकरवाद और दलित मुक्ति

चतुर्थ अरविन्‍द स्‍मृति संगोष्‍ठी में प्रस्‍तुत आलेख

– सुखविन्दर

भारत के लोगों का जातियों में बँटवारा इसे पूरी दुनिया में एक विलक्षण समाज बनाता है। यह बँटवारा सदियों से अपने रूप बदलते हुए आज भी बरकरार है। आज भी यहाँ करोड़ों लोगों को जाति आधारित उत्पीड़न, ज़ुल्म, अपमान झेलना पड़ रहा है। वर्गीय विभाजन के साथ-साथ भारतीय समाज का जनजातीय-ग़ैरजनजातीय (Tribal-NonTribal), अलग-अलग राष्ट्रीयताओं तथा जातियों में बँटवारा भारतीय समाज को एक बेहद जटिल समाज बनाता है। 1990 के दशक के शुरू में हुए एक सर्वेक्षण के मुताबिक़ भारत के लोग 3539 जातियों में बँटे हुए थे (सुवीरा जैसवाल, Caste, p. 15, Delhi, 2005)। यह बँटवारा ख़ासकर जाति आधारित बँटवारा भारत की मेहनतकश जनता की मुक्ति की राह को बेहद चुनौतीपूर्ण बना देता है। शासक वर्ग हमेशा इन बँटवारों को मेहनतकश जनता की वर्गीय एकता को तोड़ने, उनकी वर्गीय चेतना को भोथरा बनाने तथा उन्हें आपस में लड़ाने के लिए एक कारगर हथियार के रूप में इस्तेमाल करते रहे हैं और आज भी यह सिलसिला बदस्तूर जारी है।

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सुखविन्‍दर

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए सुखविन्‍दर

वर्ग विभाजन के अलावा भारतीय समाज का जातियों में बँटवारा (इसके साथ ही राष्ट्रीयताओं, जनजातीय-ग़ैरजनजातीय आदि में) आज के भारत का वस्तुगत यथार्थ है जिससे इनकार करके भारत में श्रमिक वर्गों की मुक्ति की कोई भी परियोजना तैयार नहीं की जा सकती। इस यथार्थ को बदलने की दिशा में पहला क़दम इस वस्तुगत यथार्थ को स्वीकार करना है।
आज़ादी के बाद हुए पूँजीवादी विकास की बदौलत यहाँ की जातीय संरचना में बहुत बड़े बदलाव आये हैं। जाति की विशेषताओं में से जातीय पदसोपानक्रम, जाति आधारित श्रम विभाजन काफ़ी हद तक टूटा है। लेकिन सजातीय विवाह की विशेषता अभी भी बड़े पैमाने पर बरक़रार है। लेकिन इन तमाम बदलावों के बावजूद भारत की दलित आबादी का बड़ा हिस्सा आज भी ग्रामीण तथा शहरी सर्वहारा आबादी ही है, जोकि निकृष्टतम कोटि के आर्थिक-राजनीतिक शोषण-उत्पीड़न के साथ-साथ जातिगत उत्पीड़न-अपमान भी झेल रही है। इन जातिगत भेदभाव, उत्पीड़न-अपमान का ख़ात्मा भारत की भावी क्रान्ति के सबसे अहम प्रश्नों में से एक है।
भारत में जाति प्रश्न से यहाँ का कम्युनिस्ट आन्दोलन शुरू से ही जूझता रहा है और आज भी जूझ रहा है। व्यावहारिक धरातल पर जातीय दमन-उत्पीड़न के ख़िलाफ़ लगातार लड़ते हुए भी राष्ट्रीय आन्दोलन के समय भारत की कम्युनिस्ट पार्टी वर्ग अपचयनवाद (Class Reductionism) का शिकार रही है। यह भारत में से अस्पृश्यता को ख़त्म करने के कार्य को पूरी तवज्जो नहीं दे पायी। लेकिन यह भारत के कम्युनिस्टों की ग़लती थी, न कि मार्क्सवादी विचारधारा की। मार्क्सवाद जात-पाँत तथा ऐसी हर एक परिघटना को समझने में पूरी तरह सक्षम है। आज जब जाति प्रश्न भारतीय क्रान्ति की कार्यसूची में एक ज्वलन्त प्रश्न के रूप में शामिल है, तो हमें इस प्रश्न से निपटने में अतीत में भारत के कम्युनिस्ट आन्दोलन में रही ग़लतियों को समझने के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन के समय फुले, पेरियार तथा अम्बेडकर (और ख़ासतौर पर अम्बेडकर) की जो समाज-सुधार की धारा थी, उसकी उपलब्धियों तथा सीमाओं को भी समझना होगा।
अम्बेडकर के बग़ैर दलित प्रश्न पर हर एक चर्चा अधूरी ही रहेगी। अम्बेडकर ख़ुद अछूत परिवार में पैदा हुए। अस्पृश्यता का कहर उन्होंने ख़ुद झेला। वह सारी उम्र दलित जातियों के भौतिक-सांस्कृतिक-राजनीतिक-सामाजिक उत्थान के लिए प्रयत्नशील रहे। दलित जातियों में मानवीय गरिमा तथा उनके हक़-अधिकार की चेतना जगाने में अम्बेडकर की भूमिका निर्विवाद है। अम्बेडकर के नेतृत्व में अस्पृश्यता जैसी घिनौनी, अमानवीय संस्थाओं के ख़िलाफ़ उठे दलित आबादी के संघर्षों की ही बदौलत दलित प्रश्न राष्ट्रीय आन्दोलन की कार्यसूची में शामिल हुआ। कांग्रेस जैसी पार्टियों को भी अस्पृश्यता का ‘ख़ात्मा’ अपने कार्यक्रम में शामिल करना पड़ा। भले ही इस पार्टी ने कभी भी संजीदगी से इस दिशा में कोई क़दम नहीं उठाया। अम्बेडकर के नेतृत्व वाले समाज-सुधार आन्दोलन की बदौलत आज़ादी के पहले तथा बाद में दलित जातियों के एक हिस्से (एक छोटे से हिस्से) की हालत में निश्चय ही सुधार आया है।
पीछे मुड़कर देखने पर जाति प्रश्न के सन्दर्भ में अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाले समाज-सुधार आन्दोलन की ऐतिहासिक तौर पर प्रगतिशील भूमिका को स्वीकार करते हुए भी, उनकी सीमाओं से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
आज लगभग सभी तरह के अम्बेडकरवादी अम्बेडकर को दलितों के मसीहा के तौर पर पेश करते हैं। उनका कहना है कि दलित मुक्ति का एकमात्र सिद्धान्त अम्बेडकरवाद है। कुछ का कहना है कि जात-पाँत के ख़ात्मे के लिए अम्बेडकरवाद ज़रूरी है तथा वर्गों के ख़ात्मे के लिए मार्क्सवाद की ज़रूरत है। पर क्या अम्बेडकर दलितों के सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक दमन-उत्पीड़न से मुक्ति का कोई व्यवहार्य यथार्थवादी मार्ग सुझाते हैं? क्या अम्बेडकर दलित प्रश्न का कोई वैज्ञानिक ऐतिहासिक विश्लेषण तथा समाधान प्रस्तुत करते हैं? क्या अम्बेडकर के विचारों में दलित मुक्ति की कोई समग्र परियोजना है? क्या धर्म परिवर्तन (जो अम्बेडकर ने अपने जीवन के अन्तिम दिनों में किया और जातिगत दमन-उत्पीड़न से मुक्त होने के लिए अपने अनुयायियों से करने के लिए कहा) जाति प्रश्न का कोई रास्ता हो सकता है? अम्बेडकर ने जाति प्रश्न के सन्दर्भ में तथा अन्य सन्दर्भों में मार्क्सवाद की जो आलोचना प्रस्तुत की, क्या वह आलोचना उनके द्वारा मार्क्सवाद के गहन-गम्भीर अध्ययन पर आधारित थी? कई दलितवादी तथा “मार्क्सवादी” बुद्धिजीवी अम्बेडकरवाद तथा मार्क्सवाद को मिलाने की ज़ोर-शोर से वकालत करते हैं। क्या मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद में किसी भी तरह का मेलजोल सम्भव है? इन प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए हमें अम्बेडकर के विश्व-दृष्टिकोण, उनके राजनीतिशास्त्र, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र, उनकी इतिहासदृष्टि तथा उनके द्वारा प्रस्तुत की गयी मार्क्सवाद की आलोचना की पड़ताल करनी होगी। इस पेपर की विषयवस्तु भी यही है। निश्चय ही यह एक जोखिम भरा काम है, क्योंकि कई प्रश्नों पर अम्बेडकर का स्पष्ट स्टैण्ड बता पाना बहुत मुश्किल है। एक जगह वह जो बात कहते हैं, दूसरी जगह वह इसके ठीक उलटी बात कहते हैं। एक तरह से अम्बेडकरवाद एक विचारधारात्मक विभ्रम (Confusion) ही है। आज वामपन्थी आन्दोलन में प्रायः अम्बेडकर के प्रति अनालोचनात्मक प्रशंसा का रुख़ पाया जा रहा है। शायद उनका सोचना है कि अम्बेडकर की आलोचना से दलित बिदक जायेंगे। मगर दलितों का दिल जीतने के नाम पर यह राजनीतिक अवसरवाद ही है। दलित मेहनतकशों को उनके विचारधारात्मक पूर्वाग्रहों से संघर्ष करके ही कम्युनिस्ट आन्दोलन में लाया जा सकता है, न कि उन्हें बहला-फुसलाकर।
किसी भी सिद्धान्त की प्रासंगिकता सामाजिक व्यवहार का पथ-प्रदर्शन करने में निहित होती है। जो सिद्धान्त हमारे व्यवहार का पथ-प्रदर्शन नहीं करता, वह सिद्धान्त एक निर्जीव बोझ की तरह होता है। जब हमारा प्रस्थान बिन्दु उन करोड़ों लोगों की मुक्ति हो जिन्हें आर्थिक-राजनीतिक शोषण-उत्पीड़न के साथ-साथ क़दम-क़दम पर तथाकथित छोटी जातियों से सम्बन्धित होने के चलते सामाजिक अपमान भी झेलना पड़ता है, तो हमें हर उस सिद्धान्त की बेलाग-लपेट पड़ताल करनी चाहिए, जो इन शोषित-उत्पीड़ितों की मुक्ति का पथ-प्रदर्शक होने का दावा करता है। किसी भी ऐतिहासिक व्यक्तित्व के प्रति धार्मिकता का, श्रद्धा का रुख़ अपनाकर दलित मुक्ति की दिशा में एक भी क़दम नहीं उठाया जा सकता। यहाँ प्रश्न किसी ऐतिहासिक शख़्सियत की नीयत पर उँगली उठाना नहीं है, बल्कि उसके विचारों के वस्तुगत विश्लेषण का है। भगतसिंह ने कहा था, “जो भी मनुष्य प्रगति का पक्षधर है, उसे समग्र पुरातन विश्वास को चुनौती देनी होगी। अगर ये विश्वास दलील के आगे ना टिक पाये तो ये धराशायी हो जायेंगे। फिर उस व्यक्ति का काम पुरातन विश्वास को तबाह करके नये दर्शन की ज़मीन तैयार करना होगा।”
किसी भी ऐतिहासिक शख़्सियत तथा आन्दोलन के सकारात्मक तथा नकारात्मक दोनों पहलू होते हैं। किसी भी शख़्सियत को आलोचना से ऊपर नहीं माना जाना चाहिए। अम्बेडकर के प्रति भी हमें यही वैज्ञानिक रुख़ अपनाना चाहिए। अगर आज हमें दलित मुक्ति की किसी नयी परियोजना की तैयारी करनी है, तो हमें अम्बेडकर के विचारों तथा व्यवहार में जो भी ग़लत है, उसकी आलोचना करनी ही होगी।

1)    अम्बेडकर का विश्वदृष्टिकोण
विश्वदृष्टिकोण या दर्शन मानव के समग्र कार्यकलाप का मार्गदर्शक होता है। किसी नेता अथवा विचारक के विश्वदृष्टिकोण को अगर ठीक ढंग से समझ लिया जाये तो उसके आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक इत्यादि विचारों को तथा कार्यवाहियों को ठीक से समझा जा सकता है।
अम्बेडकर ने 1936 में ‘जातिप्रथा का उन्मूलन’ नामक अपने लेख में हिन्दू धर्म छोड़ने का ऐलान किया था। लेकिन अगले 20 सालों तक उन्होंने हिन्दू धर्म नहीं छोड़ा और 1956 में जाकर 66 साल की उम्र में उन्होंने हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया। उम्रभर उनकी धर्म में आस्था बनी रही, यानी लगभग सारी उम्र ही उनका विश्वदृष्टिकोण भाववादी बना रहा। अपने जीवन के अन्तिम वर्ष में वह बुद्ध मत तक पहुँचे, यानी वह भाववाद से यात्रा करके आदिम, अनगढ़, यान्त्रिक भौतिकवाद (Primitive, Crude, Mechanical Materialism) तक पहुँचे, जो कि आज अलग-अलग परिघटनाओं को, भले ही वे प्राकृतिक हों या सामाजिक, उन्हें वैज्ञानिक ढंग से समझने में हमारी कोई मदद नहीं करता।
धर्म शोषक वर्गों की विचारधारा का ही एक अंग है, क्योंकि शासक वर्ग की विचारधारा ही शासक विचारधारा होती है। इसलिए वर्ग-समाजों में आम मेहनतकश लोग भी शासक वर्ग की विचारधारा के वाहक होते हैं। आम मेहनतकशों (दलित जातियों के मेहनतकशों सहित) के धार्मिक पूर्वाग्रह, अन्धविश्वास शोषक शासक वर्ग के शासन को और अधिक मज़बूत बनाते हैं। इसलिए मेहनतकश जनता की मुक्ति में धर्म से मुक्ति (धर्म का ख़ात्मा) भी निहित है, लेकिन अम्बेडकर इसके ठीक उलटा सोचते थे। उनका कहना है:
“कुछ लोग सोचते हैं कि धर्म समाज के लिए अनिवार्य नहीं है। मैं इन विचारों को नहीं मानता। मैं सोचता हूं कि जीवन और समाज के आचार-व्यवहार के लिए धर्म के आधार अनिवार्य हैं।” (देखें, Dhananjay Keer, ‘Ambedkar, Life and Mission’, Popular Prakashan, Bombay, II Edition, 1961, अनुवाद हमारा)
अपने लेखन तथा भाषणों में अम्बेडकर ने हमेशा धर्म की ज़रूरत पर बल दिया। डिप्रेस्ड क्लासेज़ यूथ कॉन्फ्रेंस में उन्होंने कहा, “युवकों में धर्म के प्रति बढ़ती उदासीनता को देखकर मुझे पीड़ा होती है। धर्म अफीम नहीं है जैसा कि कुछ लोगों का मानना है। मुझमें जो कुछ अच्छी बातें हैं या समाज को मेरी शिक्षा के जो भी फायदे हुए हैं, वे मेरे अपने भीतर धार्मिक भावनाओं की देन हैं। मैं धर्म चाहता हूं, लेकिन मैं धर्म के नाम पर पाखण्ड नहीं चाहता।” (उपरोक्त, पृ. 304, अनुवाद हमारा)
आगे वह कहते हैं, “इसलिए नैतिकता के अर्थ में धर्म को हर समाज को चलाने वाला सिद्धान्त बने रहना चाहिए।” (अम्बेडकर, ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’, अनुवाद हमारा)
अम्बेडकर सारी उम्र इस भ्रान्ति का शिकार रहे कि अस्पृश्यता या जात-पाँत की जड़ हिन्दू धर्म में है और इस धर्म को छोड़ देने से ही अस्पृश्यता तथा जात-पाँत का अन्त हो जायेगा। जैसाकि आगे चलकर हम देखेंगे कि ऐसा कुछ नहीं हुआ। लेकिन हिन्दू धर्म के प्रति अपनी ऐसी सोच के चलते भी इसे छोड़ने को लेकर अम्बेडकर हमेशा ढुलमुल रहे। उनके द्वारा हिन्दू धर्म को छोड़ने की चर्चाओं की शुरुआत 1929 से होती है, जब 29 मई 1929 को उनके नेतृत्व में हुए जलगाँव सम्मेलन में एक प्रस्ताव पास करके दलित जातियों को हिन्दू धर्म के अलावा कोई भी अन्य धर्म अपना लेने को कहा गया। अक्टूबर 1935 के येओला सम्मेलन में अम्बेडकर ने ऐलान किया कि “मैं गंभीरतापूर्वक आपको आश्वस्त करता हूं कि मैं हिन्दू के रूप में नहीं मरूँगा।” (कीर, उपरोक्त, पृ. 252, अनुवाद हमारा)। 18 जून 1936 को अम्बेडकर हिन्दू महासभा के नेता डॉ. मुंजे से मिले। और उनकी सलाह पर वह सिख धर्म अपनाने को राजी हो गये। फ़ासिस्ट मुंजे की बोली बोलते हुए अम्बेडकर ने ऐलान किया, “सिख धर्म सर्वश्रेष्ठ है, अगर दलित वर्ग (डिप्रेस्ड क्लासेज़) इस्लाम या ईसाइयत को अपनायेंगे, तो वे न सिर्फ हिन्दू धर्म से बाहर चले जायेंगे, बल्कि वे हिन्दू संस्कृति से भी बाहर चले जायेंगे।” (कीर, उपरोक्त, पृ. 278, अनुवाद हमारा)।
13–14 अप्रैल 1936 को अम्बेडकर ने अमृतसर में सिख मिशन सम्मेलन को सम्बोधित किया, इसमें उन्होंने सिखों में बराबरी का गुणगान किया। लेकिन यह अम्बेडकर का एक और भ्रम था। सिख धर्म सिद्धान्त में भले ही जात-पाँत, अस्पृश्यता को ख़ारिज करता हो, लेकिन व्यवहार के धरातल पर सिखों में हालत हिन्दुओं से ज़्यादा भिन्न नहीं थी।
किसी “अच्छे धर्म” की खोज में कई वर्ष भटकने के बाद आखि़र बौद्ध मत पर आकर उनकी तलाश समाप्त हुई। 14 अक्टूबर 1956 को उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने का ऐलान किया। उन्होंने बौद्ध धर्म इसलिए चुना, क्योंकि उनके मुताबिक़ हिन्दू धर्म तो चार वर्णों की व्यवस्था से ग्रस्त है, जबकि बौद्ध धर्म में चार वर्णों के लिए कोई स्थान नहीं है। अम्बेडकर का कहना है, “बौद्ध धर्म सामाजिक स्वतंत्रता, आर्थिक स्वतंत्रता, राजनीतिक स्वतंत्रता की शिक्षा देता है… न केवल पुरुषों के बीच समानता बल्कि पुरुष और स्त्री के बीच भी समानता,” (अम्बेडकर, ‘बुद्ध और उनके धर्म का भविष्य’, अनुवाद हमारा)
