जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के सामाजिक-सांस्‍कृतिक कार्यभार

     

जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के सामाजिक-सांस्‍कृतिक कार्यभार

तृतीय अरविन्द स्मृति संगोष्ठी में प्रस्‍तुत आलेख

– जयपुष्‍प

राज्‍यसत्ता द्वारा जनवादी अधिकारों के दमन के ख़िलाफ़ संघर्ष करना जनवादी अधिकार आन्‍दोलन का एक अहम और फौरी कार्यभार है। नवउदारवादी आर्थिक नीतियां अपनी स्‍वत:स्‍फूर्त गति से राज्‍य के चरित्र को जैसे-जैसे अधिक से अधिक निरंकुश, दमनकारी और सर्वसत्तावादी बनाती जा रही हैं वैसे-वैसे तमाम काले क़ानूनों के द्वारा जनता की नागरिक स्‍वतन्‍त्रता और जनवादी अधिकारों पर हमले और सघन और आक्रामक होते जा रहे हैं। राजकीय मशीनरी द्वारा जनवादी अधिकारों का दमन और उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना हम सबकी साझी चिन्ता और सरोकार का विषय है। लेकिन यहां मैं भारत के जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के समक्ष उपस्थित समस्‍याओं और चुनौतियों पर विचार-विमर्श करने के लिए एकत्रित सभी जनवादी अधिकार कार्यकर्ताओं, बुद्धिजीवियों और प्रबुद्ध नागरिकों का ध्‍यान एक अन्‍य बुनियादी पहलू की तरफ आकृष्‍ट करना चाहता हूं।

