आमंत्रण : पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

     

पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी

विषय: समाजवादी संक्रमण की समस्‍याएँ

10-14 मार्च, 2014, इलाहाबाद

 

साथियो!

हमारे प्रिय दिवंगत साथी अरविन्द की स्मृति में अरविन्द स्मृति न्यासकी ओर से हम 2009 से अब तक चार अरविन्द स्मृति संगोष्ठियों का आयोजन कर चुके हैं। दिल्ली व गोरखपुर में आयोजित पहली दो संगोष्ठियों का विषय मज़दूर आन्दोलन की चुनौतियों और भूमण्डलीकरण के दौर में उसके नये रूपों और रणनीतियों पर केन्द्रित था। लखनऊ में हुई तीसरी संगोष्ठी जनवादी व नागरिक अधिकार आन्दोलन की चुनौतियों पर केन्द्रित थी। वर्ष 2013 में चण्डीगढ़ में हुई चौथी संगोष्ठी में जाति प्रश्न और मार्क्‍सवादविषय पर पाँच दिनों तक गहन चर्चा हुई। हर बार हम भारत के क्रान्तिकारी आन्दोलन के किसी जीवन्त प्रश्न पर बहस-मुबाहसा और चर्चा आयोजित करते रहे हैं, जिसके प्रति साथी अरविन्द जीवनपर्यन्त प्रतिबद्ध रहे । चारों संगोष्ठियों में देशभर से क्रान्तिकारी मज़दूर, छात्र, युवा, स्‍त्री व जाति-विरोधी आन्दोलनों में सक्रिय राजनीतिक कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों व प्रबुद्ध नागरिकों की ओर से बड़े पैमाने पर भागीदारी हुई और हर बार रचनात्मक बहस-मुबाहसे के लिए संगोष्ठी के दिन कम पड़ गये।

पाँचवी अरविन्द स्मृति गोष्ठी का आयोजन उत्तर प्रदेश के प्रमुख बौद्धिक केन्द्रों में से एक इलाहाबाद में किया जा रहा है। इस बार भी हमारा प्रयास यह है कि आज के क्रान्तिकारी आन्दोलन के एक अत्यन्त जीवन्त प्रश्न पर पाँच दिनों तक, सुबह से रात तक की गहन चर्चा, चिन्तन-मनन और बहस का आयोजन किया जाय। इसी के मद्देनज़र इस बार हमने समाजवादी संक्रमण की समस्याएँविषय पर संगोष्ठी आयोजित करने का निर्णय लिया है। इसके सुनिश्चित कारण हैं।