बौद्ध धर्म के बारे में अम्बेडकर की उक्त धारणाएँ ऐतिहासिक सच्चाई से कोसों दूर हैं। इस पर अधिक चर्चा हम आगे चलकर करेंगे, जब हम अम्बेडकर की इतिहास-दृष्टि के विश्लेषण पर लौटेंगे। बहरहाल ऐसी रही अम्बेडकर की दार्शनिक यात्रा। तमाम आलोचनाओं-आपत्तियों के बावजूद वह उम्रभर हिन्दू धर्म को मानते रहे और अपने जीवन के अन्तिम दो महीने (दिसम्बर 1956 में उनकी मृत्यु हुई) वह बौद्ध रहे। अपने लम्बे धार्मिक “अनुसन्धान” के बाद अम्बेडकर जहाँ पहुँचे, वह था आदिम बुद्धवाद। बुद्धवाद एक ऐसे समय का उत्पाद था, जब वर्ग-रहित जनजातीय समाज तेज़ी से वर्ण व्यवस्था (वर्ग विभाजन) की चपेट में आ रहे थे। वर्ण व्यवस्था के पहले जनजातीय (Tribal) समाजों के मुख्य लक्षण थे — साझी मिल्कियत, बराबर हैसियत, आपसी सहकार, एकता तथा सुरक्षा की भावना आदि। वर्ण व्यवस्था की सामाजिक तथा आर्थिक प्रक्रियाओं के दबाव तले जनजातीय समाजों की ये विशिष्टताएँ नष्ट हो रही थीं। राजतन्त्रों की छत्रच्छाया में फैल रही वर्ण व्यवस्था आदिम सदाचार को तबाह कर रही थी और इसकी जगह पर निजी सम्पत्ति की भूख, लालच, नफ़रत तथा आत्मकेन्द्रीयता की ज़रखेज़ ज़मीन तैयार हो रही थी। समाज के वर्ग विभाजन से अमीर और ग़रीब की खाई लगातार गहरी हो रही थी। और आबादी का बड़ा हिस्सा दुख, मुसीबतें झेलने को मजबूर था। बुद्ध का कहना था कि जनता के इन दुखों का कारण इच्छा (Desire), सम्पत्ति पर अधिकार (Possession), लालच, तीव्र इच्छा (Craving) तथा अहं है। लेकिन बुद्ध उक्त बुराइयों के भौतिक आधार को न समझ पाये। वह यह नहीं समझ पाये कि उक्त बुराइयाँ समाज के वर्ग विभाजन के चलते पैदा हुई हैं और इस वर्ग विभाजन के ख़ात्मे के साथ ही ख़त्म होंगी। बुद्ध का मानना था कि इच्छा, लालच, नफ़रत की आग को व्यक्तिगत अच्छे आचरण तथा व्यक्तिगत आत्म-शुद्धीकरण के ज़रिये बुझाया जा सकता है। इसलिए उन्होंने अपना अष्टांग मार्ग सुझाया।
बुद्ध ने जनजातीय मॉडल पर संघ संगठित किये। जनजातीय व्यवस्था के लिए अभी भी जनता में आकर्षण था। सामूहिक तथा जनवादी तरीक़े से प्रशासित इन संघों में सम्पूर्ण बराबरी थी। भिक्षु सभी वर्गों तथा धर्मों में से भर्ती किये जाते थे। संघों में ब्राह्मण तथा चाण्डाल सब बराबर थे। संघ के सदस्य कोई निजी सम्पत्ति नहीं रख सकते थे। भिक्षु अपना भोजन जनता से माँगकर हासिल करते थे।
इसी समय नये शासक वर्गों ने बुद्धवाद में ऐसी विचारधारा को पाया, जिसके ज़रिये मानवीय आचरण को हिंसा तथा दबाव के बजाय सामाजिक तथा धार्मिक नियमों द्वारा नियंत्रित-नियमित (Regulate) किया जा सकता था। खेती तथा व्यापार के अपरिहार्य परिणाम समाज के बढ़ते हुए वर्ग विभाजन की बदौलत परम्परागत जनजातीय संस्कृति की तबाही से जो अव्यवस्था फैली थी, उसे दुरुस्त करने के लिए नये सामाजिक नियमों तथा नयी क़िस्म की विश्वास व्यवस्था की ज़रूरत थी। बुद्धवाद ने इस ज़रूरत को पूरा किया। बुद्धवाद अब तेज़ी से ऊपरी वर्गों का धर्म बनने लगा। संघ तथा भिक्षु ख़ुशहाल होने लगे। बुद्ध के जीवन में ही बुद्धवाद अपना प्रारम्भिक रैडिकल तेवर गँवाकर पतन के गर्त में जा डूबा। जब बड़े-बड़े बौद्ध विहार बनाने के लिए राजा धन देने लगे, जब राजा-महाराजा इन्हें सब्सिडाइज़ करने लगे, जब बुद्धवाद ‘पब्लिक सेक्टर इण्टरप्राइज़’ बन गया, तब बुद्ध समझौतों की राह चल पड़े। भिक्षुओं के खिलाने के लिए जनता पर निर्भरता की जगह जब राजाओं पर निर्भरता ने ले ली, तो बौद्ध धर्म का पतन हो गया। बुद्ध को सत्ता ने सहयोजित (Co-opt) कर लिया। पहली बार दुखान्त (Tragedy) के रूप में तथा दूसरी बार प्रहसन (Farce) के रूप में। अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में अम्बेडकर के साथ भी यही हुआ।
यह है अम्बेडकर का बुद्धवाद। अम्बेडकर का बुद्धवाद, बुद्ध का बुद्धवाद है, न कि बुद्ध के बाद के बौद्ध दार्शनिकों — दिगनाग, वसुबन्धु, नागार्जुन का बुद्धवाद, जिन्होंने बुद्धवाद को विकसित करने तथा उसमें पैदा हुई बुराइयों को दूर करने का प्रयत्न किया था। दरअसल बुद्ध के जीवनकाल में ही सत्ता प्रतिष्ठान के साथ उसके समझौतों की शुरुआत हो गयी थी। जैसेकि क़र्ज़दार किसान अपना क़र्ज़ चुकाये बग़ैर प्रव्रज्या नहीं ले सकता था, महिलाएँ अपने पति की मर्जी के बग़ैर प्रव्रज्या नहीं ले सकती थीं, सैनिक भी बिना आज्ञा के प्रव्रज्या नहीं ले सकते थे। अगर अम्बेडकर के इस बुद्धवाद को आज के समाज पर लागू किया जाये तो इसके भयानक नतीजे सामने आयेंगे। तब तो दलित जो धनी किसानों के क़ज़र्दार हैं, वे पीढ़ी-दर-पीढ़ी धनी किसानों की गुलामी भोगते रहेंगे। सभी महिलाओं को उनके पतियों के रहमोकरम पर छोड़ना पड़ेगा।
विचार अपने समय की भौतिक परिस्थितियों में से पैदा होते हैं और अपने समय की समस्याओं का हल सुझाते हैं। परिस्थितियाँ बदलने पर या तो विचार ख़ुद को विकसित कर लें, नहीं तो विचार पुराने पड़ जाते हैं और इतिहास की चीज़ बन जाते हैं। सामाजिक-आर्थिक हालात बदलते हैं, नये अन्तरविरोध उत्पन्न होते हंत और उनके हल के लिए नये हालात में से नया दर्शन पैदा होता है, जो निश्चय ही अपनी विरासत से भी सीखता है, लेकिन उससे आज की समस्याओं के हल की अपेक्षा नहीं करता।
अम्बेडकर कहीं भी यह स्पष्ट नहीं करते कि भारत में गुलामदारी युग में पैदा हुआ दर्शन पूँजीवादी समाज (अम्बेडकर के समय में अर्धसामन्ती-औपनिवेशिक तथा आज़ादी के बाद पूँजीवादी विकास की ओर अग्रसर भारतीय समाज) की समस्याओं को कैसे हल कर सकता है। और न ही अम्बेडकर के वर्तमान पैरोकार ही इस सवाल का कोई जवाब देते हैं। दरअसल सामाजिक परिघटनाओं को समझने में अम्बेडकर हमेशा भाववादी ही रहे। बुद्धवाद को अपनाने (जो कि भगवान में विश्वास नहीं करता) के बाद भी अम्बेडकर धर्म को समाज के लिए ज़रूरी मानते रहे। राजनीति, अर्थशास्त्र, समाजशास्त्र तथा इतिहास लेखन सम्बन्धी अम्बेडकर ने जो भी ग़लतियाँ कीं, उनकी जड़ अम्बेडकर के इसी भाववादी विश्वदृष्टिकोण में ढूँढ़ी जानी चाहिए।
2)    अम्बेडकर की राजनीति
राष्ट्रीय आन्दोलन के समय देश में जात-पाँत तथा अस्पृश्यता विरोधी आन्दोलन में तीन बड़े नाम हैं: ज्योतिबा फुले, अम्बेडकर और पेरियार (बेशक यह एकमात्र ऐसा आन्दोलन नहीं था, इसी समय देश में इसके समान्तर और इससे कहीं ताक़तवर कम्युनिस्ट आन्दोलन भी था, जो तमाम विचारधारात्मक कमजोरियों के बावजूद, अपने ढंग से जात-पाँत तथा अस्पृश्यता के ख़िलाफ़ उक्त आन्दोलन से कहीं अधिक बड़े पैमाने पर और कामयाबी के साथ लड़ रहा था।) ज्योतिबा फूले अम्बेडकर के पूर्वज थे, जबकि पेरियार उनके समकालीन। जाति के मूल और इसके उन्मूलन के सवालों पर इन तीनों के विचार अलग-अलग हैं, लेकिन भारत को गुलाम बनाये हुए ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रति इनकी पहुँच एक समान थी। भारत के औपनिवेशीकरण से, ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा यहाँ के प्राकृतिक संसाधनों तथा सस्ती श्रमशक्ति के बेतहाशा शोषण के उपउत्पाद के बतौर यहाँ जिस पूँजीवादी विकास की शुरुआत हुई, उससे यहाँ के जातिगत कठोर श्रम-विभाजन में दरारें पड़ने लगीं। नये-नये धन्धों के पैदा होने से दलितों के एक हिस्से को भी अपने जाति आधारित धन्धे छोड़कर अन्य पेशों को अपनाने का मौक़ा मिला। अंग्रेज़ों द्वारा शुरू की गयी शिक्षा व्यवस्था में दलित जातियों के एक छोटे से हिस्से को ही पढ़ने का मौक़ा मिला। ब्रिटिश साम्राज्यवाद द्वारा किये गये ऐसे “सुधारों” के चलते फुले, अम्बेडकर तथा पेरियार जैसे समाज-सुधारक ब्रिटिश राज्य के प्रति प्रशंसा का रुख़ रखते थे। अम्बेडकर कहते हैं, “यह हिन्दू ईश्वर द्वारा पहले से आदेशित नियति थी। ब्रिटिश के आने से पहले, अछूत, अछूत बने रहने में ही संतुष्ट थे। यह हिन्दू ईश्वर द्वारा पूर्व आदेशित नियति थी और हिन्दू राज्य इसे लागू करवाता था। इससे बचने का कोई उपाय नहीं था। दुर्भाग्य या सौभाग्य से, ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में अपनी सेना के लिए सैनिकों की आवश्यकता पड़ी और उसे अछूतों के अलावा और कोई नहीं मिला।… अछूतों से बनी सेना की मदद से ब्रिटिश ने भारत को जीता।…”  अम्बेडकर कहते हैं कि इससे अछूतों को भी फ़ायदा हुआ कि उन्हें अंग्रेज़ों ने शिक्षा दी। (Dr. Baba Saheb Ambedkar, Writings and Speeches, vol. IX, p. 189, अनुवाद हमारा) भले ही बीच-बीच में फुले तथा अम्बेडकर ब्रिटिश राज्य की आलोचना भी करते रहे हैं, मगर यह आलोचना जुबानी जमाख़र्च से अधिक कुछ नहीं थी। व्यवहार में वह कभी भी औपनिवेशिक राज्य के खि़लाफ़ राष्ट्रीय आन्दोलन में शामिल नहीं हुए। फुले ब्रिटिश राज्य की आलोचना करते हुए अंग्रेज़ों की शुभेच्छाओं से अपील करने तक सीमित रहते हैं (Gail Omvedt, ‘Dalits and the Democratic Revolution’, First Edition, 1994, p. 98)। अम्बेडकर तथा उनके समकालीन पेरियार ने तो राष्ट्रीय आन्दोलन के खि़लाफ़ ब्रिटिश साम्राज्यवाद का साथ दिया। पेरियार नास्तिक थे। वह जात-पाँत विरोधी, ब्राह्मणवाद विरोधी होने के साथ-साथ उत्तर विरोधी तथा हिन्दी भाषा विरोधी भी थे। अम्बेडकर तथा फुले की तरह वह भी अपने समय के अन्तरविरोधों को समझने में नाकाम रहे। वह अंग्रेज़ों से भारत की आज़ादी के सख़्त विरोधी थे। उनका कहना था कि अंग्रेज़ों से आज़ादी का नतीजा ब्राह्मणवाद की वापसी होगा।
अम्बेडकर कहीं तो ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमागान करते हैं और कहीं इसकी आलोचना करते हैं। ब्रिटिश साम्राज्यवाद का महिमागान करते हुए वह कहते हैं, “दलित वर्ग तथा ब्रिटिश एक असाधारण बन्धन में बँधे हुए हैं। दलित वर्गों ने अंग्रेज़ों का रूढ़िवादी हिन्दुओं के सदियों पुराने जुल्मों तथा अत्याचारों से मुक्ति दिलाने वाले लोगों के रूप में स्वागत किया था। उन्होंने हिन्दुओं, मुसलमानों तथा सिखों के ख़िलाफ़ युद्ध लड़कर अंग्रेज़ों को भारत का यह विशाल साम्राज्य जीतकर दिया था, जिससे उन्होंने दलित वर्गों के सरपरस्त की भूमिका ग्रहण की।” (अम्बेडकर, सम्पूर्ण रचनाएँ (हिन्दी), खण्ड 5, पृ. 16)
अपनी उक्त अवस्थिति से 180 डिग्री के कोण पर मुड़कर ब्रिटिश राज्य की कटु आलोचना करते हुए वह कहते हैं, “उन्नीसवीं शताब्दी के पहले 25 वर्षों में जब ब्रिटिश शासन एक यथार्थ बन गया, यहाँ पाँच अकाल पड़े, जिन्होंने क़रीब 10 लाख लोगों की जान ली। दूसरे 25 वर्षों में दो अकाल पड़े, लगभग चार लाख लोग मारे गये। तीसरे 25 वर्षों में छह अकाल पड़े, और मरने वालों की संख्या 50 लाख हो गयी। और सदी के अन्तिम 25 वर्षों में हम क्या देखते हैं? अठारह अकाल! और इनमें मरने वालों की संख्या अन्दाज़न डेढ़ से दो करोड़ है।… महानुभावो, इसका कारण क्या है! साफ़-साफ़ शब्दों में कहना हो तो यह ब्रिटिश सरकार द्वारा अपनायी नीति है, जिसका उद्देश्य हमेशा देश में व्यापार और उद्योग के विकास को रोकना रहा है।… इस नीति के चलते भारत को एक ग़रीब देश में बदल दिया गया है। ग़रीबी की स्थापना के मुख्य शिकार कौन हैं? वे दलित किसान जो अभी भी छह-छह महीने अपना पेट नहीं भर पाते, वह शिकारों की बहुसंख्या है…
“…ब्रिटिशों के आने से पहले अस्पृश्यता के चलते आपकी हालत अत्यन्त भयानक थी। क्या ब्रिटिश सरकार ने इस अस्पृश्यता को ख़त्म करने के लिए कुछ भी किया है? ब्रिटिशों के आने से पहले आप गाँव के कुँओं से पानी नहीं ले सकते थे। क्या ब्रिटिश सरकार ने आपको यह अधिकार देने की कोशिश की है? ब्रिटिशों के आने से पहले आप मन्दिरों में दाख़िल नहीं हो सकते थे। क्या आप आज ऐसा कर सकते हैं? ब्रिटिशों के आने से पहले आपको पुलिस में नौकरी नहीं दी जाती थी। क्या ब्रिटिश सरकार अब आपको नौकरी दे रही है? ब्रिटिशों के आने से पहले आपको फ़ौज में भर्ती होने की आज्ञा नहीं थी। क्या अब आपके लिए यह मौक़ा है?… महानुभावो, आप एक भी सवाल का हाँ में जवाब नहीं दे सकते। जिन्होंने इस देश पर इतना लम्बा समय शासन किया है, हो सकता है कि कुछ अच्छी चीज़ें की हों। पर एक बात पक्की है कि आपकी हालत में इससे कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया है…” (गेल ओमवेत की उक्त किताब में अम्बेडकर का हवाला, पृ. 80–81, अनुवाद हमारा)
अम्बेडकर के ही शब्दों में ब्रिटिश शासन की एक शताब्दी (19वीं) में भारत में उसकी नीतियों की बदौलत पड़े अकालों के कारण 2 करोड़ से भी अधिक हिन्दुस्तानी (ग़रीब) मारे गये जिनमें से बहुसंख्यक दलित थे। अम्बेडकर यह भी कहते हैं कि अंग्रेज़ों के आने से भारत में अछूतों की हालत में कोई बुनियादी परिवर्तन नहीं आया। इस सबके बावजूद वह ब्रिटिश साम्राज्यवाद विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष में शामिल नहीं हुए, बल्कि उसका विरोध करते रहे।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद से देश की आज़ादी के आन्दोलन में अछूतों के शामिल न होने (यहाँ पर अम्बेडकर सभी अछूतों की तरफ़ से बोल रहे हैं, भले ही अछूतों के एकमात्र नेता वही नहीं थे। देश में अनेकों जगह दलित कम्युनिस्टों के नेतृत्व में जाति उत्पीड़न के साथ-साथ देश की आज़ादी के लिए भी लड़ रहे थे) की वजह बताते हुए अम्बेडकर कहते हैं कि उसकी वजह, “यह नहीं है कि वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद के औज़ार हैं, बल्कि इसलिए क्योंकि उन्हें डर है कि भारत की स्वतंत्रता से हिन्दू प्रभुत्व स्थापित हो जायेगा जो निश्चय ही उनके लिए जीवन, समृद्धि और खुशी प्राप्त करने की सभी संभावनाओं के द्वार बंद कर देगा।” (Dr. Baba Saheb Ambedkar, Writings and Speeches, vol. IX, p. 189, अनुवाद हमारा)
अम्बेडकर देश की आज़ादी की लड़ाई को “बेईमानीभरा आन्दोलन” “Dishonest Agitation” (उपरोक्त, पृ. 178) कहते हैं। देश की आज़ादी के आन्दोलन का जातिवादी विश्लेषण पेश करते हुए वह कहते हैं कि आज़ादी की लड़ाई “मुख्य तौर पर हिन्दुओं द्वारा लड़ी जा रही है।” (अम्बेडकर, What the Congress and Gandhi have done to the Untouchables) इसलिए दलितों को इस लड़ाई से दूर रहना चाहिए।