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए जयपुष्‍प

आलेख प्रस्‍तुत करते हुए जयपुष्‍प

वास्‍तव में एक लोकतान्त्रिक समाज में जनवादी अधिकारों का दमन और अतिक्रमण सिर्फ़ राज्‍यसत्ता ही नहीं करती है बल्कि वे प्राक् पूंजीवादी मूल्‍य, मान्‍यताएं और संस्‍थाएं भी करती हैं जिनके आधार अतर्कपरकता, असमानता, अंधविश्‍वासों-पूर्वाग्रहों, और मध्‍ययुगीन प्रथाओं में मौजूद होते हैं। राजनीतिक संरचना के प्रत्‍यक्ष नियन्‍त्रण के बाहर समाज में पहले से मौजूद ये संरचनाएं न सिर्फ़ राज्‍यसत्ता के ग़ैरजनवादी चरित्र का समर्थन-आधार तैयार करती हैं बल्कि स्‍वयं भी नागरिकों के जनवादी अधिकारों का अपहरण करती हैं। जनवादी अधिकारों के व्‍यापक परिप्रेक्ष्‍य में हमें सिर्फ़ राज्‍य और नागरिक के बीच के सम्‍बन्‍धों की ही नहीं बल्कि नागरिकों के आपसी सम्‍बन्‍धों और सामाजिक संस्‍थाओं तथा व्‍यक्ति के सम्‍बन्‍धों की भी पड़ताल करनी होगी। ज़ाहिर है कि किसी भी वर्ग समाज में सभी नागरिकों को एक समान जनवादी अधिकार नहीं हासिल होते। सामाजिक पदसोपानक्रम में अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार प्रत्‍येक व्‍यक्ति के जनवादी अधिकारों का दायरा बढ़ता या घटता जाता है। राज्‍य अगर क़ानून बनाकर सबको एक समान अधिकार प्रदान कर दे तब भी पहले से चली आ रही सामाजिक रू‍ढ़ियां और परम्‍पराएं स्‍वयं एक भौतिक शक्ति बनकर लोगों के अधिकारों का अपहरण करती रहती हैं। सामाजिक मूल्‍य-मान्‍यताएं-संस्‍थाएं स्‍वत:स्फूर्त ढंग से न सिर्फ़ प्रच्‍छन्‍न और प्रत्‍यक्ष तरीक़ों से आम नागरिकों के अधिकारों को सीमित करती हैं बल्कि अनेक अदृश्‍य हाथों से उनकी सामाजिक सक्रियता और भागीदारी को भी नियन्त्रित और निर्देशित करती हैं। व्‍यापक जनसमुदाय के रोज़मर्रे के सामाजिक जीवन में क़ायम अतार्किक अंधविश्‍वासों-पूर्वाग्रहों-जड़ संस्‍कारों-संस्‍थाओं का वर्चस्‍व राज्‍य की निरंकुशता और स्‍वेच्‍छाचारिता को स्‍वीकार करने या उसका विरोध न करने की मानसिकता तैयार करता है। इसी का दूसरा पहलू यह है कि मध्‍ययुगीन जड़ता से ग्रस्‍त सामाजिक संरचनाएं राज्‍यसत्ता के सामाजिक अवलम्‍बों का काम करती हैं, स्‍वत:स्‍फूर्त ढंग से राज्‍य मशीनरी के साथ सहबन्‍ध क़ायम करती हैं और दमनकारी राज्‍य के रोज़मर्रे के व्‍यवहार में निहित ढांचागत हिंसा के लिए कन्‍सेंट मैन्‍यूफैक्‍चर करती हैं। ऐसी स्थिति में जब कभी राज्‍य की निरंकुशता दमनात्‍मक कार्रवाई के रूप में प्रकट होती है तो जनसमुदाय का प्रतिरोध संगठित कर पाने में ज्‍़यादा मुश्किल होती है। राज्‍य सामाजिक जीवन में व्‍याप्‍त निरंकुशता और उत्‍पीड़न का अपने हित में आसानी से उपयोग कर लेता है और ग़ैरजनवादी मूल्‍यों, संस्‍थाओं में जीने के अभ्‍यासी लोग प्रकारान्‍तर से राज्‍य के ग़ैरजनवादी और दमनात्‍मक व्‍यवहार को भी अपेक्षाकृत अधिक आसानी से स्‍वीकार कर लेते हैं। कहने का तात्‍पर्य यह कि सामाजिक परिदृश्‍य में जनवादी चेतना और आधुनिकता बोध की ग़ैरमौजूदगी के कारण आम नागरिक राजनीतिक परिदृश्‍य में भी जनवादी स्‍पेस की कमी का अहसास नहीं कर पाता है और राज्‍य के निरंकुश, स्वेच्‍छाचारी व्‍यवहार का संगठित प्रतिरोध नहीं कर पाता है। वैसे तो यह पूरी दुनिया के पैमाने पर जनवादी स्‍पेस के संकुचित होते जाने का दौर है, लेकिन भारत जैसे उत्तरऔपनिवेशिक-कृषिप्रधान (पोस्‍टकोलोनियल-एग्रेरियन) समाजों की समस्‍या कहीं ज्‍़यादा गहरी और व्‍यापक है। हमारे देश के सामाजिक ताने-बाने में आज भी