1990 में सोवियत संघ में नकली समाजवाद के पतन के बाद से पूरी दुनिया में समाजवाद और मार्क्‍सवाद की पराजय की घोषणा कर दी गयी थी। मज़दूर आन्दोलन में निराशा और पराजयबोध का माहौल व्याप्त था और पूँजीवादी विजयवाद अपने चरम पर था। उस समय यह बात कहीं नेपथ्य में धकेल दी गयी थी कि चीन द्वारा पूँजीवादी रास्ता अख़्तियार करने और सोवियत संघ के विघटन के साथ नकली समाजवाद के पतन के बाद पूँजीवादी दुनिया की सेहत भी ख़राब ही चल रही थी। 1970 के दशक से ही जिस मन्द मन्दी ने पूँजीवादी विश्व को अपनी जकड़बन्दी में ले रखा था वह बीच-बीच में गम्भीर संकटों के रूप में पफूट पड़ रही थी। 1990 के दशक के अन्त में पूँजीवादी विश्व एक बार फिर से संकट के भँवर में फँसा और तब से जो गम्भीर संकट शुरू हुआ वह तमाम उतार-चढ़ावों के साथ आज तक जारी है। 1997 आते-आते पूँजीवादी विजयवाद और इतिहास, विचारधारा आदि के अन्त के शोरगुल की भी हवा निकल चुकी थी। सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के कारणों को लेकर 1960 और 1970 के दशक में दुनिया भर के कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच में और साथ ही वाम बौद्धिक दायरों में कई महत्वपूर्ण बहसें चलीं। 1980 के दशक में ऐसी बहसों का सिलसिला थोड़ा कमज़ोर हुआ। इसका स्पष्ट कारण था चीन में पूँजीवादी पुनर्स्‍थापना के साथ दुनिया भर में प्रतिक्रान्ति की लहर का निर्णायक रूप से क्रान्ति की लहर पर हावी होना। माओ की मृत्यु से पहले और विशेष तौर पर महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति के दौर में सोवियत संघ में पूँजीवादी पुनस्र्थापना और साथ ही चीन की पार्टी में पूँजीवादी पथगामियों की आलोचनाओं की एक समृद्ध प्रक्रिया चली थी। 1990 आते-आते बर्लिन दीवार के गिरने और सामाजिक साम्राज्यवादी सोवियत संघ के विघटन के साथ समाजवाद और मार्क्‍सवाद की अन्तिम पराजय और पूँजीवाद की अन्तिम विजय की घोषणा कर दी गयी। निश्चित रूप से, लगभग एक दशक तक अन्तके इस पूँजीवादी उन्माद का एक हद तक कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूहों और व्यक्तियों पर भी प्रभाव रहा और उस दौर में विचारधारात्मक और राजनीतिक संशयवाद की लहर में कई संजीदा लोग भी कुछ समय तक बह चले थे। उत्तरआधुनिकतावादी विचार-सरणियाँ इस पूरे दशक में पूँजीवादी बौद्धिक जगत और विशेष तौर पर अकादमिक जगत की आधिकारिक विचारधारा के रूप में प्रतिष्ठित थीं। समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर बात करना उस समय आपको विचारधारात्मक पुरातात्विक युग की सामग्री करार देने के लिए काफ़ी था! लेकिन यह स्थिति मुश्किल से 1990 के दशक के अन्त तक जारी रही।

नयी सहस्राब्दी में पूँजीवाद ने भयंकर रूप से रुग्ण अवस्था में प्रवेश किया। जिसे 2000 के दशक की मन्दी क़रार दिया गया, उसने 2007 आते-आते विकराल रूप धारण कर लिया और यह 1930 के दशक के बाद पूँजीवादी विश्व की गम्भीरतम मन्दी बन चुकी है और इस मायने में यह उससे भी गम्भीर है कि अब पूँजीवाद किसी बूमका दौर नहीं देखने वाला है। इस मन्दी के साथ ही मज़दूर आन्दोलनों का सन्नाटा पूरे विश्व में टूटने लगा। अरब से लेकर अमेरिका तक जनान्दोलनों की बाढ़ आयी। यह एक दीगर बात है कि किसी क्रान्तिकारी नेतृत्व के अभाव में ये आन्दोलन पूँजीवाद-विरोध तक ही सीमित रहे और कोई सकारात्मक विकल्प नहीं दे सके। लेकिन इतना तय है कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में जनता पूँजीवादी व्यवस्था से तंग आ चुकी है और बेचैनी के साथ विकल्प की तलाश कर रही है। इन जनान्दोलनों के साथ ही दुनिया भर के बौद्धिक-अकादमिक दायरों में भी मार्क्‍सवाद की ज़बर्दस्त वापसी हुई है (हालाँकि इस वापसीपर किसी भी मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी के कई प्रश्न हो सकते हैं, लेकिन फिर भी इसका एक प्रतीकात्मक महत्व है)। कई लोग जो संशयवादी हो कम्युनिज़्म का शिविर छोड़ गये थे, वे वापस मार्क्‍सवाद की ओर आ रहे हैं (निश्चित रूप से, इस वापसी पर भी कई सवाल हो सकते हैं!)। संजीदा मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संशयवाद के चरम दौर में भी अपने वैज्ञानिक विश्वास पर अडिग थे और आज इतिहास उन्हें सही साबित कर रहा है।