एक अन्य जगह पर अम्बेडकर कहते हैं, “डिप्रेस्ड क्लासेज़ (यानी अम्बेडकर तथा उनके नेतृत्व वाला आन्दोलन — लेखक) व्यग्र नहीं हैं, वे शोर नहीं मचा रहे हैं, उन्होंने यह मांग करते हुए कोई आंदोलन नहीं शुरू किया है कि ब्रिटिश द्वारा भारतीय जनता को तत्काल सत्ता का हस्तांतरण होना चाहिए। …सीधे शब्दों में कहें तो उनकी अवस्थिति यह है कि हम राजनीतिक सत्ता के हस्तांतरण के लिए व्यग्र नहीं हैं…” (उपरोक्त, पृ. 63-67, अनुवाद हमारा)
अम्बेडकर इस विभ्रम के शिकार थे कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से आज़ाद होने से भारत के दलितों की हालत में कोई सुधार नहीं आयेगा, बल्कि उनकी हालत और भी ख़राब हो जायेगी। अंग्रेज़ों के भारत पर क़ब्ज़े के बाद यहाँ के दलितों की हालत में कुछ मामूली सुधार ज़रूर हुए थे, बाक़ी अंग्रेज़ों ने यहाँ की जाति व्यवस्था को जस का तस रहने दिया था। मुख्य तौर पर इसी बिन्दु पर अम्बेडकर ब्रिटिश शासन की बार-बार आलोचना करते थे। और यहाँ की जाति व्यवस्था को ख़त्म करने का बार-बार अंग्रेज़ों से अनुरोध करते थे।
लेकिन भारत के लोगों के जातियों में बँटवारों (इसी तरह धार्मिक, इलाक़ाई, राष्ट्रीय बँटवारों) को ख़त्म करना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के हित में नहीं था। भारत के लोगों में ऐसे बँटवारे उनमें फूट डालकर उन पर शासन करने में ब्रिटिश साम्राज्यवाद के लिए सहायक सिद्ध होते थे। इसीलिए उन्होंने यहाँ पर पहले से ही विद्यमान जाति व्यवस्था से कोई छेड़छाड़ नहीं की। लार्ड कार्नवालिस ने जो नया भूमि-बन्दोबस्त (रैयतबाड़ी, महालबाड़ी, ज़मींदारी) लागू किया, उसमें दलितों की स्थिति वही बनी रही, जो ग्रामीण भाईचारों की व्यवस्था में थी। अंग्रेज़ों ने दलितों को पुलिस या सेना में भी भर्ती नहीं किया। बस अलग से एक माहार रेजिमेण्ट बनायी थी। कहीं भी उन्होंने दलितों तथा अन्य जातियों के भारतीय सैनिकों की साझा रेजिमेण्ट नहीं बनायी।
दरअसल ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने भारत में हुकुमत करने के वास्ते यहाँ पर सामन्तवाद के साथ गठबन्धन बनाया था। उसने यहाँ पर सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों को बरकरार रखा। इस व्यवस्था में दलितों की भारी बहुसंख्या कृषि मज़दूर या ग़रीब भूमिहीन किसान थे। एक छोटी सी दलित आबादी शहरों में निकृष्टतम कोटि के उजरती गुलाम थे, जो अपने जाति आधारित पेशों में लगी हुई थी। इसलिए औपनिवेशिक भारत में उस समय के प्रभुत्वशील उत्पादन सम्बन्धों को तोड़े बग़ैर दलित मुक्ति की बात करना हवा में क़िले बनाने जैसा था, और यही काम अम्बेडकर, फुले और पेरियार ने किया। वे भारत में जाति व्यवस्था की जड़ तक पहुँचने में नाकाम रहे। अपने भाववादी विश्वदृष्टिकोण के चलते वह जाति व्यवस्था की जड़ ब्राह्मणवादी विचारधारा में ही खोजते रहे। और अम्बेडकर ने तो इस खोज से प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ पढ़ने में अपने जीवन का अच्छा-ख़ासा वक़्त बर्बाद किया। वह अपने समय के अन्तरविरोधों और उनमें से प्रधान अन्तरविरोध छाँटने में नाकाम रहे। यही दृष्टिकोण उन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद के साथ मेल-मिलाप की तरफ़ ले गया। अपने समकालीन आन्दोलनों, कांग्रेस के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय आन्दोलनों तथा कम्युनिस्ट आन्दोलन का अम्बेडकर ने जातिवादी विश्लेषण पेश किया। कांग्रेस के नेतृत्व वाले आन्दोलन को उन्होंने सवर्णों का आन्दोलन बनाकर ख़ुद को इससे अलग कर लिया। इस तरह राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई का मैदान पूरी तरह सवर्णों के लिए खुला छोड़कर अम्बेडकर ने ख़ुद को गाँव के कुंओं से दलितों के पानी लेने के हक़, तथा दलितों के मन्दिरों में प्रवेश करने के “आन्दोलनों” तथा ब्रिटिश सरकार से दलितों के लिए रियायतों के कुछ टुकड़ों की भीख माँगने तक सीमित कर लिया।
अम्बेडकर के नेतृत्व में समाज-सुधार के जो आन्दोलन हुए भी, वे इतने मरियल तथा बेजान थे कि वे जाति व्यवस्था पर किसी तरह की प्रभावी चोट कर पाने में निहायत ही अयोग्य थे। उनके नेतृत्व में दलितों के मन्दिर प्रवेश के जो भी “आन्दोलन” हुए, उनमें से ज़्यादातर असफल ही रहे। एकाध मामले में ही उन्हें कामयाबी मिली (जैसे 1929 में बम्बई में एक सार्वजनिक स्थल पर गणेश की मूर्ति पूजा के हक़ के लिए दलित “आन्दोलन”)।
अम्बेडकर के नेतृत्व में जो सबसे बड़ा दलित आन्दोलन हुआ वह था, उस समय के बम्बई महाप्रान्त के कोलाबा ज़िले के महाड़ क़स्बे में स्थित चावदार तालाब से दलितों द्वारा पानी लेने के लिए मार्च 1927 में हुआ आन्दोलन। इस आन्दोलन में लगभग 10 हज़ार दलितों ने हिस्सा लिया। अम्बेडकर के नेतृत्व में हज़ारों दलित महाड़ क़स्बे में जुटे, उन्होंने चावदार तालाब तक मार्च किया और वहाँ से पानी लिया। उसके बाद जब लोग छोटी-छोटी टुकड़ियों में अपने-अपने घरों को लौट रहे थे तो हिन्दू कट्टरपन्थियों ने उन पर हमला किया और उन्हें घेर-घेरकर पीटा। उसके बाद हिन्दू कट्टरपन्थियों ने अपने धार्मिक अनुष्ठानों से तालाब को शुद्ध किया और उस पर पुनः क़ब्ज़ा करके दलितों के वहाँ से पानी लेने पर पाबन्दी लगा दी।
दिसम्बर 1927 में अम्बेडकर के नेतृत्व में चावदार तालाब से दलितों द्वारा पानी लेने के लिए दोबारा आन्दोलन शुरू किया गया। मगर आन्दोलन शुरू होने से पहले ही हिन्दू कट्टरपन्थियों ने स्थानीय अदालत से स्टे ले लिया। अम्बेडकर का आन्दोलन 25 दिसम्बर 1927 को महाड़ से पाँच मील दूर दसगाँव से शुरू हुआ। जैसे ही अम्बेडकर वहाँ पहुँचे, उन्हें ज़िला मजिस्ट्रेट से बुलावा आ गया और अम्बेडकर डी.एम. से मिलने पहुँचे। डी.एम. ने अम्बेडकर को क़ानून अपने हाथ में न लेने की “सलाह” दी और अम्बेडकर ने यह “सलाह” मान ली। बाद में डी.एम. ख़ुद दलितों की सभा में पहुँचे और उसे सम्बोधित करते हुए उन्होंने दलितों को क़ानून का उल्लंघन करने पर सख़्त सज़ाओं की धमकी दी। इसके बाद 27 दिसम्बर को अम्बेडकर ने आन्दोलन वापस लेने का ऐलान कर दिया, ताकि सरकार दलितों से नाराज़ न हो। (इस पर अधिक विस्तार के लिए देखें Dhananjay Keer, ‘Ambedkar Life and Mission’, Chapter VI, Declaration of Independence) अम्बेडकर के नेतृत्व में लड़े गये जिस सबसे बड़े आन्दोलन की चर्चा होती है वह इस प्रकार समाप्त हुआ।
ब्रिटिश साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ देश की आज़ादी की लड़ाई में शामिल न होने को अम्बेडकर यह कहकर जायज़ ठहराते रहे कि “हम एक ही समय में सभी दुश्मनों से नहीं लड़ सकते।” (Gail Omvedt, उपरोक्त, पृ. 15)। अम्बेडकर औपनिवेशिक भारत में दलितों के शोषण-उत्पीड़न की जड़ (साम्राज्यवाद-सामन्तवाद गठबन्धन) पर हाथ डालने की बजाय ब्राह्मणवाद विरोधी छोटे-मोटे सुधार “आन्दोलनों” में ही उलझे रहे। ऐसे सुधारों के लिए भी कभी भी वह क़ानून का उल्लंघन करने को तैयार नहीं थे।
राष्ट्रीय आन्दोलन में उस समय एक और बड़ी शक्ति थी, उस समय की कम्युनिस्ट पार्टी। कम्युनिस्ट पार्टी ही उस समय साम्राज्यवाद-सामन्ती गठबन्धन के ख़िलाफ़ आन्दोलन का नेतृत्व कर रही थी। भारत में जाति प्रश्न का समाधान अटूट रूप से साम्राज्यवाद-सामन्ती गठबन्धन से भारत के तमाम मेहनतकश लोगों की मुक्ति के साथ जुड़ा हुआ था। यह सच है कि उस समय कम्युनिस्ट पार्टी एक हद तक वर्ग अपचयनवाद के भटकाव की शिकार थी। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कम्युनिस्ट पार्टी ने जाति प्रश्न के समाधान के लिए कुछ किया ही नहीं, जैसा कि आज के दलितवादी बुद्धिजीवी इल्जाम लगाते हैं। जैसे कि अम्बेडकर कम्युनिस्ट पार्टी की ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ कहकर भर्त्सना करते थे। (Gail Omvedt, उपरोक्त, पृ. 183)। हर जगह कम्युनिस्टों ने हर तरह की सामाजिक-आर्थिक ग़ैर-बराबरी, शोषण-उत्पीड़न, अन्याय के खि़लाफ़ लड़ाई लड़ी। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में लड़े गये महान तेलंगाना किसान संघर्ष ने सामन्ती व्यवस्था द्वारा किये जा रहे महिलाओं तथा दलितों के शोषण-उत्पीड़न पर भी ज़ोरदार प्रहार किया था। (इस पर और अधिक विस्तार से जानने के लिए देखें, पी. सुन्दरैया, ‘Telengana People’s Struggle and Its Lessons’).
लेकिन अपनी विचारधारात्मक कमजोरियों के चलते कम्युनिस्ट पार्टी राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व कांग्रेस के हाथों से छीनने में नाकाम रही। इस कारण भारत के मेहनतकशों की मुक्ति की परियोजना (जाति प्रश्न के समाधान सहित) आगे नहीं बढ़ पायी।
अम्बेडकर ने कम्युनिस्टों की सिर्फ़ ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ कहकर ही भर्त्सना नहीं की, उन्होंने कम्युनिस्टों द्वारा अपनाये जाने वाले हिंसक तौर-तरीक़ों की भी भर्त्सना की। (देखें बहिष्कृत भारत, 31 मई 1929)। हिंसा के सवाल पर भी अम्बेडकर का स्टैण्ड एकदम विरोधाभासी था। कहीं तो वह शोषित वर्गों द्वारा अपनी मुक्ति के लिए हिंसा का सहारा लिये जाने के ख़िलाफ़ (उपरोक्त) हैं और कहीं वह इसके हक़ में दिखायी पड़ते हैं। वह कहते हैं, “अहिंसा सबसे सही नियम है…जो व्यक्ति आपको मारने, या किसी स्त्री को बेइज़्ज़त करने आता है, या किसी दूसरे के घर को आग लगाता है, या चोरी करता है और भागने की कोशिश में मारा जाता है, वह खुद अपने पापों के द्वारा मारा जाता है जैसा कि सभी हमलावरों और दुष्ट लोगों के साथ होता है… सच कहूं तो नियम यह होना चाहिए कि जहां भी संभव हो वहां अहिंसा हो, और जब भी आवश्यक हो तब हिंसा हो।” (Dhananjay Keer, उपरोक्त, अनुवाद हमारा)
हिंसा के सवाल पर अम्बेडकर के ख़यालात भले ही कितने भी विरोधाभासी रहे हों, लेकिन व्यवहार में उन्होंने हमेशा ही अहिंसा का पालन किया। उनके नेतृत्व में दलितों की हालत में सुधार के लिए चले “आन्दोलनों” में से कोई भी “आन्दोलन” कभी भी व्यवस्था से टक्कर लेने की राह पर आगे नहीं बढ़ा।
हिंसा कभी भी कम्युनिस्टों के लिए पहली पसन्द नहीं रही। यह उनके लिए आख़िरी उपाय है। कम्युनिस्ट शोषक वर्गों द्वारा फैलाई जाने वाली प्रति-क्रान्तिकारी हिंसा के प्रतिकार के लिए मेहनतकश जनता को क्रान्तिकारी हिंसा के लिए तैयार करते हैं, क्योंकि इसके बग़ैर शोषित जनों का कोई भी आन्दोलन कामयाबी की दिशा में एक इंच भी नहीं बढ़ सकता। हिंसा के प्रति नकारात्मक रुख़ या क़ानूनी दायरे में ही सीमित रहने के चलते अम्बेडकर के नेतृत्व वाला कोई भी समाज-सुधार “आन्दोलन” कभी भी वह स्तर हासिल नहीं कर पाया, जो कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में तेलंगाना के किसान संग्राम ने हासिल किया था, जिसने सामन्ती उत्पादन सम्बन्धों पर घातक प्रहार करने के साथ-साथ दलितों और महिलाओं को भी बड़े पैमाने पर हर तरह के शोषण-उत्पीड़न से राहत पहुँचायी।
अम्बेडकर के नेतृत्व वाला दलित आन्दोलन ज़्यादातर कुंओं से पानी भरने तथा मन्दिर प्रवेश जैसे मुद्दों में ही उलझा रहा। भले ही समाज में दलितों को बराबरी का दर्जा दिलाने के लिए ये अहम मुद्दे थे। लेकिन इनसे भी अहम (सर्वाधिक अहम) मुद्दा था भूमि सुधारों, या सामन्तों के क़ब्ज़े वाली ज़मीन के ग़रीब तथा भूमिहीन किसानों में वितरण का मुद्दा, जो सभी जातियों के ग्रामीण ग़रीबों का साझा मुद्दा था। अगर इस तथा ऐसे ही सभी ग़रीबों के साझा मुद्दों पर जनता को लामबन्द किया जाता, तो मेहनतकश जनता के भीतर के अन्तरविरोधों (जैसे कि उच्च जातियों के ग़रीबों के जातीय पूर्वाग्रह) को भी हल किया जा सकता था। इस तरह ‘ब्राह्मणवादी’ शक्तियों (उच्च जाति के कुलीनों) को उन्हीं की जातियों के ग़रीबों से अलग-थलग किया जा सकता था। लेकिन अम्बेडकर दलित मुक्ति के सर्वाधिक अहम मुद्दों को उठाने की बजाय गौण मुद्दों में ही उलझे रहे। और अम्बेडकर द्वारा ग़लत क्रम से उठाये गये मुद्दे उच्च जातियों के ग़रीबों को भी (अपने जातीय पूर्वाग्रहों के चलते) ग़रीब दलितों के विरोध में खड़ा कर देते थे। इस तरह अम्बेडकर अनजाने ही ‘ब्राह्मणवाद’ को कमजोर करने की बजाय और मज़बूत ही बनाते थे।
जब अंग्रेज़ ‘फूट डालो और राज करो’ की अपनी नीति के तहत हिन्दू, मुसलमानों तथा सिखों के लिए अलग मण्डल बना रहे थे तो अम्बेडकर ने अंग्रेज़ों की चाल में आकर अछूतों के लिए अलग निर्वाचक मण्डल बनाये जाने की माँग उठा दी। लेकिन बाद में गाँधी के दबाव में वह इस माँग से पीछे हट गये (सुप्रसिद्ध पूना पैक्ट)। अम्बेडकर द्वारा उठाया गया यह भी एक ग़ैर-मुद्दा ही था। यह राष्ट्रीय आन्दोलन में फूट डालता और उसे कमजोर बनाता था।
अम्बेडकर राष्ट्रीय मुक्ति आन्दोलन में एक फूट-परस्त शक्ति के रूप में काम करते रहे। उन्होंने अपने प्रभाव वाले दलितों को राष्ट्रीय मुक्ति की लड़ाई से दूर रखा। उन्होंने कम्युनिस्टों को ‘ब्राह्मण लड़कों का झुण्ड’ का नाम देकर दलितों को उनकी मुक्ति की असल विचारधारा तथा राह से दूर किया।
अम्बेडकर ने मज़दूर संघर्षों में भी फूट-परस्त की ही भूमिका निभायी, इसका उदाहरण है 1929 की बम्बई के टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल। बम्बई टेक्सटाइल मिलों के मालिक अपने कारख़ानों में नयी मशीनें लाये, जिससे एक ही मज़दूर तीन लूम चला सके। नतीजे के तौर पर मज़दूरों की छंटनी शुरू हुई। इस छंटनी के ख़िलाफ़ कम्युनिस्ट नेतृत्व वाली मज़दूर यूनियन गिरनी कामगार महामण्डल के आह्वान पर डेढ़ लाख मज़दूर हड़ताल पर चले गये। E.D. Sassoon Mill के मैनेजर फ़्रेडरिक स्टोन्ज़ की अपील पर अम्बेडकर ने हड़ताल में शामिल मज़दूरों को काम पर लौटने के लिए प्रेरित किया। अम्बेडकर के कहने पर दलित मज़दूरों के काम पर लौटने से, बम्बई के लाखों टेक्सटाइल मज़दूरों की हड़ताल टूट गयी। 26 अप्रैल 1929 को जब गिरनी कामगार महामण्डल के आह्वान पर बम्बई के टेक्सटाइल मज़दूरों ने दोबारा हड़ताल की तो अम्बेडकर ने इस हड़ताल को तोड़ने के लिए फिर से ज़ोरदार अभियान चलाया।