ऐसी संस्‍थाएं और संस्‍कार मौजूद हैं और मूल्‍यों-मान्‍यताओं की ऐसी संरचनाएं मौजूद हैं जो सामाजिक जीवन के हरेक क्षेत्र में एक बड़ी आबादी को दमन, अन्‍याय, उत्‍पीड़न और अपमान का शिकार बनाती हैं। अपनी सामाजिक हैसियत और पृष्‍ठभूमि के आधार पर रोज़मर्रे के जीवन में भारत के बहुतेरे नागरिकों के लिए स्‍वतन्‍त्रता, समानता और भ्रातृत्‍व के आदर्शों का कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। खाप पंचायतें आये दिन दो वयस्‍क लेागों के एकसाथ जीने के अधिकार की नृशंस और खुलेआम हत्‍या कर देती हैं। घर से लेकर कार्यस्‍थल तक स्त्रियों को एक ही दिन में अनेकश: बार अपमान और भेदभाव का शिकार बनना पड़ता है। साक्षरता बढ़ने के साथ-साथ घरेलू हिंसा, दहेज-उत्‍पीड़न, कन्‍या भ्रूण हत्‍याएं और हाल-फिलहाल उजागर हुई लिंग परिवर्तन की घटनाओं में भी बढ़ोत्तरी हुई है। जातिगत उत्‍पीड़न और भेदभाव संविधान और क़ानून द्वारा निषिद्ध होने के बावजूद आम जनजीवन में सर्वव्‍याप्‍त हैं। हो सकता है कि एकबारगी हममें से बहुत से लोगों को ऐसा लगे कि जनवादी अधिकार आन्‍दोलन का इन समस्‍याओं से क्‍या वास्‍ता है। लेकिन हमें बहुत गहराई में जाकर यह अहसास करना होगा कि इस प्रकार की असमानता और उस पर आधारित संस्‍कार और संस्‍थाएं पार्थक्‍य की ऐसी दीवारें खड़ी करती हैं जो जनवादी अधिकार आन्‍दोलन को एक व्‍यापक जनाधार वाला आन्‍दोलन नहीं बनने देतीं। ऐसे में भारत के जनवादी अधिकार आन्‍दोलनों से सरोकार रखने वाले हम सभी लोगों के लिए ज़रूरी है कि हम जनवादी अधिकारों के परिप्रेक्ष्‍य में भारतीय समाज में ग़ैरजनवादी प्रवृत्तियों, संस्‍थाओं की भूमिका की तथा उनकी मौजूदगी के कारणों की सही समझदारी विकसित करें और इस चुनौती से निपटने की दीर्घकालिक रणनीति पर विचार-विमर्श करें। इससे पहले कि हम आगे बढ़ें, हमें एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य लेकर भारतीय समाज में ग़ैरजनवादी मूल्‍यों और मध्‍ययुगीन संस्‍थाओं-संस्‍कारों की अब तक मौजूदगी के कारणों की पड़ताल करनी होगी। पश्चिम के समाजों से तुलना करने पर हम पाते हैं कि भारत में पुनर्जागरण-प्रबोधन की एक मुकम्‍मल ऐतिहासिक प्रक्रिया का नितांत अभाव रहा है। समय-समय पर ऐसे आन्‍दोलन या विरोध के स्‍वर ज़रूर उभरे जिनके उत्तरवर्ती संस्‍करण यदि विकसित हुए होते तो भारतीय समाज में तर्कणा और आधुनिकता-बोध का संचार कर सकते थे। निर्गुण भक्ति आन्‍दोलन में जातिगत भेदभाव के विरुद्ध अलग-अलग रूपों में आवाज़ें उठती दिखाई पड़ती हैं। आज हम यह नहीं कह सकते कि अगर भारत का उपनिवेशीकरण नहीं हुआ होता तो निर्गुण भक्ति आन्‍दोलन का उत्तराधिकारी आन्‍दोलन किस रूप में विकसित हुआ होता, लेकिन इसकी बहुत अधिक सम्‍भावना थी कि अपनी स्‍वत:स्‍फूर्त आन्‍तरिक गति से उपजा यह समाज सुधार आन्‍दोलन एकदम पश्चिम की तरह नहीं तो अन्‍य किन्‍हीं मौलिक रूपों और रास्‍तों से मध्‍ययुगीन गतिरोध को तोड़कर तर्कणा, आधुनिकता-बोध और जनवादी मूल्‍यों का संचार कर सकता था। वैसे तो यह सभी उत्तरऔपनिवेशिक (पोस्‍टकोलोनियल), कृषिप्रधान (एग्रेरियन) समाजों पर लागू होता है, लेकिन भारतीय समाज की यह सामाजिक-सांस्‍कृतिक वंचना ज्‍़यादा गहरी और व्‍यापक है। 