अब जब कि कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी दायरों से लेकर आम जनान्दोलनों तक में समूची पूँजीवादी व्यवस्था के विकल्प का सवाल अभूतपूर्व से रूप से महत्वपूर्ण हो गया है, तो यह एक उपयुक्त समय है कि 20वीं सदी के महान समाजवादी प्रयोगों की सफलताओं और असफलताओं का नये सिरे से आलोचनात्मक मूल्यांकन किया जाये। पूरी दुनिया में समाजवादी संक्रमण पर आजकल काफ़ी कुछ लिखा भी जा रहा है। सोवियत संघ और समाजवादी चीन में समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर भी तमाम बहसें चल रही हैं। क्रान्तिकारी कम्युनिस्ट आन्दोलन के भीतर और साथ ही अकादमिकों के बीच भी यह नये सिरे से चर्चा का विषय बन गया है। 21वीं सदी में समाजवादी परियोजना के बारे में पिछले पाँच-छह वर्षों में ही दर्जनों किताबें आयी हैं। सोवियत संघ में समाजवादी प्रयोगों की समस्याओं पर ही इस दौर में कई शोध कार्य और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई लोगों ने यहाँ तक प्रश्न खड़ा किया है कि सोवियत संघ और चीन में जो था उसे समाजवाद कहा भी जा सकता है या नहीं; कुछ ने इन प्रयोगों का विश्लेषण करते हुए सर्वहारा अधिनायकत्व की अवधारणा पर ही प्रश्न खड़ा कर दिया है; कई लोग ऐसे भी हैं जिन्होंने लेनिन पर प्रतिस्थापनवाद (सब्स्टिट्यूशनिज़्म) का और पार्टी का अधिनायकत्व स्थापित करने का आरोप लगाया है तो कुछ अन्य ऐसे हैं जिन्होंने माओ पर सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान पार्टी के प्राधिकार को खण्डित करने का आरोप लगाया है; एक तबका ऐसा भी है जो सोवियत समाजवाद और चीनी समाजवाद के प्रति अनालोचनात्मक रवैया अख़्तियार करता है और किसी भी प्रकार के विश्लेषण की ज़रूरत को ही ख़ारिज करता है; कई नये अभिलेखागारों के खुलने के बाद स्तालिन के दौर के भी पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता पैदा हो गयी है और कई कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी संगठन और बुद्धिजीवी स्तालिन प्रश्न पर भी नये सिरे से चिन्तन कर रहे हैं; कुछ अन्य ऐसे भी हैं जो लातिन अमेरिका के तथाकथित बोलिवारियन विकल्पऔर यूनान में सिरिज़ा के प्रयोग को 21वीं सदी का समाजवाद घोषित कर रहे हैं; कुछ उत्तर-मार्क्‍सवादी चिन्तक हैं जो उत्तर-मार्क्‍सवादी कम्युनिज़्म की बात कर रहे हैं और 20वीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को एक विपदाबताकर सिरे से ख़ारिज कर रहे हैं; निश्चित रूप से, वे विचारधारात्मक विभ्रम फैला रहे हैं और इन उत्तर-मार्क्‍सवादी विचार-सरणियों की एक सुसंगत आलोचना की ज़रूरत है; महान सर्वहारा सांस्कृतिक क्रान्ति पर भी नये सिरे से चिन्तन की ज़रूरत है जिसने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं के हल की दिशा में महत्वपूर्ण कदम बढ़ाये थे। ऐसे और भी कई मुद्दे हैं जो समाजवादी संक्रमण पर नये सिरे से जारी चर्चा में अहम बन गये हैं। लेकिन एक सामान्य थीम जो इन सभी बहसों के प्रतिच्छेद बिन्दु (इण्टरसेक्शन पॉइंट) के रूप में सामने आ रही है वह है समाजवादी संक्रमण के दौरान हिरावल पार्टी, वर्ग और राज्यसत्ता के बीच के सम्बन्ध का प्रश्न। इन तमाम बहसों में से कुछ कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों के बीच चल रही हैं, तो कुछ मार्क्‍सवादी अकादमिकों व बौद्धिकों के बीच। लेकिन इससे इन सभी बहसों के महत्व पर कोई असर नहीं पड़ता। ये सभी बहसें टुकड़ों-टुकड़ों में उन अहम सवालों को उठा रही हैं जिन पर आज प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट क्रान्तिकारियों को सोचना ही होगा।