अम्बेडकर द्वारा इन हड़तालों का विरोध करने की वजह एक तो यह बतायी जाती है कि उस समय कपड़ा मिलों में बुनाई विभाग जैसे अधिक तनख़्वाह वाले विभाग में दलित मज़दूरों को काम करने की आज्ञा नहीं थी। और कोई भी ट्रेड यूनियन इस भेदभाव के खि़लाफ़ नहीं लड़ रही थी। इसके अलावा अम्बेडकर समझते थे कि कम्युनिज़्म तथा हड़तालें अलग ना किये जा सकने वाले जुड़वा हैं। उनका मानना था कि हड़तालों का इस्तेमाल मज़दूरों की आर्थिक लड़ाई से ज़्यादा राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए किया जाता है, जिससे दलितों की आर्थिक स्थिति अधिक बिगड़ जाती है। (इस पर अधिक विस्तार के लिए देखें, Dhananjay Keer, ‘Ambedkar Life and Mission’, Chapter VII, VIII)
यहाँ पर अम्बेडकर कम्युनिज़्म से अपनी नफ़रत तथा मालिकों के प्रति वफ़ादारी दर्शाते हुए, फिर से मेहनतकशों की (दलित और ग़ैरदलित) की साझा दुश्मन के साथ लड़ाई को आगे बढ़ाने की बजाय जनता के बीच के दोयम दर्जे के अन्तरविरोधों को प्रधान बनाने की ग़लती करते हैं, जिससे दलित और ग़ैरदलित मज़दूरों दोनों को ही नुक़सान उठाना पड़ता है और फ़ायदा सिर्फ़ मालिकों को ही होता है।
अम्बेडकर का कुल राजनीतिक व्यवहार क़ानूनवाद, ढुलमुलपने, समझौतापरस्ती तथा फूटपरस्त गतिविधियों से ग्रस्त रहा है। इसलिए यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि अपने अन्तिम समय में अम्बेडकर सत्ता द्वारा को-ऑप्ट कर लिये गये। वैसे अम्बेडकर शुरू से ही ब्रिटिश सत्ता के साथ सहयोग करके चलते रहे हैं। 1926 में अम्बेडकर को दलितों के प्रतिनिधि के तौर पर मुम्बई विधानसभा में मनोनीत किया गया था। यह मनोनयन 1934 तक जारी रहा। इसी तरह 1942 में (1946 तक) वह श्रम विभाग में गवर्नर जनरल के प्रशासक के पद पर आसीन रहे।
ब्रिटिश सरकार ने भारत को आज़ादी देने का फ़ैसला किया तो मार्च 1946 में यह ऐलान किया गया कि भारत अपना संविधान बना सकता है तथा संविधान का मसौदा भी तैयार कर सकता है।
जुलाई 1946 में ‘संविधान सभा’ का “चुनाव” हुआ। सभी राज्यों को मिलाकर कुल 246 सदस्य “चुने” गये। इनमें से 96 सदस्य ऐसे थे जो उस समय मौजूद किसी चुनाव प्रक्रिया से होकर नहीं आये थे, बल्कि सामन्ती रियासतों के प्रतिनिधियों के रूप में प्राप्त सामन्ती अधिकार के चलते नामित होकर आये थे। बाक़ी सदस्यों में भी ऐसे ही लोग थे, जिनके पास तरह-तरह की सम्पत्तियाँ थीं, उच्च जातियों से थे, उच्च शिक्षा से सम्पन्न थे।
अम्बेडकर भी इसके एक सदस्य थे। वह बंगाल के मुस्लिम लीग के सदस्यों के समर्थन से संविधान सभा में प्रवेश करने में सफल हुए थे, क्योंकि उनके मूल राज्य बम्बई में उन्हें कांग्रेस का समर्थन नहीं मिला था। अम्बेडकर हमेशा कांग्रेस के आलोचक रहे थे। “एक बार उन्होंने कहा था कि सिर्फ़ वही व्यक्ति कांग्रेस के साथ सहयोग कर सकता है, जिसका कोई आत्मसम्मान न हो।” (अम्बेडकर, ‘Letters to Gaekwad’, p. 239)। लेकिन अब अम्बेडकर 180 डिग्री के कोण पर मुड़कर कांग्रेस की बाँह में बाँह डालकर चलने को तैयार हो गये। आज़ादी के बाद देश के विभाजन से अम्बेडकर की संविधान सभा की सदस्यता समाप्त हो गयी, क्योंकि अम्बेडकर बंगाल से चुने गये थे। कांग्रेस ने तुरन्त बम्बई से अपने एक सदस्य को त्यागपत्र दिलाकर उसके स्थान पर अम्बेडकर को निर्वाचित करा लिया।
अगस्त 1947 में नेहरू की नवगठित कैबिनेट में उन्हें विधि मन्त्री बनाया गया। सारी उम्र अम्बेडकर कांग्रेस के जिस आन्दोलन की सवर्णों का आन्दोलन कहकर भर्त्सना करते रहे थे, अब वह सवर्णों के उसी आन्दोलन में शामिल हो गये। कांग्रेस के साथ सहयोग को अम्बेडकर ने आत्मसम्मानविहीन व्यक्ति का काम बताया था, अब वह ख़ुद ही अपना आत्मसम्मान ताक पर रखकर कांग्रेस के साथ हो लिये।
कांग्रेस की ही मेहरबानी से अम्बेडकर को एक अन्य पद हासिल हुआ। 29 अगस्त को संविधान का मसौदा तैयार करने के लिए एक सात सदस्यीय समिति बनायी गयी तथा अम्बेडकर को इस समिति का अध्यक्ष चुना गया। वैसे संविधान का मसौदा तैयार करने में इस समिति की कोई भूमिका नहीं थी, क्योंकि इसे तो पहले से ही नौकरशाही ने तैयार कर लिया था। समिति ने तो सिर्फ़ इस मसौदे को एक नज़र देखना तथा कुछ ज़रूरी संशोधनों का सुझाव देना था।
भारत में सत्ता पर क़ाबिज़ हुए बुर्जुआ वर्ग के प्रतिनिधियों द्वारा तैयार किया गया यह संविधान दरअसल निजी सम्पत्ति (बुर्जुआ) की रक्षा का दस्तावेज़ है। इस संविधान में सम्पत्ति की व्यवस्था को मेहनतकश जनता द्वारा दी जाने वाली किसी भी भावी चुनौती से निपटने के लिए एक से बढ़कर एक काले क़ानून शामिल हैं। इस संविधान में तमाम “जनवाद” को ताक पर रखकर आपातकाल लगाने की भी व्यवस्था है। दलितवादी बुद्धिजीवी इस बात पर बहुत गर्व करते हैं कि भारत का संविधान अम्बेडकर ने बनाया है (भले ही यह सच नहीं है, क्योंकि अम्बेडकर ने तो बस लगभग तैयार संविधान के ड्राफ्ट को अन्तिम रूप ही दिया था)। वे इस संविधान को अम्बेडकर के भारत को दिये बड़े अवदान के रूप में पेश करते हैं। देश में जहाँ कहीं भी अम्बेडकर का बुत देखने को मिलता है, उनके हाथ में संविधान की पुस्तक ज़रूर पकड़ाई होती है। असल में जिस बात पर मध्यवर्गीय “दलित” बुद्धिजीवियों को शर्म महसूस करनी चाहिए, उसी पर वह गर्व महसूस करते हैं।
यहाँ पर एक अन्य घटना का ज़िक्र करना भी प्रासंगिक होगा। जिस समय अम्बेडकर नेहरू सरकार में क़ानून मन्त्री की कुर्सी का आनन्द ले रहे थे, उसी समय उनकी सरकार द्वारा भेजी गयी सेना तेलंगाना की धरती को ग़रीब किसानों, कृषि मज़दूरों (ज़्यादातर दलित जातियों से सम्बन्धित), महिलाओं के लहू से रंग रही थी। महिलाओं के साथ बलात्कार कर रही थी। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में आगे बढ़ रहे तेलंगाना के किसान विद्रोह को कुचलने के लिए नेहरू-पटेल (तथा अम्बेडकर) सरकार ने सितम्बर 1948 में वहाँ सेना भेजी थी। सदियों से सामन्ती शोषण-उत्पीड़न झेल रही तेलंगाना की मेहनतकश जनता (जिसमें बड़ी संख्या में दलित भी शामिल थे) मुक्ति के नये अध्यायों की रचना कर रही थी और भारतीय सेना इसे लहू की नदियों में डुबो रही थी। भारत की सेना ने तेलंगाना की विद्रोही मेहनतकश जनता पर जो बर्बर अत्याचार किये, उनका रौंगटे खड़े कर देने वाला ब्यौरा पी. सुन्दरैया की उक्त किताब में पढ़ा जा सकता है। भारतीय सेना द्वारा तेलंगाना की मेहनतकश जनता (जिसमें दलित भी शामिल थे) पर किये अत्याचारों ने अम्बेडकर की आत्मा को नहीं झंझोड़ा। उन्होंने इसके खि़लाफ़ कोई आवाज़ नहीं उठायी। दलितों का यह “मसीहा” बड़े आराम से क़ानून मन्त्री की कुर्सी का सुख लेता रहा।
अम्बेडकर नेहरू मन्त्रीमण्डल में श्रम मन्त्री का पद चाहते थे, लेकिन यह पद उन्हें नहीं दिया गया। जिसके चलते उनकी कांग्रेस से दूरी बनने लगी। 27 सितम्बर 1955 को उन्होंने विधि मन्त्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया। इसके बाद अम्बेडकर ने एक बहुत ही हैरान करने वाला बयान दिया कि “इस (भारत के) संविधान को जलाने वाला मैं पहला व्यक्ति होऊंगा।” (रंगनायकम्मा की किताब ‘जातिप्रश्न के समाधान के लिए — बुद्ध काफ़ी नहीं, अम्बेडकर भी काफ़ी नहीं, मार्क्स ज़रूरी हैं’ (हिन्दी) में बी. विजयभारती की तेलुगु पुस्तक में से हवाला, पृष्ठ 452) भारत के संविधान के बारे में अम्बेडकर के उक्त बयान के बावजूद भी मध्यवर्गीय दलितवादी बुद्धिजीवी उनका संविधान निर्माता के रूप में महिमागान किये जा रहे हैं।
अम्बेडकर ने दलितों की मुक्ति के लिए जो एक अन्य नुस्खा सुझाया था, वह था दलितों के लिए सरकारी नौकरियों तथा शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण। निश्चय ही आज़ादी के बाद के समय में दलितों के एक हिस्से को इस आरक्षण से फ़ायदा मिला। दलितों के भी एक हिस्से को पढ़ने-लिखने का मौक़ा मिला। आरक्षण के चलते दलितों में से एक छोटा-सा मध्यम वर्ग, उच्च मध्यम वर्ग भी उभरा है। अब इस आरक्षण का सारा फ़ायदा यही वर्ग ले रहा है, जो बड़ी मुश्किल से कुल दलित आबादी का 10 फ़ीसदी होगा।
आज़ादी के समय जब दलितों को आरक्षण दिया गया था, तब यह एक बुर्जुआ जनवादी माँग थी। मगर अब इसका चरित्र बदल गया है। आज देश के शासक वर्ग आरक्षण के मुद्दे को ग़रीबों, बेरोज़गारों को आपस में बाँटने, लड़ाने के लिए जमकर इस्तेमाल कर रहे हैं। ग़ैरदलित जातियों के बेरोज़गार अपनी बेरोज़गारी का मुख्य कारण आरक्षण को समझते हुए, इसके विरोध में डट जाते हैं। वह यह नहीं देख पाते कि मौजूदा पूँजीवादी व्यवस्था में रोज़गार के अवसर ही सीमित हैं, कि पूँजीवादी व्यवस्था में बेरोज़गारी एक ढाँचागत समस्या है, पूँजीपति वर्ग समय-समय पर बेरोज़गारों को बारोज़गारों के विरुद्ध एक रिज़र्व फ़ौज के बतौर इस्तेमाल करता है। दूसरी ओर दलितवादी बुद्धिजीवी हैं जो आरक्षण को दलित उद्धार की एकमात्र राह समझते हैं। हमारा मानना है कि ये दोनों ही स्टैण्ड ग़लत हैं — आरक्षण का पक्ष भी तथा विपक्ष थी। तीसरा पक्ष यह है कि ‘सबको शिक्षा, सबको रोज़गार’ के नारे पर मेहनतकश जनता को इस पूँजीवादी व्यवस्था के विरुद्ध गोलबन्द किया जाये।
आज़ादी के बाद निश्चय ही भारत में जाति व्यवस्था में बड़े परिवर्तन आये हैं। अस्पृश्यता लगभग समाप्त हुई है। जाति आधारित श्रम-विभाजन बड़ी हद तक टूटा है। अम्बेडकरवादी दलितों की हालत में हुए परिवर्तनों का सेहरा अम्बेडकर के सिर पर बाँधते हैं। यह पूरी तरह से सच नहीं है, आंशिक तौर पर ही सच है। इन परिवर्तनों की मुख्य वजह आज़ादी के बाद यहाँ पर हुआ पूँजीवादी विकास है, जोकि उस आज़ादी के बाद ही सम्भव हुआ, जिसके लिए लड़ना तो दूर बल्कि सारी उम्र अम्बेडकर आज़ादी की लड़ाई का विरोध करते रहे।

3)    अम्बेडकर द्वारा मार्क्सवाद की आलोचना
अम्बेडकर ने अपने लेखन तथा भाषणों में कई जगह मार्क्सवाद तथा कम्युनिज़्म पर आलोचनात्मक टिप्पणियाँ की हैं। लेकिन उन्होंने अपने निबन्ध ‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’ (सम्पूर्ण वाड•मय (हिन्दी), खण्ड 7, डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान, कल्याण मन्त्रलय, भारत सरकार द्वारा प्रकाशित) में मार्क्सवाद के बारे में अपने विचारों का सविस्तार खुलासा किया है। इस निबन्ध में उन्होंने मार्क्सवाद की जो समझ पेश की है तथा मार्क्सवाद की जो आलोचना पेश की है, वह बेहद चलताऊ, सतही तथा लचर है। उनके इस निबन्ध को पढ़कर लगता है कि उन्होंने मार्क्सवाद की एक भी मौलिक कृति नहीं पढ़ी है।
अपने निबन्ध की शुरुआत अम्बेडकर इन शब्दों से करते हैं, “कार्ल मार्क्स तथा बुद्ध में तुलना करने के कार्य को कुछ लोगों द्वारा एक मज़ाक़ माना जाये, तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।” (उपरोक्त, पृ. 343) बुद्ध और कार्ल मार्क्स की तुलना करना अपने आप में तो कोई मज़ाक़ की बात नहीं है। हाँ अगर अम्बेडकर दोनों के सिद्धान्तों को ठीक से जानकर इस काम में हाथ डालते तो यह पाठक के लिए भी ज्ञानवर्धक होता तथा लेखक के रूप में अम्बेडकर के लिए भी। आगे अम्बेडकर लिखते हैं, “दोनों (बुद्ध और कार्ल मार्क्स — लेखक) के बीच तुलना आकर्षक तथा शिक्षाप्रद है।” (उक्त)। अफ़सोस कि अम्बेडकर द्वारा की गयी इस तुलना में से ये दोनों चीज़ें ग़ायब हैं। यह आकर्षक होने की बजाय बेहद उबाऊ है और शिक्षाप्रद होने की जगह यह ग़लत जानकारियों से लबरेज़ है। आगे अम्बेडकर लिखते हैं, “यदि मार्क्सवादी अपने पूर्वाग्रहों को पीछे रखकर बुद्ध का अध्ययन करें और उन बातों को समझें जो उन्होंने कही हैं और जिनके लिए उन्होंने संघर्ष किया, तो मुझे यक़ीन है कि उनका दृष्टिकोण बदल जायेगा। वास्तव में उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि बुद्ध की हंसी व मज़ाक़ उड़ाने का निश्चय करने के बाद वे उनकी प्रार्थना करेंगे” (उक्त)। यहाँ पर अम्बेडकर पहले से ही यह मानकर चल रहे हैं कि मार्क्सवादी बुद्ध के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त हैं और उनकी हंसी व मज़ाक़ उड़ाते हैं। कौन ऐसे मार्क्सवादी हैं? अम्बेडकर यह नहीं बताते और न ही उनके ऐसे किसी लेखन का हवाला ही देते हैं। अगर हम थोड़ी देर के लिए अम्बेडकर से सहमत भी हो जायें कि कोई मार्क्सवादी बुद्ध के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्त है और उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं तब भी इसमें मार्क्सवाद का क्या दोष है? यह किसी मार्क्सवादी की समझ का दोष हो सकता है। मार्क्सवाद तो किसी भी दर्शन के पैदा होने, विकसित होने तथा पतन (और ऐसा होने के भौतिक आधार) को वैज्ञानिक ढंग से समझने में हमारी मदद करता है। मार्क्सवाद का दर्शन भौतिकवादी है तथा पद्धति द्वन्द्वात्मक। यह पद्धति हमें हर चीज़ को ‘एक को दो में बाँटने’ तथा सकारात्मक को नकारात्मक से अलग करना सिखाती है। इसी पद्धति से मार्क्सवादी बौद्ध धर्म या दर्शन का अध्ययन करते हैं। उसके सकारात्मक तत्वों को स्वीकार करते हैं तथा नकारात्मक तत्वों को नकारते हैं। वह बुद्ध की हंसी व मज़ाक़ तो बिल्कुल नहीं उड़ाते और ऐसा न करने के बावजूद भी वह बुद्ध की प्रार्थना तो क़तई नहीं करते।