200 साल की औपनिवेशिक ग़ुलामी और आर्थिक लूट ने भारतीय समाज के स्‍वस्‍थ आन्‍तरिक विकास को और इसके परिणामस्‍वरूप सामाजिक चेतना के विकास को भी बाधित किया है। आज़ादी के बाद ऊपर से, क्रमिक ढंग से पूंजीवाद का विकास तो हुआ लेकिन सामाजिक ताने-बाने में मध्‍ययुगीन-सामन्‍ती मूल्‍य-मान्‍यताएं बनी रहीं। स्‍वयं भारत के संविधान का निर्माण ही जनवादी तरीक़े से नहीं हुआ था जिसकी परिणति इसी रूप में सामने आनी थी कि कुल मिलाकर यह संविधान 1935 के गवर्नमेण्ट ऑफ़ इण्डिया एक्‍ट का ही एक संशोधित-परिवर्धित संस्‍करण था। लगभग 80 प्रतिशत क़ानून अंग्रेज़ी हुक़ूमत द्वारा भारत की ग़ुलाम जनता के लिए बनाये गये क़ानून थे। आज भी लोगों के नागरिक और जनवादी अधिकारों पर हमला करने के लिए भारत का शासक वर्ग औपनि‍वेशिक काल के राजद्रोह के क़ानून और भूमि अधिग्रहण क़ानूनों का इस्‍तेमाल करता है। सीआरपीसी, आईपीसी, जेल मैनुअल, पुलिस मैनुअल — इन सबकी जड़ें आज भी औपनिवेशिक काल के क़ानूनों में हैं। कहना न होगा कि औपनिवेशिक राजनीतिक-बौधिक संरचना की विरासत से रैडिकल विच्‍छेद करने के बजाय आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ होने वाले देसी शासकों ने उसे अपने हितों के अनुकूल ही पाया है। निरन्‍तरता का यह पहलू सिर्फ़ राजनीति और शासन-प्रशासन के दायरे तक ही सीमित नहीं रहा है बल्कि समग्रता में आज़ादी के बाद भी पूरे देश के सामाजिक जीवन में औपनिवेशिक और मध्‍ययुगीन मूल्‍यों की निरन्‍तरता काफ़ी हद तक विद्यमान रही है। भारत के पूर्ण औपनिवेशीकरण के बाद राष्‍ट्रीय स्‍वतन्‍त्रता आन्‍दोलन के दौर में सामाजिक सुधारों के प्रयास दिखाई पड़ते हैं और धार्मिक अन्‍धविश्‍वासों, जातिगत भेदभाव और स्त्रियों की दुरवस्‍था के ख़िलाफ़ कुछ जुझारू सामाजिक आन्‍दोलन संगठित हुए। लेकिन एक तो यह धारा बहुत मन्‍द थी, दूसरे राष्‍ट्रीय मुक्ति आन्‍दोलन के दौरान औपनिवेशिक सत्ता के विरुद्ध जनता को प्रेरित करने के लिए अक्‍सर अतीत का आह्वान किया गया, आधुनिकता और जुझारू भौतिकवादी विश्‍वदृष्टि विकसित करने के बजाय धार्मिक प्रतीकों का सहारा लिया गया और धार्मिक मूल्‍यों का आदर्शीकरण किया गया। आज़ादी मिलने के पहले और बाद में आमूलगामी परिवर्तन की बात करने वाली राजनीतिक धाराएं परिदृश्‍य पर मौजूद रही हैं लेकिन उन्‍होंने भी एक जुझारू सामाजिक-सांस्‍कृतिक सुधार आन्‍दोलन के महत्‍व पर उचित ज़ोर नहीं दिया और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि वे ऐसा आन्‍दोलन संगठित करने में विफल रहे। उपरोक्‍त स्थितियों के परिणामस्‍वरूप राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के दौरान और उसके बाद भारतीय समाज में जनवादी मूल्‍यों, भौतिकतवादी चेतना और तर्कणा की ज़मीन कमज़ोर रही। 1947 के बाद भारत में एक क्रमिक मंथर गति से जो पूंजीवादी विकास हुआ, उसने तमाम प्राक् पूंजीवादी, मध्‍ययुगीन, निरंकुश स्‍वेच्‍छाचारी सामाजिक संस्‍थाओं और मूल्‍यों को तोड़ने-मिटाने के बजाय किंचित् संशोधित करके अपना लिया। जाति और जेण्‍डर आधारित पार्थक्‍य और उत्‍पीड़न, अतार्किकता और मध्‍ययुगीन निरंकुशता के पुराने रूपों के अतिरिक्‍त नये रूप भी अस्तित्‍व में आये। राष्‍ट्रीय आन्‍दोलन के दौर में रैडिकल जनवादी चेतना और रैडिकल सामाजिक सुधारों की जो एक क्षीण धारा मौजूद थी, वह भी आज़ादी के बाद विघटित-विसर्जित होती चली गयी। पूंजीवादी विकास की स्‍वतन्‍त्र गतिकी ने सामाजिक जीवन में एक ओर कुछ हद तक आधुनिकता बोध पैदा किया है लेकिन उसने पुरानी सामाजिक संस्‍थाओं, ख़ासतौर पर जाति और जेण्‍डर आधारित उत्‍पीड़न के मध्‍ययुगीन क्‍लासिकी भारतीय रूपों को ज्‍़यादा आघात नहीं पहुंचाया है। भारत की सामाजिक संरचना के पोर-पोर में निरंकुश, अर्द्धफ़ासिस्‍ट प्रवृत्तियां आज भी