नये सिरे से समाजवादी संक्रमण पर जारी बहस ने एक विचारधारात्मक अनिश्चयता की स्थिति को जन्म दिया है जो वास्तव में कोई नकारात्मक परिवर्तन नहीं है। उल्टे ऐतिहासिक तौर पर यह एक सकारात्मक परिवर्तन है। निश्चित रूप से 1960 और 1970 के दशकों में समाजवादी संक्रमण पर चली बहसों में शिरकत करने वाले लोग भी यह दावा नहीं कर सकते हैं कि उस समय की बहसों ने समाजवादी संक्रमण की समस्याओं का सुनिश्चित समाधान पेश कर दिया था, या ये बहसें इस विषय पर अन्तिम शब्द मानी जा सकती हैं। निश्चित रूप से बहुत से सवालों पर चिन्तन की आज पहले से भी ज़्यादा ज़रूरत है। 21वीं सदी के समाजवादी प्रयोगों को अमल में लाने वाली हिरावल ताक़तों को किन प्रश्नों पर साफ़-दिमाग़ होने की ज़रूरत है यह अभी एक लम्बी और संजीदा बहस और चर्चा के बाद ही तय हो पायेगा। यह मुख्य रूप से सक्रिय व प्रतिबद्ध मार्क्‍सवादी-लेनिनवादी कम्युनिस्ट क्रान्तिकारी समूहों और व्यक्तियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि इस बहस को स्वस्थ तरीके से आगे बढ़ायें और इस बहस के ज़रिये समाजवादी संक्रमण की समस्याओं पर सही नतीजों तक पहुँच सकें।

निश्चित रूप से हम यह दावा नहीं करते हैं कि पाँच दिन की संगोष्ठी में हम इन सभी प्रश्नों के निर्णायक समाधान तक पहुँच जायेंगे। लेकिन इन पाँच दिनों में हम सभी मिलकर इन प्रश्नों पर गहन चिन्तन-मनन, चर्चा और बहस कर मूल मुद्दों को सही रूप से रेखांकित कर सकते हैं, अपनी अवस्थितियों का आदान-प्रदान कर सकते हैं और उन पर एक प्राथमिक दौर की बहस चला सकते हैं, और तमाम प्रश्नों पर एक-दूसरे की अन्तर्दृष्टियों से सीख सकते हैं। अगर हम पाँच दिनों में इतना भी कर सके तो हम मानेंगे कि हम अपने उद्देश्य में कमोबेश सफल रहे। लेकिन इसके लिए हमें सभी जनपक्षधर क्रान्तिकारी राजनीतिक कार्यकर्ताओं, राजनीतिक ग्रुपों व संगठनों, बुद्धिजीवियों, छात्रों-युवाओं और राजनीतिक रूप से प्रबुद्ध नागरिकों की सक्रिय भागीदारी, सहयोग और समर्थन की दरकार है। हम ऐसे सभी साथियों को पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में सक्रिय, जीवन्त और कामरेडाना भागीदारी के लिए, तीखे बहस-मुबाहसे और औपचारिक मंचीय चर्चाओं के साथ ही बेहद ज़रूरी अनौपचारिक चर्चाओं के लिए हार्दिक आमन्त्रण देते हैं। हम उम्मीद करते हैं कि आप ज़रूर आयेंगे और इस बेहद ज़रूरी विषय पर जीवन्त बहस व चर्चा में भागीदारी करेंगे।