आगे अम्बेडकर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों की व्याख्या करते हैं या यूँ कहें कि वह बुद्ध और कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों की ख़ुद की समझ की व्याख्या करते हैं। बुद्ध के सिद्धान्तों के बारे में बताने के लिए तो वह कहते हैं कि “मैंने त्रिपिटक का अध्ययन किया।” लेकिन कार्ल मार्क्स के सिद्धान्तों के बारे में बताने के लिए उन्होंने मार्क्सवाद की कौन सी कृति का अध्ययन किया था, इसके बारे में वह कुछ नहीं बताते। मार्क्सवाद के बारे में जानकारी देते हुए वह कहते हैं, “मार्क्स आधुनिक समाजवाद या साम्यवाद का जनक है। परन्तु उसकी रुचि केवल समाजवाद के सिद्धान्त को प्रतिपादित करने व प्रस्तुत करने में ही नहीं थी। यह कार्य तो उससे बहुत पहले अन्य लोगों द्वारा कर दिया गया था। मार्क्स की अधिक रुचि इस बात को सिद्ध करने में थी कि उसका समाजवाद वैज्ञानिक है। उसका जेहाद पूँजीपतियों के विरुद्ध जितना था, उतना ही उन लोगों के विरुद्ध भी था, जिन्हें वह स्वप्नदर्शी या अव्यावहारिक समाजवादी कहता था।” (‘बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स’, उपरोक्त, पृ. 345) अगर अम्बेडकर ने मार्क्सवाद के बारे में बताने से पहले कुछ अध्ययन कर लेने की ज़रा सी भी जहमत उठाई होती तो वह इस तरह की हास्यास्पद बातें नहीं करते। वह यह नहीं बताते कि ‘समाजवाद के सिद्धान्तों को प्रतिपादित व प्रस्तुत’ करने का काम कार्ल मार्क्स से ‘बहुत पहले’ किसने किया था? शायद उनका इशारा सैं-सीमों, शार्ल फूरिये, रॉबर्ट ओवेन के समाजवाद (यूटोपियाई) की तरफ़ है जो एक ऐसे समय में पैदा हुआ था जब सर्वहारा वर्ग अल्पसंख्यक और अविकसित था। यूटोपियाई समाजवाद के प्रवर्तकों के ख़िलाफ़ मार्क्सवाद के जेहाद या नापसन्दगी की बात तो दूर बल्कि आधुनिक (वैज्ञानिक) समाजवाद ख़ुद को यूटोपियाई समाजवाद का वारिस मानता है। अपनी पुस्तिका ‘समाजवाद काल्पनिक तथा वैज्ञानिक’ में एंगेल्स यूटोपियाई समाजवादियों की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हैं, वहीं उनके सिद्धान्तों की सीमाओं की भी चर्चा करते हैं। मार्क्सवाद का ‘जेहाद’ काल्पनिक समाजवादियों के अनुयायियों के विरुद्ध था जो विभिन्न धड़े व फिरके बनाकर बिल्कुल अलग ही भूमिका अदा कर रहे थे। मज़दूर आन्दोलन के विकास के बावजूद काल्पनिक समाजवाद और कम्युनिज़्म के समर्थक पहले की ही भाँति हड़तालों, ट्रेड यूनियनों और राजनीतिक संघर्ष के प्रति नकारात्मक रुख़ रखते थे। वे मज़दूरों को वर्ग संघर्ष के पथ से परे यूटोपिया के क्षेत्र में, समाजवादी मनसूबेबाज़ी के क्षेत्र में (जैसेकि कम्युनिस्ट कालोनियों की स्थापना का विचार) ले जाते थे। अम्बेडकर न तो काल्पनिक तथा वैज्ञानिक समाजवाद के पैदा होने की भिन्न भौतिक परिस्थितियों को ही समझते हैं और न ही दोनों के बीच के बुनियादी फ़र्क़ को।
अम्बेडकर “मार्क्सवाद” की अपनी व्याख्या जारी रखते हुए “मार्क्स के सिद्धान्तों” की एक सूची बनाते हैं और एक के बाद एक कुफ़्र तौलते हैं। उनका कहना है, “मार्क्स की अवधारणा निम्नलिखित प्रमेयों पर आधारित है:
“दर्शन का उद्देश्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति की व्याख्या करना नहीं।” (उपरोक्त, पृ. 346) इसी बात को अम्बेडकर दूसरे शब्दों में भी प्रस्तुत करते हैं, “दर्शन का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, विश्व की उत्पत्ति का स्पष्टीकरण देने या समझाने में अपना समय नष्ट करना नहीं।” लेकिन मार्क्स ऐसा कुछ नहीं कहते। अम्बेडकर जो कहते हैं, वह मार्क्स द्वारा फ़ायरबाख़ पर लिखी गयी ग्याहरवीं थीसिस का बिगड़ा और ग़लत रूप है। मार्क्स कहते हैं, “दार्शनिकों ने तरह-तरह से दुनिया की केवल व्याख्या की है, सवाल उसे बदलने का है।” (Marx-Engels, ‘The German Ideology’, Progress Publishers, Moscow, page 617)। ऐसा नहीं है कि अम्बेडकर ने मार्क्स की कही हुई बात को ग़लत रूप में समझा, बल्कि उन्होंने इसे समझा ही नहीं है। आगे अम्बेडकर कहते हैं कि मार्क्स के मुताबिक़, “समाज दो वर्गों में विभक्त है — मालिक तथा मज़दूर”। यहाँ भी अम्बेडकर ग़लत जानकारी ही दे रहे हैं। मार्क्सवाद पूँजीवादी समाज को (या किसी भी अन्य पूर्व पूँजीवादी वर्गीय समाज को सिर्फ़ दो वर्गों में बँटा हुआ नहीं मानता। मार्क्सवाद बताता है कि मालिक तथा मज़दूर पूँजीवादी समाज के दो मुख्य वर्ग हैं, मगर इनके अलावा वह समाज में अन्य (मध्य) वर्गों की मौजूदगी से इनकार नहीं करता है। अम्बेडकर हमें बताते हैं कि मार्क्स कहते हैं, “मज़दूरों का मालिकों द्वारा शोषण किया जाता है। मालिक उस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं।” इसमें से अम्बेडकर आधी बात तो सही कहते हैं कि मालिक मज़दूरों का शोषण करते हैं, लेकिन मार्क्सवाद अतिरिक्त मूल्य के दुरुपयोग या सदुपयोग की बात नहीं करता। मार्क्सवाद हमें बताता है कि पूँजीपतियों के धन (मुनाफ़े) का एकमात्र स्रोत मज़दूरों के श्रम (अतिरिक्त मूल्य) का शोषण है। मार्क्सवाद ऐसा कुछ नहीं कहता कि अगर मालिक वर्ग इस अतिरिक्त मूल्य का दुरुपयोग करते हैं तो मज़दूरों का शोषण ग़लत है और अगर सदुपयोग करते हैं तो मज़दूरों का शोषण सही है।
आगे अम्बेडकर बताते हैं कि मार्क्सवादी सिद्धान्त के मौलिक संग्रह में से कई बातों को इतिहास द्वारा असत्य प्रमाणित कर दिया गया है। वह कहते हैं कि जब से मार्क्सवाद अस्तित्व में आया है, तभी से इसकी काफ़ी आलोचना होती आ रही है। इस आलोचना के फलस्वरूप कार्ल मार्क्स द्वारा प्रस्तुत विचारधारा का काफ़ी बड़ा ढाँचा ध्वस्त हो चुका है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि मार्क्स का यह दावा कि उसका समाजवाद अपरिहार्य है, पूर्णतया असत्य सिद्ध हो चुका है। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सर्वप्रथम 1917 में, उसकी पुस्तक दास कैपिटल, समाजवाद का सिद्धान्त के प्रकाशित होने के लगभग सत्तर वर्ष बाद (अम्बेडकर इतना भी नहीं जानते कि ‘पूँजी’ कब प्रकाशित हुई थी) यहाँ तक कि साम्यवाद, जोकि सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है, रूस में आया, तो यह किसी प्रकार के मानवीय प्रयास के बिना किसी अपरिहार्य वस्तु के रूप में नहीं आया था। घनघोर अज्ञान! अम्बेडकर की मार्क्सवाद की समझ निहायत ही गयी-गुज़री है। मार्क्सवाद का सामान्य विद्यार्थी भी समझ सकता है कि यह एकदम वाहियात बकवास है। क्या मार्क्स ने कहीं भी कहा है कि समाजवाद अपरिहार्य है तो यह बिना किसी मानवीय प्रयासों के ही स्थापित हो जायेगा। मार्क्स बार-बार कहते हैं कि समाजवाद (सर्वहारा वर्ग की तानाशाही) सर्वहारा वर्ग के संगठित, सचेतन प्रयासों (वर्ग संघर्ष) के ज़रिये ही पूँजीवादी व्यवस्था को उल्टा कर ही स्थापित हो सकता है। अम्बेडकर कहते हैं कि ‘साम्यवाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का दूसरा नाम है।’ यह निहायत ही बचकानापन है। मार्क्सवाद के मुताबिक़ साम्यवाद समाजवाद के आगे की मंज़िल है। यहाँ वर्ग, वर्ग संघर्ष तथा इन वर्ग अन्तरविरोधों के उत्पाद राज्य का अस्तित्व नहीं रह जायेगा।
इसलिए साम्यवाद सर्वहारा वर्ग की तानाशाही का ही दूसरा नाम नहीं है, बल्कि एक-दूसरे के विपरित चीज़ें हैं।
यह दावा करने के बाद कि मार्क्सवाद का काफ़ी बड़ा हिस्सा ध्वस्त हो चुका है, अम्बेडकर हमें बताते हैं कि मार्क्सवाद की ये चार बातें ही बाक़ी बची रहती हैं:
1. दर्शन का कार्य विश्व का पुनर्निर्माण करना है, विश्व की उत्पत्ति का स्पष्टीकरण देने या समझाने में अपने समय को नष्ट करना नहीं।
2. एक वर्ग का दूसरे वर्ग के साथ स्वार्थ व हित का टकराव व उनमें संघर्ष का होना है।
3. सम्पत्ति के व्यक्तिगत स्वामित्व से एक वर्ग को शक्ति प्राप्त होती है और दूसरे वर्ग को शोषण के द्वारा दुख पहुँचाया जाता है।
4. समाज की भलाई के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्तिगत सम्पत्ति का उन्मूलन करके, दुख का निराकरण किया जाये।
(डॉ. अम्बेडकर, ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 7, पृ. 347)
इसके बाद अम्बेडकर बुद्ध और कार्ल मार्क्स के बीच तुलना करते हुए कहते हैं कि इन चार बिन्दुओं पर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में सहमति है और पहली बात पर बुद्ध तथा कार्ल मार्क्स में पूर्ण सहमति है। हम देख चुके हैं कि मार्क्सवाद (‘बाक़ी बचे’) की अम्बेडकरी व्याख्या में जिस पहले बिन्दु की चर्चा की गयी है, वह सरासर बकवास है। मार्क्स ने ऐसा कुछ कहा ही नहीं। जहाँ तक दूसरे बिन्दु की बात है, उस पर अम्बेडकर कहते हैं कि बुद्ध के मुताबिक़ “राजाओं के बीच, कुलीनों के बीच, ब्राह्मणों के बीच, गृहस्थों के बीच, माता तथा पुत्र के बीच, पुत्र तथा पिता के बीच, भाई तथा बहन के बीच, साथियों तथा साथियों के बीच सदा संघर्ष चलता रहता है।” (उपरोक्त, पृ. 348) अम्बेडकर के इस तर्क के जवाब में रंगनायकम्मा लिखती हैं, “अम्बेडकर की दृष्टि में इन टिप्पणियों का आशय वर्ग संघर्ष की बात करना है।
यहाँ तक कि जो लोग वर्गों के बारे में बिल्कुल ही अनजान हैं, वो भी ऐसी दयनीय अवस्था में नहीं होंगे।
जब हम वर्गों की बात करते हैं तो हम ‘मालिक-मज़दूर’ सम्बन्ध के अस्तित्व की बात करते हैं। हम श्रम के शोषण की भी बात करते हैं।…
श्रम के शोषण पर ही वर्ग टिके रहते हैं। वर्ग संघर्ष और विभिन्न हित वर्गों पर टिके रहते हैं। इन्हीं सिद्धान्तों के आधार पर हम किसी भी प्रकार के समाज में वर्गों को रेखांकित कर सकते हैं।…
हम वर्गों, वर्गों के भीतर विद्यमान तबकों और सामाजिक सम्बन्धों के पूरे समुच्चय को समझने में तभी सक्षम हो सकेंगे, जब हम श्रम के शोषण के बारे में स्पष्ट रूप से जानते हों।
अम्बेडकर के इस दावे का वर्गों से कुछ लेना-देना नहीं है कि ‘बुद्ध ने वर्गों के बारे में पहले ही बता दिया था।’ किन्तु यदि हम वर्गों को यथोचित रूप में समझ लें तो हम उन अन्तरविरोधों की प्रकृति को समझ सकते हैं, जिनका बुद्ध ने उल्लेख किया है।”
(रंगनायकम्मा, उपरोक्त, पृ. 357-58)
तीसरे तथा चौथे बिन्दु की व्याख्या करते हुए अम्बेडकर बताते हैं कि कैसे बुद्ध ने दुखों की जड़ निजी सम्पत्ति का उन्मूलन किया, कि बौद्ध भिक्षु केवल आठ व्यक्तिगत वस्तुओं के अलावा कोई निजी सम्पत्ति नहीं रख सकते थे। अम्बेडकर की इस तुलना का निजी सम्पत्ति के उन्मूलन के मार्क्सवादी सिद्धान्त से कुछ भी लेना-देना नहीं। मार्क्सवादी शिक्षा के मुताबिक़ सर्वप्रथम सर्वहारा अपनी क्रान्तिकारी (कम्युनिस्ट) पार्टी के नेतृत्व में संगठित हो बुर्जुआ वर्ग से राज्यसत्ता छीनता है। इसके बाद वह उत्पादन के साधनों तथा फिर क्रमशः सम्पत्ति के अन्य रूपों का समाजीकरण करता जाता है तथा एक प्रक्रिया में वर्गविहीन समाज (कम्युनिज़्म) की तरफ़ बढ़ते जाना सर्वहारा सत्ता का उद्देश्य होता है। संन्यास तथा त्यागवाद (बुद्ध) से मार्क्सवाद का कुछ भी लेना-देना नहीं है। मार्क्सवाद का सरोकार मानवता की भौतिक तथा सांस्कृतिक ख़ुशहाली से है।
अपने लेख के अन्त में अम्बेडकर बुद्ध तथा मार्क्सवाद द्वारा अपने उद्देश्य (अम्बेडकर का कहना है कि दोनों का उद्देश्य एक ही है) को हासिल करने के साधनों की तुलना की है। अम्बेडकर का कहना है कि “साम्यवादी कहते हैं कि साम्यवाद को स्थापित करने के केवल दो ही साधन हैं, पहला है हिंसा।… दूसरा साधन है सर्वहारा वर्ग की तानाशाही।” (बुद्ध और कार्ल मार्क्स, उपरोक्त, पृ. 354)। जहाँ तक हिंसा का प्रश्न है, इस पर अम्बेडकर कहते हैं, ‘हिंसा का पूर्णतया त्याग नहीं किया जा सकता।’ बुद्ध हिंसा के विरुद्ध थे। परन्तु वह न्याय के पक्ष में भी थे और जहाँ पर न्याय के लिए बल-प्रयोग अपेक्षित होता है, वहाँ उन्होंने बल-प्रयोग की अनुमति दी है। (उपरोक्त, पृ. 355)। लेकिन अम्बेडकर साम्यवादियों की हिंसा के लिए भर्त्सना करते हैं क्योंकि, “साम्यवादी हिंसा का प्रतिपादन एक निरपेक्ष सिद्धान्त के रूप में करते हैं।” (उपरोक्त, पृ. 356) लेकिन अपने इस इल्ज़ाम के हक़ में अम्बेडकर कोई भी तथ्य पेश नहीं करते। वह यह मानकर चलते हैं कि साम्यवादी जब हिंसा की वकालत करते हैं तो यह हिंसा न्याय की ख़ातिर नहीं होती। अगर मेहनतकश वर्ग शोषण-उत्पीड़न से निजात पाने के लिए तथा शोषक वर्गों द्वारा उन पर थोपी प्रतिक्रियावादी हिंसा की प्रतिक्रिया में हिंसा का इस्तेमाल करते हैं तो क्या यह न्याय के लिए नहीं है? अगर यह भी न्याय के लिए नहीं है तो फिर अम्बेडकर की न्याय की परिभाषा क्या है? इस पर अम्बेडकर पूरी तरह मौन साधे हुए हैं।
तानाशाही तथा लोकतन्त्र आदि सवालों पर भी अम्बेडकर बुरी तरह से भ्रमित हैं। वह इतना भी नहीं समझते कि जिसे वह लोकतन्त्र कह रहे हैं, वह भी किसी ना किसी वर्ग की तानाशाही ही होता है। पूँजीवादी समाज में यह बुर्जुआ वर्ग की तानाशाही होता है। यह बुर्जुआ वर्ग के लिए जनवाद तथा सर्वहारा वर्ग के लिए तानाशाही होता है। मार्क्सवादी बस इतना ही “गुनाह” करते हैं कि वह डण्डे को डण्डा कहते हैं। सर्वहारा वर्ग की तानाशाही सत्ताच्युत किये बुर्जुआ वर्ग के लिए तानाशाही तथा सर्वहारा तथा अन्य मेहनतकश वर्गों के लिए जनवाद होता है।
कुल मिलाकर कहा जा सकता है कि मार्क्सवाद की अम्बेडकरी व्याख्या तथा आलोचना बेहद बचकानी तथा हास्यास्पद है। यह अम्बेडकर के अज्ञान तथा अनपढ़ता का उत्पाद है।

2)    अम्बेडकर का अर्थशास्त्र
आर्थिक सवालों पर लिखते-बोलते समय अम्बेडकर एक बुर्जुआ अर्थशास्त्री के रूप में सामने आते हैं। आज़ादी के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था के निर्माण के सवाल पर नेहरू-महालनबीस-टाटा-बिड़ला प्लान तथा अम्बेडकर के विचारों में कोई अन्तर नहीं है। अम्बेडकर एक पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद की वकालत करते हैं, जिसे मिश्रित अर्थव्यवस्था भी कहा जाता है। (इस सवाल पर अम्बेडकर के विचारों को विस्तार से जानने के लिए देखें, डॉ. अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाड•मय, खण्ड 2, पृ. 193-98)। आज़ादी के बाद भारत की राज्यसत्ता पर क़ाबिज़ हुए पूँजीपति वर्ग ने भारत की अर्थव्यवस्था के पूँजीवादी रूपान्तरण के लिए यही रास्ता अपनाया था। दरअसल आज़ादी के समय की विशेष ऐतिहासिक परिस्थितियों में सत्तासीन हुए, औपनिवेशिक संरचना के गर्भ से पैदा हुए एक कमजोर पूँजीपति वर्ग के पास एक अर्द्धसामन्ती अर्थव्यवस्था के पूँजीवादी रूपान्तरण के लिए यही एक विकल्प मौजूद था। और भारत के पूँजीपति वर्ग ने इसी विकल्प को अपनाया। इसमें न तो भारत के पूँजीपति वर्ग ने साम्राज्यवाद से निर्णायक विच्छेद किया और न ही इसे विरासत में मिली औपनिवेशिक-सामन्ती सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संरचनाओं पर ही कोई क्रान्तिकारी प्रहार किया। भारत के पूँजीपति वर्ग ने या तो एक दीर्घ प्रक्रिया में ऐसी संरचनाओं को ख़त्म किया या फिर उन्हें कुछ संशोधित करके अपना लिया। भारत की मेहनतकश जनता के लिए भारत में पूंजीवादी विकास का यह मार्ग बेहद पीड़ादायी रहा है। भारत में पिछले 65 साल के पूँजीवादी विकास की परिणतियाँ सबके सामने हैं। आज हम लोग पहले हमेशा से कहीं अधिक ध्रुवीकृत समाज में रह रहे हैं। भारत के मेहनतकश (जिनमें एक अच्छी-ख़ासी संख्या दलितों की है) आज भी बर्बर शोषण-उत्पीड़न की शिकार है। यह है अम्बेडकर द्वारा दलित उद्धार के सुझाये मार्ग का हश्र।