मौजूद हैं। बुर्जुआ राजनीति की पतनशीलता ने एक ओर जातिगत, धार्मिक, भाषाई संकीर्णता आदि के विघटनकारी प्रेतों को नित नये रूपों में जन्‍म दिया है वहीं दूसरी ओर उपभोक्‍तावादी संस्‍कृति के हमले ने लोगों के बीच कूपमण्‍डूकता और अतर्कपरकता का प्रचार-प्रसार किया है। जहां आम समाज के लोग नितांत ग़ैरजनवादी, अतर्कपरक सामाजिक मूल्‍यों के मातहत अपने रोज़मर्रे का जीवन जीते हैं वहां न केवल दमनकारी राज्‍य मशीनरी का सामाजिक आधार मज़बूत होता है बल्कि धार्मिक कट्टरपन्‍थ के रूप में फ़ासिस्‍ट प्रवृत्तियों को भी पनपने का आधार मिलता है। धार्मिक कट्टरपन्‍थी फ़ासीवाद वित्तीय पूंजी की सर्वाधिक प्रतिक्रियावादी राजनीतिक धारा का प्रतिनिधित्‍व करता है और पिछड़े समाजों में मौजूद ग़ैरजनवादी संस्‍थाएं और मध्‍ययुगीन मूल्‍य-मान्‍यताएं उसके सामाजिक आधार का काम करती हैं। ज़ाहिर है कि आज जनवादी अधिकार आन्‍दोलन को सामाजिक अन्तर्वस्‍तु और सामाजिक संरचना का गहन विश्‍लेषण करना होगा। भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक, कृषिप्रधान समाजों में जनवादी अधिकार आन्‍दोलन का एक पहलू रैडिकल समाज सुधार आन्‍दोलन का भी होगा। यह अतीत का एक छूटा हुआ कार्यभार है जिसे अब जनवादी अधिकार आन्‍दोलन के दायरे में ही पूरा करना होगा। अगर राज्‍यसत्ता की निरंकुशता, स्‍वेच्‍छाचारिता के ख़िलाफ़ संघर्ष करना है तो उसे सामाजिक-सांस्‍कृतिक निरंकुशता और स्‍वेच्‍छाचारिता के ख़िलाफ़ भी संघर्ष का एक मोर्चा खोलना पड़ेगा। ग़ैरजनवादी सामाजिक संस्‍थाएं राज्‍यसत्ता की निरंकुशता का सामाजिक अवलम्ब बनती हैं और ख़ुद भी जनता के जनवादी अधिकारों का अपहरण करती हैं। निरंकुश सामाजिक मूल्‍यों संस्‍थाओं की जकड़बन्‍दी से मुक्‍त हुए बिना आम लोग राज्‍यसत्ता के दमन का संगठित प्रतिरोध नहीं कर सकते। राज्‍यसत्ता का सामाजिक-सांस्‍कृतिक-वैचारिक वर्चस्‍व स्‍थापित करने वाली सामाजिक संस्‍थाओं-संस्‍कारों के ख़िलाफ़ संघर्ष की एक गहन और लम्‍बी प्रक्रिया चलानी होगी। आज ज़रूरी है कि जनवादी अधिकार आन्‍दोलन को बौधिक दायरे से बाहर आम जनता के बीच ले जाया जाये। इसे सिर्फ़ कुछ घटनाओं या मुद्दों पर याचिका-अभ्‍यावेदन-प्रतिवेदन की कार्रवाइयों तक सीमित न रहकर आम जनता की रोज़मर्रा की ज़िन्‍दगी में क़दम-ब-क़दम होने वाले जनवादी अधिकारों के हनन के ख़िलाफ़ एक व्‍यापक जनाधार वाला आन्‍दोलन होना चाहिए। इसे सिर्फ़ एक राजनीतिक आन्‍दोलन ही नहीं बल्कि एक व्‍यापक सामाजिक-सांस्‍कृतिक आन्‍दोलन भी होना चाहिए। जनवादी अधिकार आन्‍दोलन को काले क़ानूनों के विरोध और राज्‍यसत्ता की दमनात्‍मक कार्रवाइयों के विरुद्ध आवाज़ उठाने जैसे बेहद ज़रूरी कामों के अलावा लोगों को जागरूक और शिक्षित करने की एक दीर्घकालिक योजना और रणनीति बनानी होगी। उसे तृणमूल स्‍तर पर जाकर लोगों के वैचारिक-सांस्‍कृतिक उन्‍नयन का काम करना होगा और ग़ैरजनवादी सामाजिक संस्‍थाओं और सामाजिक उत्‍पीड़न के विविध रूपों के ख़िलाफ़ भी बुनियादी स्‍तर पर साहस के साथ जनता को संगठित करना होगा। यह दीर्घकालिक और बहुविध प्रचारात्‍मक-आन्‍दोलनात्‍मक राजनीतिक-सांस्‍कृतिक-सामाजिक कार्य की मांग करता है। सामाजिक जीवन में व्‍याप्त ग़ैरजनवादी प्रवृत्तियों के ख़िलाफ़ एक व्‍यापक जनाधार वाला आन्‍दोलन खड़ा किये बग़ैर राज्‍यसत्ता के ख़िलाफ़ जनता के जनवादी अधिकारों की लड़ाई को उसकी तार्किक परिणति तक नहीं पहुंचाया जा सकता।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

nine + 4 =