जाति व्यवस्था-सम्बन्धी इतिहास-लेखनः कुछ आलोचनात्मक प्रेक्षण
ऋग्वैदिक काल (जिसे आरम्भिक वैदिक काल भी कहा जाता है) के अन्तिम दौर में वर्ण व्यवस्था के भ्रूण रूप में विकसित होने और उत्तर-वैदिक काल में इसके सुदृढ़ीकरण के बारे में इतिहासकारों में काफ़ी विवाद है। वर्ण व्यवस्था के उदय के पीछे मूल कारक क्या थे और आगे जातियों के जन्म में किन कारकों की प्रमुख भूमिका थी, इन्हें लेकर भी इतिहासकारों में कई मत प्रचलित हैं। हम इन प्रमुख मतों को यहाँ संक्षेप में रखेंगे, और इनके बारे में अपनी राय को पेश करेंगे। वर्ण और जाति के बीच के फर्क पर भी हम आगे चर्चा करेंगे। लेकिन इतिहास-लेखन का विश्लेषण भी ऐतिहासिक तौर पर होना चाहिए, क्योंकि इतिहास-लेखन का इतिहास भी इतिहास के बारे में उपयुक्त विचारों, व्याख्याओं और प्रस्थापनाओं को समझने के लिए अनिवार्य है। इसलिए हम औपनिवेशिक दौर से शुरुआत करेंगे। उससे पहले के दौर में देशी और विदेशी प्रेक्षकों ने वर्ण/जाति व्यवस्था के बारे में जो विचार रखे थे, उनके बारे में चर्चा कर पाना इस आलेख के दायरे से बाहर है। और हमारे विश्लेषण के लिए फिलहाल यह ज़रूरी भी नहीं है, क्योंकि भारतीय समाज में सामाजिक विभेदन की प्रक्रिया के व्यवस्थित अध्ययन मौटे तौर पर औपनिवेशिक दौर में ही शुरू हुए। आगे हम औपनिवेशिक काल में हुए जाति व्यवस्था के प्रमुख अध्ययनों और उनकी व्याख्याओं का एक संक्षिप्त ब्यौरा देंगे।