अपनी उक्त रचना में अम्बेडकर भारत के सत्तासीन हुए पूँजीपति वर्ग के समक्ष कृषि क्षेत्र में राजकीय स्वामित्व का भी प्रस्ताव रखते हैं। दरअसल अल्पज्ञान से पैदा हुआ कृषि के राष्ट्रीकरण का यह एक अम्बेडकरी यूटोपिया ही था, जिस पर भारत के पूँजीपति वर्ग ने कभी ध्यान नहीं दिया। दरअसल औद्योगिक पूँजीपति वर्ग भी कृषि का राष्ट्रीयकरण चाहता है। इससे भूस्वामियों को मिलने वाला निरपेक्ष भू-लगान समाप्त हो जायेगा तथा औद्योगिक पूँजीपति वर्ग को कृषि से सस्ता कच्चा माल प्राप्त होगा। लेकिन निजी सम्पत्ति के एक हिस्से को निशाना बनाने से निजी सम्पत्ति की पूरी व्यवस्था पर ही प्रश्नचिह्न लग जायेगा। इसलिए बुर्जुआ वर्ग कभी भी ऐसा आत्मघाती क़दम नहीं उठायेगा।
आज़ादी की पूर्वबेला पर अम्बेडकर ने अपनी उक्त रचना में भारत के पूँजीपति वर्ग को जो सुझाव दिये (कृषि, उद्योगों, बीमा आदि का राष्ट्रीयकरण आदि) इन सुझावों के कुल योग को वह राजकीय समाजवाद का नाम देते हैं। जिसे अम्बेडकर राजकीय समाजवाद कहते हैं, उसे ही नेहरू “समाजवाद” तथा पूँजीवाद का मिश्रण (मिश्रित अर्थव्यवस्था) कहते हैं, दोनों का सारतत्व एक ही है।

3)    अम्बेडकर का समाजशास्त्र
निस्सन्देह अम्बेडकर छूआछूत तथा जाति-व्यवस्था के ख़िलाफ़ उम्रभर संघर्ष करते रहे। लेकिन क्या अम्बेडकर जातिप्रथा के उन्मूलन का कोई मार्ग सुझाते हैं? भारत में जातिप्रथा उन्मूलन के प्रश्न पर उन्होंने अपने विचार अपने निबन्ध ‘जाति उन्मूलन’ (अम्बेडकर, ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 1) में विस्तार से प्रकट किये हैं। उनका यह निबन्ध दरअसल उनके एक भाषण का मसौदा है जो उन्होंने जात-पाँत तोड़क मण्डल लाहौर के मई 1936 में होने वाले वार्षिक सम्मेलन के लिए तैयार किया था। लेकिन सम्मेलन की स्वागत समिति के अम्बेडकर के भाषण की विषयवस्तु से सहमत न होने के चलते अम्बेडकर यह भाषण नहीं दे पाये थे। दलित चिन्तक आनन्द तेलतुम्बड़े अम्बेडकर के इस निबन्ध की तुलना कम्युनिस्ट घोषणापत्र से करते हुए कहते हैं, “पूँजीवादी विश्व के लिए जो कम्युनिस्ट घोषणापत्र है, वही जाति-भारत के लिए ‘जातियों का विनाश’ है।” (Quoted by Asit Das in ‘Marxism and the Caste Question: An extended Review of Com. Anuradha Ghandy’s “Caste Question in India”, sanhati.com’, अनुवाद हमारा)
कम्युनिस्ट घोषणापत्र दुनियाभर के मज़दूरों को पूँजीवादी शोषण-उत्पीड़न से मुक्ति की राह बताता है, क्या यही अम्बेडकर के ‘जाति उन्मूलन’ के बारे में कहा जा सकता है कि वह भी भारत के करोड़ों दलितों को जातिगत दमन-उत्पीड़न, अपमान से मुक्ति की राह दिखाता है? जातिगत दमन-उत्पीड़न झेलने वाला कोई भी व्यक्ति अम्बेडकर के उक्त निबन्ध का शीर्षक (जाति उन्मूलन) पढ़कर ख़ुश होगा कि उन्होंने जाति व्यवस्था से मुक्ति की कोई तरक़ीब ज़रूर बतायी होगी। लेकिन अफ़सोस कि यह निबन्ध पढ़ने वाले के पल्ले निराशा ही पड़ती है, क्योंकि अम्बेडकर यह नतीजा निकालते हैं कि जाति व्यवस्था का उन्मूलन असम्भव है। ‘जाति उन्मूलन’ असम्भव होने के अम्बेडकर दो कारण बताते हैं। एक तो यह कि ब्राह्मण इसके लिए तैयार नहीं होंगे, दूसरा यह कि कोई भी जाति परिवर्तन पसन्द नहीं करेगी। अम्बेडकर का कहना है, “मेरे विचार से यह कार्य प्रायः असम्भव है। शायद आप यह जानना चाहेंगे कि मैं ऐसा क्यों सोचता हूं। जिन कारणों से मैंने यह दृष्टिकोण अपनाया है, उनमें से ऐसे कुछ कारणों का उल्लेख करूंगा, जिन्हें मैं अत्यन्त महत्वपूर्ण समझता हूं। उन कारणों में से एक है विद्वेष भाव, जो ब्राह्मणों ने इस समस्या के प्रति प्रदर्शित किया है। ब्राह्मण राजनीतिक तथा आर्थिक सुधार के मामलों के आन्दोलन में सदैव अग्रसर रहते हैं। लेकिन जात-पाँत के बन्धन तोड़ने के लिए बनायी गयी सेना में वे शिविर अनुयायी (कैम्प फ़ोलोअर्स) के रूप में भी नहीं पाये जाते। क्या ऐसी आशा की जा सकती है कि भविष्य में इस मामले में ब्राह्मण लोग नेतृत्व करेंगे? मैं कहता हूँ, नहीं। आप पूछ सकते हैं, क्यों? आप दलील दे सकते हैं कि इसका कोई कारण नहीं है कि ब्राह्मणों को सामाजिक सुधार से क्यों दूर रहना चाहिए। आप तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि ब्राह्मण यह जानते हैं कि हिन्दू समाज का अभिशाप जाति व्यवस्था है और एक प्रबुद्ध वर्ग के रूप में उनसे यह आशा नहीं की जा सकती कि वे इसके परिणामों के प्रति उदासीन रहेंगे। आप यह भी तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं कि ब्राह्मण दो प्रकार के हैं, एक तो धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मण और दूसरे पुरोहित ब्राह्मण। यदि पुरोहित ब्राह्मण जात-पाँत समाप्त करने वाले लोगों की तरफ़ से हथियार नहीं उठाता है, तो धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मण उठायेगा। इसमें कोई सन्देह नहीं है कि ये सारी बातें ऊपर से बहुत ही विश्वसनीय लगती हैं। लेकिन इन सब बातों में हम यह भूल गये हैं कि यदि जाति व्यवस्था समाप्त हो जाती है तो ब्राह्मण जाति पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ेगा। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए क्या यह आशा करना उचित है कि ब्राह्मण लोग ऐसे आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए सहमत होंगे, जिसके परिणामस्वरूप ब्राह्मण जाति की शक्ति और सम्मान नष्ट हो जायेगा? क्या धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों से यह आशा करना उचित होगा कि वे पुरोहित ब्राह्मणों के विरुद्ध किये गये आन्दोलन में भाग लेंगे? मेरे निर्णय के अनुसार धर्मनिरपेक्ष ब्राह्मणों और पुरोहित ब्राह्मणों में भेद करना व्यर्थ है। वे दोनों आपस में रिश्तेदार हैं। वे एक शरीर की दो भुजाएँ हैं। एक ब्राह्मण दूसरे ब्राह्मण का अस्तित्व बनाये रखने हेतु लड़ने के लिए बाध्य है।…
“आप में से कुछ यह कहेंगे कि यह एक मामूली बात है कि जातिप्रथा समाप्त करने के आन्दोलन का नेतृत्व करने के लिए ब्राह्मण आगे आयें अथवा नहीं। मेरे विचार से इस दृष्टिकोण का अपनाया जाना समाज के बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा अदा की गयी भूमिका की उपेक्षा करना होगा। चाहे आप इस सिद्धान्त को मानें या न मानें कि एक महान पुरुष इतिहास का निर्माता होता है, लेकिन आपको इतना अवश्य स्वीकार करना होगा कि प्रत्येक देश में बुद्धिजीवी वर्ग सर्वाधिक प्रभावशाली वर्ग रहा है, वह भले ही शासक वर्ग न रहा हो। बुद्धिजीवी वर्ग वह है, जो दूरदर्शी होता है, सलाह दे सकता है और नेतृत्व प्रदान कर सकता है। किसी भी देश की अधिकांश जनता विचारशील एवं क्रियाशील जीवन व्यतीत नहीं करती। ऐसे लोग प्रायः बुद्धिजीवी वर्ग का अनुकरण और अनुगमन करते हैं। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी कि किसी देश का सम्पूर्ण भविष्य उसके बुद्धिजीवी वर्ग पर निर्भर होता है।… आपको यह सोचकर खेद होगा कि भारत में बुद्धिजीवी वर्ग ब्राह्मण जाति का ही दूसरा नाम है। आप इस बात पर खेद व्यक्त करेंगे कि ये दोनों एक हैं। बुद्धिजीवी वर्ग का अस्तित्व किसी एक जाति से आबद्ध होना चाहिए और इस बुद्धिजीवी वर्ग को ब्राह्मण जाति के हितों एवं आकांक्षाओं में साझेदारी करनी चाहिए, जिसने अपने आप को देश के हितों के बजाय उस जाति के हितों का अभिरक्षक समझ रखा है। सारी स्थिति अत्यन्त खेदजनक हो सकती है। लेकिन सच्चाई यह है कि ब्राह्मण लोग ही हिन्दुओं का बुद्धिजीवी वर्ग है। यह केवल बुद्धिजीवी वर्ग ही नहीं है, बल्कि यह वह वर्ग है जिसका कि शेष हिन्दू लोग बहुत आदर करते हैं।…
जब ऐसा बुद्धिजीवी वर्ग जिसने शेष हिन्दू समाज पर नियन्त्रण कर रखा है जाति व्यवस्था में सुधार करने का विरोधी है, तभी मुझे जातिप्रथा समाप्त करने वाले आन्दोलन का सफल होना नितान्त असम्भव दिखायी देता है।” (अम्बेडकर, ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 1, पृ. 93-94-95)
‘जाति उन्मूलन’ के असम्भव होने के दूसरे कारण की चर्चा अम्बेडकर इन शब्दों में करते हैं, “मैं यह क्यों कहता हूँ कि यह कार्य असम्भव है, इसका दूसरा कारण तब स्पष्ट होगा, जब आप यह याद रखेंगे कि जाति व्यवस्था के दो पक्ष हैं। पहले पक्ष के अनुसार मनुष्यों को अलग-अलग समुदायों में विभाजित किया जाता है। जाति व्यवस्था के दूसरे पक्ष के अनुसार सामाजिक दर्जे में इन समुदायों का सोपानिक क्रम निर्धारित किया जाता है। प्रत्येक जाति को गर्व है और इस बात से सन्तुष्टि है कि वह जातिक्रम में किसी अन्य जाति से ऊँची है। इस श्रेणीकरण के बाह्य लक्षण के रूप में सामाजिक और धार्मिक अधिकारों का भी एक श्रेणीकरण है, जिन्हें शास्त्रीय रूप से ‘अष्टाधिकार’ और ‘संस्कार’ कहा जाता है। किसी जाति का दर्जा जितना ऊँचा होगा, उतने ही अधिक उसके अधिकार होंगे। जिस जाति का दर्जा जितना नीचा होगा, उतने ही कम उसके अधिकार होंगे। समुदायों के इस श्रेणीकरण तथा जातियों के इस सोपान ने जाति व्यवस्था के विरुद्ध एक सामूहिक मोर्चा खोलना असम्भव बना दिया है। यदि कोई जाति अपने से ऊँची जाति के साथ रोटी-बेटी का सम्बन्ध करने के अधिकार का दावा करती है तो उसका तत्काल निषेध कर दिया जाता है और शरारती लोग जिनमें अनेक ब्राह्मण भी शामिल हैं, यह कहते हैं कि यह रोटी-बेटी का सम्बन्ध अपने से नीची जाति तक ही अनुमत होगा। सभी लोग जाति व्यवस्था के दास हैं। लेकिन सभी दासों का दर्जा बराबर नहीं है। आर्थिक क्रान्ति लाने हेतु सर्वहारा वर्ग को उत्तेजित करने के लिए कार्ल मार्क्स ने उनसे यह कहा था — “दासता को छोड़कर आपका और कुछ नहीं जायेगा।” जिस कलात्मक ढंग से विभिन्न जातियों में सामाजिक और धार्मिक अधिकार वितरित (किसी जाति को ज़्यादा तो कुछ को कम) किये गये थे, कार्ल मार्क्स के नारे का वह कलात्मक ढंग जाति व्यवस्था के विरुद्ध हिन्दुओं को उत्तेजित करने के लिए एकदम बेकार है। जातियाँ उच्च और अवर प्रभुसत्ताओं की श्रेणीकृत व्यवस्था होती हैं। वे अपने दर्जे के लिए सतर्क होती हैं और यह जानती हैं कि यदि जातियों का सामान्य विलय हुआ तो उनमें से कुछ की प्रतिष्ठा और शक्ति दूसरी जातियों के अपेक्षाकृत अधिक समाप्त हो जायेगी। इसे सैनिक भाषा में यों कहा जायेगा कि आप जाति व्यवस्था पर आक्रमण करने के लिए हिन्दुओं की आम लामबन्दी नहीं कर सकते।” (उपरोक्त, पृ. 95-96)
लेकिन जाति व्यवस्था का सन्ताप भोग रहे लोगों को निराश होने की ज़रूरत नहीं, क्योंकि हर प्रश्न की तरह यहाँ भी अम्बेडकर अपनी ही धारणाओं का खण्डन करते हुए ऊपर कही बातों के ठीक उलटी बात भी करते हैं। वह कहते हैं कि ‘जाति उन्मूलन’ सम्भव है। इसके लिए उन्होंने जो रामबाण नुस्खा इज़ाद किया, वह था अन्तरजातीय विवाह। अम्बेडकर लिखते हैं, “मुझे पूरा विश्वास है कि इसका वास्तविक उपचार अन्तरजातीय विवाह ही है। केवल ख़ून के मिलने से ही रिश्ते की भावना पैदा होगी और जब तक सजातीयता की भावना को सर्वोच्च स्थान नहीं दिया जाता, तब तक जाति व्यवस्था द्वारा उत्पन्न की गयी पृथकता की भावना, अर्थात परायेपन की भावना समाप्त नहीं होगी। हिन्दुओं में अन्तरजातीय विवाह सामाजिक जीवन में निश्चित रूप से महान शक्ति का एक कारक सिद्ध होगा।” (उपरोक्त, पृ. 90)
लेकिन अम्बेडकर के मुताबिक़ अन्तरजातीय विवाहों के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट है हिन्दू धर्म। वह कहते हैं, “आपका यह कहना सही है कि जाति व्यवस्था उसी स्थिति में समाप्त होगी, जब रोटी-बेटी का सम्बन्ध सामान्य व्यवहार में आ जाये। आपने बीमारी की जड़ का पता लगा लिया है, लेकिन क्या बीमारी के लिए आपका नुस्खा ठीक है? यह प्रश्न अपने आप से पूछिये। अधिसंख्य हिन्दू रोटी-बेटी का सम्बन्ध क्यों नहीं करते? आपका उद्देश्य लोकप्रिय क्यों नहीं है? उसका केवल एक ही उत्तर है और वह है कि रोटी-बेटी का सम्बन्ध उन आस्थाओं और धर्म-सिद्धान्तों के प्रतिकूल है, जिन्हें हिन्दू पवित्र मानते हैं।” (उपरोक्त, पृ. 91)
अम्बेडकर कहते हैं कि लोगों के बीच रोटी-बेटी के सम्बन्धों का मार्ग प्रशस्त करने के लिए हिन्दू धर्म तथा शास्त्रों के ख़िलाफ़ संघर्ष करना होगा। “अतः जात-पाँत मानने में लोग दोषी नहीं हैं। मेरी राय में उनका धर्म दोषी है, जिसके कारण जाति व्यवस्था की धारणा का जन्म हुआ है। यदि यह बात सही है तो यह स्पष्ट है कि वह शत्रु जिसके साथ आपको संघर्ष करना है, वे लोग नहीं हैं जो जात-पाँत मानते हैं, बल्कि वे शास्त्र हैं, जिन्होंने जाति-धर्म की शिक्षा दी है। रोटी-बेटी के सम्बन्ध न करने या समय-समय पर अन्तरजातीय खान-पान और अन्तरजातीय विवाहों का आयोजन न करने के लिए लोगों की आलोचना या उनका उपहास करना वांछित उद्देश्य को प्राप्त करने का एक निरर्थक तरीक़ा है। वास्तविक उपचार यह है कि शास्त्रों से लोगों के विश्वास को समाप्त किया जाये। यदि शास्त्रों ने लोगों के धर्म, विश्वास और विचारों को ढालना जारी रखा तो आप कैसे सफल होंगे?