हम यह आमन्त्रण काफ़ी पहले भेज रहे हैं ताकि आपको अपना आलेख/पेपर तैयार करने और बहस के लिए तैयारी का भरपूर समय मिल सके। आपके आने और पेपर तैयार करने की सूचना यदि हमें फरवरी के प्रथम सप्ताह तक मिल जाये तो बेहतर होगा। यदि आप संगोष्ठी में पेपर प्रस्तुत करना चाहते हैं तो हम चाहेंगे कि आप हमें इसकी एक संक्षिप्त योजना 31 दिसम्बर तक भेज दें और पूरा पेपर फरवरी के प्रथम सप्ताह तक हमें मिल जाये। इससे हमें सत्रों की योजना बनाने और आलेखों की प्रतिलिपियाँ समय से तैयार करने में आसानी होगी।

हम आपसे इस संगोष्ठी में भागीदारी का हार्दिक आग्रह करते हैं। हम सभी साथियों के ठहरने और खाने-पीने का अधिकतम सम्भव सुविधाजनक इन्तज़ाम कर रहे हैं ताकि बहस में किसी भी किस्म का व्यवस्थागत व्यवधान न आने पाये। सभी साथियों से अनुरोध है कि अपने आने की सूचना और उससे सम्बन्धित सभी विवरण जितना जल्दी हो सके, हमें दे दें, ताकि हमें सन्तोषजनक व्यवस्था करने में मदद मिले। संगोष्ठी के सम्बन्ध में कोई भी जानकारी लेने-देने के लिए आप नीचे दिये गये किसी भी मोबाइल या लैण्डलाइन नम्बर पर या ईमेल पते पर सम्पर्क कर सकते हैं। हम आपको आत्मीयतापूर्ण आतिथ्य का भरोसा देते हैं और आश्वस्त करते हैं कि आपको किसी प्रकार की असुविधा नहीं होगी।

हम आपके उत्तर की प्रतीक्षा कर रहे हैं।

                                                हार्दिक अभिवादन सहित,

मीनाक्षी (प्रबन्ध न्यासी)

आनन्द सिंह (सचिव)

कात्यायनी, सत्यम (सदस्य)

अरविन्द स्मृति न्यास

 

 

 

कार्यक्रम

10 – 14 मार्च, 2014

प्रथम सत्र: प्रातः 10 बजे से अपराह्न 1 बजे तक

द्वितीय सत्र: अपराह्न 3 बजे से रात्रि 8 बजे तक

भोजनावकाश: अपराह्न 1 बजे से 3 बजे तक

द्वितीय सत्र में चाय का अन्तराल: शाम 6 बजे

आयोजन स्थल:

विज्ञान परिषद, प्रयाग सभागार; महर्षि दयानन्द मार्ग (चन्‍द्रशेखर आज़ाद पार्क के सामने), इलाहाबाद-211002

अतिथि आवास

पंजाबी भवन, 48/60, महात्मा गाँधी मार्ग (के.पी. कॉलेज के सामने), इलाहाबाद-211002

 

आप आयोजन समिति के निम्नलिखित किसी भी सदस्य से, या न्यास के लखनऊ कार्यालय से सम्पर्क कर सकते हैं:

मीनाक्षी – फ़ोनः 9415462164, ईमेलः meenakshy@arvindtrust.org

आनन्द सिंह – फ़ोनः 9971196111, ईमेलः anand.banaras@gmail.com

कात्यायनी – फ़ोनः 9936650658, ईमेलः katyayani.lko@gmail.com

सत्यम – फ़ोनः 8853093555, ईमेलः satyamvarma@gmail.com

लखनऊ कार्यालय का पता:

69 ए-1, बाबा का पुरवा, पेपर मिल रोड, निशातगंज, लखनऊ – 226006

ईमेलः info@arvindtrust.org,  arvindtrust@gmail.com

वेबसाइटः http://arvindtrust.org

‘आमंत्रण : पाँचवी अरविन्द स्मृति संगोष्ठी’ की पीडीएफ फाइल

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

five × 3 =