“रोटी-बेटी के सम्बन्ध के लिए आन्दोलन करना और उनका आयोजन करना कृत्रिम साधनों से किये जाने वाले, बलात भोजन कराने के समान है। प्रत्येक पुरुष और स्त्री को शास्त्रों के बन्धन से मुक्त कराइये, शास्त्रों द्वारा प्रतिष्ठापित हानिकर धारणाओं से उनके मस्तिष्क का पिण्ड छुड़ाइये, फिर देखिये, वह आपके कहे बिना अपने आप अन्तरजातीय खान-पान तथा अन्तरजातीय विवाह का आयोजन करेगा/करेगी।” (उपरोक्त, पृ. 91-92)
लेकिन अम्बेडकर के पास वह कौन सी जादुई तरक़ीब है जिससे ‘शास्त्रों में लोगों का विश्वास समाप्त किया’ जा सकता है? तथा प्रत्येक पुरुष और स्त्री को शास्त्रों के बन्धन से मुक्त कराया जा सकता है? इसका वह कोई खुलासा नहीं करते।
लेकिन अम्बेडकर यहीं नहीं रुकते। वह ‘जाति उन्मूलन’ का एक और नुस्खा भी बताते हैं, “अब आप समझ गये होंगे कि मैं ऐसा क्यों सोचता हूँ कि हिन्दुओं की जातिप्रथा को समाप्त करना प्रायः असम्भव है। बहरहाल, इसे समाप्त करने से पहले कई युग बीत जायेंगे। चाहे कार्य करने में समय लगता है या चाहे उसे तुरन्त किया जा सकता है, लेकिन आपको यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि आप जातिप्रथा में दरार डालना चाहते हैं तो इसके लिए आपको हर हालत में वेदों और शास्त्रों में डाइनामाइट लगाना होगा, क्योंकि वेद और शास्त्र किसी भी तर्क से अलग हटाते हैं और वेद तथा शास्त्र किसी भी नैतिकता से वंचित करते हैं। आपको ‘श्रुति’ और ‘स्मृति’ के धर्म को नष्ट करना ही चाहिए। इसके अलावा और कोई चारा नहीं है। यही मेरा सोचा-विचारा हुआ विचार है।” (उपरोक्त, पृ. 99)
आगे अम्बेडकर कहते हैं, “कुछ लोग नहीं समझ सकते कि धर्म के विनाश से मेरा आशय क्या है; कुछ को यह धारणा विद्रोही लग सकती है और कुछ को यह क्रान्तिकारी विचार लग सकता है।” (उपरोक्त, पृ. 99)
थोड़ा आगे चलकर अम्बेडकर फिर पैंतरा पलटते हैं, धर्म के विनाश की जगह वह धर्म में सुधार की बात करने लगते हैं। उनका कहना है, “यद्यपि मैं धर्म के नियमों की निन्दा करता हूँ, इसका अर्थ यह न लगाया जाये कि धर्म की आवश्यकता ही नहीं। इसके विपरीत मैं बर्क के कथन से सहमत हूँ, जो कहता है: ‘सच्चा धर्म समाज की नींव है, जिस पर सब नागरिक सरकारें टिकी हुई हैं।’
परिणामतः जब मैं यह अनुरोध करता हूँ कि जीवन के ऐसे पुराने नियम समाप्त कर दिये जायें, तब मैं यह देखने का उत्सुक हूँ कि इसका स्थान ‘धर्म के सिद्धान्त’ ले लें, तभी हम दावा कर सकते हैं कि यही सच्चा धर्म है।” (उपरोक्त, पृ. 101)
इसके बाद अम्बेडकर हिन्दू धर्म में किये जाने वाले सुधारों की एक लम्बी सूची पेश करते हैं।
तो यह है अम्बेडकर का ‘जाति उन्मूलन’ मार्ग, आनन्द तेलतुम्बड़े जिसकी तुलना कम्युनिस्ट घोषणापत्र से करते हैं। और असित दास (तथा ऐसे ही अन्य) जैसे वामपन्थी अपने पराजयबोध के चलते दलितों के बिदक जाने के डर से अम्बेडकर की किसी भी तरह की आलोचना से बचते हुए “दलित” बुद्धिजीवियों की हाँ में हाँ मिलाते हैं।
आज के सन्दर्भ में बात करें तो ‘जाति उन्मूलन’ के लिए अम्बेडकर ने जो अन्तरजातीय विवाहों का रास्ता सुझाया था, यह जाति व्यवस्था पर चोट करने के लिए काफ़ी हद तक कारगर हो सकता है। लेकिन यह हिन्दू धर्म में किसी यूटोपियाई सुधारों के ज़रिये सम्भव नहीं होगा (जैसाकि अम्बेडकर कहते हैं)। अरेंज़्ड अन्तरजातीय विवाह नहीं हो सकते। सिर्फ़ अन्तरजातीय प्रेम विवाह ही सम्भव हैं। प्रेम करने के लिए समय, शिक्षा तथा संस्कृति की ज़रूरत होती है। लेकिन आज भी दलितों की लगभग 90 फ़ीसदी आबादी उज़रती गुलाम है, जिसके पास प्रेम करने के लिए न तो समय है, न शिक्षा और न ही संस्कृति। संस्कृतिविहीन प्रेम कभी भी मानवीय प्रेम नहीं हो सकता, यह सिर्फ़ पाशविक प्रेम ही हो सकता है। दलितों के बीच शिक्षा तथा संस्कृति के प्रसार के लिए ज़रूरी है कि उनकी आर्थिक दशा में सुधार किया जाये और इसलिए मौजूदा पूँजीवादी उत्पादन सम्बन्धों को बदलना होगा। अम्बेडकर ने यह तो ठीक कहा कि जाति उन्मूलन के लिए लोगों में रोटी-बेटी का रिश्ता बनना चाहिए। लेकिन यह कैसे सम्भव होगा? इसके जवाब में उन्होंने हिन्दू धर्म में सुधार का यूटोपिया ही सृजित किया है।
अपने जीवन के अन्तिम समय में अम्बेडकर ने ‘जाति उन्मूलन’ का एक और मार्ग भी बताया था। वह था धर्म परिवर्तन का मार्ग। लेकिन इस पर भी अम्बेडकर का कोई सुस्पष्ट मत नहीं है। हर प्रश्न की तरह इस पर भी वह विरोधाभासी बातें ही करते हैं। उनका कहता है, “क्या ईसाई में धर्मान्तरण के बाद कोई अछूत सार्वजनिक कुएँ से पानी ले सकता है? क्या उसके बच्चों की किसी पब्लिक स्कूल में भर्ती होती है? क्या वह किसी दूकान में जाकर सामान ख़रीद सकता है? कोई नाई उसकी दाढ़ी बनायेगा क्या? क्या कोई धोबी उसके कपड़े धुलेगा? क्या वह बस में सफ़र कर सकता है? क्या वह सरकारी आफ़िसों में बिना किसी कष्ट के प्रवेश पा सकता है? क्या उसे गाँव के स्पृश्य स्थानों में रहने दिया जायेगा? क्या हिन्दू उसके हाथों से पानी पीयेंगे? क्या वे उसके साथ खान-पान करेंगे? किसी अछूत से छू जाने पर हिन्दू क्या स्नान नहीं करेंगे?” (रंगनायकम्मा द्वारा अम्बेडकर का हवाला, ‘जाति प्रश्न के समाधान के लिए अम्बेडकर काफ़ी नहीं, बुद्ध भी काफ़ी नहीं, मार्क्स ज़रूरी हैं’, पृ. 461)
इन प्रश्नों के जवाब में अम्बेडकर कहते हैं, “मुझे पूरा विश्वास है कि हर प्रश्न का उत्तर ‘नहीं’ में होगा। दूसरे शब्दों में धर्मान्तरण से स्पृश्यों के सामाजिक स्तर में कोई अन्तर नहीं आया है। हिन्दू जनमानस के लिए अछूत अछूत ही रहेगा भले ही वह ईसाई बन जाये।” (उपरोक्त, पृ. 461)
अम्बेडकर ने 1956 में जब हिन्दू धर्म को छोड़कर बौद्ध धर्म अपना लिया तथा अन्य दलितों को भी ऐसा ही करने के लिए कहा, तब उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाने के प्रति वही सवाल नहीं उठाये जो उन्होंने ईसाई धर्म अपनाये जाने के सम्बन्ध में उठाये थे।
लेकिन क्या ‘जाति उन्मूलन’ के लिए अम्बेडकर द्वारा बताया धर्म परिवर्तन का मार्ग ‘जाति उन्मूलन’ में सहायक हुआ? क्या बौद्ध धर्म अपनाने से दलितों को जाति व्यवस्था से मुक्ति मिली? इन प्रश्नों का उत्तर नहीं में ही है। जिन दलितों ने अम्बेडकर का अनुसरण करते हुए हिन्दू धर्म छोड़कर बौद्ध धर्म अपनाया उन्हें नवबौद्ध कहा जाने लगा। नवबौद्ध दलित का समानार्थी शब्द बन गया। दलित बौद्धों के भीतर भी जात-पाँत का भेदभाव बरक़रार रहा। दरअसल धर्म परिवर्तन जाति प्रश्न का कोई समाधान है ही नहीं। अगर सभी दलित बौद्ध धर्म अपना लें, तो दलित का नाम बौद्ध हो जायेगा। अगर सभी जातियों के लोग बौद्ध धर्म अपना लें, तो हश्र सिख, ईसाई तथा इस्लाम धर्म जैसा होगा। ये धर्म जात-पाँत को नहीं मानते लेकिन इनके अनुयायियों में जात-पाँत बादस्तूर जारी है। बस जातियों के नाम बदल गये हैं। सिखों में चमार रामदासिये सिख हो गये, चूड़े मज़हबी सिख, जट जट-सिख हो गये। इस्लाम धर्म का भी यही हाल है। इस धर्म के अनुयायी भी शेख़, अंसारी, धुनिया, कबाड़ी, कासिस, हज्जाम आदि अनेकों जातियों में बँटे हुए हैं।
अम्बेडकर या तो ‘जाति उन्मूलन’ को असम्भव मानते हैं, और जब ख़ुद की ही इस मान्यता का विरोध करते हुए वह जाति उन्मूलन के लिए भी सुझाव देते हैं, तो वह सब अव्यावहारिक तथा यूटोपियाई हैं।

6)    अम्बेडकर का इतिहास लेखन
इतिहास के नाम पर अम्बेडकर ने जो भी लिखा है, वह बेहद हास्यास्पद है। यह किस्से-कहानियों से भरा हुआ है। इसे जानने के लिए पाठक ‘भारत में जातिप्रथा — संरचना, उत्पत्ति और विकास’ (सम्पूर्ण वाड•मय, खण्ड 1), ‘अछूत कौन थे और वे अछूत कैसे हो गये?’ (उपरोक्त, खण्ड 14), ‘क्रान्ति तथा प्रतिक्रान्ति’ (उपरोक्त, खण्ड 7), ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 13 तथा ‘बुद्ध और उनका धम्म’ आदि अम्बेडकर की रचनाएँ देख सकते हैं। रंगनायकम्मा ने अपनी पुस्तक ‘जाति प्रश्न के समाधान के लिए अम्बेडकर काफ़ी नहीं, बुद्ध भी काफ़ी नहीं, मार्क्स ज़रूरी हैं’ में अम्बेडकर के इस तथाकथित इतिहास लेखन की काफ़ी आलोचना की है। इसे भी पाठक देख सकते हैं।
अम्बेडकर के निहायत ही हास्यास्पद “इतिहास लेखन” की मुकम्मल आलोचना तो एक बड़ा ग्रन्थ का विषय है। लेकिन यह काम बहुत अनुपयोगी होगा। इसलिए हम यहाँ अम्बेडकर द्वारा उठाये गये दो प्रश्नों तक ही सीमित रहेंगे। एक प्रश्न है, जाति व्यवस्था का उद्भव तथा दूसरा है बौद्ध धर्म का उद्भव, जाति व्यवस्था के सम्बन्ध में इसकी भूमिका तथा इसका पतन। इन दोनों ही प्रश्नों पर अम्बेडकर का लेखन अटकलपच्चू है। आज हमारे पास इन दोनों प्रश्नों पर वैज्ञानिक ढंग से की गयी शोध का अम्बार मौजूद है। जाति व्यवस्था तथा बौद्ध धर्म पर इतनी शोध के पश्चात अम्बेडकर के अन्धभक्तों को छोड़कर कोई भी अम्बेडकर के अटकलपच्चू लेखन से सहमत नहीं होगा।
पहले जाति व्यवस्था के उद्भव के प्रश्न को लेते हैं। इस पर अम्बेडकर लिखते हैं, “अब मेरी बारी है। मेरे आलेख का विषय है — ‘भारत में जातिप्रथा: संरचना, उत्पत्ति और विकास’।
“आप जानते हैं कि यह विषय कितना जटिल है, जिसके सम्बन्ध में मुझे अपने विचार व्यक्त करने हैं। मुझसे ज़्यादा योग्य विद्वानों ने जाति के रहस्यों को खोलने का प्रयास किया है। किन्तु यह बड़े खेद की बात है कि अभी तक इस विषय पर चर्चा नहीं हुई है और लोगों को इसके बारे में अल्प जानकारी है। मैं जाति जैसी संस्था की जटिलताओं के प्रति सजग हूँ और मैं इतना निराशावादी नहीं हूँ कि यह कह सकूं कि यह पहेली अगम, अज्ञेय है, क्योंकि मेरा विश्वास है कि इसे जाना जा सकता है।” (‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 1, पृ. 17)
अम्बेडकर जल्द ही जाति व्यवस्था के इस जटिल विषय को “सुलझा” लेते हैं। उनका कहना है, भारत में जातिप्रथा के प्रचलन और संरक्षण की क्रियाविधि पर विचार करते हुए अगला प्रश्न यह है कि इसकी उत्पत्ति कहाँ से हुई।… भारत में जात-पाँत के मूल के बारे में कोई उलझन पेश नहीं हुई है, जैसेकि मैं पहले कह चुका हूँ कि सजातीय विवाह ही जात-पाँत का एकमात्र कारण है।” (उपरोक्त, पृ. 27)
लेकिन सजातीय विवाह की प्रथा कैसे अस्तित्व में आयी? इसके जवाब में अम्बेडकर कहते हैं कि इसे ब्राह्मणों ने शुरू किया। इसका मतलब यह हुआ कि ब्राह्मण सजातीय विवाह प्रथा शुरू होने से पहले से ही मौजूद थे। यानी जाति व्यवस्था का जन्म सजातीय विवाह व्यवस्था के कारण नहीं हुआ। लेकिन अम्बेडकर इन सवालों में नहीं उलझते। अम्बेडकर के लिए तो जाति की पहेली ‘अगम, अज्ञेय’ नहीं है, लेकिन पाठक को उनका पूरा लेख पढ़कर भी भारत में जाति प्रथा की उत्पत्ति एक अगम अज्ञेय पहेली ही बनी रहती है। इस पहेली को सुलझाने में अम्बेडकर पाठक की रत्तीभर भी मदद नहीं करते।
भारत में जाति प्रथा की उत्पत्ति का प्रश्न जो कि अम्बेडकर के लिए एक ‘अगम, अज्ञेय’ पहेली ही बना रहा (भले ही उन्होंने इसके विपरीत दावा किया है), लेकिन इस अगम, अज्ञेय पहेली को सुलझाने का काम मार्क्सवादी इतिहासकारों ख़ासतौर पर डी.डी. कोसाम्बी, आर.एस. शर्मा, सुवीरा जैसवाल, इरफ़ान हबीब आदि ने किया है। इन इतिहासकारों का मानना है कि जाति व्यवस्था एक प्रकार का श्रम-विभाजन थी। आर.एस. शर्मा लिखते हैं, “जातिप्रथा की शुरुआत श्रम-विभाजन के आधार पर हुई।” (रामशरण शर्मा, ‘प्रारम्भिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास’, हिन्दी माध्यम, कार्यान्वयन निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, पृ. 46) इरफ़ान हबीब इस पर लिखते हैं, “मैं समझता हूँ कि जिस दृष्टिकोण को कोसाम्बी ने स्पष्ट और सुसंगत रूप में व्यवहृत किया था, उसका ही अनुकरण करना उपयोगी होगा। यह दृष्टिकोण कार्ल मार्क्स द्वारा विकसित दृष्टिकोण है। जातिप्रथा को मुख्यतः एक क्रम में उपजी विभिन्न सामाजिक संरचनाओं में उसकी भूमिका के आधार पर व्याख्यायित किया जाना चाहिए। कोई सामाजिक संरचना ‘श्रम की प्रक्रिया’ के किसी रूप पर आधारित होती है और इसलिए वह तब उत्पन्न होती है जब समाज के उत्पादक ‘अतिरिक्त उत्पादन’ में समर्थ होते हैं। यह सोचना व्यर्थ है कि इस चरण से पहले भी जातिप्रथा जैसी संस्था का अस्तित्व रहा होगा। वास्तव में दयूमों स्वयं इसे स्वीकार करते हैं। वह मानते हैं कि जातिप्रथा के उदय के लिए श्रम-विभाजन आवश्यक था जो आदि-समाज में नहीं पाया जाता था।” (‘भारतीय इतिहास में जाति और मुद्रा’, पी.पी.एच., पृ. 9) आगे वह लिखते हैं, “श्रम-विभाजन का एक सापेक्षतः कठोर रूप होने के कारण, जाति व्यवस्था उत्पादन सम्बन्धों का अंग थी।” (उपरोक्त, पृ. 14) डी.डी. कोसाम्बी का कहना है, “जातिप्रथा उत्पादन के एक आदिम स्तर की वर्ग-व्यवस्था है” (‘कल्चर एण्ड सिविलाइज़ेशन ऑफ़ एंशियण्ट इण्डिया इन हिस्टोरिकल आउटलाइन’, लन्दन, 1965, उपरोक्त, पृ. 24-25)
जाति व्यवस्था के रूप में इस प्रारम्भिक श्रम-विभाजन को भारत में बाद की सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ इसे अपने मुताबिक़ ढालकर अपनाती रही हैं। और आज यह भारत में एक पूँजीवादी जाति व्यवस्था के रूप में विद्यमान है।
जाति व्यवस्था की उत्पत्ति की तरह ही अम्बेडकर बौद्ध धर्म की उत्पत्ति, जाति व्यवस्था के सम्बन्ध में इसकी भूमिका तथा इसके पतन के कारणों को बिल्कुल भी नहीं समझ पाये। अम्बेडकर का कहना कि बौद्ध धर्म की उत्पत्ति आर्यों की सभ्यता की पतनशीलता की प्रतिक्रिया के रूप में हुई। वह बौद्ध धर्म की उत्पत्ति की भौतिक परिस्थितियों की बिल्कुल भी चर्चा नहीं करते। वे कहते हैं, “बौद्ध धर्म एक क्रान्ति थी। यह उतनी ही महान क्रान्ति थी, जितनी फ़्रांस की क्रान्ति। यद्यपि यह धार्मिक क्रान्ति के रूप में प्रारम्भ हुई, तथापि यह धार्मिक क्रान्ति से बढ़कर थी। यह सामाजिक और राजनीतिक क्रान्ति बन गयी थी। यह समझने के लिए इस क्रान्ति का चरित्र कितना गूढ़ है, यह जानना आवश्यक है कि क्रान्ति के आरम्भ होने से पहले समाज की स्थिति कैसी थी। फ़्रांस की क्रान्ति की भाषा में कहा जाये तो भारत की प्राचीन शासन प्रणाली का चित्रण आवश्यक है।
बुद्ध के उपदेशों से आये महान सुधार को समझने के लिए यह आवश्यक है कि बुद्ध द्वारा अपने जीवन का मिशन शुरू करते समय आर्यों की सभ्यता की विकृत स्थिति पर विचार किया जाये।” (अम्बेडकर, ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 7, पृ. 17)
अम्बेडकर आर्यों के जीवन में आयी बुराइयों की एक लम्बी-चौड़ी सूची प्रस्तुत करते हैं। जाति के सन्दर्भ में बौद्ध धर्म की चर्चा करते हुए वह कहते हैं, “बौद्ध ने जातिप्रथा की निन्दा की। जातिप्रथा उस समय वर्तमान रूप में विद्यमान नहीं थी। अन्तरजातीय भोजन और अन्तरजातीय विवाह पर निषेध नहीं था। तब व्यवहार में लचीलापन था। आज की तरह कठोरता नहीं थी। किन्तु असमानता का सिद्धान्त जोकि जातिप्रथा का आधार है, उस समय सुस्थापित हो गया था और इसी सिद्धान्त के विरुद्ध बुद्ध ने एक निश्चयात्मक और कठोर संघर्ष छेड़ा।…
“जाति के विरोध के मामले में बुद्ध ने जो शिक्षा दी, उसी को व्यवहार में भी लाये। उन्होंने वही किया, जिसे आर्यों के समाज ने करने से इंकार कर दिया था। आर्यों के समाज में शूद्र अथवा नीच जाति का मनुष्य कभी ब्राह्मण नहीं बन सकता था। किन्तु बुद्ध ने जातिप्रथा के विरुद्ध केवल प्रचार ही नहीं किया, अपितु शुद्र तथा नीच जाति के लोगों को भिक्षु का दर्जा दिलाया, जिनका बौद्ध मत में वही दर्जा है, जो ब्राह्मणवाद में ब्राह्मण का है।” (उपरोक्त, पृ. 75, 93-94)
बौद्ध धर्म के पतन के लिए अम्बेडकर मुसलमानों के हमलों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं, “मुसलमान आक्रमणकारियों ने अनेक स्थानों पर जो भीषण हत्याकाण्ड किये, वे रूढ़िवादी हिन्दुओं द्वारा किये गये अत्याचारों से कहीं अधिक प्रबल थे। और भारत के कई प्रान्तों से बौद्ध धर्म के लुप्त होने के लिए भारी ज़िम्मेदार हैं।” (उपरोक्त, पृ. 104)
लेकिन मार्क्सवादी इतिहासकार इन सब प्रश्नों पर अम्बेडकर से भिन्न मत रखते हैं। बौद्ध धर्म की उत्पत्ति के बारे में डी.एन. झा लिखते हैं, “लोगों के सामाजिक तथा आर्थिक जीवन की नयी विशेषताएँ वैदिक कर्मकाण्ड तथा यज्ञ से मेल नहीं खाती थीं। ये यज्ञ और कर्मकाण्ड पशुधन के अन्धाधुन्ध विनाश का हेतु बन गये थे, जबकि पशुधन ही हलों से की जाने वाली नयी खेती का मुख्य आधार था। वैदिक धार्मिक आचार-व्यवहारों और उदीयमान सामाजिक समूहों के बीच के अन्तरविरोध के फलस्वरूप ऐसे नये धार्मिक तथा दार्शनिक विचारों की तलाश शुरू हुई जो लोगों के भौतिक जीवन में आये बुनियादी परिवर्तनों से मेल खाते हों।…
“जैन तथा बौद्ध धर्मों की कुछ विशेषताएँ समान हैं। एक बात तो यह कि दोनों धर्मों के प्रवर्तकों को काफ़ी मानसिक तथा शारीरिक प्रयत्न करना पड़ा था। यह बात महावीर और बुद्ध के नितान्त सादे जीवन में स्पष्ट देखी जा सकती है। दूसरे, दोनों धर्मों ने वेदों के प्रमाण को अस्वीकार कर दिया और पशुबलि का विरोध किया। इससे रूढ़िवादी ब्राह्मणों से उनके संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गयी। लोहे का इस्तेमाल आरम्भ होने से हल से की जाने वाली खेती का विकास हुआ और इस प्रकार की खेती मुख्य रूप से पशुपालन पर निर्भर थी। इस पृष्ठभूमि में देखें तो प्राणियों को कष्ट न देने का सिद्धान्त बहुत महत्त्वपूर्ण लगता है। यह पहला अवसर था जब अहिंसा की अवधारणा का प्रचार किया गया। इससे कृषि में सहायता मिली। प्रति वर्गमील क्षेत्र में जितने लोगों का गुज़ारा पशुचारक अर्थव्यवस्था में हो सकता था, उससे दस गुना अधिक लोगों का निर्वाह कृषि अर्थव्यवस्था में सम्भव था। परन्तु जैन धर्म में अहिंसा पर अनावश्यक ज़ोर देने से खेतिहर लोगों के बीच इस धर्म के प्रचार में बाधा पड़ी, क्योंकि उनका धन्धा ऐसा था जिसमें कीड़े-मकोड़ों का नाश होना ही था।…
“बौद्ध धर्म में अहिंसा पर आग्रह जैन धर्म की तुलना में अधिक संयत था।…
“बौद्ध धर्म ने कृषि की समकालीन आवश्यकताओं के प्रति अधिक सजगता दिखलायी, इसलिए वह ग्रामीण लोगों को स्वीकार्य हुआ।” (‘प्राचीन भारत’, ग्रन्थशिल्पी, पृ. 74, 78-79)
जाति व्यवस्था के प्रति बौद्ध धर्म की पहुँच के बारे में इरफ़ान हबीब लिखते हैं, “लगभग हर कोई इस बात पर सहमत प्रतीत होता है कि भारतवर्ष में जातिप्रथा को सार्वभौम बनाने में ब्राह्मणों की केन्द्रीय भूमिका रही है और यह कि जाति सिद्धान्त को धर्म का अंग बनाकर ब्राह्मणों ने जातिप्रथा और ब्राह्मणवाद को अविभाज्य बना दिया। इन मान्यताओं का एक परिणाम यह हुआ कि जातियों के निर्माण में बौद्ध धर्म की भूमिका अक्सर निगाहों से ओझल रही है।
वर्ण व्यवस्था पर भारी ज़ोर देने वाले कौटिल्य-कृत अर्थशास्त्र को पढ़ने वाला कोई व्यक्ति अगर उसके बाद अशोक के शिलालेख पर ध्यान दे तो दोनों में स्पष्ट वैपरीत्य दिखायी देगा। अशोक के शिलालेख में वर्ण (या जाति) शब्द का कहीं भी उल्लेख नहीं हुआ है। वर्ण के नियमों का पालन निहितार्थ के स्तर पर भी उस “धम्म” का अंग नहीं है जिसे वह प्रचारित कर रहा था और जिसके सिद्धान्तों को उसने शिलाओं और स्तम्भों पर उत्कीर्ण कराया था। ब्राह्मणों की धार्मिक श्रेष्ठता को अस्वीकार करने वाला बौद्ध मत उसी प्रकार अनिवार्यतः वेदों से चलती चली आयी वर्ण व्यवस्था के औचित्य को भी चुनौती देता था।
“फिर भी यह सवाल पूछा जा सकता है कि क्या जातिप्रथा के विकास में बौद्ध मत का अपना योगदान नहीं रहा है। कम का सिद्धान्त या आत्मा के गमनागमन में विश्वास बौद्ध दर्शन का बुनियादी आधार था। वह जातिप्रथा का एक आदर्श औचित्य-स्थापन था और उन लोगों में समता का विश्वास उत्पन्न करता था जो इस प्रथा से सबसे अधिक पीड़ित थे। मनुस्मृति (दस, 24-25) में यह सिद्धान्त जातिप्रथा की विचारधारा का एक अभिन्न अंग दिखायी देता है।
“दूसरा तत्व अहिंसा पर दिया गया बल है। कोसाम्बी ने आदिम धर्म में पशु-हत्या के निषेध का कारण यह बतलाया है कि पशुपालन की जगह कृषि के स्थापित हो जाने के बाद ब्राह्मणों द्वारा बड़े पैमाने पर पशुओं का बलिदान अयुक्तिसंगत हो गया था। कोसाम्बी निश्चित ही हिंसा या क्रूरता के प्रति बौद्ध की निन्दा की गम्भीरता का मखौल नहीं उड़ा रहे। (अशोक ने भी तो कलिंग में अपने द्वारा किये गये नरसंहार की निन्दा की थी।) उनका आशय मात्र यह था कि बड़े पैमाने पर पशु-बलि की कोई भी आलोचना “पशुपालक वैश्यों” में ही लोकप्रिय हो सकती थी। लेकिन अहिंसा क्यों एक लोकप्रिय सिद्धान्त बन गयी, इसका एक और भी विश्वसनीय कारण मैं पूरे सम्मान-भाव से बतलाना चाहूंगा। यह भोजन-संग्राही गणों को दासता और निकृष्टता की दशा में लाने को औचित्य प्रदान करती थी। अशोक के शिलालेखों में पशुओं और मछलियों के शिकार सम्बन्धी नियम भी मिलते हैं। और बौद्ध ग्रन्थों में भी ब्राह्मण ग्रन्थों की तरह ‘पशु-हत्या करने वाली’ जातियों को हीन बतलाया गया है।
“वास्तव में इस प्रकार बौद्ध मत ने वर्ण व्यवस्था में कृषकगण के पतन में भी योगदान किया। किसानों को वैश्य वर्ण में न रखकर शूद्र वर्ण में क्यों रखा जाने लगा, इसके बारे में प्रोफ़ेसर आर.एस. शर्मा की विवेचना लगभग अकाट्य है। उनके इस पतन में अहिंसा के सिद्धान्तों की भी एक भूमिका रही। मनुस्मृति (दस, 84) में हल के प्रयाग की इस आधार पर निन्दा की गयी है कि इसकी लोहे की नोक जीव-हत्या का कारण होती है। इसकी प्रतिध्वनि हमें प्रवर्ती बौद्ध मत में मिलती है। इत्सिंग का कथन है कि बौद्ध ने भिक्षुओं को कृषि से दूर रहने का आदेश इसलिए दिया कि इसमें ‘हल चलाने और खेत की सिंचाई करने के कारण जीवन की क्षति होती है।’
“इसलिए यह मानना ग़लत होगा कि ब्राह्मणवाद जातिप्रथा की विचारधारा का एकमात्र स्रोत है।” (‘भारतीय इतिहास में जाति और मुद्रा’, पी.पी.एच., पृ. 12-13-14)
बौद्ध धर्म उस समय की समाज व्यवस्था के लिए कभी कोई चुनौती नहीं बना। बौद्ध संघों में गुलामों तथा क़ज़र्दारों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। (डी.एन. झा, उपरोक्त, पृ. 80) इसलिए फ़्रांसीसी क्रान्ति (जिसने फ़्रांस में सामन्तवाद का ख़ात्मा किया और मानव इतिहास में एक नये युग का सूत्रपात किया) से इसकी तुलना बिल्कुल भी जायज़ नहीं है।
जहाँ तक बौद्ध धर्म के पतन का सवाल है तो इसका पतन तो बुद्ध के जीवन में ही शुरू हो गया था जब यह राज्य-धर्म बन गया। इसकी चर्चा हम पेपर में पहले ही कर चुके हैं।
अम्बेडकर की इतिहास की नासमझदारी का मुख्य कारण उनका भाववादी विश्वदृष्टिकोण है, जो उन्हें ऐतिहासिक घटनाओं तथा परिघटनाओं की जड़ तक जाने से रोकता है। इसी भाववादी दृष्टिकोण के चलते अम्बेडकर जाति को एक अवरचनागत (superstructural) प्रश्न मानते हैं और श्रम-विभाजन या उत्पादन सम्बन्धों (आधार) में इसकी जड़ नहीं देखते। इसलिए इस समस्या का समाधान भी वह हिन्दू धर्म में सुधार या लोगों की हिन्दू धर्म तथा शास्त्रों से मुक्ति में देखते हैं।

2)    मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद की एकता की वकालत के बारे में
दलितवादी बुद्धिजीवियों की कई बानगियाँ हैं। कुछ का कहना है कि मार्क्सवाद एक वर्ग अपचयनवादी, आर्थिक निर्धारणवादी (Economic Determinist) दर्शन है। कुछ का कहना है कि भारत की परिस्थितियों में मार्क्सवाद प्रासंगिक ही नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज वर्गों में नहीं बल्कि जातियों में बँटा हुआ है, लेकिन इसके साथ ही दलितवादियों तथा “मार्क्सवादी” दलितवादियों की एक धारा ऐसी भी है जो मार्क्सवाद को भारत के लिए ज़रूरी समझती है, लेकिन अम्बेडकरवाद के साथ-साथ। इनका कहना है कि भारत में से वर्गीय तथा जातीय (दोनों अलग-अलग, एक-दूसरे के साथ गुँथे-बुने रूप में नहीं) शोषण-उत्पीड़न को ख़त्म करने के लिए मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद को मिलाया जाना चाहिए।
मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद को मिलाने की कोशिशें आज ही नहीं हो रहीं, बल्कि अतीत में भी ऐसी कोशिशें होती रही हैं। कुछ समय पहले महाराष्ट्र में शरद पाटिल ने सत्यशोधक कम्युनिस्ट पार्टी बनायी थी, जो मार्क्सवाद-फुले-अम्बेडकरवाद को अपनी “मार्गदर्शक” विचारधारा मानती थी। मार्क्सवादी आलोचक के तौर पर जाने जाते हिन्दी लेखक मैनेजर पाण्डे भी मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद की एकता पर ज़ोर देते हैं। दलितवादी लेखक थॉमस मैथ्यू भी यही लाइन देते हैं। एक अन्य दलितवादी लेखक आनन्द तेलतुम्बड़े इसी बात को थोड़े अलग शब्दों में कहते हैं। वह कहते हैं कि भारत में कोई भी सामाजिक परिवर्तन लाने के लिए ज़रूरी है यहाँ पर एक मज़बूत दलित आन्दोलन हो, जो ब्राह्मणवाद के अवशेषों के ख़िलाफ़ लड़ने के साथ-साथ वर्गीय दिशा अपनाते हुए अन्य जातियों के मेहनतकश लोगों को भी अपने साथ ले और यहाँ इसके साथ ही एक मज़बूत कम्युनिस्ट आदोलन भी हो जो वर्ग संघर्ष में सामाजिक तथा सांस्कृतिक भेदभाव के विरुद्ध भी संघर्ष करे। (देखें उनका लेख, ‘Theorising the Dalit Movement: A Viewpoint’)
लेकिन क्या मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद के बीच सचमुच ऐसी कोई एकता मुमकिन है? मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद की एकता के वकील ठोस-ठोस कुछ भी नहीं बताते कि मार्क्सवाद अम्बेडकरवाद से क्या लेकर समृद्ध हो सकता है? मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद के बीच एकता का मतलब होगा दर्शन के धरातल पर एकता; राजनीति, अर्थशास्त्र तथा समाजशास्त्र के धरातल पर एकता। लेकिन इन सभी मामलों में मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद एक-दूसरे के विरोध में खड़े हैं।
मार्क्सवाद का दार्शनिक आधार द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद है। जबकि अम्बेडकर सारी उम्र अधिभूतवादी भाववादी (Metaphysical Idealist) ही रहे। अपने जीवन के अन्तिम समय में वह आदिम मशीनी भौतिकवाद बुद्धवाद तक पहुँचे। यह भौतिकवाद मानव तथा प्रकृति के सम्बन्धों को समझने में तो भौतिकवादी था जबकि सामाजिक सम्बन्धों को समझने में भाववादी ही था। और अम्बेडकर तो बुद्ध से उनका आदिम भौतिकवाद भी नहीं लेते बल्कि सिर्फ़ व्यक्तिगत आचरण ही लेते हैं। सामाजिक सम्बन्धों को समझने में अम्बेडकर सारी उम्र अधिभूतवादी भाववादी ही रहे। द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद प्रगतिशील वर्गों की सेवा करता है, यह उनका बौद्धिक आत्मिक हथियार है। इसके ठीक विपरीत अधिभूतवादी भाववाद मरणशील (Moribund) शोषक वर्गों की सेवा करता है।
राजनीति की बात करें तो मार्क्सवाद वर्ग संघर्ष के ज़रिये सर्वहारा वर्ग के अधिनायकत्व की स्थापना का मार्ग प्रशस्त करता है। सर्वहारा अधिनायकत्व समाज में से वर्ग विभेदों को मिटाने, मनुष्य के हाथों मनुष्य के शोषण का अन्त करने तथा समाजवाद को वर्गविहीन समाज, साम्यवाद की ओर ले जाने का साधनमात्र होगा। समाजवाद को वर्गविहीन साम्यवाद में विकसित करने की प्रक्रिया में सर्वहारा अधिनायकत्व भी ग़ैरज़रूरी हो जायेगा और एक सहज प्रक्रिया में यह ख़त्म हो जायेगा।
दूसरी ओर अम्बेडकर की राजनीति शोषक वर्गों से मेलजोल की वकालत करती है। यह मेहनतकश लोगों के शोषण-उत्पीड़न की बुनियाद पर टिकी पूँजीवादी व्यवस्था का अंग बनकर इसी व्यवस्था में छोटे-मोटे सुधारों के टुकड़ों से दबे-कुचले शोषित मेहनतकश जनों को बहलाने-फुसलाने की लाइन देती है।
मार्क्सवादी राजनीतिक अर्थशास्त्र पूँजीवादी शोषण को बेनकाब करता है। यह बताता है कि पूँजीपतियों के मुनाफ़े का एकमात्र स्रोत मज़दूरों के श्रम का शोषण है। इस शोषण को समाप्त करने के लिए यह ज़रूरी है कि मज़दूर वर्ग कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व में एकजुट होकर पूँजीपतियों की सत्ता को उखाड़ फेंके और अपनी तानाशाही स्थापित करे। फिर सम्पत्ति के सभी रूपों का समाजीकरण करे।
दूसरी ओर अम्बेडकर का अर्थशास्त्र यूटोपियाई है। यह पब्लिक सेक्टर पूँजीवाद का हिमायती है। यह पूँजीपतियों द्वारा मेहनतकश लोगों के शोषण को जारी रखे जाने की वकालत करता है।
मार्क्सवाद हमें यह शिक्षा देता है कि सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव तभी ख़त्म किया जा सकता है, अगर इनके भौतिक आधार उत्पादन के सम्बन्धों को नष्ट किया जाये। कोई भ्रम पैदा ना हो, इसलिए यह स्पष्ट कर दें कि मार्क्सवाद यह शिक्षा नहीं देता कि उत्पादन सम्बन्ध बदलने से ख़ुद-ब-ख़ुद सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव ख़त्म हो जायेगा। इसके लिए लगातार सांस्कृतिक क्रान्ति ज़रूरी है। उत्पादन के सम्बन्धों को बदलने (क्रान्ति) की प्रक्रिया के दौरान भी तथा उसके बाद भी।
जहाँ तक अम्बेडकर की बात है तो उनके पास सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव ख़त्म करने का कोई कार्यक्रम ही नहीं है। जाति व्यवस्था के उन्मूलन पर उनका कहना है कि यह असम्भव है। बाद में बिना कोई स्पष्टीकरण दिये वह जाति उन्मूलन के लिए धर्म परिवर्तन का आह्वान करते हैं जिससे भारत में जाति व्यवस्था का बाल भी बाँका नहीं हुआ।
अम्बेडकर के पैरोकार पता नहीं क्यों मार्क्सवाद तथा अम्बेडकरवाद की एकता के लिए ज़िद कर रहे हैं। जबकि अम्बेडकर मार्क्सवाद के सख्त विरोधी थे। उतनी नफ़रत तो उन्होंने ब्राह्मणवाद के विरुद्ध नहीं दर्शायी जितनी कि मार्क्सवाद के विरुद्ध दर्शायी है। अम्बेडकर ने ही तो मार्क्सवाद को ‘सुअरों का दर्शन’ कहा था। (बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स, ‘सम्पूर्ण वाड•मय’, खण्ड 7, पृ. 369)
मार्क्सवाद क्रान्तिकारी मज़दूर वर्ग की विचारधारा है, जबकि अम्बेडकरवाद बुर्जुआ उदारवाद की ही एक बानगी है। ये दोनों विचारधाराएँ दो दुश्मन वर्गों के हितों का प्रतिनिधित्व करती हैं। इन दोनों में किसी भी प्रकार की कोई एकता नामुमकिन है।

निचोड़ के तौर पर
अम्बेडकर ने भारतीय समाज के कोढ़ जाति व्यवस्था तथा छूआछूत के विरुद्ध अथक संघर्ष किया। इन संघर्षों की बदौलत पीढ़ी-दर-पीढ़ी जातीय दमन-उत्पीड़न झेलती आ रही जनता में अपने अधिकारों के प्रति नयी जागृति भी आयी। लेकिन अम्बेडकर के नेतृत्व वाली समाज-सुधार की यह धारा अपने सब अच्छे उद्देश्यों के बावजूद दलित मुक्ति की किसी समग्र परियोजना से वंचित थी। अम्बेडकर के कुल दार्शनिक, राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक चिन्तन में से दलित मुक्ति की कोई राह निकलती नज़र नहीं आती।
इस पेपर का अन्त भगतसिंह के इन शब्दों से करना चाहेंगे, “हम तो साफ़ कहते हैं कि उठो, अछूत कहलाने वाले असली जनसेवको तथा भाइयो, उठो!…
“संगठनबद्ध हो अपने पैरों पर खड़े होकर पूरे समाज को चुनौती दे दो। तब देखना, कोई भी तुम्हें तुम्हारे अधिकार देने से इनकार करने की ज़ुर्रत न कर सकेगा। तुम दूसरों की ख़ुराक मत बनो। दूसरों के मुँह की ओर न ताको। लेकिन ध्यान रहे, नौकरशाही के झाँसे में मत फँसना। यह तुम्हारी कोई सहायता नहीं करना चाहती, बल्कि तुम्हें अपना मोहरा बनाना चाहती है। यही पूँजीवादी नौकरशाही तुम्हारी गुलामी और ग़रीबी का असली कारण है। इसलिए तुम उसके साथ कभी न मिलना। उसकी चालों से बचना। तब सबकुछ ठीक हो जायेगा। तुम असली सर्वहारा हो… संगठनबद्ध हो जाओ। तुम्हारी कुछ हानि न होगी। बस गुलामी की ज़ंजीरें कट जायेंगी। उठो, और वर्तमान व्यवस्था के विरुद्ध बग़ावत खड़ी कर दो। धीरे-धीरे होने वाले सुधारों से कुछ नहीं बन सकेगा। सामाजिक आन्दोलन से क्रान्ति पैदा कर दो तथा राजनीतिक और आर्थिक क्रान्ति के लिए कमर कस लो। तुम ही तो देश का मुख्य आधार हो, वास्तविक शक्ति हो, सोये हुए शेरो! उठो, और बग़ावत खड़ी कर दो।” (भगतसिंह, ‘अछूत समस्या’)

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